हिंदू मानसिकता वाले लोग प्रायः तथागत गौतम बुद्ध को असफल गृहस्थ के रूप में घोषित करते हैं । यहाँ तक कि कुछ हिंदू लेखिकाएँ बुद्ध जैसा पति न मिलने की कामना करती हैं । ऐसा कहने वाले निश्चय ही बुद्ध की सच्ची जीवनकथा से अनभिज्ञ हैं । वे लोग हिंदू-परंपरा से जुड़ी हुई उस घिसी-पिटी कहानी को रटेे हुए हैं, जिस कहानी में यह बताया गया है कि सिद्धार्थ एक रोगी, एक बूढ़े और एक साधु को देखकर गृहत्याग किए थे और गृहत्याग करते समय वे चोरी से रात के समय अकेले निकले थे; जबकि वह कहानी सर्वथा गलत है ।
डॉ० भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखित ग्रंथ 'बुद्ध और उनका धम्म' के अनुसार, किशोरावस्था की आयु में अपने प्रिय पुत्र सिद्धार्थ गौतम को एकाकी और उदासीन रहते देखकर राजा शुद्धोधन को अत्यधिक चिंता होने लगी; क्योंकि जब सिद्धार्थ गौतम के जन्म के समय असित ऋषि अपने भांजे नानक (नरदत्त) के साथ राजा शुद्धोधन के राजमहल में पहुंचे थे, तो उन्होंने बालक को बत्तीस महापुरुष-लक्षणों तथा अस्सी अनुव्यंजनों से युक्त देखकर यह भविष्यवाणी किया था - " यदि वह गृहस्थ रहेगा तो वह चक्रवर्ती नरेश होगा, लेकिन यदि वह गृहत्याग कर प्रव्रजित हो जाएगा, तो वह सम्यक सम्बुद्ध बनेगा ।" अतः राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ की आयु 16 वर्ष होने पर उनका विवाह करने का निश्चय किया । उसी समय कोलिय वंश के राजा दंडपाणि भी अपनी 16 वर्षीय कन्या यशोधरा के विवाह हेतु स्वयंवर की तैयारी कर रहे थे । इच्छा नहीं होने पर भी अपने पिता के आग्रह पर सिद्धार्थ को उस स्वयंवर में जाना पड़ा । यशोधरा सिद्धार्थ को पसंद कर ली और अपने माता-पिता को भी अपनी इच्छा मानने हेतु विवश कर दी । जिसके परिणामस्वरूप यशोधरा और सिद्धार्थ का विवाह हो गया ।
राजा शुद्धोधन प्रसन्न थे कि पुत्र का विवाह हो गया और वह गृहस्थ बन गया, किंतु साथ ही असित ऋषि की भविष्यवाणी भी परछाई की तरह उनका पीछा कर रही थी । उस भविष्यवाणी को पूरा ना होने देने के लिए उन्होंने सोचा कि सिद्धार्थ गौतम को काम-भोगों के बंधन से अच्छी तरह से बांध दिया जाए । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए शुद्धोधन ने अपने पुत्र के लिए तीन महल बनवाये - एक ग्रीष्म ऋतु में रहने के लिए, दूसरा वर्षा ऋतु में रहने के लिए और तीसरा शीत ऋतु में रहने के लिए । उन्होंने इन महलों को हर तरह के भोग-विलास के साधनों से सुसज्जित किया । हर महल के पास एक-एक सुंदर बाग था, जिसमें अनेक प्रकार के फूलों से लदे हुए पेड़ थे ।
अपने पुरोहित उदायी के परामर्श से उन्होंने निश्चय किया कि कुमार के लिए एक अंतःपुर की व्यवस्था करनी चाहिए, जहाँ सुंदरियों की कमी ना हो । शुद्धोधन ने उदायी को कहा कि वह उन षोडशियों को संकेत कर दे कि वे कुमार का चित्त जीतने का प्रयास करें । उदायी ने सुंदरियों को इकट्ठा करके कुमार का चित्त लुभाने का संकेत ही नहीं किया, बल्कि विधि भी बतायी । सुंदरियों ने कुमार को वशीभूत करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देने का निश्चय किया । वे अपने काम में लग गई । उन प्रेमासक्त स्त्रियों ने राजकुमार के विरुद्ध हर तरह की युद्ध-नीति बरती । इतने आक्रमण किए जाने पर भी वह संयतेन्द्रिय न प्रसन्न हुआ, न मुस्कुराया । इस प्रकार वह बेमेल मेल महीनों वर्षों चलता रहा, किंतु इसका कुछ फल ना हुआ ।
उदायी समझ गया कि तरुणियाँ असफल रही हैं और राजकुमार ने उनमें कोई दिलचस्पी नहीं ली । नीति कुशल उदायी ने राजकुमार से स्वयं बातचीत की सोची । राजकुमार से एकांत में उदायी ने कहा - " ऊपरी मन से भी स्त्रियों से संबंध जोड़ना अच्छा है । इससे आदमी का संकोच जाता रहता है और मन का रंजन भी होता ही है । " राजकुमार सिद्धार्थ ने उत्तर दिया - " मैं संसार के विषयों की अवज्ञा नहीं करता । मैं जानता हूँ कि सारा जगत इन्हीं में आसक्त है । लेकिन क्योंकि मैं जानता हूँ कि सारा संसार अनित्य है, इसलिए मेरा मन उनमें रमण नहीं करता । " राजकुमार के सुनिश्चित दृढ़-संकल्प ने उदायी को निरुत्तर कर दिया । उसने राजा को सारा वृत्तांत जा सुनाया । जब शुद्धोधन को यह मालूम हुआ कि उनके पुत्र का चित्त किस प्रकार विषयों से सर्वथा विमुख है ? तो उन्हें सारी रात नींद नहीं आयी ।
सिद्धार्थ गौतम 20 वर्ष का हो चुके थे । चूँकि शाक्यों का अपना संघ था । बीस वर्ष की आयु होने पर हर शाक्य तरुण को शाक्य संघ में दीक्षित होना पड़ता था और संघ का सदस्य होना होता था । इसलिए सिद्धार्थ को संघ में दीक्षित कराने के लिए शुद्धोधन ने शाक्य पुरोहित को संघ की एक सभा बुलाने के लिए कहा । तदनुसार कपिलवस्तु में शाक्यों के संथागार में संघ एकत्रित हुआ । सभा में पुरोहित ने प्रस्ताव किया कि सिद्धार्थ को संघ का सदस्य बनाया जाए । शाक्य सेनापति अपने स्थान पर खड़ा हुआ और उसने संघ को संबोधित करके सिद्धार्थ को संघ का सदस्य बनाने का प्रस्ताव किया । सेनापति का प्रस्ताव तीन बार निर्विरोध पास हो गया, तो सिद्धार्थ के विधिवत शाक्य संघ का सदस्य बन जाने की घोषणा कर दी गई । सिद्धार्थ को शाक्य संघ का सदस्य बने आठ वर्ष बीत चुके थे । वह संघ के बड़े ही वफादार और दृढ़ सदस्य थे । जितनी दिलचस्पी उन्हें निजी मामलों में थी, उतनी दिलचस्पी उन्हें संघ के मामलों में भी थी । संघ के सदस्य की हैसियत से उनका आचरण आदर्श था । वह सबका प्रिय भाजन बन गये थे ।
उनकी सदस्यता के आठवें वर्ष में एक ऐसी घटना घटी, जो सिद्धार्थ के परिवार के लिए दुर्घटना बन गई और उनके अपने लिए जीवन - मरण का प्रश्न । शाक्यों के राज्य से सटा हुआ कोलियों का राज्य था । रोहिणी नदी दोनों राज्यों की विभाजक रेखा थी । शाक्य और कोलिय दोनों ही रोहिणी नदी के पानी से अपने-अपने खेत सींचते थे । हर फसल पर उनका आपस में विवाद होता था । कि रोहिणी के जल का पहले और कितना उपयोग कौन करेगा ? यह विवाद कभी-कभी झगड़ों में परिणत हो जाते हो जाते और झगड़े लड़ाईयों में । जिस वर्ष सिद्धार्थ की आयु 28 वर्ष की हुई, उस वर्ष रोहिणी के पानी को लेकर शाक्यों के नौकरों में और कोलियों के नौकरों में बड़ा झगड़ा हो गया । दोनों पक्षों ने चोट खाई । जब शाक्यों और कोलियों को इसका पता लगा, तो उन्होंने सोचा कि इस प्रश्न का युद्ध के द्वारा हमेशा के लिए निर्णय कर दिया जाए । शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देने की बात पर विचार करने के लिए संघ का एक अधिवेशन बुलाया और कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देने का प्रस्ताव किया । सिद्धार्थ ने इस प्रस्ताव का विरोध किया । सेनापति के पक्ष में बहुमत होने तथा संघ के नियम की अवहेलना करने के कारण सिद्धार्थ के समक्ष दण्डस्वरूप तीन विकल्प रखे गये । (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग लेना (2) फांसी पर लटकना या देश से निकल जाना (3) परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी होना । तीनों विकल्पों पर विचार करके अंत में सिद्धार्थ ने दूसरे विकल्प अर्थात देशनिकाला को स्वीकार किया । गृहत्याग करते समय अपने पिता शुद्धोधन, माता प्रजापति गौतमी और पत्नी यशोधरा से उन्होंने अनुमति प्राप्त की । गृहत्याग करते समय सिद्धार्थ से यशोधरा ने कहा था -
" तुम्हारा निर्णय ठीक है । तुम्हें मेरी अनुमति और समर्थन प्राप्त है । मैं भी तुम्हारे साथ प्रव्रजित हो जाती । यदि मैं नहीं हो रही हूँ, तो इसका मात्र यही कारण है कि मुझे राहुल का पालन-पोषण करना है । "
उपरोक्त कथा से स्पष्ट है कि सिद्धार्थ गौतम ने एक अच्छा गृहस्थ होने का कर्तव्य निभाया था । वे एक सफल गृहस्थ भी थे तथा एक सफल परिव्राजक भी ।
परिणय नामक इस खंडकाव्य की कथावस्तु , सिद्धार्थ के परिणय (विवाह) और प्रव्रज्या के मध्य की कथा है । इस रचना का प्रथम उद्देश्य, बौद्ध साहित्य में बुद्ध से संबंधित खंडकाव्य के अभाव की पूर्ति का एक तुच्छ प्रयास मात्र है । द्वितीय उद्देश्य, वर्तमान में सिद्धार्थ के परिणय और प्रव्रज्या की प्रासंगिकता को अभिव्यक्त करना है ।
धम्मदीक्षा दिवस
[ 14 अक्टूबर 2019 ] ✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'