बुद्धसागर (महाकाव्य)

महाकवि एल.एन. सुधाकर जी के महाकाव्य 'बुद्धसागर' का प्रथम संस्करण वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ था । अपने इस महाकाव्य को उन्होंने बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर को समर्पित किया है । उन्होंने 'समर्पण' में लिखा है, " उन्हीं बोधिसत्व स्वरूप बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी को, जिन्होंने नागपुर में 14 अक्टूबर सन 1956 ई० के दिन अपने पाँच लाख अनुयायियों के साथ बुद्ध-शरण ग्रहण कर भारत में एक महान धम्मक्रांति का जयघोष किया । "
( बुद्धसागर, समर्पण पृष्ठ)


बुद्धसागर (महाकाव्य) :  समीक्षात्मक परिचय 

सुधाकर जी ने अपने महाकाव्य 'बुद्धसागर' की संपूर्ण कथावस्तु को सात सोपानों में प्रबंधित किया है । प्रथम सोपान में वंदना, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जन्म, असित ऋषि का आगमन, महामाया की की मृत्यु, नामकरण संस्कार, हंस पर दया, शिक्षा, विवाह, शाक्य संघ में दीक्षा, राहुल का जन्म, गृहत्याग (महाभिनिष्क्रमण), प्रव्रज्या, कपिलवस्तु से राजगृह (मगध नरेश बिंबिसार से भेंट), भृगु आश्रम पर, आलार कलाम से सांख्य दर्शन तथा समाधि मार्ग का अध्ययन, तपस्या का परीक्षण, तपस्या का त्याग, सुजाता का खीर दान, बुद्धत्व प्राप्ति, सद्धर्म पंडरीक आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से विवाह, देशनिकाला दंड, प्रव्रज्या ग्रहण, तपश्चर्या का परीक्षण, तपश्चर्या का त्याग, सुजाता का खीर दान, बुद्धत्व प्राप्ति आदि को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । सुधाकर जी ने सिद्धार्थ-यशोधरा विवाह का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है । उन्होंने स्वयंवर-सभा में उपस्थित सिद्धार्थ गौतम की मानसिक स्थिति, शारीरिक गतिविधि और चारित्रिक व्यवहार आदि का मनोहारी चित्रण किया है । कुंडलिया छंद में रचित ये काव्य-पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

सिद्धार्थ उठते नहीं, करने शर-संधान ।
यशोधरा व्याकुल बड़ी, भूली मृदु मुस्कान ।।
भूली मृदु मुस्कान, सभा का रंग था फीका ।
तभी किसी ने किया व्यंग गौतम पर तीखा ।।
चला न जाने तीर, नाम सिद्धार्थ अखार्थ ।
सहज सुधाकर उठे लक्ष्यभेदन सिद्धार्थ ।।

पुस्तक - बुद्धसागर 
विधा - महाकाव्य 
रचनाकार - एल.एन. सुधाकर 
पृष्ठ - 328
मूल्य - 750/-
प्रकाशक - राज पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 
संपर्क - 9136184246

सिद्धार्थ गौतम अपने कारुणिक व्यक्तित्व के कारण संपूर्ण विश्व में सभी महामानवों से भिन्न हैं । उन्हें अकारण किसी भी प्राणी को दुःख देना पसंद नहीं था । जब वे किसी अपरिचित और पराये प्राणी के लिए स्वयं दुःख भोग सकते थे, तो फिर अपने परिजन को वे दुखी स्थिति में कैसे देख सकते थे ? रोहिणी नदी के जल बँटवारे को लेकर उत्पन्न विवाद के परिणामस्वरूप जब शाक्य संघ के सेनापति ने युद्ध का निर्णय लिया और संघ के सभी सदस्यों ने उसका समर्थन किया, लेकिन सिद्धार्थ ने स्पष्ट विरोध कर दिया । सेनापति को क्रोध आ गया वह बोला शायद तुम्हें इस बात का बहुत भरोसा है कि कौशल नरेश की अनुमति के बिना संघ अपनी आज्ञा की अवहेलना करने वाले को फांसी या देश से निकल जाने की सजा नहीं दे सकता और यदि इनमें से कोई भी एक दंड तुम्हें दिया जाए तो कौशल नरेश इसकी अनुमति नहीं देगा लेकिन याद रखो संघ तुम्हें दूसरे वाले तरीकों से दंडित कर सकता है संघ तुम्हारे परिवार के सामाजिक बहिष्कार का निर्णय कर सकता है और तुम्हारे परिवार के खेतों को जब कर सकता है इसके लिए संघ को कौशल नरेश की अनुमति की आवश्यकता नहीं । " सिद्धार्थ ने समझ लिया कि यदि उन्होंने कोलियों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करने के प्रस्ताव का अपना विरोध जारी रखा, तो उसके क्या-क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं ? इसलिए वे तीन बातों में से एक का चुनाव कर सकते थे । (1) सेना में भर्ती होकर युद्ध में भाग ले सकते थे । (2) फाँसी पर लटकना या देश से निकाल दिया जाना स्वीकार कर सकते थे । (3) अपने परिवार के लोगों का सामाजिक बहिष्कार और उनके खेतों की जब्ती के लिए राजी हो सकते थे । पहली बात वे किसी भी हालत में स्वीकार नहीं कर सकते थे । तीसरी बात पर तो वे विचार तक नहीं कर सकते थे । इस परिस्थिति में उन्होंने सोचा कि उनके लिए दूसरी बात ही सर्वाधिक मान्य हो सकती है । सिद्धार्थ ने संघ को संबोधित करके कहा, " कृपया मेरे परिवार को दंडित न करें । सामाजिक बहिष्कार द्वारा उन्हें कष्ट न दें । उनके खेत जब्त करके उन्हें जीविकाविहीन न करें । वे निर्दोष हैं, अपराधी मैं ही हूँ । मुझे अकेले ही अपने अपराध का दंड भुगतने दें । चाहे आप मुझे फाँसी पर लटका दें, चाहे देश से निकाल दें । आप जो चाहे दंड दें, मैं खुशी से इसे स्वीकार कर लूँगा और मैं इस बात का वचन देता हूँ कि मैं इसकी शिकायत कोशल नरेश से नहीं करूँगा । " (बुद्ध और उनका धम्म - डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 44-45, समता सैनिक दल द्वारा प्रकाशित संस्करण 2011) महाकवि सुधाकर जी ने इस घटना का हृदयस्पर्शी वर्णन किया है । सिद्धार्थ गौतम ने शाक्य संघ के अधिवेशन में कहा :

देश निकाला दीजिए, या फांसी स्वीकार ।
दंड जो चाहे दीजिए, दोषरहित परिवार ।।
दोष रहित परिवार, वचन देता हूँ दृढ़ निश्चय है ।
करूँ नहीं प्रतिकार, तुम्हें जो कौशलपति का भय है ।।
स्वेच्छा से ही मृत्यु वरण या देश छोड़ना तय है ।
कौशलपति शक करें नहीं, प्रव्रज्या लक्ष्य अभय है ।
सेनापति को भी लगा, उत्तम यह प्रस्ताव ।
कौशलपति पर भी नहीं, होगा विषम प्रभाव ।।


जब सिद्धार्थ गौतम गृहत्याग करके प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए निकल पड़े, तो उनके मित्र व सारथी छंदक का हृदय किस प्रकार पीड़ित था ? सुधाकर जी ने इसका बहुत ही मार्मिक और करुण चित्रण किया है । साथ ही, उन्होंने अतीव सहनशील त्यागमूर्ति यशोधरा के उदात्त चरित्र का गंभीरतापूर्वक चित्रांकन किया है । यशोधरा ने सिद्धार्थ के देशनिकाला निर्णय को समर्थन देते हुए उन्हें प्रव्रजित होने की अनुमति प्रदान कर दी थी । इस प्रकार वे अपने पति के लोककल्याणकारी कार्य में बाधा नहीं बनीं । बल्कि यशोधरा ने सिद्धार्थ को यह आश्वासन दिया कि वे अपनी समस्त पारिवारिक जिम्मेदारियों का ईमानदारी से निर्वहन करेंगी । यशोधरा का महान चरित्र संसार की हर महिला के लिए अनुकरणीय है । सुधाकर जी के शब्दों में :

कंथक को छंदक ले अकेला, व्यथित व्याकुल चल दिया ।
स्वामी को मुड़-मुड़ देखता, पर हिल गया उसका हिया ।।
रोता-बिलखता लौटकर वह, कपिलवस्तु आ गया ।
देखकर उसको अकेला, शोक फिर गहरा गया ।।
निराश पुरजन और परिजन, हाथ मलते रह गये ।
कुछ कह सका छंदक नहीं, पर अश्रु सब कुछ कह गये ।।
राहुल की माता के हृदय में, लौह जैसे भर गया ।
वह शांत, पर महाक्लांत थी, घर ही उजड़ उसका गया ।।
सांत्वना देती सभी को भूलकर अपनी व्यथा ।
लोकहित स्वामी गये, सच खोजने निकले तथा ।।
कल्याणकारी लोकमंगल लक्ष्य ही उनका यथा ।
निश्चय नया प्रकाश कर वे दुःख हरेंगे सर्वथा ।।

सिद्धार्थ गौतम प्रव्रजित होने के बाद सर्वप्रथम कपिलवस्तु से राजगृह अपने मित्र राजा बिंबिसार से मिले थे । उसके बाद वे भृगु ऋषि के आश्रम पर गये थे । तपस्याओं के रहस्य के श्रेष्ठ ज्ञाता भृगु ब्राह्मण ने उन्हें सभी प्रकार की तपस्याएँ समझायीं और प्रत्येक तपस्या का फल भी बताया था । भृगु के आश्रम से विदा ले चुकने पर सिद्धार्थ आलार कालाम के आश्रम पर पहुँचे थे । आलार कालाम ने सिद्धार्थ को सांख्य दर्शन के सभी सिद्धांतों से परिचित कराया था । सिद्धार्थ गौतम ने सांख्य मार्ग तथा समाधि मार्ग का परीक्षण कर लिया था, लेकिन वे तपश्चर्या का परीक्षण किये बिना ही भृगु के आश्रम से चले आये थे । तपश्चर्या के लिए उन्होंने नेरज्जरा नदी के तट पर एक एकांत स्थान 'उरुवेला' को चुना । जब सिद्धार्थ तपश्चर्या का परीक्षण कर रहे थे, तो उन्होंने अपनी काया को अत्यंत क्लेश दिया । सुधाकर जी ने सिद्धार्थ द्वारा तपश्चर्या विधि का क्रमबद्ध रूप से वर्णन किया है । सिद्धार्थ अल्प से भी अल्प आहार ग्रहण करते थे । चिथड़े से शरीर को ढँकते थे । यहाँ तक कि उन्होंने एक चावल का दाना खाकर दिन व्यतीत करना आरंभ कर दिया था । परिणामस्वरूप उनकी पीठ और पेट मिलकर एक हो गये । इस संदर्भ में सुधाकर जी द्वारा रचित भावपूर्ण काव्य-पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

आत्म-क्लेश का सिद्धार्थ ने उग्र रूप अपनाया ।
भिक्षाटन में अल्प ही अल्पाहार मिला जो खाया ।।
कूड़े के ढेरों से चिथड़े चुनकर तन को ढँकने ।
राज-पाट को त्याग जो देखे नव प्रकाश के सपने ।।
कभी एक फल कभी एक चावल का दाना खाता ।
निश्चिंत आप सर्दी गर्मी वर्षा से भस्म रमाता ।।
पेट करे स्पर्श हाथ तब स्वतः पीठ पर जाता ।
पीठ करे स्पर्श हाथ में स्वतः पेट आ जाता ।।


सिद्धार्थ गौतम की तपश्चर्या और आत्म-पीड़न बड़े ही उग्र रूप का था - इतना उग्र, जितना उग्र वह हो सकता था । यह छः वर्ष के लंबे समय तक जारी रहा । छः वर्ष बीतने पर सिद्धार्थ का शरीर इतना दुर्बल हो गया था कि वे हिल-डोल तक नहीं सकते थे । तब भी उन्हें कोई नया प्रकाश नहीं दिखाई दिया था और संसार में जो दुःख की समस्या है तथा जिस पर उनका मन केंद्रित था, उस समस्या का कोई हल उन्हें दिखाई नहीं दिया था । उन्होंने अपने मन में सोचा, " यह न आत्म-विजय का मार्ग है, न पूर्ण बोधि प्राप्त करने का मार्ग है और न मोक्ष का मार्ग है । "  (बुद्ध और उनका धम्म - डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 67, समता सैनिक दल द्वारा प्रकाशित संस्करण 2011) उस समय उरुवेला में सेनानी नाम का एक गृहपति रहता था । उसकी कन्या का नाम था - सुजाता । सुजाता एक न्यग्रोध वृक्ष (बरगद) के प्रति मिन्नत मान रखी थी और यदि उसे पुत्र-लाभ हो, तो प्रतिवर्ष भेंट चढ़ाने का संकल्प किया था । चूँकि उसकी इच्छा पूर्ण हुई थी, इसलिए उसने अपनी पुण्णा  नाम की दासी को पूजास्थली तैयार करने के लिए भेजा था । सिद्धार्थ गौतम को न्यग्रोध वृक्ष के नीचे बैठा देख पुण्णा ने सोचा, आज वृक्ष देवता ही साकार हो गया है । सुजाता स्वयं आयी और उसने अपनी बनायी हुई खीर स्वर्ण-पात्र में सिद्धार्थ को अर्पण की । सिद्धार्थ ने स्वर्ण-पात्र लिया और सुपतिट्ठ नाम के नदी-घाट पर स्नान करने के बाद भोजन ग्रहण किया । सुजाता द्वारा अर्पित खीर को ग्रहण करने के पश्चात सिद्धार्थ गौतम की चेतना जागृत हुई और उनकी समस्त इंद्रियाँ सक्रिय हो गयीं । सिद्धार्थ ने अनुभव किया कि काय-क्लेश से परिपूर्ण तपस्या व्यर्थ है । अतः उन्होंने तपश्चर्या का त्याग कर दिया । सुधाकर जी ने इस वृतांत को बहुत ही सरल और सुंदर शब्दों में वर्णित किया है । यथा :

स्वयं पकाकर खीर सुजाता स्वर्ण थाल में लायी ।
करबद्ध वंदना कर गौतम को अर्पित कर हरषायी ।।
परिक्रमा कर शीश नवाकर लौट सुजाता आयी ।
गौतम ने इस महादान से ज्ञान की खोज लगायी ।।
दारुण तपश्चर्या का ऐसे हो गया अब अंत था ।
सम्यक समाधि ध्यान-पथ की ओर उन्मुख संत था ।।

तपश्चर्या का त्याग करके सिद्धार्थ गौतम उरुवेला से प्रस्थान कर दिये और गया जा पहुँचे । वहाँ एक पीपल के वृक्ष के नीचे वे सीधा पद्मासन लगाकर बैठ गये तथा ध्यान-साधना में लीन हो गये । ध्यान करने के समय के लिए सिद्धार्थ ने इतना भोजन इकट्ठा करके पास रख लिया था कि चालीस दिन तक कमी न पड़े । उन्होंने अपना सारा ध्यान इसी एक प्रश्न को हल करने में लगाया कि संसार के कष्ट और दुःख को कैसे दूर किया जाए ? स्वाभाविक तौर पर पहला प्रश्न जो उन्होंने अपने आपसे पूछा, वह यही था कि वे कौन से कारण हैं, जिनसे एक व्यक्ति कष्ट उठाता और दुःख भोगता है । उनका दूसरा प्रश्न था - दुःख का नाश कैसे किया जाए ? इन दोनों ही प्रश्नों का उन्हें सही-सही उत्तर मिल गया । यही 'सम्यक संबोधि' कहलाता है । इसी कारण पीपल का वृक्ष भी, जिसके नीचे बैठकर सिद्धार्थ गौतम ने ज्ञान प्राप्त किया था, 'बोधिवृक्ष' कहलाता है । ज्ञान प्राप्ति के पूर्व सिद्धार्थ गौतम केवल एक 'बोधिसत्व' थे । ज्ञान प्राप्ति के बाद ही वे 'बुद्ध' बने ।

'बुद्धसागर' के द्वितीय सोपान में बोधिसत्व, धर्मोपदेश के प्रति बुद्ध की शंका एवं ब्रह्मसंपति का निवेदन, पाँच परिव्राजकों की दीक्षा (सारनाथ आगमन), धम्मचक्र प्रवर्तन, चार आर्य सत्य, पंचशील, आर्य अष्टांगिक मार्ग, दस पारमिताएँ, त्रिविधि शिक्षा मार्गांक और पारमिताओं का वर्गीकरण, अट्ठाईस बुद्ध, धम्म दीक्षा, यश कुलपुत्र की धम्मदीक्षा, कश्यप बंधुओं की धम्मदीक्षा, सारिपुत्र और मौद्गल्यायन की धम्मदीक्षा, मगध नरेश बिंबिसार की दीक्षा, राजा बिंबिसार का दान, अनाथपिंडक की धम्मदीक्षा, राजा प्रसेनजित की धम्मदीक्षा, जीवक की धम्मदीक्षा, रट्ठपाल की धम्मदीक्षा आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से केवल धम्म चक्र प्रवर्तन, चार आर्य सत्य, पंचशील और आर्य अष्टांगिक मार्ग को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है ।  धम्म का  आविष्कार करने के  पश्चात गौतम बुद्ध ने धम्मोपदेश देने का निश्चय किया । उन्होंने अपने आपसे प्रश्न किया कि मैं सर्वप्रथम किसे धम्मोपदेश दूँ ? उन्हें सबसे पहले आलार कालाम का ख्याल आया, जो बुद्ध की सम्मति में विद्वान था, समझदार था और काफी निर्मल था । लेकिन बुद्ध को पता लगा कि आलार कालाम की मृत्यु हो चुकी है । तब उन्होंने उद्दक रामपुत्त को भी उपदेश देने का विचार किया, किंतु उसका भी शरीरांत हो चुका था । तब उन्हें अपने उन पाँच साथियों का ध्यान आया, जो नेरज्जरा नदी के तट पर उनकी सेवा में थे  तथा जो सिद्धार्थ गौतम के तपस्या और काय-क्लेश का पथ त्याग देने पर असंतुष्ट हो, उन्हें छोडकर चले गये थे । उन्होंने उनके ठौर-ठिकाने का पता लगाया । जब उन्हें पता लगा कि वे वाराणसी (सारनाथ) के इसिपतन के मृगदाय में रहते हैं, तो बुद्ध उधर ही चल दिये । उन पाँचों ने जब बुद्ध को आते देखा, तो आपस में तय किया कि बुद्ध का स्वागत नहीं करेंगे । लेकिन जब बुद्ध समीप पहुँचे, तो वे पाँचों परिव्राजक अपने संकल्प पर दृढ़ न रह सके । बुद्ध के व्यक्तित्व ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे सभी अपने आसन से उठ खड़े हुये । एक ने बुद्ध का पात्र लिया, एक ने चीवर संभाला, एक ने आसन बिछाया और दूसरा पाँव धोने के लिए पानी ले आया । कुशल क्षेम की बातचीत हो चुकने के बाद परिव्राजकों ने बुद्ध से प्रश्न किया, " क्या आप अब भी तपश्चर्या तथा काय-क्लेश में विश्वास रखते हैं ? " बुद्ध का उत्तर नकारात्मक था । वे मध्यम मार्ग को मानने वाले थे - बीच का मार्ग, जो कि न तो काम भोग का मार्ग है और न काय-क्लेश का मार्ग है । महाकवि सुधाकर जी ने इस बात को दोहा छंद के माध्यम से व्यक्त किया है । बुद्ध ने कहा :

काम-भोग पथ पापमय, काय-क्लेश कुपंथ ।
इन दोनों के मध्य का, मध्यम मार्ग सुपंथ ।।
काम भोग किंचित नहीं, न ही काय-क्लेश ।
मध्यम-पथ पावन परम, सुनो मित्र उपदेश ।।

धम्मचक्र प्रवर्तन करते हुए गौतम बुद्ध ने पाँचों परिव्राजकों ( कौण्डन्य, अश्वजित, वाष्प, महानाम तथा भद्रिक) को  अपने धम्म की विशेषताओं के बारे में बताया । महाकवि सुधाकर जी ने बौद्ध धम्म की विशेषताओं का वर्णन करते हुए लिखा है कि बुद्ध के धम्म में आत्मा और परमात्मा के लिए कोई स्थान नहीं है । मृत्यु के बाद क्या होगा ? इससे भी धम्म का कोई संबंध नहीं है । बुद्ध के धम्म का केंद्रबिंदु केवल 'मानव' है । बुद्ध की यह पहली स्थापना है । सुधाकर जी के शब्दों में :

आत्मा-परमात्मा से कुछ न उनको काम है ।
मृत्यु के उपरांत क्या होगा, न यह पैगाम है ।।
कर्मकांडी क्रियाकलापों से भी नहीं प्रयोजन ।
बुद्ध धम्म का केंद्रबिंदु है 'मानव' सुनो सुधीजन ।।

तथागत बुद्ध की दूसरी स्थापना है कि मनुष्य दुखी हैं, कष्ट में हैं और दरिद्रता का जीवन व्यतीत कर रहे हैं । संसार दुःख से भरा पड़ा है और धम्म का उद्देश्य इस दुःख का नाश करना ही है । इसके अतिरिक्त सद्धम्म और कुछ नहीं है । दुःख के अस्तित्व की स्वीकृति और दुःख के नाश करने का उपाय, यही धम्म की आधारशिला है ।   (बुद्ध और उनका धम्म - डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 89, समता सैनिक दल द्वारा प्रकाशित संस्करण 2011) जब परिव्राजकों ने पूछा, " दुःख और दुःख का विनाश ही यदि आपके धम्म की आधारशिला है, तो हमें बताइए कि आपका धम्म कैसे दुःख का नाश कर सकता है ? " तब बुद्ध ने उन्हें समझाया कि उनके धम्म के अनुसार यदि हर व्यक्ति पवित्रता के पथ पर चले, धम्म के पथ पर चले, शील मार्ग पर चले, तो इस दुःख का एकांतिक निरोध हो सकता है । बुद्ध ने पवित्रता के पथ के अनुसार अच्छे जीवन के पाँच मापदंड बताया - (1) प्राणी-हिंसा से विरत रहना । (2) चोरी से विरत रहना । (3)  व्यभिचार से विरत रहना । (4) असत्य बोलने से विरत रहना । (5) नशीली चीजें ग्रहण करने से विरत रहना ।  इन पाँच मापदंडों को 'पंचशील' कहा जाता है । इसके अतिरिक्त बुद्ध ने उन परिव्राजकों को अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया । इस मार्ग के आठ अंग हैं । (1) सम्यक दृष्टि (2) सम्यक संकल्प (3) सम्यक वाणी (4) सम्यक कर्मांत (5) सम्यक आजीविका (6) सम्यक व्यायाम (7) सम्यक स्मृति (8) सम्यक समाधि ।  महाकवि सुधाकर जी ने अपने महाकाव्य 'बुद्धसागर' में बुद्धवाणी का क्रमशः वर्णन किया है । 'बुद्धसागर' को पढ़कर कोई भी सामान्य बुद्धि-स्तर का पाठक बुद्ध और उनके धम्म को बहुत ही सरलता से समझ सकता है तथा छंदयुक्त और लयबद्ध काव्य का गायन करके स्वयं भी आनंदित हो सकता है और श्रोताओं को भी आनंद प्रदान कर सकता है ।

'बुद्धसागर' के तृतीय सोपान में जन्मभूमि का आह्वान, पिता-पुत्र की अंतिम भेंट, शाक्यों द्वारा स्वागत, सिद्धार्थ को गृहस्थ बनाने का अंतिम प्रयास, तथागत के संकल्प, भगवान बुद्ध तथागत क्यों कहलाते हैं ?, धम्मदीक्षा का पुनरारम्भ, ग्रामीण ब्राह्मणों के दीक्षा, सुणीत की धम्मदीक्षा, सुप्पिय और सोपाक की धम्मदीक्षा, सुमंगल तथा अन्य नीच जाति वालों की धम्मदीक्षा, कोढ़ी सुप्रबुद्ध की धम्मदीक्षा, स्त्रियों की धम्मदीक्षा तथा भिक्षुणी संघ की स्थापना, भिक्षुणी संघ के लिए आठ नियमों का विधान, आठ गुरु धम्म, चांडाल कन्या प्रकृति की धम्मदीक्षा, पतितों तथा अपराधियों की धम्मदीक्षा, डाकू अंगुलिमाल की धम्मदीक्षा, डाकुओं द्वारा आत्मसमर्पण, धम्मदीक्षा में खतरा आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से डाकू अंगुलिमाल की धम्मदीक्षा, डाकुओं द्वारा आत्मसमर्पण और धम्मदीक्षा में खतरा को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । महाकवि सुधाकर जी ने अपने महाकाव्य में कहीं भी भाषा संबंधी पांडित्य-प्रदर्शन नहीं किया है । उन्होंने जनभाषा का प्रयोग करके बुद्धकथा को जन-जन के लिए सुग्राह्य बना दिया है । बुद्ध-अंगुलिमाल प्रकरण को सुधाकर जी ने बहुत ही धैर्यपूर्वक और गंभीरता के साथ वर्णित किया है । इसलिए यह वृत्तांत विस्तृत है, किंतु पूर्ण है । कोशल-नरेश प्रसेनजित के राज्य में अंगुलिमाल नाम का एक डाकू रहता था, जिसके हाथ सदा रक्त से रंगे रहते । जिस किसी आदमी की भी वह हत्या करता था, वह उसकी एक अंगुली काटकर अपनी माला में पिरो लेता था । इसीलिए उसका नाम अंगुलिमाल पड़ा । एक समय जब तथागत बुद्ध श्रावस्ती के जेतवनाराम में विराजमान थे, उन्होंने डाकू अंगुलिमाल के अत्याचारों की कहानी सुनी । तथागत ने उस डाकू को एक संत पुरुष में बदल देने का निश्चय किया । इसलिए एक दिन भोजन करने के बाद पात्र-चीवर धारण कर, जिधर अंगुलिमाल के होने की बात सुनी जाती थी, उधर ही चल दिये । कुछ दूर से डाकू ने तथागत को उस ओर आते देखा । उसे बड़ा आश्चर्य हुआ । जब चालीस-पचास आदमी तक भी इकट्ठे मिलकर उस ओर आने का साहस नहीं करते, यह श्रमण अकेला ही उस ओर आगे बढ़ा चला आ रहा है । डाकू ने श्रमण की हत्या करने का विचार किया । उसने अपनी ढाल-तलवार ली, तीर-तूणीर संभाले और तथागत का पीछा किया । तथागत अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़े चले जा रहे थे, किंतु डाकू अपने पूरे जोर से उनका पीछा करने पर भी उनको पकड़ नहीं पा रहा था । इसलिए वह रुक गया और चिल्लाकर तथागत से कहा, रुको । तथागत ने कहा, " अंगुलिमाल मैं तो रुका हूँ । अब तू भी पाप-कर्म करने से रुक । मैं इसीलिए यहाँ तक आया हूँ कि तू भी सत्पथ का अनुगामी बन जाए । " सुधाकर जी के शब्दों में :

रुक गया वह और चिल्लाकर कहा, 
'रुक जा श्रमण' तेरा निकट अब काल है ।
'मैं तो रुका हूँ' और अंगुलिमाल तुम, 
पाप कर्मों से रुको, शुभ काल है ।।

राजगृह के दक्षिण की ओर एक बड़ा पर्वत था - नगर से कोई पचहत्तर मील दूर । इस पर्वत में से होकर एक दर्रा जाता था - बड़ा गहरा और बड़ा सूना । दक्षिण भारत का रास्ता इसी दर्रे में से होकर गुजरता था । इस तंग दर्रे में पाँच सौ डाकू रहते थे, जो इस दर्रे में से गुजरने वाले राहगीरों की लूटमार करते थे । राजा ने उनका दमन करने के लिए सेनाएँ भेजी, लेकिन हर बार वे बच निकलते थे । चूँकि बुद्ध उस स्थान से बहुत दूर नहीं थे, इसलिए उन्होंने उन लोगों की स्थिति पर विचार किया । तथागत ने उनके पास पहुँचने का निश्चय किया । उन्होंने एक धनी घुड़सवार का रूप बनाया और एक अच्छे घोड़े पर सवार हुए । कंधे पर धनुष और तलवार थी, खुर्जी में सोना-चाँदी भरा था और घोड़े की लगाम आदि में कीमती जवाहरात जड़े थे । उस तंग दर्रे में प्रवेश करने पर घोड़ा जोर से हिनहिनाया । उसकी आवाज सुनकर पाँच सौ डाकू उठ खड़े हुए और उन्होंने घुड़सवार को घेर लेना चाहा । लेकिन उन्हें देखकर वे जमीन पर गिर पड़े । जब वे जमीन पर गिरे, तो सभी चिल्लाने लगे - हे भगवान! यह क्या है ? हे भगवान! यह क्या है ? तब घुड़सवार रूपी बुद्ध ने उन्हें समझाया कि उस दुःख के मुकाबले में, जो सारे संसार को घेरे हुए है, तुम जो दूसरों को दुःख देते हो और स्वयं उठाते हो, कुछ नहीं । धम्म-देशना के प्रति पूरी एकाग्रता ही इन जख्मों को भर सकती है । महाकवि सुधाकर जी ने इस बुद्धवाणी को अपनी आकर्षक शैली में शब्दांकित किया है । यथा :

कहा बुद्ध ने, लूट है पाप ।
छोड़ो सकल, मिटे संताप ।।
धम्म-देशना का प्रकाश ।
सुखी वही, यह जिसके पास ।।

पुराने समय में तथागत बुद्ध राजगृह से कोई पौने दो सौ मील की दूरी पर पर्वतों से भरे एक प्रदेश में रहते थे । उन पर्वतों में कोई एक सौ बाईस आदमियों का गिरोह रहता था, जो जानवरों को मारकर उनके माँस से ही अपना काम चलाता था । बुद्ध वहाँ पहुँचे और जिस समय पुरुष बाहर शिकार खेलने गये हुए थे, उनकी अनुपस्थिति में उनकी स्त्रियों को धम्म दीक्षित कर दिये । जब उनके पुरुष लौटे, तो वे बुद्ध को मार ही डालना चाहते थे । किंतु उनकी स्त्रियों ने रोक लिया । बाद में मैत्री सूक्त के पदों को सुन वे भी धम्म दीक्षित हो गये । अतः स्पष्ट है कि धम्मदीक्षा देने में भी खतरा है और भिक्षुओं को बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता है । सुधाकर जी ने इस प्रसंग का बहुत ही सुंदर एवं सटीक वर्णन किया है । सुधाकर जी के शब्दों में :

सुन उपदेश बुद्ध का, नारी ।
हुईं धम्म में दीक्षित सारी ।।
आये पुरुष लौटकर जब घर ।
भड़क उठे क्रोधित गौतम पर ।।
स्त्रियाँ यदि रोक न लेतीं ।
पुरुषों को आलोक ने देतीं ।।
मार ही उन्हें डालते मिलकर ।
निर्मम आखेटक तिल-तिलकर ।।

चतुर्थ सोपान, पंचम सोपान, षष्ठ सोपान और सप्तम सोपान आदि किसी भी सोपान में से मैंने कोई कविता इस पुस्तक के लिए चयनित नहीं किया है । लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि इन सोपानों की कविताएँ महत्वपूर्ण नहीं हैं । दरअसल, मैं नहीं चाहता था कि यह पुस्तक बहुत अधिक मोटी हो तथा मैं कुछ विशिष्ट प्रकरणों पर आधारित कविताओं को ही चिन्हांकित करना चाहता था । पाठकों को अवश्य जिज्ञासा होगी कि चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम सोपानों में किस तरह के प्रकरण हैं ? इसलिए मैं इन प्रकरणों की विषयवस्तु का परिचय देना आवश्यक समझता हूँ । 'बुद्ध सागर' के चतुर्थ सोपान में धम्म, तीन घात, तीन लाभ, जीवन में पूर्णता प्राप्त करना धम्म है, दस पारमिताएँ, निर्वाण प्राप्त करना धम्म है, तृष्णा का त्याग धम्म है, सभी संस्कारों को अनित्य मानना धम्म है, कर्म को मानव नैतिक जीवन का आधार मानना धम्म है, परा प्राकृतिक में विश्वास अधम्म है, कालामों का संदेह निवारण, सद्धम्म, मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है, पुनर्जन्म, मृतक और ध्यानी में अंतर, प्रतीत्यसमुत्पाद, कर्म, अहिंसा, बौद्ध जीवन मार्ग, सुखी गृहस्थ, पुत्र और पुत्री समान हैं, पति-पत्नी का व्यवहार कैसा हो ?, आदमी का पतन कैसे होता है ?, बुरा आदमी कौन ?, सर्वश्रेष्ठ आदमी कौन ? ज्ञानी आदमी, शुभ संकल्प करने की आवश्यकता, सन्मार्ग पर चलने के लिए साथी की प्रतीक्षा अनावश्यक, सम्यक दृष्टि प्रधान, मृत्यु के बाद जीवन की चिंता व्यर्थ, ईश्वर से प्रार्थना याचना करना व्यर्थ, भोजन और बाह्य शुद्धि से आदमी पवित्र नहीं बनता, राजनीतिक तथा सामरिक शक्ति सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर करती है, यथा राजा तथा प्रजा आदि प्रकरणों का समावेश है । 'बुद्धसागर' के पंचम सोपान में संघ, भिक्षु के व्रत, भिक्षु की संपत्ति, संघ में संगठन और एकता हेतु छः बातें आवश्यक हैं, आदर्श भिक्षु, धम्म प्रचार हेतु भिक्षुओं को आदेश, चमत्कारों का खंडन, तीन प्रकार के श्रोतागण, अमृत की खेती, धम्म प्रचार के लिए संघर्ष अनिवार्य, भिक्षु और गृहस्थ, भिक्षुओं और गृहस्थों का धम्म एक है, गृहस्थों के लिए जीवन नियम, धनियों के लिए जीवन नियम, बालकों के लिए जीवन नियम, शिष्य के लिए जीवन नियम, पति-पत्नी के लिए जीवन नियम, मालिकों तथा नौकरों के लिए जीवन नियम, कुमारियों के लिए जीवन नियम, अनाथपिंडक की दानशीलता, विशाखा की दानशीलता आदि प्रकरणों का समावेश है । 'बुद्धसागर' के षष्ठ सोपान में बुद्ध पर विविध आरोप और उनका समाधान, बुद्ध पर जादू-टोना करने का आरोप, गृहस्थों को उजाड़ने का आरोप, तैर्थिकों द्वारा हत्या का मिथ्या आरोप, तैर्थिकों द्वारा अनैतिकता का मिथ्या आरोप, बुद्ध का जन्मजात शत्रु चचेरा भाई देवदत्त, पटाचारा की दीक्षा, मल्लिका की श्रद्धा, बुद्ध के अहिंसा के सिद्धांत की आलोचना आदि प्रकरणों का समावेश है । 'बुद्धसागर' के सप्तम सोपान में धम्म प्रचार के केंद्र, महान परिव्राजक की अंतिम चारिका, धम्म सेनापति सारिपुत्र का परिनिर्वाण तथागत से देहत्याग की अनुभूति, महामौद्गल्यायन की शत्रुओं द्वारा हत्या, मगध के महामात्यों का दान, तथागत की अंतिम चारिकाएँ, आम्रपाली का दान, तथागत की चारिकाएँ, परिनिर्वाण की पूर्व घोषणा, सुभद्र परिव्राजक की दीक्षा, अंतिम वचन, आनंद का शोक, महापरिनिर्वाण, मल्लों का शोक, महास्थविर महाकाश्यप का शोक, तथागत का अंतिम संस्कार, बुद्ध के फूलों के लिए कलह, तथागत का व्यक्तित्व, बुद्ध के वर्षावास, बौद्ध धम्म संगीति, धम्म प्रचार की शपथ, तथागत का आह्वान, प्रशस्ति आदि प्रकरणों का समावेश है ।

पुस्तक - बुद्धसागर 
विधा - महाकाव्य 
रचनाकार - एल.एन. सुधाकर 
पृष्ठ - 328
मूल्य - 750/-
प्रकाशक - राज पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली 
संपर्क - 9136184246

आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'

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