सुप्रसिद्ध उपन्यासकार श्यामलाल राही जी के द्वारा लिखित उपन्यास 'रेत का दरिया' साहित्य संस्थान, गाजियाबाद से वर्ष 2020 में प्रकाशित हुआ है । राही जी ने अनुसूचित एवं अल्पसंख्यक वर्ग की दो महिलाओं के अपराधिक कारणों को आधार बनाकर इस उपन्यास का सृजन किया है । उन्होंने वंचित वर्ग के लोगों के साथ होने वाले अन्याय और अत्याचार का यथार्थ चित्रण किया है । यदि 'रेत का दरिया' उपन्यास के भिन्न-भिन्न पक्षों का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाए, तो वह एक व्यापक अध्ययन हो जाएगा । इसलिए यहाँ इस उपन्यास का आलोचनात्मक अध्ययन करने का उद्देश्य मात्र इस उपन्यास की कथावस्तु, पात्रों का चरित्र-चित्रण, वंचित वर्ग की समस्या, नारी-विमर्श और आंबेडकरवादी चेतना संबंधी लेखक के दृष्टिकोण का अध्ययन करना है ।
1. कथानक एवं चरित्र - चित्रण
(क) कथानक :- उपन्यास 'रेत का दरिया' एक नायिका प्रधान उपन्यास है, जिसमें दो नायिकाएँ हैं - वेदवती और आयशा । वेदवती अनुसूचित जाति की महिला है और आयशा अल्पसंख्यक वर्ग की लड़की है । इस उपन्यास में एक प्रमुख पुरुष पात्र दौलतराम भूरिया है । वह एक शोध छात्र है । वह पांचाल यूनिवर्सिटी में नामांकित है । उसके शोध का शीर्षक है - ' ए केस स्टडी आफ हार्ड फाॅर वीमेन क्रिमिनल प्रिजनर्स स्पेशल इन एससी एसटी एण्ड माइनरिटी सोसायटी ' । इस उपन्यास को दो भागों में विभाजित किया गया है । पहले भाग में दौलतराम भूरिया, वेदवती से रोज समय निकालकर बरेली के कारागार में मिलता है और उसका साक्षात्कार लेता है । वह उसकी पूरी आत्मकथा सुनता है । वेदवती बताती है कि वह किस परिस्थिति में हत्यारिन बनी । वेदवती शाहजहाँपुर जिले के अंतर्गत जलालाबाद तहसील में स्थित भरतपुर गाँव की निवासिनी थी । उसकी उपजाति नट थी । उसकी माँ ठाकुर महीपाल सिंह के घर में घरेलू काम करती थी । ठाकुर के तीन पुत्र कुमारपाल सिंह, भंवरपाल सिंह और समरपाल सिंह थे । लड़के जब पढ़ने-लिखने की उम्र के हुये, तो ठाकुर ठकुराइन को लड़कों के साथ फर्रुखाबाद में एक मकान बनवाकर वही रख दिया । ठकुराइन वहीं अपने लड़कों को पढ़ाने लगी । उन्हीं दिनों वेदवती की माँ को ठाकुर ने अपनी हवस का शिकार बना लिया और यह सिलसिला चल पड़ा । जब तक ठकुराइन जिंदा थी, तब तक उसकी माँ दिन भर काम करने के बाद रात को अपनी झोपड़ी में लौट आती थी, लेकिन ठकुराइन के मरने के बाद कई साल तक उसकी माँ रात को भी हवेली में ही रुकती थी । जब वेदवती किशोरावस्था को पार कर ली, तो ठाकुर की बुरी नजर उस पर भी पड़ी । वह उसके साथ अवैध संबंध बनाना चाहता था, लेकिन वेदवती के माता-पिता चोरी से उसकी शादी कटरा के हेतराम से कर दिये । जब ठाकुर को यह बात पता चली, तो वह जबरदस्ती वेदवती को उसके ससुराल से उठवा लिया और उससे शादी करके अपनी हवेली में रख लिया । वेदवती ठाकुर की ठकुराइन बनकर जीवन व्यतीत करने लगी । कई वर्ष बीत गये । जब ठाकुर की मृत्यु हो गई, तो संपत्ति को लेकर समरपाल ने विवाद खड़ा कर दिया । अंत में परिणाम यह हुआ कि वेदवती, समरपाल को भरी अदालत में गोली मारकर उसकी हत्या कर दी ।
'रेत का दरिया' उपन्यास के दूसरे भाग में दौलतराम भूरिया एक अल्पसंख्यक वर्ग की मुस्लिम महिला आयशा तूरानी का साक्षात्कार लेता है । आयशा बताती है कि वह जनपद सिद्धार्थनगर की तहसील डुमरियागंज के अंतर्गत इस्माइल पुरवा गाँव की निवासिनी है । जब वह सोलह वर्ष की थी, तभी उसके अब्बा ने उसके साथ छेड़खानी करना आरंभ कर दिया था । वह शराब पीकर आता था और आयशा के प्रति प्यार जताते हुए उसे अपनी बाहों में भरकर उसकी छाती को दबाता था । आयशा का बड़ा भाई नईम भी अपने अब्बा की तरह ही व्यभिचारी था । जब आयशा अट्ठारह साल की थी, तो उसको पेट की बीमारी हो गयी । वह पेट-दर्द से परेशान रहती थी । उसका बड़ा भाई नईम उसे लेकर बस्ती चला गया । वहाँ वह आयशा को डॉक्टर पांडे के यहाँ दवा दिलवाकर अपनी ससुराल ले गया । वहीं पर एक रात उसने आयशा को नींद की दवा खिलाकर उसके साथ बलात्कार किया । बस्ती से लौटने के बाद नईम की इस हरकत से सभी घरवाले परिचित हो जाते हैं । उसके बाद आयशा का अब्बा भी आयशा के साथ शारीरिक संबंध बनाता है तथा उसका यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता है । जब आयशा गोरखपुर में जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश ले ली और वहीं पर रहकर बीटीसी उर्दू की ट्रेनिंग देने लगी, तो वहाँ पर उसे नजाकत हुसैन से प्रेम हो गया । नजाकत से प्रेम होने के बाद आयशा के विचार, व्यवहार और कार्य आदि सभी में परिवर्तन आ गया । एक दिन जब आयशा के अब्बा लतीफ ने नजाकत हुसैन की बहन जाहिदा की अस्मत लूट ली, तो अपने अब्बा पर पहले से ही क्रोधित आयशा आक्रोशित हो गयी । जब यह बात नजाकत को मालूम हुई, तो वह भी अपने आक्रोश पर नियंत्रण नहीं कर सका । अंततः दोनों प्रेमी-प्रेमिका मिलकर लतीफ के संपूर्ण परिवार की हत्या कर दिये ।
(ख) चरित्र-चित्रण :-
(i) दौलतराम भूरिया - इस उपन्यास का पहला प्रमुख पात्र दौलतराम भूरिया है । दौलतराम भूरिया बदायूँ जनपद के हरहरपुर मटकली गाँव का रहने वाला है । वह नट जाति के हरद्वारी लाल भूरिया का पुत्र था । उसकी माँ नन्हीं देवी नाचने-गाने का काम करती थी । भूरिया पांचाल विश्वविद्यालय, बरेली का एक शोध छात्र है । उसने मानविकी विज्ञान में सत्तर प्रतिशत अंकों के साथ एमएससी किया था और उसी विषय से पीएचडी कर रहा था । उसके शोध का शीर्षक है - ए केस स्टडी आफ फीमेल हार्ड कोर क्रिमिनल प्रिजनर्स स्पेशली इन माइनॉरिटी एंड एससी एसटी सोसाइटी । दौलतराम भूरिया पहले अनुसूचित जाति की महिला वेदवती का साक्षात्कार लिया और फिर अल्पसंख्यक वर्ग की महिला आयशा का साक्षात्कार लेकर अपना शोधग्रंथ पूर्ण किया । भूरिया एक जागरूक शोधार्थी था । वह अपने आस-पास के परिवेश में होने वाली घटनाओं से भलीभाँति परिचित था । उसे भारत के इतिहास और वर्तमान का अच्छा ज्ञान था । वह भारतीय राजनेताओं के मानसिक पतन और उनके द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार से अत्यंत चिंतित था । मानविकी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ० पवन कुमार तेजा के साथ हुआ उसका वार्तालाप इस बात को प्रमाणित करता है कि वह एक सच्चा देशप्रेमी भी है । भूरिया ने डाॅ० तेजा से कहा, " हमारे देश में प्रजातंत्र का जो स्वरूप है, वह अच्छा नहीं है । हमारा देश अनेक वादों का शिकार है - भाषावाद, प्रांतवाद, क्षेत्रवाद, धर्मवाद, जातिवाद और ऐसे ही जाने कितने वाद । राजनीति व राजनेताओं का इतना आधःपतन हो चुका है कि लगता है कि गिरने की आखिरी सीमा लाँघ ली है । फिर जनता भी कम भ्रष्ट नहीं है । उनके शासन, प्रशासन व नेता हैं, तो जनता के बीच के ही । वे सब इसी देश, इसी समाज के हैं । वर्षो की गुलामी तथा हमारी धार्मिक भेदभाव की नीति, शोषण की परंपरा, सामंती सोच के बीच हम और आशा भी क्या कर सकते हैं ? " [1] दौलतराम भूरिया एक परिश्रमी शोधार्थी था । वह अपने शोध-प्रबंध को अतिशीघ्र पूर्ण कर लेना चाहता था । साथ ही साथ उसे अपने शोध-विषय के प्रति अत्यंत रुचि थी । वह अपने शोधकार्य में इतना मग्न रहता था कि उसे अपने स्वास्थ्य का भी ध्यान नहीं रहता था । यही कारण था कि नवंबर के महीने में जब वह अपने गाँव गया था, तो उसकी तबीयत खराब हो गयी थी । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " डॉक्टर ने दवा दी, साथ ही हिदायत दी कि खान-पान मेरे बताए अनुसार करे, घबराए नहीं तथा पूर्ण विश्राम करे । दौलतराम के लिए यह एक कठिनाई की घड़ी आ खड़ी हुई । वह जी-जान से अपने शोध को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करना चाहता था । पूर्ण विश्राम की डॉक्टर की हिदायत इस मार्ग में रोड़ा बन गई थी । उसकी माँ बड़ी ही चिंतित रहने लगी । दौलतराम को कोई छूट नहीं देना चाहती थी । एक सप्ताह बाद जब वह थोड़ा स्वस्थ हुआ, तो उसने माँ से कहा कि मैं ठीक हूँ, विश्वविद्यालय चला जाता हूँ, मेरा काम रुका हुआ है । " [2]
भूरिया क्रांतिकारी चेतना से परिपूर्ण था । उसमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करने की योग्यता थी । अपने साथियों आशुतोष और सागर से वार्तालाप करते समय उसने अपनी सामाजिक सोच का परिचय दिया । सागर ने जब बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर और तथागत गौतम बुद्ध के पदचिन्हों पर चलने की बात कही, तो भूरिया ने भी सहमति में अपना विचार रखा । दौलतराम भूरिया ने सागर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, " हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारी जड़े कहाँ हैं ? आज भले ही समाज के कुछ लोग आरक्षण की बैसाखी पर चढ़कर कुछ तरक्की कर गये हैं, शहरों में साफ कॉलोनियों में आ बसे हैं, पर हम सबकी जड़ें आज भी गाँवों या शहर की गंदी बस्तियों में है, जहाँ हमारा अधिसंख्यक समाज रह रहा है तथा प्रगति की बाट जोह रहा है । उनकी जिंदगी में उन्माद है, अशिक्षा है, रूढ़ियाँ हैं, शोषण है । उन्हें आगे कौन लाएगा ? यह हम सबकी जिम्मेदारी है । " [3] दौलतराम भूरिया सामाजिक कुरीतियों का विरोधी है । वह जीजा-साली कि रिश्ते में होने वाले अवैध व्यवहार और कार्य की आलोचना करता है । उसका मानना है कि कन्या और वर पक्ष के लोग परस्पर एक-दूसरे के सगे रिश्तेदार होते हैं, जैसे - ससुर पिता की तरह और सास माता की तरह । इसी प्रकार साली छोटी बहन की तरह और देवर छोटा भाई की तरह होता है । उसका मानना है कि जीजा-साली और देवर-भौजी के बीच होने वाला अश्लील मजाक एक प्रकार की सामाजिक विकृति है । जब वेदवती ने अपनी आप बीती सुनाते हुए अपने जीजा के दुर्व्यवहार का वर्णन किया, तो भूरिया ने कहा, " हमारे सामाजिक रिश्ते हमारी स्वस्थ परंपरा के लिए हैं । ये हमें किसी किस्म की मर्यादा-हनन किया आज्ञा नहीं देते । साली छोटी बहन की तरह होती है । पति-पत्नी दोनों एक हैं, दोनों के हर रिश्तेदार उनके लिए एक हैं । जीजा की बहन हो या जिज्जी की बहन दोनों ही छोटी बहनें हैं, पर समाज में एक गलत परंपरा फैल गई है, जिसने इस रिश्ते को विकृत कर दिया है । पुरुष हो या स्त्री दोनों ही विकृत मानसिकता के शिकार हैं । " [4] दौलतराम भूरिया को मनोविज्ञान का भी ज्ञान है । वह मनोविश्लेषण करने में दक्ष है । जब वेदवती अपने ऊपर पड़ने वाली ठाकुर की बुरी नजर का उल्लेख की और स्वयं भी कमसिन आयु में ठाकुर की नजर को समझ लेने की बात बतायी, तो भूरिया ने कहा, " काम संबंधों के मामले में लड़कियाँ कम उम्र में ही जान जाती हैं । वे पुरुषों की कामुक चेष्टाओं को सहज ही समझ लेती हैं, यह प्रकृति प्रदत गुण है लड़कियों में । " [5]
दौलतराम भूरिया को केवल इतिहास की ही जानकारी नहीं है, बल्कि वह वर्तमान से भी भली प्रकार परिचित है । उसे सामाजिक यथार्थ का अच्छा ज्ञान है । साथ ही वह भविष्यदर्शी भी है । वर्तमान पीढ़ी को आलसी और अयोग्य कहने वाले लोगों के प्रति उसे क्षोभ है । उसने जेलर को उत्तर देते हुए कहा, " हमारी पीढ़ी को गैर-जिम्मेदार, कामचोर, आलसी, काहिल नालायक और जाने क्या-क्या कहा जाता है, पर मैं सिर्फ इतना कहूँगा कि क्या हमारे समाज, विश्वविद्यालय, सरकारी मशीनरी ने हालात ऐसे पैदा नहीं किये ? माँ-बाप के पास संतानों के लिए समय ही नहीं, वे सिर्फ उनकी धन की पूर्ति कर अपने कर्तव्य की समाप्ति समझते हैं । वे अपने बच्चे को लैपटॉप दिलाते हैं, पर यह नहीं देखते हैं कि वह उसका प्रयोग क्या कर रहा है ? उससे पढ़ रहा है या पोर्न साइट्स देख रहा है । उनके पास समय ही नहीं है । वे हर संभव तरीके से उसके लिए धन को जोड़ रहे हैं, पर उस धन का भविष्य में वह क्या उपयोग करेगा ? इसकी कोई शिक्षा उसे नहीं दे रहे हैं । हमारी पीढ़ी में जो अवगुण आ गये हैं, वे इसी समाज की देन हैं । " [6]
(ii) वेदवती - इस उपन्यास की दूसरी प्रमुख पात्र वेदवती है । वेदवती शाहजहाँपुर जिले के अंतर्गत जलालाबाद तहसील में स्थित भरतपुर से गाँव की निवासिनी थी । उसकी उपजाति नट थी । उसकी माँ ठाकुर महीपल सिंह के घर में घरेलू काम करती थी । ठाकुर के तीन पुत्र कुमारपाल सिंह, भंवरपाल सिंह और समरपाल सिंह थे । लड़के जब पढ़ने-लिखने की उम्र के हुये, तो ठाकुर ठकुराइन को लड़कों के साथ फर्रुखाबाद में एक मकान बनवाकर वही रख लिया । ठकुराइन वहीं अपने लड़कों को पढ़ाने लगी । उन्हीं दिनों वेदवती की माँ को ठाकुर ने अपनी हवस का शिकार बना लिया और यह सिलसिला चल पड़ा । जब तक ठकुराइन जिंदा थी, तब तक उसकी माँ दिन भर काम करने के बाद रात को अपनी झोपड़ी में लौट आती थी, लेकिन ठकुराइन के मरने के बाद कई साल तक उसकी माँ रात को भी हवेली में ही रुकती थी । जब वेदवती किशोरावस्था को पार कर ली, तो ठाकुर की बुरी नजर उस पर भी पड़ी । वह उसके साथ अवैध संबंध बनाना चाहता था, लेकिन वेदवती के माता-पिता चोरी से उसकी शादी कटरा के हेतराम से कर दिये । जब ठाकुर को यह बात पता चली, तो वह जबरदस्ती वेदवती को उसके ससुराल से उठवा लिया और उससे शादी करके अपनी हवेली में रख लिया । वेदवती ठाकुर की ठकुराइन बनकर जीवन व्यतीत करने लगी । कई वर्ष बीत गये । जब ठाकुर की मृत्यु हो गई, तो संपत्ति को लेकर समरपाल ने विवाद खड़ा कर दिया । अंत में परिणाम यह हुआ कि वेदवती, समरपाल को गोली मारकर उसकी हत्या कर दी ।
वेदवती एक सच्चरित्र, सीधी, समझदार और कर्म में विश्वास रखने वाली परिश्रमी महिला थी । वह शौक और श्रृंगार हेतु अपव्यय करना पसंद नहीं करती थी । वह प्रेम और विश्वास की इच्छुक थी । फर्रुखाबाद में प्रवास के समय ठाकुर महीपाल, वेदवती को दो महत्वपूर्ण बातें बताया था । पहली बात कि वह वेदवती को शास्त्रों में लिखे पुत्री के साथ पिता के काम-संबंध की जानकारी दिया और दूसरी बात यह कि गाँव में गंगा के किनारे जंगल की सरकारी जमीन पर ठाकुर जोर-जबरदस्ती कब्जा करके उसका लाभ उठाता रहा, लेकिन अब वह पूरी जमीन उसके हाथ से निकल गयी थी । क्योंकि ठाकुर के लड़कों से अनबन के दौरान सरकार ने उस जमीन को भूमिहीन लोगों को पट्टा कर दिया था । चूँकि फर्रुखाबाद का रहन-सहन मँहगा था, इस कारण से ठाकुर का हाथ भी तंग गया था और गाँव का बाजार भी उसके न रहने से उजड़-सा गया था, इसलिए उससे भी कोई आमदनी नहीं होने से वह परेशान था । जब ठाकुर वेदवती से अपनी परेशानी का उपाय पूछा, तो उसने अपनी बुुुुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए कहा, " इसका उपाय एक ही है कि हम गाँव में चलकर रहें और अपनी बची हुई खेती पर ठीक से खेती कराएँ ।" [7] जब ठाकुर वेदवती से पूछा कि क्या अब गाँव में उसे अच्छा लगेगा ? परेशानी नहीं होगी ? इन तीन सालों में आराम की जिंदगी के बाद क्या वह कठिन जिंदगी जी पाएगी ? तो वेदवती ने अनन्य प्रेम की अभिलाषा के साथ कहा, " अगर आपका प्यार इसी तरह मिलता रहेगा, जैसा यहाँ मिल रहा है, तो मैं कहीं भी रह लूँगी । गाँव पहुँचते नई-नई छोरियों के चक्कर में पड़ गये, तो मैं कैसे चैन से रह पाऊँगी ? " [8] वेदवती अपने अधिकारों की रक्षा के लिए हर प्रकार की लड़ाई के लिए तैयार थी । वह स्वाभिमानी थी । उसे अपने हिस्से का बँटवारा पसंद नहीं था । उसने भरी अदालत में न्यायाधीश के सामने कहा, " ठाकुर साहब ने संपत्ति मुझे व मेरी औलाद को दी थी, उसे हमसे कोई नहीं ले सकता । वह संपत्ति हमारी है, हमें उसका कोई बँटवारा कबूल नहीं । " [9] वेदवती निर्भीक और साहसी महिला थी । समरपाल सिंह को गोली मारने के बाद वह अदालत से नहीं भागी । बल्कि उसने गर्व के साथ आत्मसमर्पण कर दिया । जब न्यायाधीश ने उसे पकड़ने के लिए पुलिसकर्मियों को आदेश दिया, तो उसने कहा, " मैं कहीं भागने वाली नहीं जज साहब ! मैंने अपना काम कर लिया । " [10]
(iii) महीपाल सिंह - इस उपन्यास का तीसरा प्रमुख पात्र महीपाल सिंह है । महीपाल सिंह वेदवती के गाँव का ठाकुर है । वह रहता तो फिर गाँव में था, पर उसका तौर-तरीका अंग्रेजी साहब वाला था । वह करीब छः फुट ऊँचा गोरा-चिट्टा था । उसका शरीर न ज्यादा भारी था, न ज्यादा हल्का । उसके बड़ी उम्र तक बाल काले रहे । वह सिर के बीच से माँग निकालता, रोजाना दाढ़ी बनाता ,छोटी-छोटी मूँछें रखता । उसका शरीर बड़ा रौबीला था । वह ज्यादातर पैंट-कमीज पहनता, सिर पर अंग्रेजी हैट लगाता । ठाकुर का घर हवेली की तरह था, जिसमें बहुत बड़े-बड़े कमरे, लंबे चौड़े दालान बड़ा, सा आँगन, आँगन के बीचों-बीच एक नीम का पेड़ । ठाकुर की हवेली गाँव के लगभग बीचों-बीच थी । ठाकुर की हवेली के आगे एक चार-पाँच बीघा का मैदान था, जहाँ बाजार लगती थी । यह बाजार हर मंगलवार को लगती थी । ठाकुर को बाजार से भी काफी आमदनी होती थी ।
ठाकुर का चरित्र मिश्रित चरित्र है । वह न तो पूर्ण रूप से दुर्जन है और न ही पूर्ण रूप से सज्जन । वह अपने हित के लिए लोकचर्चित बातों का आवश्यकतानुसार अपने पक्ष में प्रयोग करता रहता था । उसे धर्म से तनिक भी डर नहीं लगता था । जब वेदवती की माँ ने ठाकुर को बताया कि वेदवती उसी की लड़की है और उसमें ठाकुर का ही खून है तथा यदि ठाकुर वेदवती से संबंध बनाएगा, तो वह पाप होगा । प्रत्युत्तर में ठाकुर ने कहा, " देखो रानी ! हम ठाकुर हैं । हमें पाप वगैरह नहीं लगता । धर्म से जो डरते हैं, वे कमजोर होते हैं, उन्हें ही पाप - पुण्य का डर सताता है । हम सामर्थ्यवान हैं । महात्मा तुलसीदास कह गये हैं - समरथ को नहिं दोष गुसाईं । " [11] ठाकुर महीपाल सिंह चूँकि हिंदू है, इसलिए वह हिंदू ग्रंथों का भी भली-भांति अध्ययन किया था । उसे हिंदुओं की पौराणिक कथाओं में वर्णित घटनाओं की भी अच्छी जानकारी थी । वह पिता और पुत्री के बीच शारीरिक संबंध को पाप नहीं मानता था, क्योंकि स्वयं हिंदुओं के देवता ब्रह्मा ने अपनी पुत्री सरस्वती के साथ यौन-संबंध बनाया था । ठाकुर तथ्यपूर्ण तर्क देकर अपने पक्ष को प्रबल बनाने में कुशल था ।
ठाकुर का अवैध संबंध वेदवती की माँ के साथ पहले से ही था और वह वेदवती के साथ भी यौन संबंध स्थापित करना चाहता था । इस संदर्भ में वेदवती की माँ और ठाकुर महीपाल सिंह के बीच हुआ संवाद ध्यान देने योग्य है । वेदवती ने कहा -
" कहीं यह शोभा देता है कि माँ के साथ, उसकी लड़की के साथ ? "
" अच्छा एक बात बता, जब मालिक घोड़ी पर सवारी करता है, तो क्या बछड़ी पर न करेगा ? इसमें क्या बुराई है ? वह मालिक है, चाहे घोड़ी पर सवारी करे या फिर उसकी बछड़ी पर । फिर तेरी बात जरा देर को यह भी मैं मान लूँ कि मैं ही तेरी लड़की का बाप हूँ, तो बता क्या बाप - बेटी में कभी कुछ न हुआ ? पुराणों में तो आया है, ब्रह्मा जी ने अपनी सगी बेटी सरस्वती से विवाह किया । " [12] ठाकुर महीपाल सिंह दृढ़संकल्पी व्यक्ति है । वह जिस चीज को पाने की इच्छा करता था, उसे पाकर ही रहता था । वह वेदवती से विवाह करना चाहता था, लेकिन वेदवती के माता-पिता ने चोरी से उसका विवाह कटरा के निवासी हेतम से कर दिया । भले ही वेदवती का विवाह हो चुका था, लेकिन ठाकुर उसको पाने के लिए बेचैन था । जब ठाकुर के भेजे हुये लोगों ने उन्हें पकड़ लिया, तब ठाकुर ने वेदवती के पिता से वेदवती का विवाह-संबंध तोड़ने का प्रस्ताव रखा । वेदवती के पिता ने कहा, " हमें क्या मिलेगा इस रिश्ते से ? " तो ठाकुर ने कहा, " आ गया न मतलब पर साले ! पहले ही बता देता, तुझे क्या चाहिए ? क्यों लड़की को दाग लगाया ? मैंने तुझसे जो कहा है, वह करूँगा । पर तुझे यह कहना होगा कि वह हेतम तुम्हारी लड़की को भगा ले गया, शादी की बात से मुकर जाना । " [13] ठाकुर महीपाल सिंह दृढ़संकल्पी होने के साथ-साथ आत्मसंयमी भी था । वह व्यभिचारी था, लेकिन बलात्कारी नहीं था । उसने वेदवती से विवाह तो कर लिया था, लेकिन उसकी इच्छा के विरुद्ध उसने उसके साथ सहवास नहीं किया । वेदवती को डरा हुआ और सहमा हुआ देखकर ठाकुर ने कहा, " ठकुराइन ! तुम डरो नहीं । यद्यपि तुमसे दूर रहना मेरे लिए बड़ा कठिन है, पर फिर भी तुम जब तक तन-मन से तैयार नहीं होगी, मैं तुमसे दूर ही रहूँगा । " [14]
(iv) आयशा - इस उपन्यास की चौथी प्रमुख पात्र आयशा है । आयशा बताती है कि वह जनपद सिद्धार्थनगर की तहसील डुमरियागंज के अंतर्गत इस्माइल पुरवा गाँव की निवासिनी है । जब वह 16 वर्ष की थी, तभी उसके अब्बा ने उसके साथ छेड़खानी करना आरंभ कर दिया था । वह शराब पीकर आता था और आयशा के प्रति प्यार जताते हुए उसे अपनी बाहों में भरकर उसकी छाती को दबाता था । आयशा का बड़ा भाई नईम भी अपने अब्बा की तरह ही व्यभिचारी था । जब आयशा 18 साल की थी, तो उसको पेट की बीमारी हो गई । वह पेट-दर्द से परेशान रहती थी । उसका बड़ा भाई नईम उसे लेकर बस्ती चला गया । वहाँ वह आयशा को डॉक्टर पांडे के यहाँ दवा दिलवाकर अपनी ससुराल ले गया । वहीं पर एक रात उसने आयशा को नींद की दवा खिलाकर उसके साथ बलात्कार किया । बस्ती से लौटने के बाद नईम की इस हरकत से सभी घरवाले परिचित हो जाते हैं । उसके बाद आयशा का अब्बा भी आयशा के साथ शारीरिक संबंध बनाता है तथा उसका यह सिलसिला कई वर्षों तक चलता है ।
आयशा सुंदर और आकर्षक थी । चूँकि उसके परिवार का परिवेश कामुक लोगों की कामवृत्ति से परिपूर्ण था, इसलिए वह किशोरावस्था में ही काम-संबंध बनाने के लिए इच्छुक थी । फिर भी उसमें अपने मन पर नियंत्रण करने की क्षमता थी । वह अपने भावी शौहर के लिए अपने कौमार्य को सुरक्षित रखना चाहती थी । दौलतराम भूरिया को अपनी आप बीती सुनाते समय आयशा ने कहा, " चौदह की उम्र में ही मेरा मन काम-संबंधों के लिए व्याकुल हो रहा था । पर जल्दी ही मैंने अपने मन को समझाया, आयशा ! यह ठीक नहीं है । यह गलत काम है, शौहर के सिवाय किसी और का ख्याल आना भी गलत है । " [15] आयशा सुंदर होने के साथ-साथ समझदार भी थी । उसका अब्बा लतीफ उसके साथ छेड़खानी और दुष्कर्म का प्रयास करता था । वह अपने अब्बा की दुर्भावना से परिचित थी । फिर भी उसमें इतना नैतिक ज्ञान अवश्य था कि वह अपने अब्बा के दुर्व्यवहार का प्रचार नहीं करना चाहती थी । एक दिन आयशा छत पर किताब पढ़ते हुए वहीं चटाई पर लेट गयी थी । उसी समय उसका अब्बा आकर उसके यौवनांगों को स्पर्श करने लगा । आयशा के शब्दों में, " मैं सोच में पड़ गई, अभी-अभी जो मैंने अपने सीने पर दबाव अनुभव किया था, क्या वह अब्बा की हरकत थी ? शराब के नशे में अब्बा मेरे शरीर के नाजुक हिस्सों को छूने की कोशिश अवश्य करते थे, पर एक सीमा से अधिक आगे नहीं बढ़े थे । पर आज जो मैंने अनुभव किया, वह साफ-साफ लग रहा था कि मेरे यौवनांगों को किसी ने दबाया था । वहाँ अब्बा के अलावा और कोई न था, मुझे विश्वास होने लगा कि यह हरकत अब्बा ने की है । " [16] आयशा का भाई नईम भी उसे गलत इरादे से बाहों में भर लेता था । आयशा उसके इस प्रकार के व्यवहार का विरोध करती थी, तो नईम अपनी हरकत को प्रेम का नाम देता था । आयशा ने एक बार नईम को जवाब दिया कि प्रेम का यह तरीका गलत है । इससे ज्ञात होता है कि आयशा को इतना पता था कि प्रेम का सही तरीका क्या है ? अर्थात् वह अच्छी तरह जानती थी कि भाई और पिता के प्रेम से अलग जो प्रेम है, उसमें किस प्रकार का बर्ताव किया जाता है ? तथा भाई और पिता के प्रेम का स्वरूप क्या है ? आयशा ने प्रेम और पाप के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए अपने भाई नईम से कहा, " मोहब्बत गुनाह नहीं होती भाई जान ! पर आप जिस तरीके से मोहब्बत का इजहार कर रहे हैं, वह आपका तरीका गलत है । " [17] आयशा को स्त्री की शारीरिक क्रिया के बारे में अच्छी जानकारी थी । वह भले ही कुँवारी थी, लेकिन विवाहित स्त्री के सुहागरात और प्रथम यौन-संबंध के पश्चात् होने वाली शारीरिक पीड़ा का उसे पूर्वाभास था । अपने भाई नईम के द्वारा नींद में किये गये उसके बलात्कार का अनुभव उसे सुबह जागकर होता है । आयशा के शब्दों में, " सुबह जब मैं सोकर उठी, तो मैंने अपनी टाँगों के बीच हल्का-हल्का दर्द महसूस किया, समझ नहीं पाई कि दर्द क्यों है ? दर्द अधिक न था । नईम सोया पड़ा था । मैं जब दैनिक कामों से निवृत्त हुई, तो मुझे लगा कि मेरे साथ कुछ अनैच्छिक जरूर हुआ है । " [18] नईम की हरकतों से आयशा ने ऐसा अनुभव किया कि वह उसके अब्बा लतीफ के कुकर्म का बदला ले रहा था । जब आयशा ने अपने भाई नईम की बुरी हरकतों के बारे में अपनी माँ को बताया, तो उसकी माँ ने उसे चुप रहने की सलाह दी । अपने पूरे परिवार को एक ही धारा में बहते हुए देखकर आशा को बहुत क्रोध आया । उसके हृदय में जली हुई क्रोध की ज्योति जब ज्वाला का रूप ले ली, तभी वह अपने सम्पूर्ण परिवार की हत्या करने की योजना बनायी । भूरिया से वार्तालाप के समय उसने बताया, " शायद नईम अब्बू से बदला ले रहा है । अब्बू उसकी बीवी को रखते हैं, तो वह उनकी बेटी को । अम्मी की नजर में यह सब कोई इतनी बड़ी बात नहीं थी, जिस पर हो-हल्ला किया जाए । मुझे लगा कि मेरे शरीर पर काँटे आये हैं । अम्मी के बयान और नईम की करतूत ने मुझे अंदर ही अंदर जलाना शुरु कर दिया । ये वो आग थी, जो बाद में खानदान के खून से ही बुझी । " [19] आयशा अपने घर की इज्जत बचाने के लिए किसी प्रकार का कोहराम नहीं करना चाहती थी । उसका भाई नईम उसकी इज्जत पहले ही लूट चुका था, लेकिन उसको जन्म देने वाला उसका अब्बा भी उसकी इज्जत लूटने से नहीं चूका । आयशा के शब्दों में, " अब्बा की सोच नईम की तरह ही थी और काम में वह नईम के बाप थे ही । अम्मी के आने तक सब कुछ हो चुका था और दामन पर यह नया दाग था । मैं ना रोई, ना चिल्लाई । खजाने का रखवाला ही जब खजाना लूट रहा हो, तो खजाना कैसे बचेगा ? मेरे अंदर अब अब्बू व नईम के लिए एक साथ नफरत की आग जलने लगी । " [20]
(v) नईम - इस उपन्यास का पाँचवाँ प्रमुख पात्र नईम है । नईम आयशा का बड़ा भाई है । नईम कामुक था, किंतु मानसिक रूप से कमजोर था । उसका अब्बा लतीफ उसकी पत्नी के साथ दुष्कर्म करता था, लेकिन वह उसका विरोध करने का साहस नहीं कर पाता था । बल्कि केवल इतना ही कहता है कि "ठीक है, सोचेंगे ।" इस संदर्भ में नईम और गुलनार के बीच हुआ संवाद अवलोकन करने योग्य है । गुलनार ने कहा, " उसके बाद भी सिर्फ सोचेंगे । " तो नईम बोला, " और क्या उनका कत्ल कर दूँ ? वो मेरे अब्बू हैं, मुझे पैदा किया है, पाला-पोसा है, पढ़ाया-लिखाया है । अगर उनसे कुछ गलती हो गई है, तो उनसे कहूँगा कि वह उस गलती को दोबारा न करें और गुनाह से तौबा कर तुमसे माफी माँगे । " [21] नईम का पुरुषार्थ केवल उसकी अपनी बहन का बलात्कार करने के लिए था, जबकि सही मायने में वह पुरुषार्थी नहीं था । बल्कि वह नपुंसक था । क्योंकि यह जानते हुए भी कि उसकी पत्नी के साथ एक गैर मर्द दुष्कर्म करता था, वह प्रतिरोध करने में बिल्कुल असमर्थ था । गुलनार और नईम का संवाद द्रष्टव्य है ।
" तुम कह दोगे और वो मान लेंगे ? "
" शायद मान जाएँ । "
" तुम और कर भी क्या सकते हो ? "
" सच है, मैं और कर भी क्या सकता हूँ ? वो मेरे अब्बू हैं, घर के मालिक हैं । तुमसे उन्हें अगर जरा सी खुशी हासिल होती है, तो उस पर इतना कोहराम क्यों ? " [22] जब नईम ने गुलनार से पूछा कि क्या अब्बू तुम्हारे साथ जबरदस्ती करते हैं ? तो उसने 'हाँ' में उत्तर दिया । इस पर नईम ने पूछा कि वह तुम्हारे साथ कबसे दुष्कर्म कर रहे हैं, तो गुलनार चुप हो गयी । गुलनार को चुप देखकर नईम ने कहा, " बताती क्यों नहीं ? दरअसल तुम औरतें रंगे हाथ पकड़े जाने पर इल्जाम लगा देती हैं, अपने घर वालों से उस शख्स की दुश्मनी कराती हैं । मामला शांत होने पर खुद फिर वही सब करने लगती हैं और अगर दोनों पक्ष मारे जाते हैं, तो फिर और खुली छूट मिल जाती है । मुझे तो लगता है कि तुम्हारे ताल्लुकात अब्बू से शादी के पहले क हैं । जब तुम्हारा रिश्ता पहले का है, तो आज मुझे क्यों दोष दे रही हो ? तुम तो चाहती हो, मैं अब्बू का कत्ल कर दूँ और खुद फाँसी पर चढ़ जाऊँ । फिर तुम गैर मर्दों के साथ ऐश करो, गुलछर्रे उड़ाओ । " [23] गुलनार चुपचाप अपने ससुर लतीफ का जुल्म बर्दाश्त कर रही थी । उसके जुल्म सहने की मजबूरी को नईम ने उसकी सहमति समझ लिया था । इसलिए गुलनार के शोरगुल करने पर नईम ने कहा, " गुलनार ! क्यों बेवजह हल्ला-गुल्ला कर रही हो ? मैं तुम्हारा शौहर हूँ, जब मुझे कोई एतराज नहीं, तो तुम्हें क्या परेशानी है ? फिर तुम्हें भी तो कोई परेशानी नहीं है, तभी तो सालों से उनके साथ रिश्ता निभा रही हो । " [24]
नईम आयशा का सगा भाई होते हुए भी आयशा के साथ दुष्कर्म करने के लिए आतुर था । वह मौका पाकर आयशा को बाँहों में भर लेता था और उसका गाल चूम लेता था । आयशा के नाराज होने पर वह कहता था, " बुरा मान गई मेरी प्यारी बहना ! मैं तुम्हें बहुत-बहुत प्यार करता हूँ आयशा ! वैसे, तुमसे ज्यादा खूबसूरत लड़की दुनिया में कोई और नहीं होगी, यह मैं गारंटी से कह सकता हूँ । तुम्हें बनाने के बाद अल्लाह मियाँ ने वह साँचा ही तोड़ दिया होगा, जिसमें तुम्हें ढाला होगा । " [25] जब आयशा अट्ठारह साल की थी, तो उसको पेट की बीमारी हो गयी । वह पेट-दर्द से परेशान रहती थी । नईम उसे साथ लेकर दवा दिलाने बस्ती चल दिया । रास्ते में वह उसे छेड़ता रहता था । दौलतराम भूरिया को आयशा ने बताया, " नईम ने मुझे कंधे से पकड़ अपनी तरफ खींच रखा था । अचानक रिक्शे का दायाँ पहिया किसी गड्ढे में आ गया, जिससे मेरा बैलेंस बिगड़ गया और मैं उसके ऊपर झुक गई । नईम का बायाँ हाथ अचानक मैंने अपने कुर्ते के अंदर घुसता महसूस किया । क्षण भर में ही उसका हाथ मेरे नंगे बाएँ स्तन पर आ गया । " [26] नईम एक व्यभिचारी युवक था । व्यभिचारी होने के साथ-साथ वह बलात्कारी भी था । जब वह आयशा को लेकर बस्ती गया, तो वहाँ वह आयशा को डॉक्टर पांडे के यहाँ दवा दिलवाकर अपनी ससुराल ले गया । वहीं पर एक रात उसने आयशा को नींद की दवा खिलाकर उसके साथ बलात्कार किया । सुबह में उसने बेशर्मी से अपने कुकृत्य का वर्णन भी किया । वह आयशा से कहा, " रात मजा आ गया, तुम तो घोड़े बेचकर सोई थी । " [27] जब आयशा ने उसके कुकृत्य की शिकायत घरवालों से करने के लिए कहा, तो वह निर्भीकतापूर्वक बोला, " कर लेना शिकायत, कौन साला मेरा क्या कर लेगा ? अम्मी की कुछ कहने की हिम्मत नहीं रही । गुलनार और अब्बू, वह मुझसे क्या कहेंगे, वह तो खुद रंगे सियार हैं । दोनों कुछ गलत-सही नहीं मानते और आयशा ? अगर अब्बू को पता चल गया कि तू जवान हो गई है और मेरे साथ मजे लिये हैं, तो अब्बू तो तुझे खुद न छोड़ेंगे । वह इस मामले में मेरा बाप है । हम बाप-बेटे ऐश में यकीन करते हैं । ऐश घर के अंदर हो या फिर बाहर । अगर माल घर में है, तो बाहर जाकर कौन तलाश करें ? तुम खूब शिकायत करना, पर खबरदार अगर घर से बाहर किसी से कुछ कहा, अगर कहा तो काट के गाड़ देंगे । " [28]
(vi) अब्दुल लतीफ तूरानी - लतीफ तूरानी इस उपन्यास का छठवाँ प्रमुख पात्र है । लतीफ इस 'रेत का दरिया' उपन्यास का ऐसा पात्र है, जिसका चरित्र सबसे अधिक भ्रष्ट है । वह इतना निकृष्ट मनुष्य है, जिसमें मनुष्यता लेश मात्र भी नहीं है । उसका व्यवहार पशुओं से भी बुरा था । वह अपनी सगी बहन के साथ दुष्कर्म करता था । यही नहीं, जब उसको दुष्कर्म करते हुए उसका जीजा अपनी आँखों से देख लिया, तो वह उसकी हत्या कर दिया । दौलतराम भूरिया को आपबीती सुनाते समय आयशा ने बताया, " भाभी गुलनार जो कि फूफी की इकलौती संतान थी, ने बताया था कि उन्होंने अपनी आँखों से अब्बा और फूफी को हमबिस्तर देखा था । भाभी की उम्र उस समय लगभग बारह साल रही होगी । वह आदमी और औरत के जिस्मानी ताल्लुकात की बात जानती थीं । एक रात अब्बा को फूफा जी ने फूफी के साथ देख लिया, खूब कहा-सुनी हुई, नौबत मारपीट तक आ गई, पर घर की इज्जत की खातिर फूफा जी चुप रह गये और अब्बा को घर न आने को कहा । अब्बा कुछ दिनों तो फूफी के यहाँ नहीं गये, पर जल्दी ही जाने लगे । फिर जाने क्या हुआ, फूफा जी एक हादसे का शिकार हो गये । कहा गया कि वे छत से गिर गये, लेकिन हकीकत जुदा थी । गुलनार ने मुझे बताया कि अब्बा ने फूफा को छत से धक्का दे दिया । " [29] लतीफ ने अपनी भांजी गुलनार के साथ भी मुरौवत नहीं किया । जब गुलनार ने लतीफ को अपनी माँ के साथ हमबिस्तर होते देख लिया, तो लतीफ ने उसका भी बलात्कार किया । गुलनार के शब्दों में, " अभी अब्बू को मरे कुछ ही दिन हुये थे कि अब्बू (लतीफ) उतरौला आये और रात को हमेशा की तरह अम्मी के साथ बिस्तर पर थे । मैं दूसरे कमरे में सोई थी । मेरी उम्र तुम्हारे बराबर (चौदह वर्ष) की थी । मेरी नींद टूटी, तो देखा कि अब्बू और अम्मी दूसरे कमरे में हमबिस्तर थे । दोनों ने मुझे देख लिया, मैंने भी उन्हें देख लिया । फिर, जाने क्या हुआ ? अब्बू जो तब मामू थे, मेरे कमरे में आये और मेरे साथ बलात्कार किया । मैंने अपने बचाव की भरसक कोशिश की, पर अपने को बचा नहीं सकी । अम्मी दूसरे कमरे में मौजूद रही, न उन्होंने अब्बू को रोका, न मेरे पास आई । " [30]
अपनी बेटी आयशा पर भी लतीफ की गलत नजर थी । उसके बेटे नईम ने आयशा का बलात्कार किया था । उन दोनों के बीच बने अवैध-संबंध की जानकारी जब लतीफ को हुई, तो वह आयशा को अपने साथ संबंध बनाने के लिए मजबूर किया । आयशा के शब्दों में, " दरअसल, तुम दोनों के बीच जो कुछ हुआ, वह हालात की वजह से हुआ । बुजुर्गों ने कहा है कि जवान औरत-मर्द को अकेले में नहीं रहना चाहिए, उनके बीच रिश्ता कुछ भी हो । आये दिन अखबारों में छपता रहता है कि भाई-बहन, चाचा-भतीजी, बाप-बेटी के बीच गलत रिश्तों के कारण अपराध हुये । अपराधों की यह एक बड़ी वजह है । यह यूँ ही नहीं होता, वजह होती है - लड़कियों की जवानी । तुम्हारी जवानी खुद एक उफनती दरिया है । तुम्हारी जवानी की तुगियानी में मर्दों के होश-हवास गर्क कर देने की कुव्वत है । नईम तो जवान है, उसका गर्क होना कोई बड़ी बात नहीं । कई बार जब तुम्हें सोये हुये देखता हूँ, तो मुझे इस बुढ़ापे में अपने पर अख्तियार नहीं रहता, तुम्हारे पास खिंचा चला आता हूँ । अब तक जो हुआ, हो गया और आगे भी जो होगा अच्छा होगा । याद रखो, जवानी बार-बार नहीं आती । फालतू बातें सोच-सोच, मजहबी रुकावटों को मानकर इस खुशगवार वक्त को बर्बाद नहीं करना चाहिए । मजे लो और मजे लेने दो । घर की दीवारें हर राज को दफन कर लेंगी । राज को राज रहने दो । " [31] इतना कहते ही लतीफ ने मिर्जा गा़लिब का एक शेर सुनाया और आयशा को अपनी बाहों में भर लिया, उसके जिस्म को चूमने लगा । आयशा ने प्रतिवाद किया, लेकिन वह सफल नहीं हो सकी । अंततः उसके अब्बा लतीफ ने उसके साथ मुँह काला कर ही लिया ।
लतीफ ने अपने घर में काम करने वाली लड़की नजाकत हुसैन की बहन जाहिदा के साथ भी दुष्कर्म किया । दूसरे दिन जब आयशा कमरे में लेटी हुई थी, तो जाहिदा आई और रोने लगी । आयशा ने जब पूछा, तो जाहिदा ने लतीफ के कुकर्म का पूरा किस्सा सुना दिया । आयशा ने दौलतराम भूरिया को बताया, " वह रात में कमरे में सो रही थी, तभी अब्बू ने आकर उसे दबोच लिया और उसके मुँह पर हाथ रखकर जबरदस्ती उसके साथ बुरा काम किया । दरअसल, जाहिदा कमरे में अकेली सोती थी । पता नहीं, उस रात उसने अंदर से कुंडी क्यों नहीं लगाई ? शायद भूल गई होगी, जिसकी कीमत उसे अपनी इज्जत देकर चुकानी पड़ी । " [32] लतीफ ने अपनी छोटी बेटी मजहबी के साथ भी दुष्कर्म किया । मजहबी एक दिन स्कूल नहीं गयी थी । सुबह का वक्त था, वह अपने कमरे में लेटी हुई थी । उस दिन उसने पहले स्कूल जाने का इरादा किया था, इसलिए स्कूल की यूनिफार्म पहन रखी थी । वह कुछ सोच रही थी कि उसी समय लतीफ आ गया । वह उठ गई थी पर लतीफ बेड पर बैठ गया और उसे अपने पास खींच लिया । उसे बाहों में भरकर प्यार से गाल पर चुमा और बाँहों में भरते समय उसके स्तनों पर दबाव बनाया और प्यार से बोला -
" क्या सोच रही हो ? "
" कुछ नहीं अब्बू ! "
" कुछ तो सोच रही हो । लगता है, अपने निकाह के बारे में सोच रही हो ? "
" नहीं, अब्बू ! मैं तो यूँ ही लेटी थी । "
इस पर वह प्यार से बोला, " निकाह के बारे में तुम्हें सोचना ही चाहिए । अब तो तुम बड़ी हो गई हो । जल्दी ही आयशा के बाद तुम्हारा भी निकाह होगा । पर क्या तुम्हें मालूम है कि निकाह के बाद क्या-क्या होता है ? "
" ज्यादा नहीं, अब्बू ! "
" बेटा, जब शादी हो जाती है, घर के काम के साथ-साथ खानदान को आगे बढ़ाने के लिए मियाँ-बीवी को अकेले में कुछ करना पड़ता है । उसके बारे में कुछ जानती हो ? "
" नहीं, अब्बू ! मैं कुछ नहीं जानती । "
" फिर तो तुम्हें सीखना पड़ेगा, यह बड़ा जरूरी होता है । "
" कौन सिखाएगा मुझे ? "
" मैं किसलिए हूँ ? मैं तुम्हारा अब्बू हूँ । तुम्हें सब कुछ सिखाना मेरा ही काम है । तुम 'हाँ' कहो, तो अभी से सिखाना शुरू कर देता हूँ । "
" तो सिखाओ न अब्बू ! " [33]
उसके बाद लतीफ ने मजहबी की पीठ पर हाथ फेरना शुरू किया, फिर टाँगों पर और फिर शरीर के अन्य अंगों को भी सहलाने लगा । इस प्रकार लतीफ ने मजहबी के साथ भी दुष्कर्म किया ।
(vii) नजाकत हुसैन - नजाकत हुसैन इस उपन्यास का सातवाँ प्रमुख पात्र है । वह सच्चरित्र और ईमानदार युवक था । वह परिश्रमी था और हराम की कमाई खाने से परहेज करता था । जब आयशा ने नजाकत से पूछा, " तुमने अब्बू के लिए काम कभी किया ? " तो नजाकत ने कहा, " कभी नहीं । माफ कीजिए, तूरानी साहब का काम खतरनाक और गलत होता है । मैं अल्लाह वाला आदमी हूँ, गलत काम को गुनाह मानता हूँ । दो जून की रोटी के लिए मेहनत करना मुझे कबूल है । ऐसी रोजी हलाल होती है । मैं हराम की कमाई नहीं खाना चाहता । रोजे कयामत अल्लाह को क्या जवाब दूँगा ? " [34] नजाकत शादी से पहले किसी कुंवारी लड़की से यौन संबंध बनाने को अपराध समझता था । एक दिन आयशा के खुले आमंत्रण पर कमोत्तेजित होकर उसने उसके साथ शारीरिक संबंध बना लिया । लेकिन नजाकत अपने उस काम पर शर्मिंदा था । जब आयशा ने कमरे का दरवाजा खोल दिया, तो वह अपराधी की तरह बोला, " मेरा गुनाह माफ करना आयशा ! मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ । " [35] नजाकत प्रेम में पूर्णतः समर्पित था । वह अपनी प्रेमिका आयशा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार था । जब आयशा ने कहा कि " नजाकत मियां अब हमारा साथ छूटने को है । मेरा एग्जाम 30 अप्रैल को खत्म हो रहा है । आज 20 तारीख है । अब आगे हमारा साथ कैसे हो पाएगा ? " तो नजाकत ने कहा, " आयशा ! मेरी जिंदगी की मालिक तुम हो । मैं क्या बताऊँ, मैं न तो तुम्हारी तरह पढ़ा-लिखा काबिल हूँ और न ज्यादा अकल है । तुम्हीं बताओ कि आगे क्या किया जाए ? पर इतना जान लो अब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता । अब कुछ भी हो जाए, मौत के अलावा हमारा साथ छुड़ाने की किसी की भी हिम्मत नहीं । " [36] नजाकत एक जागरूक युवक था । वह दुनियादारी की भी खबर रखता था । वह हुसैन आयशा के भाई और पिता की करतूतों से परिचित था । जब आयशा ने उसकी बहन जाहिदा को अपने घर में काम दिलवाने के लिए कहा, तो नजाकत बोला, " और तो ठीक है आयशा ! पर मुझे एक ही बात से डर लग रहा है, तुम्हारा बाप और भाई नंबर एक के हरामी हैं । उन्होंने अगर मेरी बहन से कुछ ऐसा-वैसा किया, तो मैं उन्हें छोडूँगा नहीं । तुम्हारे बाप की गई गलत बातें मैं जानता हूँ । " [37] नजाकत हुसैन स्वाभिमानी, इज्जतदार और दृढ़संकल्पी युवक था । वह दुर्जन व्यक्ति को उसकी दुष्टता के लिए दंड देना अपराध नहीं मानता था । जब उसे पता चला कि लतीफ ने उसकी बहन की अस्मत लूट ली है और वह अपनी ही बेटी आयशा के साथ दुष्कर्म करता है, तो वह अत्यंत क्रोधित हुआ । जब आयशा ने नजाकत के बहन की अस्मत लुटने के लिए स्वयं को गुनहगार बताया, तो प्रत्युत्तर में नजाकत ने कहा, " तुम तो खुद मजलूम हो, जुल्म का शिकार हो, तुम्हें क्या सजा दूँ ? पर अगर तुम मेरा साथ दो, तो मैं तुम सब पर हुये जुल्मों का बदला ले सकता हूँ । " [38]
(ख) वंचित वर्ग का जीवन-यथार्थ
उपन्यासकार श्यामलाल राही जी ने अपने उपन्यास 'रेत का दरिया' का सृजन वंचित वर्ग की पीड़ा को आधार बनाकर किया है । उनका यह उपन्यास वंचित वर्ग के सामाजिक और आर्थिक जीवन का एक सर्वेक्षण है । शोधार्थी दौलतराम भूरिया अपने शोधकार्य के दौरान वंचित वर्ग की महिलाओं के अपराधिक कारणों की जानकारी लेता है । वंचित वर्ग की महिलाओं द्वारा अपराध करने का मुख्य कारण उनकी आर्थिक दुर्बलता से उत्पन्न शोषण की स्थिति थी । आर्थिक विपन्नता के कारण ही उनकी सामाजिक स्थिति भी दयनीय थी । दौलतराम भूरिया स्वयं वंचित वर्ग से संबंधित था । वह बरेली जिले की सीमा के निकट जिला बदायूँ में स्थित ग्राम - हरपुर मटकली का निवासी था । उसके गाँव को मजरा के नाम से भी जाना जाता है । भूरिया नट जाति में पैदा हुआ था । उसकी जाति के लोग नाचने-गाने का व्यवसाय करते थे । आर्थिक तंगी के कारण भूरिया की माँ भी नाचने-गाने का कार्य करती थी । दौलतराम भूरिया अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए सोचता है, " पिताजी के न चाहते हुए भी उसकी माँ को कई बार शादी-विवाह के समय पर नाचने के लिए जाना पड़ा । छोटा होने के कारण वह उनके साथ जाता । माँ जब नाचने के लिए सजती-संवरती, तो वह उन्हें तैयार होते देखता रहता । वह उनकी मदद करता, कभी कंघा पकड़ाता, तो कभी सौंदर्य प्रसाधन की कोई सामग्री । माँ जब स्टेज पर चली जाती, तो मंडली के लोग उसे संभालते । नृत्य के बीच में जब भी फुर्सत मिलती, माँ उसे गोद में खिलाती तथा दूध पिलाती । " [39] श्यामलाल राही जी ने नट उपजाति के जीवन-यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है । उन्होंने नाचने-गाने वाली महिलाओं के बारे में उड़ने वाली अफवाह का भी उल्लेख किया है । दौलतराम भूरिया का पिता भी उसकी माँ से इसीलिए झगड़ा-लड़ाई करता था, क्योंकि उसने सुना था कि नाचने-गाने वाली महिलाएँ चोरी-चोरी देह-व्यापार भी करती हैं । राही जी के शब्दों में, " एक-दो बार उसे याद है, जब वह माँ के साथ सुबह वापस आया, तो पिताजी से माँ का झगड़ा होने लगा । दोनों में देर तक झगड़ा चलता रहा । वह दोनों बहनों के साथ डरा-डरा सब देखता रहा । बाद में उसने जाना कि झगड़े का मुख्य कारण वे अफवाहें थी, जिनमें यह बात अक्सर उड़ती थी कि ये नाचने वालियाँ ढके हुए ढंग से देह-व्यापार में संलग्न थीं । " [40] राही जी ने वंचित वर्ग की महिलाओं के श्रमिक जीवन का गंभीरतापूर्वक वर्णन किया है । वंचित महिलाएँ अपने परिवार के लिए बहुत अधिक संघर्ष करती हैं । वे घर और बाहर दोनों तरफ का कार्यभार संभालती हैं । इसलिए प्रायः वे अपने बच्चों की भली प्रकार परवरिश नहीं कर पाती हैं । लेकिन भूरिया की माँ ने आर्थिक तंगी के बावजूद भी कठिन परिश्रम के बल पर भूरिया को उच्च शिक्षा दिलाया था । दौलतराम भूरिया जब अपने बचपन के दिनों को याद करता था, तो उसका हृदय करुणा से भर जाता था । राही जी के शब्दों में, " घर चलाने के लिए माँ को कठिन परिश्रम करना पड़ता । माँ मजदूरी करती, पर मजदूरी भी गाँव में रोज कहाँ मिलती है ? सभी होने के नाते शारीरिक श्रम की भी उनकी अपनी सीमाएँ थीं । वो उन्हीं कामों को करतीं, जो स्त्रियाँ आमतौर पर खेतों में करती हैं । फसल कटाई के समय काम ज्यादा मिल जाता । माँ जब काम पर चली जाती, तो तीनों भाई-बहन घर पर रह जाते । वह बहनों के साथ खेलता रहता । शाम को जब माँ काम से वापस आती, तो उसे आते गोद में उठा लेती । उसे अपने माँ के शरीर से उठती पसीने की गंध आज भी याद है । उसे वह गंध बहुत अच्छी लगती । " [41]
(ग) नारी अस्मिता का संदर्भ
वर्तमान में नारी-विमर्श बड़ी तेजी पर है । अधिकांश महिला साहित्यकार नारी-विमर्श को लेकर अत्यंत गंभीर हैं । ऐसी स्थिति में श्यामलाल राही जी भला कैसे पीछे रहते ? उन्होंने भी अपने उपन्यास 'रेत का दरिया' में नारी-अस्मिता के संदर्भ में लेखन किया है । जितना सच यह है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों का शोषण करता है, उतना ही सच यह भी है कि स्त्रियों के शोषण में स्त्रियों की भागीदारी कम नहीं होती है । दौलतराम भूरिया को अपनी आप बीती सुनाते समय वेदवती ने कहा, " हम औरतें भी तो औरतों की बड़ी दुश्मन हैं, चाहे सास के रूप में हों या फिर ननद के रूप में या फिर दादी, बुआ के रूप में । हम हर जगह औरतों को ही सताती हैं । बूढ़ी दादी अपने नाती को तो दूध पिलाती है, पर नातिन को नहीं देती । बुआ भतीजे को प्यार से खिलाती है, भतीजी की अपेक्षा करती है । सास-ननद का तो कहना ही क्या ? बहू को सबसे ज्यादा परेशानी वही करती हैं । " [42]
वेदवती की बात को समर्थन देते हुए दौलतराम भूरिया ने शोषित वर्ग के शोषण में शोषित वर्ग के योगदान को रेखांकित करते हुए कहा, " शोषित वर्ग का सहयोग लेकर शोषक वर्ग अपने को ज्यादा ताकतवर समझता है । अनेक मामलों की जाँच-पड़ताल में पता चला है कि दलितों पर अत्याचार के मामलों में उनके वर्ग समुदाय ने अत्याचारियों का साथ दिया । औरतें भी औरतों पर जुल्म के मामले में पुरुषों का साथ देती हैं । " [43] वेदवती और दौलतराम भूरिया की बातों से सहमत होते हुए महिला बंदीरक्षक ने जुल्म को समाप्त करने का उपाय बताते हुए कहा, महिला बंदीरक्षक, " इससे बचने का एक ही तरीका है - जुल्म और जालिम दोनों से लड़ो ! चुप रहोगे, जुल्म होगा; बदले में उठ खड़े होगे, जालिम डरेगा । " [44]
(घ) आंबेडकरवादी चिंतन की प्रतिच्छाया
श्यामलाल राही जी के उपन्यास 'रेत का दरिया' में कोई भी पात्र पूर्णतः आंबेडकरवादी नहीं है । फिर भी कई पात्रों की विचारधारा पर आंबेडकरवाद का प्रभाव अवश्य दिखाई देता है । आंबेडकरवाद एक ऐसी विचारधारा है, जो समता स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम आदि मानवीय मूल्यों के संरक्षण हेतु प्रेरित करती है । जो भी मनुष्य इन मानवीय मूल्यों की रक्षा हेतु कार्य करता है अथवा चिंतन करता है, वह भले ही आंबेडकर और आंबेडकरवाद के नाम से परिचित न हो, लेकिन उसे आंबेडकरवादी विचारधारा का पोषक कहा जा सकता है । 'रेत का दरिया' उपन्यास के मुख्य पात्र शोधार्थी दौलतराम भूरिया का शोध-निर्देशक डॉ. पवन कुमार तेजा चूँकि एक प्रोफेसर है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वह आंबेडकर और आंबेडकरवाद से अपरिचित होगा । डाॅ. तेजा और भूरिया के बीच हुये संवाद से स्पष्ट होता है कि वे दोनों तनिक ही सही, किंतु आंबेडकरवाद से अवश्य परिचित हैं । दोनों की विचारधारा पर आंबेडकरवाद का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । डॉ० पवन कुमार तेजा ने भूरिया से कहा, " यह संसार है । संत लोग इसे माया का संसार कहते हैं । आम आदमी इसी मायाजाल में उलझा है । संसार में ऐसा ही होता रहता है - कभी कुछ ज्यादा अच्छा लगता है, कभी कुछ ज्यादा बुरा । हमें अपनी कोशिश अच्छा बनने के लिए, अच्छा करने के लिए करनी चाहिए । हम अपने को देखें । अपना आचरण, व्यवहार सुधारें, अपना काम ईमानदारी से करें । जो लोग गलत ढंग से आगे बढ़ रहे हैं, वे हमारे नायक नहीं होने चाहिए । मार्टिन लूथर किंग, लिंकन, गाँधी, मंडेला आंबेडकर सरीखे लोग हमारे नायक हों, यही हमारे लिए अच्छा है । " [45] इस उपन्यास में एक और पात्र है, जिसका नाम आशुतोष है, जो दौलतराम भूरिया का मित्र है । उसके चिंतन पर भी आंबेडकरवाद का प्रभाव है । तथागत बुद्ध और बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर दोनों महापुरुषों ने मनुष्य के लिए चरित्र को अत्यधिक महत्वपूर्ण माना था । चारित्रिक पतन होने के पश्चात् मनुष्य पशु-प्रवृत्ति की ओर उन्मुख होता है, जिसके कारण उसके जीवन में दुःख की उत्पत्ति होती है । डॉ. आंबेडकर के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए आशुतोष वंचित वर्ग के लोगों के लिए चरित्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानता है । दौलतराम भूरिया से वार्तालाप के दौरान आशुतोष ने अपना मत प्रकट किया, " चरित्र बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है, खासकर हम लोगों के लिए । हमें अगड़े समाज के लोगों की तरह अय्याश, परजीवी और लापरवाह नहीं बनना है । हमें आगे जाना है, बहुत आगे । हमें आगे बढ़ने में हमारा चरित्र ही हमारी मदद करेगा । " [46] दौलतराम भूरिया एक शोधार्थी होने के साथ-साथ एक सामाजिक चिंतक भी है । वह आंबेडकरवादी विचारधारा से परिपूर्ण है । अपने मित्रों आशुतोष और सागर से वार्तालाप करते हुए वह भी सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हुए वंचित वर्ग के लोगों के विकास हेतु अपना महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत करता है । भूरिया का मानना था कि शिक्षित और सेवारत व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे अपना विकास करने के साथ-साथ अपने समाज का भी विकास करें । दौलतराम भूरिया ने सागर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, " सही कह रहा है तू ! हमें तो बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर तथा भगवान बुद्ध के पद-चिन्हों पर चलना है । हमें केवल अपना विकास नहीं करना है, बल्कि पूरे समाज का विकास करना है । चरित्र इस युद्ध में हमारा बड़ा हथियार है । यदि यह हथियार ही बेकार हो गया, तो फिर आगे बढ़ना कैसे संभव होगा ? तरक्की की राह आसान नहीं होती । बाबा साहेब ने अपना जीवन होम कर हमें एक मार्ग दिखाया । वे जीवन भर तपे, हम सबके लिए अपनी सुख-सुविधाएँ त्यागी, त्याग की पराकाष्ठा प्रदर्शित करने वाले भगवान बुद्ध के अनुयायी बन समाज के सामने अपना उदाहरण रखा । " [47]
निष्कर्षतः स्पष्ट है कि उपन्यासकार श्यामलाल राही जी ने अपने उपन्यास 'रेत का दरिया' में वंचित वर्ग के सामाजिक-आर्थिक जीवन को आधार बनाकर कथावस्तु तैयार किया है । उन्होंने पात्रों का चरित्र-चित्रण करते समय देशकाल और वातावरण का अवश्य ध्यान दिया है, फिर भी यदि वे क्षेत्रीय भाषा का आवश्यकतानुसार प्रयोग करते, तो उपन्यास के पात्र पूर्णतया जीवंत हो जाते । राही जी ने पात्रों के संवाद के समय कहीं-कहीं अपने मन की बातों को रख दिया है, जिससे पात्रों का संवाद बाधित प्रतीत होता है । राही जी ने इस उपन्यास में नारी समस्याओं को सफलतापूर्वक रेखांकित किया है । राही जी ने इस उपन्यास के माध्यम से यह प्रदर्शित किया है कि स्त्रियों की अस्मत स्वयं उनके घर में ही सुरक्षित नहीं है । प्रायः लड़कियाँ अपने ही घरवालों, रिश्तेदारों अथवा पड़ोसियों के द्वारा बलत्कृत होती हैं । राही जी ने महिलाओं की आपराधिक भावना के पीछे अवस्थित कारणों को उजागर किया है । साथ ही उन्होंने आंबेडकरवादी चेतना को भी अपने उपन्यास में समाविष्ट किया है । कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि श्यामलाल राही जी का उपन्यास 'रेत का दरिया' वंचित वर्ग की समस्या, नारी विमर्श और आंबेडकरवादी चेतना आदि सभी विषयों की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण उपन्यास है ।
संदर्भ :-
[1] रेत का दरिया : श्यामलाल राही, पृष्ठ 23, प्रकाशक - साहित्य संस्थान गाजियाबाद उत्तर प्रदेश, प्रथम संस्करण 2020
[2] वही, पृष्ठ 34-35
[3] वही, पृष्ठ 72
[4] वही, पृष्ठ 112
[5] वही, पृष्ठ 118
[6] वही, पृष्ठ 261
[7] वही, पृष्ठ 181
[8] वही, पृष्ठ 181
[9] वही, पृष्ठ 217
[10] वही, पृष्ठ 217
[11] वही, पृष्ठ 120
[12] वही, पृष्ठ 121
[13] वही, पृष्ठ 155
[14] वही, पृष्ठ 166
[15] वही, पृष्ठ 276
[16] वही, पृष्ठ 278
[17] वही, पृष्ठ 305
[18] वही, पृष्ठ 306
[19] वही, पृष्ठ 322
[20] वही, पृष्ठ 327
[21] वही, पृष्ठ 292-293
[22] वही, पृष्ठ 293
[23] वही, पृष्ठ 293-294
[24] वही, पृष्ठ 297
[25] वही, पृष्ठ 302
[26] वही, पृष्ठ 304
[27] वही, पृष्ठ 307
[28] वही, पृष्ठ 317
[29] वही, पृष्ठ 273
[30] वही, पृष्ठ 289
[31] वही, पृष्ठ 327
[32] वही, पृष्ठ 389
[33] वही, पृष्ठ 393-394
[34] वही, पृष्ठ 370
[35] वही, पृष्ठ 381
[36] वही, पृष्ठ 382
[37] वही, पृष्ठ 386
[38] वही, पृष्ठ 398
[39] वही, पृष्ठ 30
[40] वही, पृष्ठ 30
[41] वही, पृष्ठ 30-31
[42] वही, पृष्ठ 113
[43] वही, पृष्ठ 113
[44] वही, पृष्ठ 113
[45] वही, पृष्ठ 27
[46] वही, पृष्ठ 72
[47] वही, पृष्ठ 72
आपके द्वारा किए जा रहे रचनात्मक कार्यों से बहुजन समाज में क्रांतिकारी विचारों का उदय होगा जिससे भविष्य में वे स्वाभिमान की जिंदगी जी सकेंगे।आपके साहसिक प्रयासों के लिए क्रांतिकारी जयभीम
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर, सादर जय भीम !
जवाब देंहटाएंआप जैसे अनुभवी और वरिष्ठ सामाजिक चिंतकों का आशीर्वाद बना रहे, तो हम अपनी पूरी ऊर्जा के साथ आजीवन बहुजन समाज के हित के लिए कार्य करते रहेंगे ।
आदरणीय श्री देवचंद्र भारती "प्रखर" जी का हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद 🙏🏻🙏🏻
जवाब देंहटाएंसादर साधुवाद ! जय भीम !
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा किए जा रहे कार्य मील के पत्थर साबित होंगे। एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में आने वाली पीढ़ियों को राह दिखाने का कार्य कर रहे हैं। अनथक मेहनत के लिए साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसाभार धन्यवाद सर !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रशंसा और प्रोत्साहन पूर्ण प्रतिक्रिया के लिए आपको साभार धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंआपके द्वारा सृजित कार्य भविष्य में आने वाले साहित्य प्रेमियों एवं शोध छात्र छात्राओं के लिए अत्यंत उपयोगी एवं मार्ग प्रदाता होगा।
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