यह लेख देवचंद्र भारती 'प्रखर के द्वारा महिला दिवस (8 मार्च 2020) के अवसर पर लिखा गया था ।
यह कैसी नारी स्वतंत्रता ?
आजकल की पढ़ी-लिखी अथवा नौकरी पेशे वाली महिलाएँ जिस तरह से पुरुषों के साथ पेश आ रही हैं, उसे देखकर यह कहने में कोई बुराई नहीं होगी कि आजकल भारत देश महिला-प्रधान होता जा रहा है ।
उच्च शिक्षित और प्रवक्ता पद पर आसीन कई सारी महिलाओं का तो यहाँ तक कहना है कि वे अपनी जरूरत की चीजों के लिए पुरुषों से पैसा माँगने में शर्म महसूस करती हैं । इसीलिए वे आत्मनिर्भर बनने हेतु नौकरी करने के लिए लालायित थीं अथवा हैं । यदि पुरुष उन्हें नौकरी करने से रोकता है, तो वे उसे अपना दुश्मन समझती हैं ।
बात नौकरी की नहीं है, बात है मानसिकता की ।
उनका कहना होता है कि हम कोई नौकरानी नहीं कि घर का सारा काम करें । क्यों भाई ! क्या घर के सदस्यों के लिए खाना पकाना नौकरानी का काम है ? कपड़े धोना नौकरानी का काम है ? आजकल की पढ़ी-लिखी औरतें सरकारी नौकर बनना पसंद कर सकती हैं, किंतु एक कुशल गृहिणी बनने में वे अपने आपको नौकरानी समझती हैं ।
नौकरी करने वाला नौकर ही होता है; चाहे वह सरकारी नौकरी ही क्यों न हो ।
अब चिंता का विषय यह है कि यदि घर का काम नारी नहीं करेगीं, तो क्या पुरुष करेंगे ? खैर आजकल बहुत सारे पुरुष ऐसा कर भी रहे हैं । उनकी पत्नी पढ़ाई करती है और वे खाना बनाते हैं । समय से चाय बनाकर देते हैं । यहाँ तक कि स्त्री के कपड़े भी धो देते हैं । मैंने तो यहांँ तक सुना है कि वैसी स्त्रियाँ अपने भाग्य को सराहती हैं, जिनके पति ही उनकी सेवा करते हैं ।
यदि पति की सेवा पत्नी करे, तो उसे दासी कहा जाता है । तो फिर पत्नी की सेवा पति करे. तो वह भी तो दास कहा जाएगा ।
उचित यही है कि पति-पत्नी एक-दूसरे के जीवन साथी हैं, तो एक दूसरे का सहयोग करें; किंतु मौके-मौके से । यह नहीं कि जीवन भर के लिए एक ही कार्यक्रम चलता रहे और एक ही तरह का । यह तो सरासर बेईमानी है - मर्द जाति के साथ ।
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"उल्फत-ए-किरण" प्यार का गुलदस्ता है । 👇
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शहरी महिलाएँ बहुत अधिक स्वतंत्र होती हैं ।
शहरी महिलाएँ बहुत स्वतंत्र हैं । खाना बनाने, खाने और खिलाने के बाद दिनभर बैठकर टी०वी० देखना या फिर मार्केट की सैर करना, ब्यूटी पार्लर जाना अथवा पार्क में जाकर गप्पे लड़ाना; ऐसे बहुत सारे काम करके वे अपना मनोरंजन कर लेती हैं । उनके ऊपर काम का बहुत अधिक बोझ तो होता नहीं । फिर भी वे स्वतंत्रता की माँग करती हैं । शायद उन्हें घंटे दो घंटे व्हाट्सएप चलाने की स्वतंत्रता चाहिए, फेसबुक चलाने की स्वतंत्रता चाहिए, नाइट क्लबों में जाने की स्वतंत्रता चाहिए, फोन पर इनसे-उनसे घंटों बातें करने की स्वतंत्रता चाहिए । यदि ऐसा करने से पुरुष रोके, तो वह उसे शक्की और बदमिजाज घोषित कर देती हैं ।
गाँव की महिलाएँ बहुत कम स्वतंत्र होती हैं ।
गाँव-देहात की औरतें बहुत अधिक काम करती हैं । आजकल तो गाँवों में भी बहुत अधिक काम नहीं रह गया है । शहरी सुविधाएँ गाँवों तक पहुँच गई हैं । गाँव की औरतें भी काम कम, मनोरंजन अधिक कर रही हैं । गाँव में आजादी तो बहुत पहले से ही है । हर शाम पड़ोसियों के साथ बैठकर के इधर-उधर की शिकायतें करना, घर-घर की खबर लेना गाँव-घर की औरतों के लिए उनकी दैनिक क्रिया में शामिल है ।
महिलाओं को अंधविश्वास-पाखंड ढोने, पूजा-पाठ करने आदि की आजादी तो भरपूर है । बल्कि सच कहें, तो पूजा-पाठ और अंधविश्वास महिलाओं के ही दम से आज तक जारी है ।
इन सारी बातों को ध्यान में रखकर यही कहा जा सकता है कि आजकल की पढ़ी-लिखी और नौकरी-पेशे वाली लड़कियों अथवा महिलाओं के लिए स्वतंत्रता से अधिक स्वच्छंदता की चाह है । इसके लिए वे पुरुषों की भी स्वतंत्रता छीनने के लिए आतुर हैं । अब तो भैया ! पुरुषों की स्वतंत्रता खतरे में है ।
[ महिला दिवस, 8 मार्च 2020 ]
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
🏡 वाराणसी, उत्तर प्रदेश
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'