औघड़ संत बीजा राम जी द्वारा हस्तलिखित पांडुलिपि डॉक्टर मोतीचंद, डायरेक्टर प्रिंस आफ वेल्स म्यूजियम मुंबई, द्वारा इसवी सन 1962 में लिखित काशी का इतिहास और आर० कैरूथर्श एंड संस द्वारा इसवी सन 1873 में प्रकाशित बनारस प्रांत का इतिहास के आधार पर संत कीनाराम जी के पूूूर्व का और समकालीन इतिहास निम्न है ।
संत कीनाराम : ऐतिहासिक दृष्टिकोण
महाजनपद युग के समय से काशी एवं उत्तराखंड में नाग यक्षों की पूजा होती थी । बुद्ध काल में वृक्षों के मध्य में, कूपों पर नाग की पूजा की लोकप्रियता के कारण हजारों वर्ष बाद ब्राह्मणों ने नाग पंचमी को महत्व देना प्रारंभ किया । उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में आज भी ब्रह्मपिशाच यानि यक्ष की पूजा होती है । काशी में बुद्ध काल में कोई प्रमुख देवालय नहीं था, वृक्षों का ही पूजन या माल्यार्पण या दीपदान होता रहा ।
मुस्लिम और मुगल काल की दार्शनिक विचारधारा को हम वैदिक विचारधारा का स्वाभाविक विकास मान सकते हैं । वैदिक विचारधारा और कर्मकांड की ओर से लोगों की रुचि हटने लगी । लोग अनुभव करने लगे कि आत्मतत्व की प्राप्ति के लिए वेदाध्ययन कर्मकांड और दान दक्षिणा व्यर्थ है । ब्राह्मणों ने सत्यनारायण की कथा इत्यादि कुछ नियमों का आविष्कार किया, वह भी धोखाधड़ी रही । आत्म तत्व के लिए गंभीर चिंतन और ज्ञान की आवश्यकता है ।
यही कारण था कि हिंदू वर्णाश्रम के अंतर्गत उच्च जातियों द्वारा अपेक्षित होकर छोटी कही जाने वाली जातियां बौद्ध ईसाई और इस्लाम जैसे नए धर्मों को अंगीकार करने लगी जिनमें शून्यवाद जैसी नूतन चेतनाओं का समावेश है । परिणामतः बहुत सारी जातियां हिंदू समाज से समाप्त हो गई । कुछ जातियों के हिस्से बौद्ध ईसाई एवं मुसलमान हो गए ।मुस्लिम शासन काल में उच्च जाति के हिंदू भी एकेश्वरवाद इस्लाम की ओर खिंचे और उनमें से बहुत से मुसलमान हो गए और शेख, सैयद, पठान व मुगल कहलाने लगे, जो मुसलमानों में उच्च जातियां समझी जाती हैं ।
अंग्रेज यात्री पीटर मंडी ने 3 दिसंबर 1632 ईस्वी सन् की बनारस की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है कि बनारस खत्री ब्राह्मणों और बनियों की बस्ती है । और वहां दूर-दूर से लोग देवताओं की पूजा करने आते हैं । मंडी ने बनारस में साधुओं और फकीरों का भारी हंगामा भी देखा । इनमें हिंदू , मुसलमान जोगी और नागे थे, जो लोगों के दान-धर्म पर अपनी जीविका चलाते थे ।
दो प्रसिद्ध फ्रांसीसी यात्री बर्नियर और तावेर्निये ईस्वी सन् 1660 और 1665 के बीच बनारस आए और उनके बयानों से हमारे सामने 1660 और 1665 के बीच के बनारस का चित्र खड़ा हो जाता है । उस समय के ब्राम्हण तीन कनौजिया तीन कनौजिया तेरह चूल्हा वाली कहावत चरितार्थ कर रहे थे ।
तावेर्निये के अनुसार, "ब्राम्हण गंगा स्नान और पूजा पाठ के बाद भोजन बनाने में अलग-अलग जुड़ जाते थे और उन्हें सदा यह भय लगा रहता था कि कहीं कोई अपवित्र आदमी उन्हें छू ना ले । हिंदुओं को गंगाजल पान का बड़ा शौक था । उनका विश्वास था कि गंगाजल पीते ही पाप कट जाते हैं । नित्य प्रति बहुत से ब्राह्मण नदी के साफ भाग से घडो़ं में पानी भरकर लाते थे । इन घड़ों और झारियों को वे अपने प्रधान के पास ले जाते थे और वह उनके मुंह केसरिया कपड़ों से बँधवाकर उन पर मुहर मार देते थे । ब्राह्मण बहँगियों पर लादकर इन घड़़ों को बाहर ले जाते थे । कंधा बदलते हुए ब्राम्हण इन घड़ों को तीन चार सौ कोस तक ले जाते थे और खास जगहों में ले जाकर या तो वे इन्हें बेच देते थे या उन्हें किसी को भेंट कर देते थे । पर भेंट पाने वाले को काफी मालदार होना आवश्यक था, जिससे ब्राह्मणों को भरपूर दक्षिणा वसूल हो सके ।"
हिंदुओं की मान्यता रही है कि गंगाजल की पवित्रता शास्त्र सम्मत है और अपवित्र से अपवित्र वस्तु भी गंगाजल के स्पर्श से पवित्र हो जाती है । स्पष्ट है कि वस्तुतः इस पर हिंदुओं का विश्वास नहीं था क्योंकि सचमुच यदि उनका ऐसा विश्वास होता तो हिंदू समाज से अपवित्र किए गए अनगिनत व्यक्तियों को, जो किसी कारण मुसलमान या ईसाई हो गए, गंगाजल पिलाकर हम पवित्र कर सकते थे, जो नहीं हुआ । जैसा कि तावेर्निये ने लिखा है, पैसा कमाने के लिए ही गंगाजल को धार्मिक महत्व दिया गया था । यदि ऐसा नहीं था और गंगाजल सिर्फ त्रास मिटाने के लिए पुण्य कार्य के रूप में दूरदराज तक पहुंचाया जाता था तो जैसा कि त्रास मिटाने के लिए संत एकनाथ जी ने गधे को पानी पिलाया था । ब्राह्मण और पंडे सिर्फ खास - खास मालदार यजमानों को गंगाजल ना पहुंचा कर, समाज के उपेक्षित और बहिष्कृत जाति के लोगों को भी गंगाजल पिला कर उनकी त्रास मिटाते ।
एक ओर यह स्थिति थी और दूसरी ओर मुगल बादशाहों और शासकों द्वारा हिंदुओं के मंदिरों एवं पवित्र पूजागृहों की तोड़फोड़ भी बहुत ही व्यापक पैमाने पर की गई । शाहजहां कट्टर मुसलमान था और बड़े पैमाने पर मंदिरों को नष्ट करना चाहता था किंतु उसे संत कीनाराम के प्रति बहुत ही श्रद्धा और आदर की भावना थी । अतः संत कीनाराम का निरादर ना हो, इसके लिए इसवी सन 1632 में शाहजहां ने हुक्म दिया कि बनारस एवं अन्यत्र केवल अर्धनिर्मित मंदिर ही गिरा दिए जाएं । इसका विरोध भी हुआ । एक राजपूत रास्ते में छिप गया था और अपनी कमठी से इलाहाबाद के सूबेदार के चचेरे भाई हैदरबेग और उसके तीन चार साथियों को जो मंदिरों को नष्ट करने के लिए तैनात किए गए थे, मार डाला । अंत में उस राजपूत की लाश पेड़ से लटका दी गई । यूरोपियन यात्री पीटर मंडी ने 3 दिसंबर 1932 ईस्वी को मुगलसराय जाते हुए देखा था ।
औरंगजेब के शासनकाल में इसवी सन 1659 में बनारस का कृति वासेश्वर मंदिर तोड़ दिया गया और उस पर आलमगीरी मस्जिद बनाई गई । फिर 18 अप्रैल 1669 ईसवी सन को औरंगजेब ने अपने सूबेदारों के नाम यह फरमान जारी किया कि वे अपनी इच्छा से काफिरों के तमाम मंदिर और पाठशालाएं गिरा दें । उन्हें इस बात की भी सख्त ताकीद की गई कि वे सब प्रकार के मूर्ति पूजा संबंधी शास्त्रों के पठन-पाठन और मूर्ति पूजा भी बंद करा दें । 2 सितंबर 1669 को बादशाह को खबर मिली कि बनारस में विश्वनाथ का मंदिर गिरा दिया गया । मंदिर केवल गिराया ही नहीं गया, उस पर ज्ञानवापी की मस्जिद भी उठा दी गई । इन हरकतों से संत कीनाराम औरंगजेब से बहुत ही क्षुब्ध थे । इसलिए जब औरंगजेब बाद में क्षिप्रा नदी के तट पर संत कीनाराम से मिला, तो संत किनाराम ने उसे बहुत ही डांटा - फटकारा । इसका उल्लेख बाबा बीजाराम की पांडुलिपि में है ।
ईस्वी सन् 1538 से लगाकर 1554 तक बनारस शेरशाह सूरी ( 1538 - 1545 ) और उसके पुत्र इस्लाम शाह सुरी ( 1545 से 1554 ) के कब्जे में रहा उसके बाद अशांति रही । ईस्वी सन 1565 में बादशाह अकबर बनारस आए तब शांति हुई ।जौनपुर बनारस और चुनार के सूबा का प्रबंध स्वयं अकबर ने संभाला । इस सूबा की राजधानी जौनपुर में थी । ईस्वी सन् 1574 से 1576 तक बनारस के सूबेदार मोहम्मद मासूम खान फरनखुदी थे । ईसवी सन 1576 से 1589 तक तरमुम मुहम्मद खान बनारस के सूबेदार रहे । इसवी सन 1589 में मिर्जा अब्दुल रहीम खानखाना जौनपुर के सूबेदार रहे । इसवी सन 1584 में इलाहाबाद का किला बना और तब से इस सूबा की राजधानी जौनपुर से उठकर इलाहाबाद चली गई । बनारस, इलाहाबाद सूबा का जिला या सरकार बन गया ।
बनारस का सबसे पहला फौजपुर मिर्जा चीन कीलीच खां था । इसवी सन 1599 तक वे बनारस के फौजदार रहे । उनके आगरा चले जाने पर उनके पुत्र बनारस के फौजदार हुए ।
इसवी सन 1632 में हैदर बेग इलाहाबाद के सूबेदार थे । इसवी सन 1719 तक छबीलाराम नागर इलाहाबाद सूबा के सूबेदार थे, जिसके अधीन बनारस एक जिला या सरकार था ।
इसवी सन 1730 में संत कीनाराम के निवेदन पर मुगल बादशाह मोहम्मद शाह ने जजिया कर उठवा दिया । इसवी सन 1730 में शहादत अली खान अवध के नवाब मुकर्रर हुए । गाजीपुर, जौनपुर और बनारस के जिले या सरकारें उस समय मुर्तजा खान के नाम से किसी उमराव की अधीनता में थे । सआदत अली खान है इन जिलों या सरकारों को इलाहाबाद की सूबेदारी से निकलवाकर अवध के जिम्मे करवा दिया और मुर्तजा खान को ₹700000 मालगुजारी देने का इकरारनामा कर दिया । किंतु बनारस की बंदोबस्ती ₹800000 पर अमीर रुस्तम अली के जिम्मे कर दिया जो बनारस की तहसील, वसूल और बंदोबस्ती करने लगे । माल, दीवानी, फौजदारी वगैरह सब उनके अख्तियार में थी ।
मंसाराम जो आधुनिक बनारस राज के वास्तविक संस्थापक थे, मीर रुस्तम अली की नौकरी में इसवी सन 1738 तक थे । उन्होंने रुस्तम अली की मालगुजारी से ₹400000 अधिक देना कबूल करके बनारस की जमींदारी की सनद अवध के नवाब से अपने नाम से लिखवा ली । रुस्तम अली जेल भेज दिए गए । सनद मिलते ही मंसाराम भी चल बसे और उनकी गद्दी पर उनके लड़के बलवंत सिंह बैठे । मंसाराम संत कीनाराम के प्रति बहुत ही निष्ठा रखते थे और उनकी सेवा में लगे रहते थे । अपने ग्राम गंगापुर से मंसाराम क्री-कुंड स्थल, संत कीनाराम के दर्शनार्थ बराबर आया करते थे और स्वयं अपने हाथों से हुक्का भर कर संत किनाराम जी को पिलाया करते थे । उनकी सेवाओं से खुश होकर एक दिन संत कीनाराम ने मंसाराम को आशीर्वाद दिया - "जा तुम्हारे घर राजा जन्म लेगा ।" संत जी के आशीर्वाद से ही बलवंत सिंह का जन्म हुआ था । दरअसल बनारस के राजा ना तो मंसाराम रहे और न चेत सिंह बल्कि वास्तविक राजा बलवंत सिंह ही हुए और 32 वर्षों तक बनारस के राजा बने रहे । बनारस के राजा बलवंत सिंह का शासन काल इसवी सन 1738 से 1770 तक रहा । इसवी सन 1751 में रुहेलों के अत्याचार से प्रयाग और बनारस वीरान हो गए थे । तमाम हुंडी - पुर्जे का काम बंद हो गया था और बहुत से महाजनों का दिवाला निकल गया था । इस समय उत्तर भारत में हुंडिया भेजना भी बहुत मुश्किल हो गया था । रूहेलों ने प्रयाग की नई बस्ती ले ली थी । बहुत सी औरतों को कैद कर लिया था । उनके सरदार अहमद बंगश का इरादा था बनारस आने का । बनारस में दहशत फैल गई । दो दिनों तक शहर में रोशनी तक नहीं हुई और 10 दिनों तक किसी के होश ठिकाने न रहे । बनारस से पटना तक का घोड़ा एक्का गाड़ी का भाड़ा ₹80 तक हो गया था । कहीं भी मजदूर नहीं मिलते थे और सब लोग मिर्जापुर, आजमगढ़ अथवा गंगा पार भाग गए थे । राजा बलवंत सिंह, रुहेला सरदार अहमद बंगश से मिलने के लिए प्रयाग पहुंचे और वहां कुछ नजर हासिल किए । बंगश ने उन्हें सरोपाव देकर, बनारस की कोतवाली को छोड़कर सारा जिला उनके सुपुर्द कर दिया । महाजनों से अहमद बंगश को ₹700000 दिलवाकर बलवंत सिंह ने बनारस की लूट रुकवायी । इसवी सन 1754 के लगभग रामनगर का किला बलवंत सिंह के समय में बना था । 170 वर्ष की उम्र में संत कीनाराम ने पार्थिव शरीर त्याग कर परलोक गमन किया । ईस्वी सन् 1754 में अवध के नवाब सफदरगंज की मृत्यु हुई और उनकी जगह पर शुजाउद्दौला अवध के नवाब हुए । इसवी सन 1770 में राजा बलवंत सिंह की मृत्यु होने पर काशीराज की गद्दी पर चेतसिंह बैठे । राजा बलवंत सिंह को उनकी विवाहिता रानी गुलाब कुंवर से कोई पुत्र नहीं था । उनसे एक कन्या थी जो तिरहुत में सिरसा के जमीदार दुर्विजय सिंह से ब्याही थी । उनके पुत्र महीप नारायण सिंह थे । बलवंत सिंह की रखेल पन्ना से उन्हें 2 पुत्र थे - चेतसिंह और सुजान सिंह । किंतु इन दोनों के वेश्या पुत्र होने से राज्य पर इनका कोई अधिकार नहीं था । बलवंत सिंह का भतीजा मनियार सिंह गद्दी के वास्तविक अधिकारी थे । औसान सिंह, चेत सिंह से मिले हुए थे और उन्होंने चेत सिंह को गद्दी पर बैठाने के लिए अवध के नवाब वजीर को ₹200000 गद्दी नशीनी के लिए और मालगुजारी में ₹200000 के इजाफे की शर्त स्वीकार कर ली । गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स के दबाव पर 1773 में अवध के नवाब ने चेत सिंह को सनद दे दी ।
ईस्वी सन् 1774 में अवध के नवाब शुजाउदौला की मृत्यु हो गई । संत कीनाराम के परलोक गमन के 5 वर्ष बाद 15 अप्रैल 1776 को ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ नया बंदोबस्त हुआ, जिसके अनुसार कंपनी राजा चेत सिंह के सभी इलाकों की मालिक हो गई और राजा के साथ अवध के नवाब का कोई संबंध नहीं रह गया । चेत सिंह दासी पुत्र थे इसलिए अपनी जाति के साथ भोजन नहीं कर सकते थे यद्यपि जाति में मिल जाने की उनकी प्रबल इच्छा थी । संजोग से उनके भाई सुजान सिंह की स्त्री की मृत्यु हो गई और इस अवसर पर उन्होंने भूमिहारों को न्योता दिया । भूमिहार बिरादरी के लोग इस बात पर राजी हो गए की औसान सिंह राजा के साथ भोजन करना स्वीकार करें, तो सब भूमिहार इसके लिए तैयार थे । ऐन मौके पर औसान सिंह बीमारी का बहाना कर अपने घर चले गए और वहां से इलाहाबाद खिसक गये । जब उन्हें कहीं आश्रय नहीं मिला तो वे मुर्शिदाबाद भाग गए । वहां उन्होंने गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स से चेत सिंह की शिकायत की । कुछ समय बाद वारेन हेस्टिंग्स ने औसान सिंह को बनारस भेजा और उनके गुजारे के लिए ₹50000 सालाना आमदनी की जागीर देने का हुक्म चेत सिंह को दिया । उन्हें भीतरी सैदपुर की जिम्मेदारी मिली । चेत सिंह के साथ कंपनी पट्टे की शर्तों के अनुसार चेत सिंह और उनकी रैयतों के बीच के मामलों में दखलंदाजी का कोई अधिकार कंपनी को नहीं था ।
7 जुलाई 1781 को वारेन हेस्टिंग्स बनारस के लिए रवाना हुए । रास्ते में ही सिर से पगड़ी उतारकर राजा चेत सिंह ने हेस्टिंग्स के पांव धरकर कहा - " आप सब तरह से हमारे मालिक हैं । जो कुछ भूल या कसूर मुझसे हुए हैं उन्हें माफ करके मुझे अपनी शरण में लीजिए, क्योंकि आपके सिवा मेरा कोई दूसरा रक्षक नहीं है । अत्यंत क्रोध से लात मारकर हेस्टिंग ने चेत सिंह की पगड़ी फेंक दी और बड़ी बेइज्जती के साथ उन्हें विदा किया । 15 अगस्त 1791 ईस्वी सन् को वारेन हेस्टिंग्स बनारस पहुंचे और उसी दिन शिवाला घाट स्थित काशीराज के महल में चेत सिंह को कैद कर लिया गया । गंगा में बाढ़ थी और महल की खिड़की तक बाढ़ का पानी पहुंच गया हुआ था । खिड़की से पगड़ी का कमंद लगाकर चेत सिंह भागकर राम नगर पहुंचे । शिवाला घाट स्थित काशीराज के किले पर अंग्रेजी फौज ने कब्जा कर लिया । रामनगर से चेत सिंह लतीफपुर के किले में भागे, फिर विजयगढ़ किला पहुंचकर वहां से अपनी दौलत ऊँटो और हाथियों पर लादकर रीवा की तरफ भागे और अपनी घर की औरतों को विजयगढ़ किले में ही छोड़ गए । चेत सिंह रीवा से पन्ना भागे रास्ते में उनकी बहुत सी दौलत लुट गई । अंग्रेज अफसरों ने चेत सिंह की माता पन्ना को आश्वासन दिया कि उनके द्वारा विजयगढ़ किला खाली किए जाने पर उनकी तलाशी नहीं ली जाएगी, किंतु उनके किला से बाहर निकलने पर अंग्रेजों ने रानी के जेवरात छीन लिए और उनकी बेइज्जती की । विजयगढ़ किले से 2327800 रुपए मिले, जिसे अंग्रेजी फौज ने आपस में बांट लिया ।
चेत सिंह ने शिवाला घाट के किले में संत कीनाराम जी की उपेक्षा की थी । अतः वह क्षुभित हो बोल पड़े - " किला में कबूतर बीट करेगा । किला छोड़कर भागना होगा । यह विधर्मियों के अधिकार में चला जाएगा । यहां उपस्थित सभी निसंतान होंगे । " चेत सिंह की जिल्लत, बेईज्जती और अपमान हुआ, वह सब संत किनाराम के क्षोभ का परिणाम था ।
संत कीनाराम जी का जन्म
बनारस जनपद के अंतर्गत चंदौली तहसील के रामगढ़ ग्राम में रघुवंशी क्षत्रिय कुल उत्पन्न अकबर सिंह योग विद्या में निपुण और क्षेत्रीय जनता की श्रद्धा के पात्र थे । उनकी पत्नी मनसा देवी के गर्भ से सन् 1601 ईस्वी में भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को बाल रवि के उदय के साथ-साथ एक शिशु का जन्म हुआ । काफी लंबी उम्र गुजारने के बाद अकबर सिंह के पुत्र रत्न की प्राप्ति की खबर पाकर ग्राम के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी जातियों के लोगों की खुशियां देखते ही बनती थी । घड़ों - घंट, शंख इत्यादि बाजाओं से हुलसित होकर रामगढ़ गांव अति सुशोभित हो रहा था । छः दिनों तक अनवरत हर्ष का समारोह बना रहा और मंगल गान होता रहा । छठी के दिन मनसा देवी के पवित्र वस्त्र की गंध पूरे नगर में फैली हुई थी । हाथ में कलश ली हुई, कमल के सदृश खिले हुए मुखारविंद वाली मनसा देवी का शरीर या वस्त्र जिस किसी के शरीर या वस्त्र से छू जाता, वह सुगंधित हो जाता था । छठी समारोह की समाप्ति के बाद धीरे-धीरे बरही का दिन भी आ गया । उस दिन दूर-दराज से हजारों की तादाद में अकबर सिंह के कुटुंबी और बंधु - बांधव बालक के दर्शनार्थ उपस्थित हुए । अनेक नगरों से भांति - भांति की रंग - बिरंगी अनेक तरह की वेशभूषा में सुसज्जित बड़ी - छोटी सभी जातियों के लोग उसमें शरीक होने के लिए आए । अकबर सिंह ने यथायोग्य सभी जनों का उचित सत्कार किया और दान दक्षिणा दी ।स्त्रियों के बीच मनसा देवी ने दान पुण्य में अपार धन राशि का वितरण किया ।
पुरोहितों ने अकबर सिंह को परामर्श दिया कि बहुत दिनों के बाद आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है । वे दीर्घ जीवी हों और इस पृथ्वी पर महान कीर्ति फैलावें । इसके निमित्त इन्हें किसी के हाथ बेच कर फिर किन लें । पुरोहितों के इस परामर्श के अनुसार ही बालक का नामकरण कीनाराम हुआ । इनका राशि का नाम शिवा था । इन्हीं को वैष्णव लोग शिवाराम के नाम से जानते हैं ।
वैराग्य और भ्रमण
शिशु कीनाराम का शैशवकाल ग्राम की आमवलियों एवं वाण गंगा के किनारे बीतने लगा । धीरे-धीरे वह सयाने हुए और अपने पुरोहितों - गुरुजनों से विद्या प्राप्त की । माता-पिता की अधिक अवस्था हो जाने के कारण उनके विवाह का प्रयत्न चलने लगा और अल्प आय में ही उनका विवाह हो गया । इनकी पत्नी का नाम कात्यायनी देवी था । गवना के समय इन्होंने दूध भात खाने का हठ किया । बाल हठ से परास्त हो माता ने दूध - भात कटोरी में दिया । उसी समय सूचना आई कि कात्यायनी देवी ने शरीर त्याग दिया है । किशोर कीनाराम के मन में तीव्र वेग से वैराग्य उदित हुआ । कुछ ही दिनों बाद उनकी माता का देहांत हो गया ।
कीनाराम तीर्थों के अवलोकनार्थ भ्रमण पर निकल पड़े वैष्णव आंदोलन से उदासीन बहुत से वैष्णवों ने इनका आश्रय ग्रहण किया ।
तीर्थाटन में संत कीनाराम जहां-जहां ठहरते गए, उन - उन जगहों पर उनके आसन की पूजा के लिए उक्त वैष्णवों में से ही कुछ को उन्होंने छोड़ दिया, जैसे कि महुअर, परानापुर, नईडीह और मारूफपुर के वैष्णव मठ हैं । संत कीनाराम कभी वैष्णव नहीं हुए । उस समय मुस्लिम शासकों की कट्टरता से हिंदू धर्मावलंबी त्रस्त थे और वैष्णव आंदोलन जोरों पर था । अतः उनके शिष्य समुदाय में से जो राजसी ढंग से रहना चाहते थे, उन्हें संत कीनाराम ने वैष्णव बनने की प्रेरणा दी । शिष्यों में से जो सच्चे सात्विक तौर पर रहना चाहते थे, वास्तविकता को जानना चाहते थे तथा किसी धर्म या जाति के प्रति दुराव नहीं रखते थे, उन्हें किनाराम ने अघोर पथ की दीक्षा दी । उत्तर भारत के अनेक नगरों में इनके दोनों वर्गों के शिष्य कुटिया - मठ में विद्यमान हैं । जहां वैष्णवाचार एवं अघोराचार दोनों ही शिष्य परंपरा के लोग विचरते रहते हैं ।
शोषण से बालक बीजा राम की मुक्ति
संत कीनाराम भ्रमण करते हुए गाजीपुर जनपद के अंतर्गत कारा ग्राम में जा पहुंचे वहां पर बुढ़िया विधवा से बकाए मालगुजारी की वसूली के लिए उसके एकमात्र पुत्र विजय राम को जमीदार ने बैसाख जेठ की तपती हुई धूप में बांधकर मार रहा था । बुढ़िया मां रो रही थी । संत किनाराम ने बुढ़िया मां से उसके दुख का कारण पूछा । बुढ़िया मां ने कहा - " जाओ बाबा ! तुम मांगो खाओ । हमारा दुखड़ा जानकर क्या करोगे ? जब संत कीनाराम ने बहुत आग्रह किया तो बुढ़िया ने कहा - " बाबा हमारे बेटे पर जमींदार का पोत चढ़ गया है, इसलिए वह उसे पकड़ कर ले गया । पोत की वसूली के लिए मारपीट रहा है । इतना सुनकर संत कीनाराम दयाद्र हो गये और बुढ़िया मां को लेकर जमीदार के यहां पहुंचे और उससे बोले - " मानवता के नाम पर आपको क्रूर भावना त्याग कर बालक को छोड़ देना चाहिए । " जमींदार का नकारात्मक उत्तर पाकर संत कीनाराम ने तत्काल ही अपना प्रभाव दिखाया । जमींदार से कहा - " जहां खड़े हो वहां पांव के नीचे की मिट्टी कोड़ डालो । तुम्हें कोड़ने का खर्च और बकाया पोत दोनों का पैसा मिल जाएगा । जमींदार ने अपने पांव के पास अपनी जूतों की ठोकरों से मिट्टी हटाई, जिसके हटते ही जरूरत के अनुसार पैसा निकल आया । जमींदार कीनाराम के चरणों पर गिर पड़ा, उनसे क्षमा याचना की और बीजाराम को छोड़ दिया । बीजा राम को छुड़ाकर संत कीनाराम ने बुढ़िया माँ से कहा - " जा अपने लड़के को ले जा । " बुढ़िया माँ संत कीनाराम से इतनी प्रभावित हुई कि उसने कहा - " महाराज यह लड़का आपका है आपको सौंपती हूं । आप इसे साथ ले जाएं । " संत कीनाराम ने बुढ़िया माँ को बहुत समझाया, पर वह कहां मानने वाली थी । अंत में विवश होकर कीनाराम जी, बीजाराम को अपने साथ लेकर चल पड़े ।
बीजाराम, कीनाराम के साथ लग गए और उनके पार्थिव शरीर त्यागने तक छाया की भांति उनकी सेवा में लगे रहे ।
अबला उद्धार
एक दिन की बात है संत कीनाराम सूरत नगर में थे । एक ब्राह्मणी थी जो छोटी उम्र में विधवा हो गई थी । कुप्रथा एवं कुरीतियां समाज में घर कर गई थीं । विधवा नवयुवती को पुत्र विहीन जानकर और उसकी वृद्धा माता की परवाह ना कर दुराचारियों ने उस विधवा को मोहित किया और उसके साथ सहवास किया । वह अबला इस विषय में विरत चित्त थी । उसे गर्भ रह गया । वह अपने गर्भ को छुपाए रही । नौ माह बीतने पर उसके गर्भ से शिशु का जन्म हुआ । पूरे नगर में बात फैल गई । नगर के रूढ़िवादी जनों ने उसे अपमानित करना और प्रताड़ना देना प्रारंभ किया और उस विधवा महिला को उसके शिशु के साथ समुद्र तल में दफना देने का निर्णय लिया । सामाजिक विडंबना से पीड़ित वह विधवा ब्राह्मणी विलाप करने लगी लोगों ने उसे मारा पीटा विभिन्न प्रकार से सताया नगर के बहुतेरे लोग उस विधवा को बांधकर शिशु को दरिया में डालने के लिए जाने लगे ।
शिशु के जन्म के दिन बड़े जोर का समुद्री तूफान आया था और आंधी बवंडर उठा था, जिसे लक्ष्य कर लोग कह रहे थे कि इस तरह के पाप से यह नगर समुद्र में विलीन हो जाएगा । वे चिल्ला - चिल्ला कर कह रहे थे - " यह पाप है , यह पाप है । " शिशु के जन्म के बाद से कई दिनों तक समुद्र में तूफान आता रहा । अतः नगर के लोग उस शिशु को ही तूफान के आगमन का द्योतक समझ बैठे थे । वे लोग उस विधवा को बांधकर समुद्र में फेंकने जा रहे थे । विधवा ब्राह्मणी का सौभाग्य था कि उस दिन अघोराचार्य संत कीनाराम यात्रा में सूरत नगर में ही थे । उन्हें पता लगा । वे उस विधवा ब्राह्मणी के पास पहुंचे और उसे घेरकर खड़े इकट्ठे लोगों को संबोधित किया - " आप सबों के आचरण के बारे में दुर्गुणों के बारे में यदि हम एक-एक कर कहना शुरू करें, तो क्या आप सब को डुबाना पड़ेगा ? " एकत्रित लोग लज्जित हुए संकुचित हुए, भयभीत हुए ; उस स्त्री का बंधन खोल दिए । संत कीनाराम ने उस विधवा के बच्चे को अपनी गोद में ले लिया और आशीर्वाद दिया । वे उस महिला को संबोधित कर बोले - " उस पुरुष को धिक्कार है जिसने यह कुकृत्य कर तुम्हें लज्जित कराया है । तू इस नगर को छोड़कर अपने बच्चे को गोद में लेकर नरसी मेहता की समाधि की तरफ जूनागढ़ चली जा । "
विधवा महिला अपने बच्चे को लेकर नरसी मेहता की समाधि पर जीवन यापन करने लगी ।
अशिक्षितों को शिक्षा
पटना जनपद में गंगा और सोन नदी के संगम पर नीलकन टोला नाम का एक ग्राम है । वहीं अपनी कुटी में अघोर आचार्य संत कीनाराम विचरण कर रहे थे । संध्या वेला थी । गांव के कुछ भक्त लोग संत कीनाराम जी की सेवा में उपस्थित हुए । प्रणाम किये और अपनी समस्याओं के निराकरण के लिए आदेश की याचना की । संत कीनाराम ने अपनी सधुक्कड़ी भाषा में ठेठ शब्दों में अनपढ़ ग्रामीणों को उपदेश देते हुए कहा - " पुजले देवता और छोड़ने भूत । अरे भाई ! जब तुम किसी चीज को संवारते हो, पोंछते हो, वह तुम्हारा देवता हो जाता है । सुख देता है और उस सुख से तुम्हें शांति मिलती है । वह तुम्हारे हर कार्य की कठिनाई को दूर करता है । देखो न, तुम अपने ही द्वार पर पड़े हुए कूड़ा के ढेर को साफ करते हो तो प्रसन्न रहते हो खुश रहते हो और वह कूड़ा तुम्हारे लिए खाद का काम करता है । छोड़ ले भूत, यदि कूड़ा को साफ नहीं करते हो तो तुम गुर्दा - गुबार से भरे रहते हो और वह तुममें मलीनता लाता है । अपने आप को देखो ! यदि तुम स्नान करना छोड़ दो, वस्त्र नहीं धोवो, पवित्रता से भोजन नहीं बनाओ और खाओ तो लगता है तुम्हारा मलेच्छ की तरह वस्त्र है । दूर से देखने पर तुम मलेच्छ मालूम होने लगते हो । याद रखो ! जिस चीज को तुम पोंछोगे और संवारोगे वह तुम्हें देवता की तरह फल प्रदान करेगा । जिस चीज को तुम पूजते हुए छोड़ दिए, वह तुम्हें भूत की तरह दुख प्रदान करेगा और तुम्हें मलीनता से ग्रसित करेगा । पूजना, संवारना और सफाई यह देवत्व की तरह हैं तथा तुम्हें देवत्व की स्थिति में परिणत करेंगे । किसी करने योग्य कार्य को छोड़ देना, उसमें लापरवाही बरतना तथा आलस्य एवं प्रमाद में इस भावना का शिकार होना कि इस कार्य को बाद में कर लूंगा, तुम्हें कलुषित करेगा । याद रखो । अपने घर से लेकर अपने खेतों तक, अपने मवेशियों से लेकर घर के प्राणियों तक, यदि तुम इन्हें संवारोगे, पोछोगे और साफ रखोगे तो तुम आनंदित रहोगे । संत कीनाराम जी की बातों को सुनकर अनपढ़ ग्रामीण मन ही मन प्रशंसा करने लगे । वे लोग बोले - " कितनी सहज, कितनी सरल, कितने व्यवहारिकता से भरी हुई वाणी संत कीनाराम जी के मुख से प्राप्त हुई है । हम लोग कृतकृत्य हुए । "
वे लोग अघोराचार्य संत कीनाराम जी को प्रणाम किये और चलते बने ।
प्राणहीन सत्य
एक रोज अघोर आचार्य संत कीनाराम जी काशी के घाटों पर विचर रहे थे । सुबह का समय था घाट तीर्थ यात्रियों से आच्छादित था । गंगा की कल-कल ध्वनि गूंज रही थी । अघोर आचार्य संत कीनाराम एक पंडा को एक यात्री से यह कहते हुए सुन रहे थे - " भगवान विश्वनाथ आपका भला करें ! हम ब्राह्मणों के लिए कुछ खाने की व्यवस्था कीजिए हम कई रोज से भूखे हैं । " जो पंडा अपने को ब्राह्मण बता कर तीर्थयात्री को परेशान कर रहे थे, उन्हें गुरुदेव जानते थे और वह पंडा वे गुरुदेव को जानते थे । लघु नाम था उस पांडे का । अघोर आचार्य संत कीनाराम को घाट पर विषय ही देखकर लघु उठकर आए प्रणाम निवेदित किया और कुशल याचना की । अघोर आचार्य संत किनाराम लघु को संबोधित कर बोले - " लघु ! झूठ बोलने से तुम्हें पेट भर अन्य मिल जाए और तुम्हारे बाल बच्चों की परवरिश हो जाए तो एक बार झूठ बोल सकते हो । यदि झूठ बोलने से तुम्हें पेट भर अन्य ना मिले, बाल बच्चों की परवरिश ना हो और यात्री तुम्हें एक पैसा ही दें, तो क्यों इतना झूठ बोलते जा रहे हो । गंगा के तट पर, काशी में यह शोभनीय आचरण नहीं है । झूठ बोलने से यदि किसी का कल्याण होता हो किसी के जीवन की रक्षा होती हो तो उस से बढ़कर सत्य कोई वस्तु नहीं हो सकती है । सत्य हम उसे ही कहते हैं जो समाज का एवं अपना लौकिक एवं तात्कालिक कल्याण कर सके । झूठ - असत्य हम उसे कहते हैं जो अपने को भी व्यस्तता की ओर प्रेरित करें और समाज को भी वक्ता की ओर प्रेरित करे । कहीं पर जो शास्त्र युक्त सत्य है वह महान पाप और झूठ के सदृश है । कहीं पर जो शास्त्र के अनुसार असत्य है, झूठ है; वह महान पुण्य और समाज के लिए लाभप्रद वस्तु है । समय एवं काल को दृष्टि में रखकर ही सत्य - असत्य, झूठ - सच का निर्णय युक्त - अयुक्त हो सकता है । तुम कुछ भी ना कहो, तब भी तुम्हें कहने से ज्यादा दान दक्षिणा में लोग दे जाएंगे । तुम दिन-रात झूठ को सच और असत्य को सत्य संबोधित कर रहे हो कि तुम परिवार सहित उपवास कर रहे हो जबकि तुम्हारे यहाँ गौएं लगती है, सब प्रकार की सुख सुविधा है । क्या तुम नहीं जानते हो लघु जीवन बहुत ही लघु है , अल्प है । अरे तुम विशाल बनो काशी नगरी में ऊंचा और बड़ा बनो । अपनी लघुता के साथ क्यों सत्य के अंतरंग में छिपे हुए असत्य को अभिव्यक्त कर रहे हो ? देखो तुम्हारा शास्त्र पुराण वेद एवं गुरुजनों झूठ कहते हैं और रूडी गत विचारों के पोषक है । दिनोंदिन समाज टूटता जा रहा है । अनेकों जातियां मुसलमान हो गई । तुम्हारे काशी की वैदिक ब्राह्मणों की उदासीनता ढोंगी मनोवृति ओं का जलन तो उदाहरण है सत्य वास्तविकता में छिपी हुई वस्तु है ना की बनावट में वैदिक ब्राह्मण दंभ भरा जीवन जी रहे हैं । गंगाजल एवं वेद मंत्रों को बेचकर उदर भर रहे हैं । इससे निकृष्ट क्या हो सकता है । यही तो नास्तिकता का द्योतक है । तुम्हारे वैदिक ब्राह्मण दंभ से भरे हुए मनोभावों और समाज के हित कर विचारों द्वारा सत्य का नाश कर रहे हैं जिसके चलते भारतीय संस्कृति और समाज पर कुठाराघात हो रहा है । यह लज्जा जनक बात है । भाई ! हम तो करेंगे ही, तुम लोग भी इस पर ध्यान दो । धर्म वेद और शास्त्र उधर नहीं है प्राणियों की रक्षा जिससे हो रही वही करना तुम्हारा धर्म है शास्त्रों पशुओं की बलि देकर यदि मनुष्य को बचाया जाए तो कोई पाप नहीं है क्योंकि यदि मनुष्य बचेगा तो आश्रम पशुओं को उत्पन्न करने की क्षमता रखता है जिसे तुम्हारा शास्त्र गलत सिद्ध करना चाहता है उसके अंतरंग में छुपे सत्य को देखो तुम समझ जाओगे पा जाओगे तुम आनंदित होगे । जा ! मैं अब जा रहा हूं ।
महिलाओं का सम्मान
एक बार संत कीनाराम जी ने बड़े ही खिन्न मन से खेद और दुःख के साथ बीजा राम जी को संबोधित कर कहा - " देखो न ! छत्रिय युद्धों में दवा - औषधि, चिकित्सा - उपचार और आवश्यक सुश्रुषा की कमी और अधिकांश घरों में पौष्टिक एवं स्वास्थ्यकर भोजन के अभाव की वजह से बहुतेरे नौजवानों की असमय मृत्यु हो जाती है । फलतः उनकी विधवा नारियां समाज की कुप्रथाओं की शिकार होकर आजीवन आह्लाद रहित अभिशप्त जीवन व्यतीत करने को विवश हो जाती हैं । उनका जीवन कलुषित और काया कृश हो जाती है । हिंदू समाज के अग्रणी ब्राह्मण जानते हैं कि हमारे शास्त्रों ने इस विषय में उदार व्यवहार का निर्देश दिया है । फिर भी निजी स्वार्थवश ब्राह्मणों ने ऐसा विधान कर रखा है कि समाज लज्जापूर्ण एवं घृणित कुकृत्यों की ओर प्रेरित हो रहा है । हमारे शास्त्रों में मंदोदरी, अहिल्या, कुंती, तारा और द्रोपदी नामक पांच कन्याओं की चर्चा आदरपूर्ण ढंग से की गई है । इस सत्य को छिपाकर ब्राह्मण और हिंदू समाज विधवा नारियों के समक्ष सतीत्व का थोथा उपदेश देकर जीवन पर्यंत उन्हें नारी जीवन के वास्तविक आनंद और सुख से वंचित रख रहे हैं । 'परोपदेशे पांडित्यम्' । सतीत्व और सच्चरित्रता के उपदेश क्या दूसरों के लिए ही है ?
यह कैसी विडंबना है कि एक ओर तो परिवार के अन्य सदस्य मौज मस्ती लेते रहते हैं और दूसरी ओर अल्पवयस्क विधवा महिलाएं आह्लादहीन, नीरस जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाती हैं । उनको नारी का शास्त्र सम्मत गौरवपूर्ण और महिमामय जीवन जीने से वंचित किया जा रहा है । क्या यह पाप नहीं है ? यह घोर पाप ही नहीं, अपितु समाज का नारी वर्ग के प्रति निष्ठुर अन्याय और अभिशाप है, जिसे किसी भी धार्मिक एवं नैतिक विधान के अनुसार उचित नहीं करार दिया जा सकता । विजय ! यदि इस और अभी से ध्यान नहीं दिया गया तो शताब्दियों बाद स्त्रियां पुरुषों की अवहेलना एवं उपेक्षा कर हिंदू समाज के बाद पाखंडपूर्ण उपदेश और विधान के विरुद्ध विद्रोह कर देंगी और अपने को पुरुषों से स्वतंत्र घोषित कर देंगी ।
पुरुष की जरूरत पुत्र आदि के लिए ही तो है । शताब्दियों बाद विज्ञान का चमत्कार सामने आएगा और स्त्रियां पुरुषों के लिए कृत्रिम गर्भाधान करेंगी । अपनी उपेक्षा और अवहेलना के प्रतिशोध में पुरुषों की उपेक्षा और अवहेलना करने को वह उद्यत हो सकती हैं । विजय ! समाज के इन अपराधपूर्ण कृत्यों के प्रति लोगों में चेतना उत्पन्न करो और उन्हें अपने भयंकर कुकृत्यों के भविष्यत - अनिष्टकारी परिणामों से अवगत कराओ ।
मानव के व्यक्तित्व की अपनी महत्ता है वर्तमान सामाजिक रूढ़ियों एवं अनाचार के कुठाराघात से उसका जो हनन हो रहा है उसके और मांगलिक परिणाम हिंदू समाज भुगत रहा है और आगे भी उसको भुगतना पड़ेगा मैं देख रहा हूं इन अपराधों के दुष्परिणामों को समाज खंडित एवं निर्जीव सा हो जाएगा ।
विजय ! अबलाएँ दया की पात्र होती हैं । वे करुणा की पात्र हैं ; विशेषतः विधवा नारियां । वे तो समाज की सामूहिक दया और करुणा की अधिकारी हैं । तुम्हारे शिष्य समुदाय के बीच जब कभी भी विधवा नारियों को समाज में प्रतिष्ठा देकर नारी को स्वभाविक जीवन जीने देने का अवसर प्राप्त हो, तुम लोगों को उन्हें सहर्ष सहयोग और सानिध्य देकर पुनर्विवाह के लिए उत्साहित करना चाहिए और उसमें योगदान करना चाहिए । समाज के स्वार्थी वर्ग के लोगों के विरोध से बेपरवाह, उन्हें अलग-थलग छोड़कर इन नारियों को समाज में प्रतिष्ठित कर दो और समाज में उन्हें मान्यता दिलवाओ । तब वे नारीत्व एवं देवत्व की महिमा से मंडित जीवन जिएंगी और जीवन भर तुम लोगों की कृतज्ञ रहेंगी । यदि तुम लोग ऐसा कर सके तो तुम, हमारी शिष्य मंडली और पूरा समाज निर्दोष, समन्वित व सुखमय जीवन जी सकेगा और वर्तमान चेतनाशून्यता, विवशता और दुष्प्रवृत्ति के बंधनों से मुक्त होकर प्रसन्नता का अनुभव करेगा । "
अद्भुत महानिर्वाण
महापरिनिर्वाण करते समय 21 सितंबर 1771 को संत कीनाराम ने अपने शिष्यों, काशी के वीरवर क्षत्रियों को बीजाराम के माध्यम से बुलावा भेजा था । सभी उपस्थित भी हुए । उन्हें संबोधित करते हुए गुरुदेव कीनाराम ने कहा - " मेरे स्नेह के भाजन भक्तों, राजकुमारों ! 170 वर्ष की आयु हमारी हो चुकी है । " यह कहते हुए उन्होंने बीजा राम जी से कहा - " विजय ! चिलम चढ़ाओ । यंत्र पात्र में दो । "
बीजा राम जी जब चिलम चढ़ा कर ले आये और यंत्र में दिया, तब गुरुदेव संत कीनाराम ने एक क्षण के लिए वहां उपस्थित सभी लोगों पर दृष्टि डाली और घट - घट कर यंत्र पी गए ।हुक्का मुख में रखकर एक दो बार दम लिए होंगे कि भूकंप के सदृश बड़े जोर का गर्जन हुआ और आकाश में बिजली की सदृश लपलपाहट भरी चमक हुई । संत कीनाराम के शरीर से तेजमय प्रकाश निकला और अंतरिक्ष को चीरते हुए विविध विचित्र गूंज के बीच आकाश में विलीन हो गया । सभी लोग क्षण मात्र के लिए मूर्छित हो गए । उपस्थित शिष्यगण और राजकुमार वेदना से विह्वल हो कम्पायमान हो उठे । आश्रम के पशु-पक्षियों, यहां तक कि स्वान की आंखों से अश्रु धारा बहने लगी । आश्रम की वनस्थली में निवास करने वाले बंदरों के झुंड भी वृक्षों पर उछल-कूद कर करुण विलाप की तरह करुणा विगलित हृदय-द्रावी किलकारियां भरने लगे । थोड़ी ही देर में यह सूचना वायु की तरह पूरे काशीनगर में पहुंच गई । तमाम लोग अपनी औरतों बच्चों के साथ आकर गुरुदेव के पार्थिव शरीर के इर्द-गिर्द व्याकुलता से अश्रुधारा बहाने लगे । सभी का हृदय द्रवित होकर फटा जा रहा था ।
अनेक वर्ष बीत गए और उनकी छत्रछाया की अनुभूति होती रही । संत बीजा राम जब तक जीवित रहे, तब तक वे गुरुदेव संत कीनाराम जी के उपदेशों और उनके द्वारा बताए गए मार्ग से बीजा राम जी लोगों को अवगत कराते रहे ।
आज भी वाराणसी स्थित क्री - कुंड नामक कीनाराम धाम पर हजारों की संख्या में लोग जाते रहते हैं और उनके सानिध्य का अनुभव करते रहते हैं ।
संत कीनाराम जी की जन्मस्थली रामगढ़ चंदौली में हर वर्ष उनके जन्मदिन के अवसर पर बहुत बड़े कार्यक्रमों का आयोजन होता है और विशाल मेला लगता है ।
Tags
जीवनी