गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक दस्तावेज

संत रविदास जी की मृत्यु के विषय में बताया जाता है कि उनकी मृत्यु 150 वर्ष की आयु में हुई थी । किंतु लेखक सतनाम सिंह ने उनकी मृत्यु को एक बलि दान के रूप में देखा है । उनका कहना है कि संत रविदास जी की मृत्यु प्राकृतिक मृत्यु नहीं हुई थी, बल्कि उनकी हत्या की गयी थी । उनकी हत्या के विषय में उन्होंने विस्तृत रूप से एक पुस्तक भी लिखी है, जिसका नाम है - 'गुरु रविदास जी की हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज' । उन्होंने इस पुस्तक में कुछ दस्तावेजों के आधार पर गुरु रविदास की हत्या को प्रमाणित किया है ।

गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक दस्तावेज 
- सतनाम सिंह 

'गुरु रविदास की हत्या के प्रमाणिक दस्तावेज' नामक पुस्तक के लेखक सतनाम सिंह ने अपनी पुस्तक में निम्नलिखित विवरण प्रस्तुत किया है -

>> संत रविदास जी का लोकनायक रूप 

आज जो कुछ उपलब्ध है, वह रविदासी भक्तों की मौखिक परंपरा में सुरक्षित रह पाया था । फिर भी उनकी रचनाओं में क्रांति का बिगुल फूंकने वाली सामग्री के आधार पर उनके लोकनायक रूप की निम्न छवि बनती है -

1. गुरु रविदास जी अपनी वाणी में चार्वाकादि नास्तिकों तथा बौद्ध आचार्यों की भांति वेदों, अवतारों, ब्राह्मणों की धज्जियाँ उड़ा देते हैं ।

2. वे राजाओं को गरीब जनता के दुखों के प्रति चेताते हैं -

"ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न " 

3. गुरु रविदास जी बेगमपुरा शहर की कल्पना करते हैं । एक ऐसा शहर, जहां कोई छोटा-बड़ा ना हो । कोई किसी का शोषण ना करे -

" बेगमपुरा शहर को नाऊं........." 

4. गुरु रविदास जी राजाओं से दास बनायी गयी दलित आबादी को उसका गौरवशाली इतिहास बताते हैं -

" त्रिपत एक सेज सुख सूता, सुपने भया भिखारी ।
अछरत राज बहुत दुख पायो, सो गत भई हमारी ।। "

5. वे दलित आबादी को संगठित होने के लिए जगाते हैं । वे जानते थे कि संघे शक्ति कलियुगे । वे यह भी भली-भाँति जानते थे कि हम संगठित होकर ही शासकों का मुकाबला कर सकते हैं । वे गरीब जनता को आह्वान करते हैं -

" सत संगत मिल रहिए माधो, जैसे मधुप मखीरा..."

6. दलित समाज को संगठित करने के बाद गुरु रविदास जी हमें गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर फेंक देने के लिए ललकारते हैं -
" पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत..." 

[ गुरु रविदास की हत्या के प्रामाणिक दस्तावेज : सतनाम सिंह, पृष्ठ 27 ]

>> हत्या के दो कारण 

गुरु रविदास जी की हत्या के दो प्रमुख कारण बने - ब्राह्मणों का विरोध करना तथा मीरा को दीक्षा देना । रविदास जी ने ब्राह्मणों के जात्याभिमान पर, उनके कर्मकाण्डों, अवतारों, तीर्थों, मंदिरों तथा वेदों आदि पर जमकर प्रहार किये । इसके अतिरिक्त मीरा को दीक्षा देकर उन्होंने ब्राह्मणों को अपना और भी कड़ा विरोधी बना लिया, क्योंकि तात्कालिक परिस्थितियों में हिंदू धर्म में नारी के लिए दीक्षा वर्जित थी । दूसरी तरफ मीरा जब नीच बस्ती में एक नीच जाति के गुरु रविदास जी के चरणों में बैठने लगी, रोकने पर भी ना रुकी । चोरी-छुपे जाने लगी, तब राजपरिवार की झूठी खोखली आन, बान, शान पर बन आयी । ऐसे में सामंत-वर्ग भी गुरुजी का विरोधी बन गया । अतः ब्राह्मणों को सामंतों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने का मौका मिल गया । इसी ब्राह्मण-सामंत सांठ-गांठ ने उनकी हत्या में भूमिका निभाई । अतः इन दो कारणों का विस्तृत अध्ययन जरूरी है । क्योंकि इन्हीं से उनकी हत्या की उलझी हुई गुत्थी सुलझती है ।

गुरु रविदास जी की हत्या का पहला कारण था ब्राह्मणों और उनके धर्म की निंदा । पंडों को अपना दुश्मन बनाने के लिए उनका निम्नलिखित उपदेश ही काफी था -

माथे तिलक हाथ जप माला, जग ठगने को स्वांग बनाया ।
मारग छाड़ि कुमारग डहके, सांची प्रीत बिनु राम न पाया ।।

देहरा अरु मसीत मंहि, रविदास न शीश नवांय ।
जिह लौं शीश निवाबना, सो ठाकुर सभ थांय ।।

मस्जिद शो कर चुके नहीं मंदिर सो नहीं पिया ।
दोउ मंह अल्लाह राम नहीं, कह रविदास चमार ।।

"तिलक दीयौ पै तपनि न जाई, माला पहरी घणेरी लाई ।"

पांडे ! हरि विचि अंतर डाढा़ ।
मूंड मुडावै सेवा पूजा, भ्रम का बंधण गाढ़ा ।।

माला तिलक मनोहर बानौ, लागो जम की पासी ।
जो हरि सेती जोड्या चाहौ, तौ जग सों रहौ उदासी ।।

ब्राह्मण और चांडाल मंहि, रविदास न अंतर जान ।
ब्राह्मण खत्री बैस सूद, सभन की इक जात ।।

रविदास ब्राह्मण मति पूजिए, जउ होवै गुण हीन ।
पूजिहिं चरण चाडाल के, जउ होवै गुण परवीन ।।

भाई रे ! राम कहां है मोहि बताओ
सती राम ताको निकट न आयो

राम कहत सब जगत भुलाना, सो यहु राम न होई
करम अकरम करुनामै केसो, करता नांव सुं कोई

रविदास हमारो राम जी दशरथ करि सुत नाहीं ।
राम हमउ मंहि रमि रह्यो, विसब कुटुंबह मांहि ।।

का मथुरा का द्वारिका का काशी हरिद्वार ।
रविदास खोजा दिल अपना, तउ मिलिया दिलदार ।।

ऐसी पाखंड विरोधी वाणी से, पाखंड रचाकर अपनी जीविका चलाने वाले धर्म के पिट्ठू चिढ़ उठे ।

गुरु रविदास जी की हत्या का दूसरा महत्वपूर्ण कारण बना मीरा को शिष्या बनाना । ब्राह्मणों से तो उनकी ठन ही चुकी थी । आगे चलकर मीरा के कार्यकर्ता परवान चढ़ी और रविदास जी की हत्या का कारण बनी । मीरा ने गुरु रविदास जी से नाम-दीक्षा तो ले ली, लेकिन विपत्तियों का पहाड़ उसके ऊपर टूट पड़ा ।

राणा सांगा, जो मीरा को राव दूदा की तरह स्नेह करते थे, 1527 में उन्हें जहर देकर मार डाला गया था । ऐसे समय में वही उन्हें सहानुभूति दे सकते थे । उस समय शासक था राणा रतन सिंह, जो मीरा का देवर था । उसमें निर्णय लेने की क्षमता बिल्कुल नहीं थी । कहते हैं कि उसमें बुद्धिमत्ता व सहिष्णुता का कोई और सुना था । ब्राह्मण व सामंतों के प्रभाव में आकर वह मीरा को राजघराने का कलंक मानने लगा । उधर मीरा की ननद उदा बाई भी मीरा को यातनाएं देने में किसी से पीछे नहीं रही । उसने मीरा को बदनाम करने में तथा कष्ट और धमकियां देने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी । कहा जाता है कि एक रात उदा बाई ने राणा से कहा कि मीरा के कमरे में कोई पुरुष है । वह उससे बातें कर रही है । राणा का क्रोध भड़क उठा । उसने तलवार उठाई और सीधा मीरा के महल की तरफ चल दिया । मीरा हकीकत में प्रवेश करते ही उसने क्या देखा कि मीरा मुग्धा अवस्था में बड़बड़ा रही है । वह अपने प्रियतम को पुकार रही थी । उसके चेहरे से दिव्य प्रकाश निकल रहा था । यह सबको दुःख देखकर राजा चकित रह गया । मारे डर के वह पसीना-पसीना होकर कमरे से बाहर निकल आया । उदा बाई को माजरा समझ नहीं आया । वह भी मीरा के कक्ष में गयी । उसने भी वैसा ही दिव्य नजारा अंदर देखा । उदा बाई उसी समय समझ गयी कि मेरा कोई साधारण औरत नहीं है । वह आध्यात्मिक ऊंचाइयों को उपलब्ध हो चुकी है । वह अभी एक सिद्ध नारी बन चुकी है । पश्चाताप की आग में जलती हुई वह मीरा के पैरों में गिर पड़ी । अब वह मीरा को डांटने-डपटने की बजाय विनम्र भाव से समझाने लगी ।

भाभी बोलो बात बिचारी ।
साधों की संगति दुख भारी, मानो बात हमारी ।।
छापा तिलक गल हार उतारो, पहिरो हार हजारी 
रत्न जड़ित आभूषण पहिरो, भोगो भोग अपारी 
मीरा जी थे चलो महल में, थां ने सोगन म्हारी ।।

जब समझाने बुझाने पर भी मीरा न रुकी तब राणा ने उसके महल को बाहर से ताला जड़वा कर पहरे बिठा दिए । मीरा ने अपनी वाणी में इसका संकेत दिया है -

"पहरो राख्यो चौकी बिठाई ताला दिया जुड़ाय"

अत्याचार ही नहीं, राणा विक्रम ने तो मीरा को मार डालने के षड्यंत्र तक रचे । उसने दयाराम नामक ब्राह्मण के हाथ चरणामृत देने के बहाने सोने की कटोरी में जहर भेजा । ऊदा बाई को इस षड्यंत्र का पता चल गया था । उसने मीरा को वह कथित चरणामृत न पीने की चेतावनी दी । लेकिन प्रभु प्रेम की दीवानी मीरा उसे भी अमृत समझकर पी गयी । प्रभु की ऐसी कृपा मीरा पर हुई कि वह जहर सचमुच का अमृत हो गया । मीरा ने स्वयं इस घटना का उल्लेख किया है -

" विष का प्याला राणा भेज्या, पीबत मीरा हांसी रे "


>> गुरु रविदास जी की हत्या

अगले दिन राजा का दरबार सजा । दरबार में गुरु रविदास जी को लाया गया । सारा का सारा दरबार जात्याभिमानी ब्राह्मणों सामंतों से भरा था । उनके बीच एक अकेले निहत्थे चमार संत गुरु रविदास जी शांत भाव से खड़े थे । राणा ने सभा शुरू करने की इजाजत दी ।

ब्राह्मणों ने शिकायत की, महाराज यह तो संत के भेष में बहुरूपिया खड़ा है । इस नीच ने एक साथ कई अपराध किये हैं । इसने जो अपराध किए हैं महाराज उनकी सजा इसे अवश्य मिलनी चाहिए । महाराज ! इसका पहला अपराध यह है कि यह नीच धर्म विरुद्ध आचरण कर रहा है ।

यह न केवल नीच चमार कुल में पैदा होकर ब्राह्मणों की तरह उपदेश देता है, बल्कि ब्राह्मणों का अपमान भी करता है । महाराज इसने पवित्र मंदिर संस्था का मजाक उड़ाया है । वेदों की निंदा की है । इसने क्षत्रिय कुलभूषण श्रीराम का भी विरोध किया है ।

बातें ऊंच-नीच की चल रही थी । गुरु रविदास जी ने कहा - राजन् ! जन्म से सभी प्राणी शूद्र ही पैदा होते हैं । ब्राह्मण तो मनुष्य अपने कर्मों से बनता है । जातियां स्वार्थी लोगों ने बनाई है, ईश्वर ने नहीं । जब ईश्वर की कोई जाति नहीं है, तब उसके अंश रूप जीव की क्या जाति हो सकती है ।

रविदास एक ही नूर ते, जिमि उपज्यो संसार ।
ऊंच-नीच किस विध भये, बामन अरु चमार ।।

ब्राह्मणों ने तर्क दिया - "महाराज ! हम लोग जनेऊ संस्कार के बाद द्विज हो जाते हैं । गुरु रविदास जी ने खंडन किया - " राजन् ! मैं भी जनेऊ धारण करता हूं लेकिन गले में नहीं, हृदय में । मेरा जनेऊ धागे का नहीं है, मैं तो सत्यनाम रूपी जनेऊ धारण करता हूं ।

ब्राह्मणों ने तर्क दिया - " ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण द्विज जाति हैं । केवल यही उपनयन संस्कार युक्त हो सकते हैं शूद्र उपनयन संस्कार हीन है ।

गुरु रविदास जी ने कहा - " राजन् ! ब्राह्मण शुद्र को धागे का जनेऊ पहने का अधिकार नहीं देता और मैं धागे का जनेऊ पहनता भी नहीं । मैं जिस जनों की बात कर रहा हूं वह दिव्य जनेऊ है । मैं हर पल उसी जनेऊ को धारण किए रहता हूं । वह दिव्य जनेऊ मेरे हृदय में है ।

ब्राह्मणों ने कहा - "महाराज ! इसके हृदय में यदि दिव्य थनेऊ है तो यह उसे निकालकर दिखाए । गुरु रविदास जी ने कहा - राजन् ! उसे देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए जो इनके पास नहीं है । सत्यनाम रूपी दिव्य जनेऊ तो वही धारण कर सकता और देख सकता है जिसके हृदय से हंकार मिट गया हो । इन्हें अपनी जाति का ऐसा घोर अंधकार है । यह उसे कैसे देख सकते हैं राजन् !

ब्राह्मणों ने पहले से ही तैयार कर रखे हथियारबंद सामंतों को भड़काया, यह झूठ बोल रहा है । हम ब्राह्मणों को उपदेश दे रहा है । अतः इसका सीना चीरकर वह जनेऊ देखा जाए जिसे यह दिव्य जनेऊ बता रहा है । वहां से और भी आवाजें उठी, हां - हां इसका जनेऊ देखा जाए । फिर क्या था, ब्राह्मणों के इशारे पर पहले से तैनात सामंतों ने रविदास जी का सीना चीर दिया । गुरु रविदास जी समता मिशन की भेंट चढ़ गए । इस घटना के बाद रविदास जी का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता । उनके पार्थिव शरीर को चमारों की बस्ती में भिंजवा दिया गया, यह कहलवा कर कि तुम्हारे गुरु ने भीतर का जनेऊ दिखाकर सभी को चकित कर दिया और स्वेच्छा से शरीर छोड़ दिया । इस दृश्य के कैलेंडर अभी भी बाजार में आते हैं जिनमें रविदास जी अपनी रांबी से स्वयं अपना सीना चीर कर भीतर के जनेऊ दिखा रहे हैं । लेकिन सवाल उठता है कि वे वहां चित्तौड़ में उपदेश देने गए हुए थे । वहां से राजा के सैनिक उन्हें दरबार में ले गए थे । वहां रांबी अपने हाथ क्यों ले जाते ?

ब्राह्मणों ने कुछ सामंतो से मिलकर बड़ी चतुराई से बुने हुए षड्यंत्र के तहत गुरु रविदास जी की जीवन लीला समाप्त कर दी और किसी को भनक भी नहीं लगने दी थी ।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने