भीमसागर (महाकाव्य)

महाकवि एल.एन. सुधाकर जी के महाकाव्य 'भीमसागर' का प्रथम संस्करण वर्ष 2019 में प्रकाशित हुआ था । यह महाकाव्य सात सर्गों में विभाजित है । 

भीमसागर (महाकाव्य) : समीक्षात्मक परिचय 

'भीमसागर' के प्रथम सर्ग में वंदना, गुरु महिमा, आत्मबोध, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, भीम जन्म, विद्यालय प्रवेश, मातृ विहीन बालक भीम, विवाह, बड़ौदा राज्य में लेफ्टिनेंट, पितृ शोक, उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका प्रस्थान, बड़ौदा में अर्थ सचिव, प्रोफ़ेसर आंबेडकर, मूकनायक पत्र का प्रकाशन, लंदन में शोध कार्य आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से भीम जन्म, शिक्षालय प्रवेश और प्रोफेसर आंबेडकर को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । महाकवि सुधाकर जी ने भीमराव की बाल्यावस्था का मनोरम चित्रण किया है । उन्होंने नाटकीय शैली का प्रयोग करके भीमाबाई और भीमराव के विचार, संवाद और मौन क्रिया को जीवंत कर दिया है । सुधाकर जी ने भीमराव के बाल-व्यक्तित्व का यथार्थ एवं मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है । भीमराव बचपन से ही भीमकाय और बलिष्ठ थे । उनके चंचल और शरारती व्यक्तित्व के कारण बचपन में उनकी माँ को बार-बार उनकी शिकायतों का सामना करना पड़ता था । भीमाबाई अपने प्रिय पुत्र 'भिवा' के कान खींचकर उन्हें दंडित करतीं, लेकिन बाद में उन्हें खूब दुलारती । सुधाकर जी के शब्दों में :

अकेला लेता दस को मार ।
रोज घर लाता था तकरार ।।
डाँटकर कहती माँ ललकार ।
पड़ेगी बेहद तुम पर मार ।।
पकड़कर कहती उसके कान ।
बड़ा तू नटखट है नादान ।।
भीम रो पड़ते अपने आप ।
मौन हो करते पश्चाताप ।।

पुस्तक - भीमसागर 
विधा - महाकाव्य 
रचनाकार - एल.एन. सुधाकर 
पृष्ठ - 180
मूल्य - 395/-
प्रकाशक - पूनम प्रकाशन, दिल्ली 
संपर्क - 9210470435

भीमराव बचपन में शिक्षा ग्रहण करने के लिए अनेक बार छुआछूत का विषपान किये । उन्हें कक्षा-कक्ष के बाहर बैठना पड़ता था । वे तथाकथित ऊँची जातियों के छात्रों के लिए रखे गये पानी को पी नहीं सकते थे । उन्हें भेदभाव पूर्ण बर्ताव झेलने के साथ-साथ जाति आधारित ताने भी सुनने पड़ते थे । फिर भी भीमराव ने शिक्षा से मुँह नहीं मोड़ा । वे निरंतर संघर्षरत रहे । सुधाकर जी ने भीमराव के बाल्यकाल के कठिन संघर्ष को रेखांकित किया है । भीमराव बचपन से ही संघर्षशील, जुझारू और दृढ़संकल्पी थे । ठीक ही कहा गया है - होनहार बीरवान के होत चिकने पात । सुधाकर जी की काव्य-पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

एक दिवस आधी छुट्टी में, खाना भीम ने खाया था ।
अटक गले में कौर गया, पर पानी नहीं पिलाया था ।।
चपरासिन एक मराठिन ने, आकर नल की खोली टोंटी ।
तब पीया भीम ने नीर कहीं, निकली ऐसे अटकी रोटी ।।
रो-रोकर जननी को सारी, वे अपनी व्यथा सुनाते थे ।
लेकिन प्रातः होते पढ़ने, वे बड़े चाव से जाते थे ।।

भीमराव को छुआछूत का सामना केवल बचपन में ही नहीं करना पड़ा, बल्कि जब वे पीएचडी कर के प्रोफेसर बने, तो भी उन्हें छुआछूत का सामना करना पड़ा । यानी कि जब वे पढ़ते थे तो भी; और जब पढ़ाते थे तो भी उन्हें जातिगत भेदभाव की पीड़ा सहन करनी पड़ी । यहाँ तक कि कक्षा-कक्ष में खुद उनके छात्रों ने उनकी जाति को लक्ष्य करके उन्हें अपमानित किया । किंतु भीमराव की विद्वता के आगे अंत में उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा । सुधाकर जी ने इस प्रसंग का बड़ी कुशलता से चित्रांकन किया है । यथा :

उच्च जाति के छात्रों ने पहले उपहास उड़ाया था ।
जाति-पांति का, धर्म-कर्म का असर सभी पर छाया था ।।
धीरे-धीरे छात्र-वर्ग में परिवर्तन फिर आया था ।
ज्ञान और गरिमा का सागर कॉलेज में लहराया था ।।


'भीमसागर' के द्वितीय सर्ग में बैरिस्टर आंबेडकर, पहला मुकदमा, वंचितों का मसीहा - मुक्ति आंदोलन, मालाबार (केरल) में परिहा जाति का उद्धार, मुंबई विधान परिषद के सदस्य, महाड सत्याग्रह, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन तथा आरक्षण की माँग, मनुस्मृति दहन, मुंबई विधान परिषद में मजदूर महिलाओं की हिमायत, नासिक का सत्याग्रह - कालाराम मंदिर प्रवेश, भारत में साइमन कमीशन आदि प्रकरणों का समावेश है ।  इन प्रकरणों में से वंचितों का मसीहा - मुक्ति आंदोलन, मालाबार (केरल) में परिहा जाति का उद्धार, महाड सत्याग्रह, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन तथा आरक्षण की माँग और मनुस्मृति दहन को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । महाकवि सुधाकर जी ने बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी को वंचितों का मसीहा के रूप में बिंबित किया है । लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनकी सोच संकुचित है । बल्कि वे तो बाबासाहेब को लोककल्याणकारी मानते हैं । कोई लोककल्याणकारी व्यक्ति किसी एक वर्ग का मसीहा नहीं होता है । बल्कि वह संपूर्ण समाज और संपूर्ण देश का मसीहा होता है । सुधाकर जी के द्वारा बाबा साहेब को वंचितों का मसीहा कहने का तात्पर्य यह है कि बाबा साहेब ने वंचित-वर्ग की मुक्ति और उन्नति के लिए विशेष रूप से कार्य किया है । कोई भी इंसान शारीरिक रूप से गुलाम तभी होता है, जब वह मानसिक रूप से गुलाम होता है ।  इसलिए बाबा साहेब ने गुलामी का जीवन जीने वाले वंचितों को उनके जन्मसिद्ध मानवाधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित और उत्साहित किया । क्योंकि बाबा साहेब का यह मानना था कि गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास करा देने से वह विद्रोही बन जाता है और अपनी गुलामी से मुक्त होने के लिए स्वयं संघर्ष करने लगता है । सुधाकर जी के शब्दों में :

वह गुलाम है, बस गुलाम को यह समझा दो ।
कर देगा विद्रोह, उसे एहसास करा दो ।
डॉक्टर आंबेडकर ने दिया यही नारा था ।
शोषित, वंचित, पीड़ित जन को ललकारा था ।।
मुरझाया मुख देख तुम्हारा हृदय फटा जाता है ।
देख दशा दयनीय तुम्हारी, रोना अब आता है ।।
तिरस्कार का जीवन जीने से अच्छा मर जाओ ।
पैदा होकर व्यर्थ बोझ पृथ्वी का नहीं बढ़ाओ ।।

मालाबार (केरल प्रदेश) में परिहा जाति का उद्धार करने के लिए बाबा साहेब उनके बीच पहुँचे । उन्होंने पुरुषों को संबोधित करके उन्हें मृत पशु का माँस खाने से मना किया तथा मेहनत मजदूरी के द्वारा बच्चों को पालने का संदेश दिया । 

मृत पशु का माँस नहीं खाओ, मन से हीनता निकालो तुम ।
जैसे द्विज वैसे ही तुम हो, मत बात हँसी में टालो तुम ।।
मेहनत मजदूरी के द्वारा अपने अब बच्चे पालो तुम ।
शहरों में मिलता काम बहुत, अपने अब होश संभालो तुम ।।


महिलाओं को संबोधित करके बाबा साहेब ने उन्हें साफ-सुथरा रहने और घर की उन्नति करने की शिक्षा दिया तथा बच्चों को शिक्षालय भेजने के लिए प्रेरित किया । क्योंकि बाबा साहेब मानते थे कि शिक्षा शेरनी का दूध है । इसे जो भी कोई पीएगा, वह शेर की तरह दहाड़ेगा । ध्यातव्य है कि शेरनी का दूध पीने से इंसान मर जाता है । क्योंकि शेरनी का दूध इतना गर्म होता है कि इंसान में पचाने की क्षमता नहीं होती है । लेकिन जो इंसान  शेरनी के दूध को पचा लेता है, इस दुनिया में उससे ताकतवर और बुलंद इंसान हो ही नहीं सकता है । (गूगल से साभार) बाबा साहेब के इन्हीं विचारों को महाकवि सुधाकर जी ने काव्य-विधा के माध्यम से अपनी आकर्षक शैली में व्यक्त किया है । यथा :

माता-बहनों! अपनी लज्जा, अपनी इज्जत का ध्यान करो ।
तुम साफ, स्वच्छ रहना सीखो, अपने घर का उत्थान करो ।।
बच्चों को शिक्षालय भेजो, शिक्षा संताप मिटाती है ।
शिक्षाविहीन पशुतुल्य मनुज, शिक्षा विद्वान बनाती है ।।

बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा 20 मार्च 1927 को किया गया 'महाड सत्याग्रह' का इतिहास प्रसिद्ध है । इस सत्याग्रह के द्वारा बाबा साहेब ने वंचितों को पानी पीने का अधिकार दिलाया । इस अवसर पर उन्होंने तथाकथित हिंदुओं को आत्म सुधार की चेतावनी भी दी थी । उन्होंने देशहित हेतु जातिगत भेदभाव को मिटाने का संदेश दिया तथा तथाकथित ऊँची जाति के लोगों को अपने मरे हुए पालतू पशुओं को स्वयं उठाने के लिए प्रेरित किया । महाकवि सुधाकर जी ने इस कथ्य और तथ्य को बड़ी शालीनता से सधे हुए शब्दों में व्यक्त किया है । उदाहरणार्थ :

कहा हिंदुओं से बाबा ने, अब तो परिवर्तन लाओ ।
आपसी भेद को भुला, एकता भारत भर में दरशाओ ।।
पुलिस फौज में सेवा का वंचितों को भी अधिकार मिले ।
उत्थान देश में सबका हो, स्वदेश-प्रेम की रीति पले ।।
अपने-अपने मृत पशुओं को अब अपने आप उठाओ तुम ।
जाति-पाँति आधार कर्म का अंतर सभी मिटाओ तुम ।।

'मूकनायक' बंद होने के बाद डॉ० भीमराव आंबेडकर ने 3 अप्रैल 1927 को दूसरा मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत‘ प्रकाशन आरंभ किया । इसका संपादन डॉ० आंबेडकर खुद करते थे । यह पत्र बॉम्बे से प्रकाशित होता था । इसके माध्यम से वे अछूतों की समस्याओं और शिकायतों को उजागर करने का काम करते थे । एक संपादकीय में उन्होंने लिखा था, " बाल गंगाधर तिलक अगर अछूतों के बीच पैदा होते, तो ये नारा नहीं लगाते कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है । बल्कि वे कहते कि छुआछूत का उन्मूलन मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है । " चौंतीस अंक निकलने के बाद आर्थिक हालत सही नहीं रहने के कारण बाबा साहेब को यह पत्र बंद करना पड़ा ।  महाकवि सुधाकर जी इतिहास की इन महत्वपूर्ण बातों से भलीभाँति परिचित हैं । उन्हें अच्छी तरह पता है कि इसी पत्र के माध्यम से बाबा साहेब ने वंचितों के लिए आरक्षण (प्रतिनिधित्व) की माँग की थी । सुधाकर जी के शब्दों में :

अखबार 'बहिष्कृत भारत' से वंचित चेतना जागी थी ।
हमको भी सम अधिकार मिले, यह माँग सभी ने माँगी थी ।।
प्रतिनिधित्व हो वंचितों का सरकारी सभी विभागों में ।
समुचित संरक्षण वंचितों का निर्धारित हो अनुभागों में ।।

बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर हिंदू धर्म की समाज-व्यवस्था से इतने त्रस्त थे कि उन्होंने वर्णव्यवस्था को आश्रय देने वाली पुस्तक मनुस्मृति को 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक रूप से जलाया था । सुधाकर जी ने इस ऐतिहासिक घटना का स्पष्ट उल्लेख किया है । यथा :

सन् उन्नीस सौ सत्ताईस पच्चीस दिसंबर आया था ।
मनुस्मृति को बाबा ने खुद अपने हाथ जलाया था ।।

'भीमसागर' के तृतीय सर्ग में लंदन में प्रथम गोलमेज सभा, लंदन प्रस्थान - मुंबई में विदाई समारोह, अधिवेशन प्रारंभ, गोलमेज सभा में डॉ० आंबेडकर का अभिभाषण, भारत वापसी - गांधी जी से प्रथम भेंट, गांधी-आंबेडकर संवाद, लंदन में द्वितीय गोलमेज सभा, गांधी जी का भाषण, डॉ० आंबेडकर का भाषण - वंचितों का नेता कौन ? गांधी या आंबेडकर ? परीक्षा की घड़ी, भारत वापसी, दिल्ली में भव्य स्वागत, कामठी में वंचित वर्ग कांग्रेस का अधिवेशन, लंदन गमन तथा प्रधानमंत्री से भेंट, गांधी जी का आमरण अनशन तथा पूना पैक्ट आदि प्रकरणों का समावेश है । इन सभी प्रकरणों में से किसी भी प्रकरण को मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित नहीं किया है । जबकि ये सारे प्रकरण ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं । इन प्रकरणों को चयनित न करने का कारण यह है कि आंबेडकरी आंदोलन के लिए इनके बारे में जानना बहुत अधिक आवश्यक नहीं है । कुछ लोग गांधी-आंबेडकर के संवाद और विवाद पर विशेष चर्चा करते हैं, लेकिन यह उपयुक्त नहीं है ।  बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर वंचित-वर्ग के लोगों के लिए महानायक हैं, लेकिन  मोहनदास करमचंद गांधी को खलनायक  के रूप में बार-बार प्रस्तुत करना  न्यायपरक नहीं है  । क्योंकि हर व्यक्ति  का अपना पारिवारिक  और वर्गीय संस्कार होता है ।  गांधी जी अपने संस्कार के अनुसार व्यवहार कर रहे थे और बाबा साहेब अपने संस्कार के अनुसार व्यवहार कर रहे थे  । यह स्वाभाविक है कि हर व्यक्ति अपने वर्ग और समुदाय के व्यक्तियों का हित चाहता है । यदि गांधी जी अपने समुदाय के लोगों के हितार्थ राजनीति कर रहे थे, तो इसमें क्या बुराई है ? कोई भी निर्णय अथवा नियम हर वर्ग के व्यक्ति के लिए हितकर नहीं होता है । जिस कानून से सज्जनों का भला होता है, उसी कानून से दुर्जनों का बुरा होता है । आंबेडकरी आंदोलन को लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए सक्रिय बाबा साहेब के अनुयायियों को गांधी जी की आलोचना करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने की बजाय आंबेडकर-मिशन को पूरा करने हेतु अपनी पूरी ऊर्जा लगानी चाहिए ।

'भीमसागर' के चतुर्थ सर्ग में मंदिर प्रवेश की होड़ और बाबा साहेब की वंचितों को चेतावनी, मंदिर प्रवेश पर गांधी जी से मतभेद, पारिवारिक संकट रमाबाई का देहांत, लॉ कालेज में प्राचार्य तथा जज के पद को ठुकराया, धर्मांतर की घोषणा, विभिन्न धार्मिक नेताओं का आमंत्रण तथा प्रलोभन, हिंदुओं की प्रतिक्रिया का उत्तर, आर्य समाज द्वारा अछूतों का शुद्धिकरण, पंजाब में जाति-तोड़क मंडल का अधिवेशन, सिख मत का प्रभाव तथा अमृतसर में बाबा साहब का भव्य स्वागत, धर्मांतर पर गांधी जी की प्रतिक्रिया, दादर (मुंबई) में विशाल सभा तथा धर्मांतर प्रस्तावों पर विचार, भारतीय संस्कृति के महान रक्षक आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से मंदिर प्रवेश की होड़ और बाबा साहेब की वंचितों को चेतावनी, आर्य समाज द्वारा अछूतों का शुद्धिकरण, पंजाब में जाति-तोड़क मंडल का अधिवेशन आदि को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । महाकवि सुधाकर जी ने बड़ी तल्लीनता से इस ऐतिहासिक रहस्य को उजागर किया है कि मोहनदास करमचंद गांधी के आह्वान पर वंचित-वर्ग के लोगों में मंदिर-प्रवेश की होड़ लग गयी । बाबा साहेब को यह बात बुरी लगी, क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि वंचित-वर्ग के लोग मंदिर में प्रवेश करके काल्पनिक देवी-देवताओं की पूजा-आराधना करें और पत्थर के आगे माथा टेकें । ध्यातव्य है कि यही वह रास्ता है, जो इंसान को मानसिक गुलामी की मंजिल की ओर ले जाता है । सुधाकर जी ने लिखा है कि बाबा साहेब तत्कालीन राजनैतिक माहौल को ध्यान में रखकर वंचित-वर्ग के लोगों को सत्ता प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये । यथा :

मंदिर-प्रवेश का चाव देख वंचितों में भारी ।
बाबा ने उपदेश दिया उनको उपकारी ।।
मंदिर-प्रवेश से काम नहीं चलने का ।
संघर्ष सतत हो लक्ष्य प्राप्त करने का ।।
राजनैतिक अधिकारों से ही अपना ।
संघर्षों से सरकार बनेगा सपना ।।
राजनीति की शक्ति तुम्हें मिलने वाली है ।
पूर्ण उठाओ लाभ, बला टलने वाली है ।।

महाकवि सुधाकर जी ने बाबा साहेब के समय आर्य समाजी लोगों द्वारा अछूतों के शुद्धिकरण आंदोलन की गहरी साजिश का पर्दाफाश करते हुए उन पर कटाक्ष किया है । आर्य समाजी अछूतों को ब्राह्मण कहते हैं, लेकिन उनके साथ रोटी-बेटी का संबंध स्थापित नहीं करते हैं । वास्तव में, वे केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए यह आडंबर करते हैंं । वे कभी-कभी सहभोज का आयोजन करके यह दिखावा करते हैं कि उनके मन में जातिगत भेदभाव की भावना नहीं है । जबकि सच्चाई यह है कि जातिगत भेदभाव को मिटाने का विकल्प 'सहभोज' नहीं है । जातिगत भेदभाव एक मानसिक बीमारी है । यह मन से उत्पन्न होती है, तन से नहीं । सुधाकर जी ने अपने महाकाव्य 'भीमसागर' में इन बातों को तार्किक ढंग से बड़ी शालीनता के साथ प्रस्तुत किया है । कुछ काव्य-पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

हिंदू धर्म सुधार का, बीड़ा रहे उठाय ।
आर्य समाजी देश में, शुद्धिकरण चलाय ।।
शुद्धीकरण चलाय, अछूत को ब्राह्मण बतलाते ।
कहें 'महाशय' उन्हें, आप 'शर्मा' कहलाते ।।
रोटी-बेटी का नहीं, करते पर व्यवहार ।
अजब 'सुधाकर' हो रहा, हिंदू धर्म सुधार ।।

बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर न केवल संघर्षशील थे, बल्कि वे स्वाभिमानी एवं दृढ़संकल्पी भी थे । वे इतने सत्यनिष्ठ थे कि सत्य के साथ समझौता करना उन्हें बिल्कुल भी स्वीकार नहीं था । यही कारण था कि जब उन्हें पंजाब में जाति-पांति तोड़क मंडल के अधिवेशन में अभिभाषण प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया और उनके भाषण-लेख में धर्मग्रंथों की आलोचना संबंधी टिप्पणी को हटाने की बात की गयी, तो उन्होंने साफ इनकार कर दिया । बाबा साहेब अपने भाषण-लेख में से संशोधन के नाम पर विराम-चिन्ह तक हटाना स्वीकार नहीं किये । महाकवि सुधाकर जी ने इस प्रसंग का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है । अवलोकनार्थ :

आलोचना धर्म-ग्रंथों की भाषण में जो आयी थी ।
आंबेडकर दें छोड़ अंश वह, विनती यह दुहरायी थी ।।
बाबा साहेब ने संशोधन करने से इनकार किया ।
विराम चिन्ह तक नहीं हटाना भाषण का, स्वीकार किया ।।

'भीमसागर' के पंचम सर्ग में भारत स्वायत्त शासन 1935 का इंडिया एक्ट, स्वतंत्र श्रमिक दल की स्थापना, चालीस गांव स्टेशन पर बाबा साहब का भव्य स्वागत, स्वतंत्र श्रमिक दल या आदमी पार्टी का पुनर्गठन, किसानों के नेता, रेल मजदूरों का नेतृत्व, मुंबई प्रांत से कर्नाटक करने का विरोध, मजदूर यूनियनों पर प्रतिबंध का तीव्र विरोध, द्वितीय विश्वयुद्ध - कांग्रेसी सरकारों का पतन, गांधी जी तथा नेताजी सुभाष चंद्र बोस में मतभेद, द्वितीय विश्व युद्ध में वंचितों की महान वीरता, वायसराय की कौंसिल में भारतीयों को प्रतिनिधित्व, क्रिप्स योजना - पाकिस्तान की माँग, पचासवाँ जन्मदिन समारोह, श्रम मंत्री वायसराय का निमंत्रण, मुंबई में भव्य स्वागत, 'मैं पाँच सौ ग्रेजुएट के बराबर अकेला हूँ' वायसराय को स्मरण पत्र, द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय, इंग्लैंड में सत्ता परिवर्तन, लेबर पार्टी की विजय तथा भारत में आम चुनाव की घोषणा एवं मुस्लिम लीग का राजनीति में प्रभाव, भारत में सैनिक विद्रोह, कैबिनेट मिशन का आगमन तथा भारत में पुनः चुनाव में डॉ० आंबेडकर की भारी विजय, पीपल एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना, सिद्धार्थ कॉलेज मुंबई तथा मिलिंद महाविद्यालय औरंगाबाद की स्थापना एवं निर्माण, केंद्र में प्रथम कांग्रेसी सरकार, डॉ० आंबेडकर को कांग्रेस में शामिल करने की दौड़-धूप, संविधान निर्मात्री सभा का गठन आदि प्रकरणों का समावेश है । मैंने इन सभी प्रकरणों में से किसी भी प्रकरण को 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । किंतु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ये सारे प्रकरण महत्वहीन और निरर्थक हैं ।  हर संपादक की  अपनी दृष्टि होती है, अपनी एक सीमा होती है, अपनी कोई न कोई दुर्बलता होती है; जो कि मुझमें भी है । मैंने एक दृष्टिकोण के तहत ही कुछ प्रकरणों को चयनित किया है, तो कुछ प्रकरणों को वंचित किया है । 

'भीमसागर' के षष्ठ सर्ग में छंद, भारत विभाजन - स्वतंत्र भारत के प्रथम विधिमंत्री, हिंसा एवं प्रतिशोध की ज्वाला, पंद्रह अगस्त - आजादी का जश्न, संविधान निर्माता, गांधी जी की हत्या, पुनर्विवाह, संविधान लोकसभा में पारित तथा डॉ० आंबेडकर की हिंदू समाज को चेतावनी, बौद्ध धम्म से प्रभावित, हिंदू कोड बिल - दिल्ली में अंबेडकर भवन की स्थापना, मंत्रिमंडल से त्यागपत्र, 1952 के आम चुनाव, अमेरिका में डाॅ० आंबेडकर का सम्मान तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय द्वारा 'डॉक्टर आफ लॉ' की मानद उपाधि और उस्मानिया विश्वविद्यालय द्वारा भव्य स्वागत एवं 'डॉक्टर ऑफ साइंस' की मानद उपाधि प्रदान करना, भूमि आंदोलन, रंगून में बुद्ध जयंती के अवसर पर भारत के विशेष आमंत्रित अतिथि के रूप में, आकाशवाणी से गीता की तीव्र आलोचना आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से केवल संविधान निर्माता प्रकरण  को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । संविधान सभा का गठन 6 दिसंबर 1946 हुआ था और संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी । संविधान निर्मात्री सभा का अध्यक्ष बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर को बनाया गया । भारतीय संविधान को बनाने में दो वर्ष ग्यारह माह अट्ठारह दिन का समय लगा था । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि संविधान निर्मात्री समिति में कुल सात सदस्य थे, जिनमें से छः सदस्य किसी न किसी बहाने से अपने कार्यभार से मुक्त रहे । अकेले बाबा साहेब ने ही संपूर्ण भारतीय संविधान का सृजन किया । इसीलिए उन्हें भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है । महाकवि सुधाकर जी ने लिखा है :

सदस्य केवल सात थे, प्रारूप समिति में सभी ।
सहयोग लेकिन मिल न पाया काम में उनका कभी ।।
संविधान का कुल भार आंबेडकर के कंधों पर पड़ा ।
अध्यक्ष होकर स्वयं ही संविधान एकाकी गढ़ा ।।

'भीमसागर' के सप्तम सर्ग में छंद, बुद्ध के पथ पर, शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन का पुनर्गठन, बीबीसी लंदन से बौद्ध धर्म के महत्व पर व्याख्यान, वॉइस आफ अमेरिका से 'भारत में लोकतंत्र का भविष्य' विषय पर व्याख्यान, अपने अनुयायियों के लिए अंतिम संदेश, ऐतिहासिक धम्म परिवर्तन, दीक्षाभूमि नागपुर नई दुल्हन के समान सुसज्जित, धम्मदीक्षा, दूसरे दिन बोधिसत्व आंबेडकर द्वारा लाखों लोगों की धम्मदीक्षा, नेपाल विश्व बौद्ध सम्मेलन में भाग लेना, काशी विद्यापीठ में 'बुद्ध एवं कार्ल मार्क्स' पर व्याख्यान, दीनबंधु, भारतीय रिपब्लिकन पार्टी का गठन, परिनिर्वाण, महाशोक, नेताओं की श्रद्धांजलियाँ, अंतिम यात्रा, मुंबई शोक में डूबी, चिता की लपटों के समक्ष अपूर्व धम्मदीक्षा, भीम प्रशस्ति आदि प्रकरणों का समावेश है । इन प्रकरणों में से  लंदन बीबीसी से बौद्ध धम्म के महत्व पर व्याख्यान, ऐतिहासिक धर्म-परिवर्तन, बोधिसत्व आंबेडकर द्वारा लाखों को धम्मदीक्षा आदि को ही मैंने 'सुधाकर सागर सार' में संकलित किया है । बाबा साहेब बौद्ध धम्म-दर्शन के महान ज्ञाता थे । साथ ही, वे विश्व के सभी दर्शनों के विषय में गंभीर जानकारी रखते थे । वे साम्यवाद का आधार और अंत सभी जानते थे । बाबा साहेब का मानना था कि साम्यवाद  के स्रोत का मूल भी भारतवर्ष ही है । साम्यवाद  कोई भिन्न दर्शन नहीं है, बल्कि  यह बुद्धवाद  से ही प्रस्फुटित हुआ है । साम्यवाद में जो  बातें  कही जाती हैं,  वे सारी बातें तथागत बुद्ध ने अपने धम्म में कहा है । बुद्धवाद और साम्यवाद में  अंतर यही है कि  बुद्ध अकारण हिंसा  के पक्ष में नहीं है, जबकि  साम्यवाद  का जनक कार्ल मार्क्स रक्तरंजित क्रांति के पक्ष में है। महाकवि सुधाकर जी ने  बुद्ध-दर्शन और साम्यवाद के  सूक्ष्म अंतर को बड़ी सावधानी से रेखांकित किया है । उदाहरणार्थ :

साम्यवादी स्रोत का भी मूल भारतवर्ष है ।
बौद्ध-दर्शन-सूत्र से प्रसूत नव निष्कर्ष है ।।
सम्बुद्ध सम्यक बुद्ध का जो साम्यवादी भाव है ।
आध्यात्मिक नैतिक अहिंसापूर्ण सम सद्भाव है ।।

बाबा साहेब किशोरावस्था से ही बौद्ध धम्म-दर्शन से प्रभावित थे । बौद्ध धम्म के प्रति उनका लगाव उम्र बढ़ने के साथ-साथ और भी बढ़ता गया । हिंदू धर्म की विषमतापूर्ण सामाजिक व्यवस्था के दुष्परिणामों को देखकर बौद्ध धम्म के समतावाद से उनका इतना लगाव हो गया कि उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय में बौद्ध धम्म को अंगीकार कर लिया । बौद्ध धम्म की दीक्षा लेने के पीछे केवल एक ही कारण नहीं था, बल्कि इसके अनेक कारण थे । बाबा साहेब ने बौद्ध धम्म को अपने लिए नहीं, बल्कि भारत के बहुसंख्यक लोगों के जीवनोद्धार के लिए अपनाया था । 14 अक्टूबर 1956 का दिन इतिहास में अविस्मरणीय है । क्योंकि इसी दिन बाबासाहेब ने आधुनिक युग में पुनः धम्मचक्र प्रवर्तन किया था । महाकवि एल०एन० सुधाकर जी एक बौद्ध विद्वान, विचारक और आंबेडकरवादी मिशनरी हैं ।  बौद्ध धम्म संबंधी विषयों में उनकी अत्यधिक रूचि है । उन्होंने बाबा साहेब के धर्म-परिवर्तन की योजना से लेकर बौद्ध धम्म ग्रहण करने तक के वृतांत को बहुत ही धैर्य के साथ क्रमबद्ध रूप में वर्णित किया है । कुछ काव्य-पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :

उन्नीस सौ छप्पन, मई चौबीस को तत्काल ही ।
उद्घोषणा की, बुद्ध शरणागमन की शुभ काल ही ।।
बुद्ध जयंती के अवसर पर किया निर्णय तभी ।
धम्मदीक्षा हेतु अक्टूबर किया शुभ तय अभी ।।

धम्मदीक्षा ग्रहण करने के बाद बाबा साहेब ने बौद्ध धम्म और बौद्ध धम्म के अनुयायियों की विशेषताओं पर व्याख्यान दिया । उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं को उनके कर्तव्यों से अवगत कराया तथा उन्हें मेहनत और ईमानदारी से बौद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए प्रेरित किया । बाबा साहेब ने बौद्ध भिक्षुओं को मिशनरी बनकर समाज के उत्थान हेतु उपदेश देने की शिक्षा दिया और समाज के लोगों से निरंतर संपर्क करके उनकी अज्ञानता मिटाकर उनमें ज्ञान का प्रकाश भरने का संदेश दिया । वर्तमान में, बौद्ध भिक्षुओं की स्थिति चिंताजनक है । बौद्ध भिक्षु सुविधाभोगी हो गये हैं । यहाँ तक कि वे ब्राह्मणों की तरह संस्कार करने के बाद मुँह खोलकर धन की माँग करते हैं । ऐसे सुविधाभोगी, कामचोर और लालची बौद्ध भिक्षुओं को बाबा साहेब की इन बातों पर अमल करना चाहिए । महाकवि सुधाकर जी ने बाबा साहेब की बातों को अक्षरशः ईमानदारी के साथ व्यक्त किया है । यथा :

धम्म में हम सब बराबर आज भागीदार हैं ।
धम्मबंधु विश्वभर के नम्र और उदार हैं ।।
बोधिसत्व स्वरूप ने तब भिक्षुओं से भी कहा ।
बदलें वे अपना आज रुख, सन्यास भर अब तक रहा ।।
मिशनरी बन धम्म के प्रचार का उद्यम करो ।
समाज के उत्थान हेतु उपदेश दो, परिश्रम करो ।।
समाज से संपर्क हो, दुःख-दैन्य हरने के लिए ।
अज्ञानियों में ज्ञान का प्रकाश करने के लिए ।।

पुस्तक - भीमसागर 
विधा - महाकाव्य 
रचनाकार - एल.एन. सुधाकर 
पृष्ठ - 180
मूल्य - 395/-
प्रकाशक - पूनम प्रकाशन, दिल्ली 
संपर्क - 9210470435

आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'

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