'जय भीम कॉमरेड' का उद्देश्य क्रांति है ।
'जय भीम कॉमरेड' का उद्देश्य क्रांति है ।
सुनो कामरेड !
मैं दलित हूँ
तुम्हारे 'लाल सलाम' से
अच्छा है मेरा 'जय भीम'
'जय भीम' हमेशा 'नीला सलाम' करता है
लाल का अर्थ है खून
नीला का अर्थ शांति
हम क्रांति नहीं चाहते
हमें तानाशाही नहीं पसंद है
हम स्वतंत्र जीना चाहते हैं
हम अहिंसावादी हैं
तुम्हारे साम्यवाद से, हमें लोकतंत्र अधिक प्रिय है [3]
जब अंबेडकरवादी के सामने यह प्रश्न किया जाता है कि 'जय भीम' किस तरह का शब्द है और 'जय भीम' क्यों बोलते हैं, तो अंबेडकरवादी द्वारा जो उत्तर दिया जाता है अथवा दिया जाना चाहिए, वह "जय भीम' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त है :
जय भीम
न प्रतिक्रियावादी शब्द है
न जातिवादी
न दलितवादी
जय भीम
एक क्रांतिकारी शब्द है
जिसको सुनकर
नस्लवादियों के कान फट जाते हैं
जय भीम ब्राह्मणवाद को
समूल नष्ट करने का आह्वान है [4]
मार्क्सवादी साम्यवाद की बात करता है और स्वयं को वामपंथी कहता है । वामपंथी यानी विपक्षी, किंतु किसका ? पूँजीपति वर्ग का । अंबेडकरवादी तर्क करते हुए कहता है कि साम्यवाद का मूल सिद्धांत है, वर्ग-संघर्ष । वर्ग-संघर्ष तभी होगा, जब वर्ग बनेगा और वर्ग तभी बनेगा, जब जातियाँ नष्ट होंगी । अंबेडकरवादी की यह बात सुनकर मार्क्सवादी उसे दक्षिणपंथी कहता है । मार्क्सवादी का यह आरोप स्वीकार करते हुए अम्बेडकरवादी जो कहता है, उसी की अभिव्यक्ति है कविता 'हम दक्षिणपंथी ही सही हैं' । अवलोकन हेतु कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
मेरे मसीहा ने कहा है
जब तक जातिवाद नहीं खत्म होगा
वर्ग बन ही नहीं सकता है
वामपंथी होना हमारी चूक है
यह संविधान हमारा है
हमारे बाबा ने लिखा है
फिर बताओ
हम अपने ही संविधान के विरुद्ध
हथियारबंद कैसे हो जाएँ
हम दक्षिणपंथी ही सही हैं [5]
दलित आंदोलन वर्षों से चलाये जा रहे हैं किंतु संतोषजनक सफलता अभी तक प्राप्त नहीं हुई, इसका मूल कारण यही है कि सभी दलित जातियाँ एकमत नहीं है । 'दलित साहित्य के प्रतिमान' में डॉ० एन० सिंह जी लिखते हैं, " सामाजिक दृष्टि से यदि हम देखें तो पाते हैं कि वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों में जातियाँ नहीं हैं । ... ये तीनों वर्ण भी हैं और जातियाँ भी हैं, लेकिन चौथे वर्ण शूद्र में तीन सौ से अधिक जातियाँ हैं । ... यदि इन्हें जातियों में न बाँटा जाता, तो ये कभी भी अपनी दासता के विरुद्ध विद्रोह कर देते । जातियों में बँटे शूद्र आपस में ही लड़ते रहे और शेष वर्णों की सत्ता सुरक्षित रही । " [6] आर०डी० आनंद की कविता 'उसका नाम क्या है' में पासी कहता है, " गौतम मायावती का पक्ष लेता है, कोरी कोविंद साहब के चक्कर में बीजेपी को वोट दे रहे हैं । ... अरे तो कौन सा सारे चमार ही उनको फॉलो करते हैं । कुछ कांशीरामवादी हैं, तो कुछ मायावतीवादी हैं । कितनी सच्चाई है इन पंक्तियों में; देखिए -
देखो जय भीम कहना अलग बात है
अंबेडकर की बात मानना अलग बात
इधर तूने एक बात पर ध्यान दिया
सभी दलित जातियाँ
अपनी जाति का मसीहा ढूँढ रही हैं
सभी अपनी जाति को मजबूत करना चाह रही हैं
हर जाति दूसरी जाति का कंपटीटर है [7]
आर०डी० आनंद के इस कविता संग्रह 'जय भीम कामरेड' में एक कविता है - 'मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ' । यह कविता वरिष्ठ समाजसेवी आदरणीय दयानाथ निगम जी के द्वारा संपादित पत्रिका 'अंबेडकर इन इंडिया' के वर्ष 2020 के जनवरी अंक में प्रकाशित हुई थी । [8] इस कविता में कर्ता ब्राह्मण है । वह कहता है कि दलित अपनी कौम को बुद्धिस्ट कहकर मुझे कमजोर समझता है । मैंने बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार घोषित कर दिया और हिंदू धर्म का अंग बता दिया । चाहता तो संविधान निर्माता के रूप में जवाहरलाल नेहरू का नाम दे देता, नहीं तो गोविंद बल्लभ पंत का नाम देता, एस०एन० मुखर्जी और बी०एन० राव मर गए थे क्या ? लेकिन नहीं, मेरी कौम नाम की दीवानी नहीं है । मैंने संविधान निर्माता का नाम अंबेडकर चुना; पूरी एक कौम संविधान के विरुद्ध नहीं जा सकती है । रामायण मैंने लिखा, नाम लगा दिया बाल्मीकि का, आज एक कौम मेरी गुलाम है । मनुस्मृति मैंने लिखा, नाम लगाया किसी छत्रिय का, नाम रख दिया मनु; लड़ना है तो मुझसे नहीं, उससे लड़ो । ब्राह्मण कहता है कि मैंने ही पूना पैक्ट किया और पृथक निर्वाचन रोका । यहाँ तक कि -
आरक्षण जानबूझ कर दिया
जानते हो क्यों
तुम्हारी सारी हेकड़ी तोड़ दिया
आंबेडकर जातिप्रथा के विरुद्ध थे
मैंने स्वेच्छा से तुम्हें
जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर
प्रस्तुत करने के लिए मजबूर कर दिया
तुम विकल्पहीन हो गये [9]
ब्राह्मण अपने तर्क से यह सिद्ध करता है कि बौद्ध धम्म और हिंदू धर्म में समानता है । आजकल बहुत से दलित बुद्धिस्ट तो बन गये हैं किंतु वे बुद्ध की वाणी का पूर्णतः अपने व्यवहारिक जीवन में पालन नहीं करते हैं । इस स्थिति को ध्यान में रखकर ब्राह्मण का यह तर्क जो कि 'तू मेरा अंश है' कविता में प्रस्तुत है; बहुत हद तक सही है । ब्राह्मण, अंबेडकरवादी से कहता है -
तू मेरा अंश है
तू मेरी भजन करता है
तू स्वतंत्र नहीं रह सकता
मैं विष्णु की पूजा करता हूँ
तू बुद्ध और अंबेडकर की
दोनों हाथ जोड़कर बैठते हैं
दोनों सिर नवाते हैं
हमारी अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती और पुष्प सेम हैं
पल्लव की जगह बोधिपत्र है
हमारा पुरोहित
तो तुम्हारा भिक्षु
दोनों चीवरधारी
दोनों आश्रमेण
मुफ्तखोर
परजीवी [10]
कुछ शिक्षित दलित अंबेडकर को अपना मसीहा तो मानते हैं किंतु अपने आपको अंबेडकरवादी कहना पसंद नहीं करते और न ही वे 'जय भीम' बोलते हैं । कुछ तो 'जय भीम' की बजाय 'जय मूलनिवासी' कहकर अभिवादन करते हैं । इसलिए ब्राह्मण कहता है :
अंबेडकर ने कहा था
बुद्ध अथवा मार्क्स में किसी को जरूर अपनाना पड़ेगा
तुम न बुद्ध को अपनाते हो न मार्क्स को
अब तो तुम्हारा एक शिक्षित वर्ग
जय भीम छोड़ रहा है
वह जय मूलनिवासी कहता है
कब तक तुम खैर मनाओगे [11]
बौद्ध धम्म को जातिविहीन धम्म कहा जाता है, किंतु क्या वास्तव में बौद्ध धम्म जातिविहीन है ? लोग बौद्ध तो बन जा रहे हैं, किंतु फिर भी जाति प्रमाण-पत्र बनवाते हैं । जाति प्रमाण पत्र क्यों बनाते हैं ? क्योंकि उन्हें आरक्षण का लोभ है । जब तक यह ज्ञात था कि बौद्ध बनने पर आरक्षण नहीं मिलेगा, तब तक दलित बुद्धिस्ट नहीं बन रहे थे; किंतु ज्यों ही यह ज्ञात हो गया कि बौद्ध बनकर भी बुद्धिस्ट अपनी पुरानी हिन्दू जाति को लिख सकता है और जाति प्रमाण-पत्र बनवा सकता है, जिसके आधार पर उसे आरक्षण का लाभ मिल सकता है, तो दलित फटाफट बुद्धिस्ट बनने लगे । 'सर्वे कहता है' कविता में दलितों की इसी स्वार्थपरता का यथार्थ प्रस्तुत है । मार्क्सवादी कहता है :
आरक्षण के डर से अभी तक
दलित बुद्धिष्ट नहीं बन रहा था
जब पता चल गया कि
बुद्धिष्ट जाति के मामले में
हिंदुओं की अपनी पुरानी जाति लिख सकता है
शिक्षा और नौकरी के लिए
जाति प्रमाण-पत्र भी बनवा सकता है
तब से सभी दलित बहुत खुश हैं
प्रमाण पत्र
कोरी, पासी, चमार का बन जाता है
बौद्ध बन गये [12]
'हे त्रिपाठी जी !' कविता में अंबेडकरवादी दलित, मार्क्सवादी ब्राह्मण से कहता है, " त्रिपाठी जी ! मैं तुम्हारी प्रगतिशीलता पर शक करता हूँ । मैं मान ही नहीं सकता हूँ कि तुम कम्युनिस्ट हो सकते हो । " इस कविता में दलितों पर व्यंग्य भी किया गया है । अंबेडकरवादी कहता है कि " दलित मार्क्सवादी क्यों बने ? उसके पास अंबेडकर साहब हैं । संविधान को तुम भले औपनिवेशिक मानो, दलितों की वह गीता है । संविधान में उसे कोई खोट नहीं दिखता, उसका आरोप संचालकों पर है । उसे जातिप्रथा का उन्मूलन करना है । त्रिपाठी जी ! ब्राम्हण बड़े चालाक हैं । दलितों के हाथों से मारक हथियार बड़ी चालाकी से छीन लिये । जाति और वर्ण उन्मूलन के चक्कर में दलित स्वयं ही चौथा खंभा मजबूती से पकड़कर खड़ा है । " अंबेडकरवादी कहता है :
त्रिपाठी जी !
दलित मूर्ख नहीं है
वह वर्ग के लिए कोई प्रयास नहीं करता है
उसकी दुकान ब्राह्मणवाद-ब्राह्मणवाद जपने से चल जाती है
वामपंथी बनकर 'अर्बन नक्सलाइट' क्यों कहलाए
मुफ्त में गोली क्यों झेले
क्यों नजर बंद होने जाय
उसे कायर-अल्पज्ञ न कहिए
वह मध्य मार्गी है
वह क्रांति नहीं चाहता है [15]
आर०डी० आनंद का कविता-संग्रह 'जय भीम कामरेड' दलित वैचारिकी को पूरी तरह अपने अंदर समेटे हुए है, जिसमें दलितों की समस्याओं से संबंधित लगभग सभी प्रश्नों का हल मौजूद है । दलित आंदोलन किस प्रकार सफलता प्राप्त करेगा और दलित आंदोलन की सही दिशा क्या होनी चाहिए ? इसका हल हमें इस कविता-संग्रह में मिल जाता है । डॉ० शरण कुमार लिंबाले के अनुसार, " दलितों के प्रश्न केवल सामाजिक नहीं हैं, वे आर्थिक भी हैं । वर्ण-व्यवस्था का गहराई से विचार किए जाने पर लगता है कि उसके पीछे एक ऐसी ही मजबूत विषम अर्थव्यवस्था कार्य कर रही है । यह प्रस्थापित विषम व्यवस्था केवल अल्पसंख्यक दलितों द्वारा नष्ट नहीं होगी । इसके लिए मार्क्स और अंबेडकर की विचार-प्रणाली को स्वीकार करने वाले समीक्षकों ने माना है कि जाति-अंत का अंबेडकरवादी विचार और वर्ग-अंत का मार्क्सवादी विचार, दोनों में समन्वय होना चाहिए । इसमें प्रधानतः म० ना० वानखेडे़, बाबूराव बागूल, नामदेव ढसाल, दया पवार, अर्जुन डांगले, यशवंत मनोहर, रावसाहेब कसबे, शरद पाटिल, सदा कव्हाड़े, नारायण सुर्वे, सुधीर बेडेकर, शरतचंद्र मुक्तिबोध, प्र० श्री० नेरूरकर और वि० स० जोग का उल्लेख करना पड़ता है । " [16]
संदर्भ :
[1] जय भीम काॅमरेड, आर०डी० आनंद, प्राक्कथन, पृष्ठ 7
[2] वही, पृष्ठ 7
[3] जय भीम काॅमरेड, आर०डी० आनंद, पृष्ठ 15
[4] वही, पृष्ठ 16
[5] वही, पृष्ठ 21
[6] दलित साहित्य के प्रतिमान, डॉ० एन० सिंह, भूमिका, पृष्ठ 17
[7] जय भीम काॅमरेड, आर०डी० आनंद, पृष्ठ 25
[8] अंबेडकर इन इंडिया, सं. दयानाथ निगम, जनवरी अंक 2020, पृष्ठ 45
[9] वही, पृष्ठ 43
[10] वही, पृष्ठ 46
[11] वही, पृष्ठ 48
[12] वही, पृष्ठ 50,51
[13] वही, पृष्ठ 82
[14] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, डॉ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 84
समीक्षक
देवचंद्र भारती 'प्रखर'
Tags
कविता