प्राथमिक, पूर्व माध्यमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत गीत, नृत्य, संगीत, नाटक आदि के अतिरिक्त संभाषणों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । विद्यालयों में संभाषण की बढ़ती आवश्यकता को ध्यान में रखकर संभाषण-संग्रह की पुस्तक 'देशप्रेम' की रचना की गयी है । इस पुस्तक के लेखक प्रख्यात साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' हैं । प्रस्तुत है इस पुस्तक से एक संभाषण ।
आजादी की खुशी Aazadi Ki Khushi
15 अगस्त 1947 को जब हमारा देश आजाद हुआ था तब लोगों की खुशी का ठिकाना नहीं था । लोग ढोल बजा - बजाकर उछल उछल कर नाच रहे थे । कोई अपनी बहादुरी की डींगे हाँक रहा था, कोई भांग खाकर लगातार हंसे जा रहा था, तो कोई झूमते हुए मस्ती में गाता जा रहा था । लोगों के घर अच्छे-अच्छे पकवान बन रहे थे । लोग एक दूसरे से प्रेम पूर्वक खुशी से ऐसे मिल रहे थे जैसे होली या ईद का त्यौहार हो । वास्तव में वह तो होली और ईद से भी बड़ा त्यौहार था, जिसमें धर्म, संप्रदाय को कोई स्थान नहीं था । ऐसा त्यौहार जिसे राष्ट्रीय त्यौहार का नाम दिया गया ।
पा करके खुशी कितने तो सुधि - बुधि ही खो पड़े
खा कर के भांग कितने चौराहे पर सो पड़े ।
कितने तो दर्द गुलामी के सोचते रहे प्रखर
कितने तो सरेआम हंसते - हंसते रो पड़े ।।
जिस समय देश में खुशी मनाई जा रही थी, उसी समय देश के कुछ क्षेत्रों में सन्नाटा पसरा हुआ था । ऐसा नहीं था कि वहां इंसान नहीं थे; इंसान तो थे मगर मरे हुए; शरीर से नहीं, मन से - हृदय से । ये सभी वे लोग थे, जिन्हें अछूत दलित शोषित के नाम से जाना जाता था । भूख से जिनके पेट और पीठ चिपक कर दोनों एक हो गए थे । जिनकी हड्डियों का ढांचा स्पष्ट झलक रहा था । जिन्हें देखकर कोई भी हड्डियों की गिनती कर सकता था । जिनके बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे और जिनके होठों पर केवल एक ही नाम था 'रोटी' । वह तो ना ही रो सकते थे, ना ही हँस सकते थे, क्योंकि हंसने या रोने के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है और उर्जा भोजन से मिलती है देश भक्ति भाषण से नहीं ।
जो दर-दर की ठोकरें खाता फिरे सदा,
उसके लिए दुनिया में भगवान कहां है ?
जो भूखे ही जागता और सोता है 'प्रखर'
पेट को छोड़कर उसका ध्यान कहां है ?