आंबेडकर मिशन : समस्याएँ और समाधान

वर्तमान में 'अंबेडकर मिशन' से संबंधित और अंबेडकर के नाम पर हजारों संगठन, संस्थाएँ और शिक्षालय हैं तथा सैकड़ों प्रकाशन भी हैं । अंबेडकर मिशन से संबंधित दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर हो रहा है । फिर भी अंबेडकरवादी विद्वानों का कहना है कि डॉ० अंबेडकर का मिशन अभी तक अधूरा है । कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि डॉ० अंबेडकर का मिशन जहाँ से चला था, वहीं पर आकर खड़ा है । अब सवाल यह पैदा होता है कि अंबेडकर मिशन है क्या ?

डाॅ. आंबेडकर का मिशन क्या था ?

बाबा साहब डॉ० भीमराव अंबेडकर के मिशन को जानने और समझने के लिए उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों और उनके द्वारा बनाए गये संगठनों के उद्देश्यों की जानकारी आवश्यक है । बाबा साहब ने मानव जीवन को प्रभावित करने वाले लगभग सभी क्षेत्रों में कार्य किया । उनके द्वारा चलाये गये आंदोलनों और बनाये गये संगठनों का विवरण निम्न है :

1. साहित्यिक आंदोलन

बाबा साहब का मुख्य ध्येय था - अछूतों का उद्धार । अछूतों के शोषण का कारण केवल धार्मिक ही नहीं था, बल्कि शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक भी था । इन सारे कारणों से लोगों को परिचित कराने के लिए और धार्मिक ठेकेदारों व सरकार से उनके अधिकारों की माँग करने के लिए बाबा साहब को पत्र-पत्रिकाओं की जरूरत महसूस हुई । इसलिए उन्होंने मूकनायक (31 जनवरी 1920), बहिष्कृत भारत (3 अप्रैल 1927), समता (29 जून 1928), जनता (24 नवंबर 1930), प्रबुद्ध भारत (4 फरवरी 1956) आदि पत्र-पत्रिकाओं का आजीवन संपादन और प्रकाशन किया ।

2. शैक्षिक आंदोलन

यह सत्य है कि साहित्य समाज का दर्पण है । इतिहास साक्षी है कि कई देशों में साहित्य के बल पर सामाजिक क्रांति हुई है और वांछित परिवर्तन भी हुए हैं, किंतु केवल लिखने से ही क्रांति नहीं आ सकती । उसके लिए संस्थाओं को स्थापित करके, विचारों को कार्य रूप में परिणत करने की भी जरूरत पड़ती है । सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिसके लिए लिखा जाए, जब वही नहीं पढ़ना जाने, तो लिखने का कोई औचित्य ही नहीं ? इसलिए बाबा साहब ने शोषित समाज के लिए शैक्षिक संगठनों 'डिप्रेस्ड क्लासेस एजुकेशन सोसाइटी', 'द बाॅम्बे शेड्यूल्ड कास्ट इंप्रूवमेंट ट्रस्ट', 'पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी' का निर्माण किया और ईमानदारी से उन्हें संचालित भी किया । संविधान में अनुच्छेद 45 के द्वारा 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य कर दिया ।

3. सामाजिक आंदोलन

बाबा साहब के तीन सूत्र बहुत ही प्रसिद्ध हैं - शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो । मैंने बहुत सारे लोगों को इस बात पर विवाद करते हुए देखा है कि बाबा साहब का कौन सा कथन सही है ? " शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो । " अथवा " शिक्षित करो, संगठित करो, आंदोलित करो । "

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि जो खुद शिक्षित नहीं होगा, वह दूसरे को शिक्षित क्या करेगा ? जो खुद संगठित नहीं होगा, वह दूसरे को संगठित क्या करेगा ? जो खुद आंदोलित नहीं होगा, वह दूसरे को आंदोलित क्या करेगा ? यानी कि दोनों कथन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । इसलिए इन कथनों पर विवाद करना नादानी है ।

जो शिक्षित, संगठित और आंदोलित हो चुका है, वह शिक्षित करो, संगठित करो, आंदोलित करो की बात करे, बिल्कुल ठीक है ।

जो अभी तक शिक्षित, संगठित और आंदोलित नहीं है, उसके लिए तो शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो की बात ही ठीक है ।

समय और स्थान को ध्यान में रखकर दोनों कथनों का प्रयोग किया जा सकता है ।

अब बात करते हैं कि बाबा साहब ने इस तरह के कथन का कब और कहाँ प्रयोग किया था ?

बाबा साहब के संपूर्ण वांग्मय के अंग्रेजी संस्करण में प्रथम खंड के चौथे भाग में तथा हिंदी संस्करण में द्वितीय खंड के पहले भाग में यह विवादित कथन इस प्रकार है :-

मुंबई में 6 मई 1945 को आयोजित 'अखिल भारतीय अनुसूचित जाति परिसंघ' के अधिवेशन में अपने भाषण के दौरान बाबा साहब ने कहा था, *"  हमारे लोगों पर भारत भर में आए दिन जो निर्मम अत्याचार होते हैं, उनका जिस प्रकार दमन किया जाता है, उसकी सूचना समाचार पत्रों में नहीं छपती । यहाँ तक कि समाचार-पत्र हमारे सामाजिक और राजनैतिक प्रश्नों से संबंधित विचारों को जान-बूझकर जनता के सामने नहीं आने देते और यह सब समाचार पत्रों की सुसंगठित साजिश का नतीजा है । हमारे पास धन नहीं है कि हम कोई ऐसी व्यवस्था कायम कर सकें, जिससे अपने लोगों की सहायता की जाए और उन्हें शिक्षित किया जाए, आंदोलित किया जाए तथा उन्हें संगठित किया जा सके । "*

बाबा साहब डॉ० अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय, खंड 2, भाग 1, सांप्रदायिक गतिरोध और उसके समाधान के उपाय, पृष्ठ 139 (हिंदी संस्करण)

उपरोक्त लेख को पढ़कर आप लोग समझ गए होंगे कि बाबा साहब इस कथन को किस संदर्भ में और किसलिए कहे थे ? इसलिए बहस करना अपनी अज्ञानता का परिचय देना होगा ।

बाबा साहब ने कभी भी सीधे तौर पर अपने समाज के लोगों को आदेश नहीं दिया था, बल्कि बात के दौरान उन्होंने केवल एक बात कही थी ।

शिक्षित होने के बाद यदि व्यक्ति संगठित न हो सकें, तो शिक्षा व्यर्थ होती है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज संगठन से ही बनता है । जो समाज संगठित नहीं होता है, उस समाज का विकास भी नहीं हो पाता है । इसीलिए बाबा साहब ने सामाजिक संगठनों 'बहिष्कृत हितकारिणी सभा' और 'समता सैनिक दल' की स्थापना की ।

4. राजनैतिक आंदोलन 

बाबा साहब ने कहा था, " कुछ मामलों में राजसत्ता का उपयोग किए बगैर सामाजिक अन्याय को समाप्त करना मुश्किल है । " [1] अपनी कथनी को करनी में बदलने के लिए उन्होंने राजनैतिक संगठनों 'शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन', 'स्वतंत्र लेबर पार्टी' और 'भारतीय रिपब्लिकन पार्टी' का निर्माण किया ।

5. धार्मिक आंदोलन 

भारत में अछूतों की दयनीय दशा का मूल कारण धार्मिक था । किंतु क्या एक धर्म के शोषण से निजात पाने के लिए दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेना उचित है ? मई 1924 को सोलापुर, महाराष्ट्र में 'मुंबई राज्य बहिष्कृत परिषद' को संबोधित करते हुए बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था, " अपने लोगों को धर्मांतरण करना चाहिए या नहीं ? इस सवाल का जवाब देना आसान नहीं है । मनुष्य के लिए धर्म आवश्यक है या नहीं ? इस अनिर्णीत सवाल में उलझने में मुझे कोई रुचि नहीं है । " [2] कालांतर में विवश होकर बाबा साहब को अपने विचारों में परिवर्तन लाना पड़ा । बाबा साहब ने अछूतों के साथ भेदभाव और शोषण के कुकर्म का आधार हिंदू धर्मग्रंथ 'मनुस्मृति' को माना । इसलिए उन्होंने 25 दिसंबर सन् 1927 को मनुस्मृति की कई प्रतियाँ जला दी थी । आज भी बहुजन समाज 25 दिसंबर को 'मनुस्मृति दहन दिवस' के रूप में मनाता है । हिंदू धर्म की व्यावहारिक बुराइयों से तंग आकर बाबा साहब ने बौद्ध धम्म को अपनाने का निश्चय कर लिया था । 13 अक्टूबर सन् 1935 को येवला सम्मेलन, नासिक में बाबा साहब ने कहा था, "... दुर्भाग्य से मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ था, यह मेरे वश की बात नहीं थी; लेकिन अपमानजनक स्थिति से इनकार करना मेरी शक्ति की सीमा में है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं मरते समय हिंदू नहीं रहूँगा । " [3] बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार के लिए बाबा साहब ने 'भारतीय बौद्ध महासभा' की स्थापना की । अपने जीवन के अंतिम समय में 14 अक्टूबर सन् 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर उन्होंने बहुजन समाज को बौद्ध धम्म ग्रहण करने का आह्वान भी किया ।

आंबेडकर-मिशन की समस्याएँ

आंबेडकर मिशन को आगे बढ़ाने और मिशन को पूरा करने में उत्पन्न होने वाली समस्याएँ निम्न हैं :

1. आर्थिक समस्या :-

वर्तमान में अंबेडकर मिशन से संबंधित बहुत सारे संगठन हैं, लेकिन इन संगठनों में अधिकतर तो आर्थिक रूप से कमजोर होने की वजह से अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल हैं । बाबा साहब ने बातचीत के दौरान अपने घनिष्ठ जनों से कहा था, " मिशन को पूरा करने के लिए हमारे समाज के हर व्यक्ति को अपनी आय का कुछ अंश मिशनरी संगठनों को अवश्य दान करना चाहिए । " आजकल अंशदान के लिए कुछ लोग आय का 20%, कुछ लोग 10% तथा कुछ लोग 5% की बात कहते हैं, जबकि बाबा साहब ने दान के लिए ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं रखा था । रही बात, दान किस तरह के संगठनों को करना चाहिए ? तो ध्यातव्य है कि आजकल बाबा साहब के नाम पर बने हुए अधिकतर संगठनों में निकम्मे और बेईमान लोग भरे पड़े हैं । इसलिए सावधानी से जाँच-परख कर अंशदान करने की आवश्यकता है ।

2. शैक्षिक समस्या :-

संगठन चलाने वाले अधिकांश लोग तो ऐसे हैं, जो बाबा साहब को पूरी तरह पढ़े ही नहीं है; तो दूसरे को स्पष्ट जानकारी क्या देंगे ? यदि कुछ लोग बाबा साहब को ठीक से पढ़े भी हैं, तो उनकी बातें सुनने और समझने के लिए उस स्तर की मानसिक क्षमता वाले शिक्षित श्रोता भी तो मिलने चाहिए । बहुजन समाज में आज लड़के-लड़कियाँ शिक्षित तो हो रहे हैं, लेकिन अधिकांश की शिक्षा केवल डिग्री भर ही है । वे जैसे-तैसे डिग्रियाँ ले लिए हैं, लेकिन पढ़ने और सुनने की उनमें रुचि ही नहीं है । जब वे किताबें ही नहीं पढे़ंगे, तो मंचों पर आधे-अधूरे भाषण सुनकर यथार्थ ज्ञान कैसे प्राप्त करेंगे । यदि कुछ युवा पढ़ने में रुचि भी लेते हैं, तो उन्हें बहुजन साहित्य उपलब्ध ही नहीं हो पाता ।

3. सामाजिक समस्या :- 

मई 1924 को सोलापुर, महाराष्ट्र में 'मुंबई राज्य बहिष्कृत परिषद' को संबोधित करते हुए बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था, " आज हमारी हालत यह है कि जिसे क,ख,ग आता है, उसे लगता है कि वह नेता बन गया है । इतना ही नहीं, कुछ लोग संस्था के माध्यम से काम करने के लिए तैयार नहीं होते, क्योंकि संस्था में रहने से उनका काम आगे नहीं आता । इसी वजह से हम लोगों में गैर जिम्मेदारी आ गई है और हर कोई अपना नाम आगे करने के लिए कुछ न कुछ नया करने की कोशिश करता है । " [4] यही कारण है कि सामाजिक संगठनों में एकता की कमी है ।

4. राजनैतिक समस्या :-

मान्यवर कांशीराम साहब ने सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया । कुछ वर्षों तक तो बहुजन समाज के लोग बहुत ही लगन और निष्ठा के साथ कार्य किये, लेकिन बाद में बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता निष्क्रिय और लोभी हो गये । आजकल बहुजन समाज के लोग कई पार्टियों में बँटे हुए हैं । ऐसी स्थिति में बहुजन समाज के हाथ में सत्ता की चाबी का मिलना भी बड़ा मुश्किल है ।

5. धार्मिक समस्या :-

बहुजन समाज के कुछ ही लोग बौद्ध धम्म का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं तथा बौद्ध धम्म को ग्रहण किये हैं । अधिकांश तो अभी भी हिंदू धर्म को ढो रहे हैं । कुछ ने ईसाई धर्म को अपना लिया है तो कुछ ने निरंकारी धर्म को । कुछ ऐसे भी हैं जो सारे धर्मों में आते-जाते रहते हैं और जिस धर्म में जाते हैं, उसी धर्म की बातें करते हैं ।

6. व्यावहारिक समस्या :-

बहुजन समाज को संगठित करने और कल्याणकारी योजनाओं द्वारा दलितों का हित करने में कठिनाइयाँ इसलिए भी हैं क्योंकि बहुत से दलित संगठन के पदाधिकारियों का व्यवहार ही कटु और अहंकारपूर्ण है । अधिकांश संगठन तो केवल नाम के लिए और जयंतियाँ मनाने तथा सभाएँ करने के लिए ही बनाये गये हैं । ऐसे संगठनों से दलित समाज के हितों की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती ।

आंबेडकर-मिशन की समस्याओं का समाधान

मई 1924 को सोलापुर, महाराष्ट्र में 'मुंबई राज्य बहिष्कृत परिषद' में बाबा साहब ने कहा था, " मुझे लगता है कि हम लोगों को अपने में संघशक्ति पैदा करने के लिए सभी अछूत जातियों को इकट्ठा कर, एक व्यापक संस्था का निर्माण करना जरूरी है । हमारी एक मजबूत संस्था बननी चाहिए । " [5] आज बाबा साहब का यह वक्तव्य और भी प्रासंगिक हो गया है । बहुजन समाज की कुछ नेता राजनीति को ही सारी समस्याओं का समाधान समझते हैं । शायद उन्हें यह नहीं पता है कि 11 अप्रैल 1925 को बेलगांव, मुंबई में मुंबई राज्य बहिष्कृत परिषद में बाबा साहब ने कहा था, " अब यह सिद्ध हो चुका है कि पहले राजनीतिक परिवर्तन, बाद में सामाजिक परिवर्तन, इस तरह की मीमांसा एकदम मूर्खतापूर्ण है । " [6]  यही गलती कुछ बौद्ध बने हुए दलित-वर्ग के विद्वान भी कर रहे हैं । उन्हें ऐसा लगता है कि बौद्ध धम्म को अपना लेने के बाद सारी समस्याएँ समाप्त हो जाएँगी । ऐसे लोग केवल भाषणबाजी में ही समय बिता रहे हैं ।

डॉ० एन० सिंह के अनुसार, 
संगठनों के माध्यम से दलित समाज में निम्न कार्यक्रमों को लागू करने का प्रयास करना होगा -

1. दलितों में बच्चे के जन्म पर अच्छे-अच्छे नाम रखने का प्रयास करना । इसके लिए केंद्रीय संगठन से एक छपी हुई नामावली दी जाएगी, जिसमें वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर से शुरू होने वाले लड़के और लड़कियों के नामों की सूची होगी ।
2. प्रत्येक ग्राम में सर्वे करके पता लगाना कि स्कूल जाने की उम्र के कितने बच्चे हैं, जो स्कूल नहीं जाते हैं, उन्हें स्कूल भिजवाने का प्रयास करना ।
3. दलितों में प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चलाना, जिससे सभी लोग लिखी हुई चीजों को पढ़ सकें ।
4. दलितों में सफाई की व्यवस्था पर लोगों का ध्यान दिलाया जाए, क्योंकि गंदा रहने के कारण ही दूसरे लोग हमें अपने पास फटकने नहीं देते ।
5. स्त्री और पुरुषों में पूरी तरह शराबबंदी करना, क्योंकि इस वजह से दलितों की अधिकांश कमाई जो इनके विकास में लगनी चाहिए, वह शराब के कारण दूसरों के पास चली जाती है और दलित कर्जे में दबते चले जाते हैं ।
6. मांस भक्षण तथा धूम्रपान के निषेध का भी प्रचार करना आवश्यक है ।
7. शादी विवाह में दहेज प्रथा का पूर्ण बहिष्कार तथा बारात में कम से कम आदमी लाने और ले जाने पर जोर दिया जाना आवश्यक है ।
8. लड़कियों की शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए ।
9. बाल विवाह प्रथा का विरोध करना ।
10. मृत्युभोज, तेरही, सगाई आदि पर अनावश्यक खर्च न करना ।
11. हिंदू धर्म के रूढ़िवाद तथा अंधविश्वास से मुक्ति के लिए लोगों को समझाना, जिससे ये लोग अपनी कमाई का वह हिस्सा जो पंडे, पुजारियों को देते हैं, उसे अपने बच्चों के लिए उपयोग करें ।
12. बौद्ध धर्म के प्रचार को बढ़ावा देना ।
13. दलित उत्पीड़न की सभी छोटी-बड़ी घटनाओं को पत्र-पत्रिकाओं तक पहुँचाना । छपने पर संकलन करना तथा प्रदेश जिला मुख्यालय से निकलने वाले किसी भी दलित पत्र का उत्पीड़न विशेषांक प्रकाशित करना । यह कार्य प्रत्येक जिला स्तर पर होना चाहिए ।
14. सेवानिवृत्त दलितों को दलित सुधार कार्यक्रमों में नियोजित किया जाना चाहिए ।
15. अधिक से अधिक शिक्षण संस्थाओं के निर्माण का प्रयास करना ।
16. दलित साहित्य के पठन-पाठन का प्रचार करना ।
17. रविदास जयंती और अंबेडकर जयंती को कौमी त्यौहार के रूप में मनाने का प्रचार करना ।
18. दलित राजनीतिज्ञों के लिए ट्रेनिंग जिससे वह किसी भी पार्टी में रहे लेकिन दलित हित में काम करें ।

[ दलित साहित्य के प्रतिमान, पृष्ठ 221 ]


संक्षेप में आंबेडकर मिशन से संबंधित समस्याओं के समाधान निम्नलिखित हैं :

(क) कोई एक राष्ट्र स्तरीय मजबूत संगठन अथवा संस्था बनाई जाए ।
(ख) संगठन अथवा संस्था में सदस्यता हेतु कम से कम 2 वर्षों के कार्यानुभव का प्रमाण-पत्र लिया जाए ।
(ग) संगठन अथवा संस्था में ईमानदार और कर्मठ तथा संघर्षशील लोगों को ही शामिल किया जाए ।
(घ) संगठन अथवा संस्था के पदाधिकारियों के लिए 2 या 3 वर्ष के बाद पद-त्याग का नियम बनाया जाए ।
(ड़) संगठन अथवा संस्था में एकत्रित धन का उपयोग लघु उद्योग, शिक्षण संस्थान, पुस्तकालय, सभागार निर्माण, जरूरतमंदों की मदद और प्रतिभाओं के प्रोत्साहन हेतु खर्च किया जाए ।
(च) प्रत्येक जिले में एक प्रशिक्षण केंद्र बनाया जाए, जिसमें किशोरों को प्रशिक्षित किया जाए ।
(छ) प्रशिक्षित किशोरों अथवा युवकों को प्रचार-प्रसार हेतु क्षेत्र वितरण किया जाए तथा उन्हें संपन्न लोगों द्वारा आवश्यक सुविधाएँ प्रदान की जाए ।
(ज) डॉ० अंबेडकर द्वारा लिखित तथा अन्य महत्वपूर्ण पुस्तकों को न्यूनतम मूल्य पर बेचा जाए ताकि वे अधिक से अधिक दलितों को उपलब्ध हो सकें ।
(झ) प्रत्येक रविदास मंदिर, अंबेडकर स्मारक और बौद्ध विहार में लाउडस्पीकर होना चाहिए, जिस पर प्रवचन और मधुर गीत बजने चाहिए ।
(ञ) समय-समय पर सेमिनारों का आयोजन करके संबंधित विषय का प्रमाण-पत्र वितरण किया जाना चाहिए ।


 संदर्भ :- 

[1] और बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा (खंड क) : संपादक - डॉ० एल०जी० मेश्राम 'विमलकीर्ति', पृष्ठ 64
[2] वही, पृष्ठ 62
[3] डॉ० बी०आर० अंबेडकर - व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ० डी०आर० जाटव, पृष्ठ 154
[4] और बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा (खंड क) : संपादक - डॉ० एल०जी० मेश्राम 'विमलकीर्ति', पृष्ठ 66
[5] वही,
[6]वही, पृष्ठ 70

1 टिप्पणियाँ

  1. बाबा साहेब डॉ० अंबेडकर का मुख्य मिशन था - 'जाति प्रथा का उन्मूलन' और 'राजकीय समाजवाद', न कि 'बौद्धमय भारत' का निर्माण ।

    वर्तमान समय शांति का नहीं, बल्कि क्रांति का है । शांति की बात आजकल वही लोग कर रहे हैं, जिनकी मूलभूत आवश्यकताएँ (रोटी, कपड़ा और मकान) पूरी हो जा रही हैं । जो वास्तव में दलित हैं, उन आदिवासियों, भूमिहीनों, खानाबदोश गरीबों पर तथाकथित अंबेडकरवादियों का ध्यान ही नहीं जा रहा ।

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