समकालीन हिंदी दलित कविता के स्वरूप, संरचना, शिल्प, सौंदर्य और संवेदना को भली-भाँति समझने के लिए दलित कविता के अतीत में थोड़ा झाँक लेना आवश्यक है । चूँकि दलित कविता का जन्म छुआछूत, शोषण, अन्याय और अपमान आदि से निर्मित गर्भ से हुआ है, इसलिए दलित कविता में आक्रोश, नकार, विरोध और विद्रोह आदि भावों का समावेश होना स्वाभाविक है । इस संसार में घटित होने वाले हर कार्य का कोई न कोई कारण होता है, तो फिर दलित कविता का उद्भव अकारण कैसे हो सकता था ? दलित कविता का उदय दलित अस्मिता की सुरक्षा के लिए हुआ । दलित कविता साहित्य की एक मात्र विधा ही नहीं, बल्कि अन्याय से पीड़ित दलितों के लिए क्रांति का बिगुल भी है, जिसे सुनकर दलित समाज के लोग उर्जित, उत्साहित और आंदोलित होते हैं और शोषक वर्ग के सामने अपने अधिकारों के लिए सीना तानकर खड़े हो जाते हैं । वर्तमान में दलित समाज की स्थिति में जो भी सुधार हुआ है, उसमें दलित काव्य-साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका है । पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध 'साहित्य की महत्ता' में ठीक ही लिखा है कि " साहित्य में जो शक्ति छिपी रहती है, वह तोप, तलवार और बम के गोलों में भी नहीं पायी जाती । "
समकालीन हिंदी दलित कविता Samkaleen Hindi Dalit Kavita
दलित कविता में दलित चेतना का होना अनिवार्य है । दलित चेतना से रहित कविता को दलित कविता नहीं कहा जा सकता, भले ही उसे दलित समाज के ही किसी कवि ने लिखा हो । दलित चेतना को स्पष्ट करते हुए ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लिखा है, " दलित चेतना के प्रमुख बिंदु हैं - (1) मुक्ति और स्वतंत्रता के सवालों पर डॉक्टर अंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना । (2) बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टि बोध, पाखंड-कर्मवाद विरोध । (3) वर्ण व्यवस्था विरोध, जातिभेद विरोध, सांप्रदायिकता विरोध । (4) अलगाव का नहीं, भाईचारे का समर्थन । (5) स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता । (6) सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता । (7) आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद का विरोध । (8) सामंतवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध । (9) अधिनायकवाद का विरोध । (10) महाकाव्य की रामचंद्र शुक्लीय परिभाषा से असहमति । (11) पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र का विरोध । (12) वर्ण विहीन, वर्ग विहीन समाज की पक्षधरता । (13) भाषावाद, लिंगवाद का विरोध । " [3]
दलित कविता का विषय-क्षेत्र क्या है ? किन-किन विषयों पर दलित कविता लिखी जा सकती है ? अधिकांश दलित कवि, दलित कविता के पाठक और दलित कविता के आलोचक इस विषय में भ्रमित हैं तथा दलित कविता के विषय-क्षेत्र को एक निश्चित सीमा तक ही मान लेते हैं । दलित कविता के विषय-क्षेत्र को स्पष्ट रूप से समझने के लिए 'दलित' शब्द का अर्थ जानना आवश्यक है । नामदेव ढसाल के अनुसार, " दलित यानी कि अनुसूचित जाति, जनजाति, बौद्ध, श्रमिक जनता मजदूर, भूमिहीन, खेत मजदूर, यायावर और आदिवासी हैं । " [4] इनके अतिरिक्त स्त्री और किन्नर भी दलित कविता के विषय-क्षेत्र में हैं । अफसोस यह कि किन्नरों की पीड़ा पर कोई दलित कविता नहीं है; और यदि होगी भी, तो प्रकाश में नहीं है । या तो दलित कवि किन्नरों को दलित नहीं समझते हों, या फिर उन पर उनका ध्यान ही न गया हो । कारण चाहे जो भी हो, लेकिन यह दुखद स्थिति है । किन्नरों पर भी दलित साहित्य लिखा जाना चाहिए, क्योंकि वे भी सही मायने में दलित हैं ।
वर्तमान में, कोरोना की आपदा से पीड़ित प्रवासी मजदूरों की वेदना को अधिकांश कवियोंं ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्त किया है । किसी ने उनकी भूखी-प्यासी स्थिति का चित्रण किया है, तो किसी ने उनकी निर्धनता का सामान्य शब्दों में करुण वर्णन किया है । किसी ने उनके पैदल चलकर घर जाने के संघर्ष को भावुकतापूर्वक प्रस्तुत किया है । फिर भी कुछ ही कवियों की कविताएँ पाठकों के हृदय को उद्वेलित कर पाती हैं । सच तो यह है कि केवल मजदूरों की वेदनाभिव्यक्ति से दलित कविता प्रभावी नहीं हो सकती, बल्कि उनकी पीड़ा के कारणों और उनके प्रति अन्याय को ध्यान में रखकर उनके अधिकार प्राप्ति हेतु नकार, विरोध और विद्रोह की भावाभिव्यक्ति ही दलित कविता को प्रभावी बना सकती है । जो लोग दलित कविता को केवल दुःख और पीड़ा की अभिव्यक्ति समझते हैं, वे या तो भ्रम में हैं, या फिर अंबेडकरवाद से अनभिज्ञ हैं । अंबेडकरवादी विचारधारा बौद्ध दर्शन से भी प्रभावित है । दुःख से दुःखी होकर रोने के लिए तो बुद्ध ने भी नहीं कहा था; क्योंकि दुःख है तो दुःख का कारण है, दुःख का कारण है तो दुःख का निवारण है और दुःख निवारण का मार्ग भी है । इसलिए संघर्षयुक्त दुःख की अभिव्यक्ति ही दलित कविता में उचित है, अन्यथा व्यर्थ का विलाप दलित कविता के आंदोलन को अवरुद्ध कर देगा । वैसे भी, यह समय अपना दुखड़ा गाने का नहीं है ।
वर्तमान की दलित कविताओं में भोगा हुआ यथार्थ भी कम ही देखने को मिलता है । इसका कारण यह है कि दलित कवि अपनी कविता का विषय अपनी स्थिति के प्रतिकूल चुनते हैं । परिणामस्वरूप दलित कविता प्रभावहीन होती जा रही है । जब बंगला, कार और ए०सी० का सुविधाभोगी धनवान दलित भूख-प्यास से व्याकुल निर्धन की दयनीय स्थिति का चित्रण करता है, तो वह केवल शब्दों का तम्बू की खड़ा करता है; जिस तरह निराला ने अपनी कविता 'वह तोड़ती पत्थर' में किया है । 'वह तोड़ती पत्थर' कविता की पीड़ित नारी में न ही शोषण के प्रति आक्रोश है, न ही उस पत्थर तोड़ने के कार्य से इनकार है और न ही शोषक के प्रति विद्रोह की भावना है । वह तो सारा दुःख सहते हुए अपने कार्य में लीन है; निराला के शब्दों में, " लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा - मैं तोड़ती पत्थर । " इस तरह की कविता को दलित कविता नहीं कहा जाता । दलित कवि भी यदि इसी तरह की कविताएँ लिखते रहें, तो फिर कैसा दलित कवि और कैसी दलित कविता ?
समकालीन दलित कविता के प्रभावहीन होने का एक कारण, उसमें कलात्मकता का अभाव भी है । दलित कविता की कलात्मकता के विषय में दलित कवियों का यह कथन कि यथार्थ की अभिव्यक्ति होने के कारण दलित कविता कलात्मक नहीं हो सकती; उनके अतिवाद से ग्रसित होने की ओर संकेत करता है । इस बात की पुष्टि के लिए डॉ० शरण कुमार लिंबाले का यह कथन ध्यातव्य है कि " कलाकृति का सौंदर्य विश्वचैतन्य की अथवा परतत्व की अभिव्यक्ति होती है, यह प्रतिपादित करने वाला सौंदर्यशास्त्र विश्वचैतन्यवादी अथवा आध्यात्मवादी कहलाता है । कलाकृति का सौंदर्य वास्तविकता की कलात्मक अभिव्यक्ति होती है, यह प्रतिपादित करने वाला सौंदर्यशास्त्र भौतिकवादी अथवा बाह्यार्थवादी होता है । दलित साहित्य अध्यात्मवाद और गूढ़वाद को नकारता है, इस कारण यह मानना होगा कि इस साहित्य का सौंदर्यशास्त्र अध्यात्मवादी न होकर भौतिकवादी है । " [5] डाॅ० लिंबाले के इस कथन से स्पष्ट है कि दलित कविता का सौंदर्यशास्त्र भौतिकवादी है, जो कि वास्तविकता की कलात्मक अभिव्यक्ति का पक्षधर है । डॉ० एन० सिंह के अनुसार, " दलित साहित्यकारों में साधना का अभाव है, जिसके कारण दलित साहित्य कलात्मक नहीं है । " [6] साहित्य के पाठकों को यह बताने की आवश्यकता तो नहीं कि कलात्मकता क्या होती है ? फिर भी सामान्य पाठक यह जान लें कि कला का अर्थ है - कौशल । किसी बात को कहने का ढंग ही कौशल है । कवि की कथ्यशैली ही उसकी कविता में कलात्मकता उत्पन्न करती है । जो दलित कवि शुद्ध सपाटबयानी से मुक्त हैं, उनकी कविताओं में बिंबो, प्रतीकों और अलंकारों के दर्शन अवश्य होते हैं, लेकिन ऐसे दलित कवियों की संख्या अत्यल्प है ।
दलित कविताओं में कलात्मकता के साथ-साथ लयात्मकता और गेयता का भी अभाव है । बी०आर० विप्लवी के शब्दों में, " दलित साहित्य में कविता का वर्तमान परिदृश्य परंपरा से हटकर है । ज्यादातर कविताएँ मुक्त छंद या छंदहीन प्रकृति की हैं; जिनमें विचारों की प्रखरता तो है, किंतु गेय कविता की परंपरा नदारद है । छंदहीन कविताओं के दलित विमर्श या दार्शनिक गंभीरता के पक्ष फौरी तौर पर मन को झकझोरते हैं, किंतु इनका स्थायी असर कम होता दिखाई देता है । इन कविताओं में स्वानुभूति का ताप भी है, अनुभव की गहराई भी है और व्यवस्था के प्रति आक्रोश भी है, जो दलित साहित्य के लिए जरूरी अवयव हैं, किंतु इनमें कविता का मूल गेय तत्व नहीं होने से इनकी चिरंजीविता संदिग्ध हो जाती है । " [7] यह ध्यान रहे कि लय और गेयता का संबंध छंद और तुक से बिल्कुल भी नहीं है, क्योंकि छंद और तुक से विहीन कविताएँ भी गेय होती हैं । उदाहरण के रूप में निराला और अज्ञेय की कविताओं को देखा जा सकता है । खैर, अब कुछ युवा दलित कवियों/कवयित्रियों द्वारा इस अभाव की पूर्ति का प्रयास किया जा रहा है, जो दलित कविता को एक नई दिशा और दशा प्रदान करने में सहायक होगा ।
मिथकों का प्रयोग भी दलित कविता में आरंभ से ही होता चला आ रहा है । सोचने की बात तो यह है कि एक तरफ दलित कवि मिथकीय पात्रों (पौराणिक पात्रों) के अस्तित्व को नकारते हैं और दूसरी तरफ अपनी कविताओं में तथाकथित अपने समाज के मिथकीय पात्रों (शंबूक, एकलव्य आदि) का शान से प्रयोग करते हैं । यह तो वही बात हुई कि गुड़ खाएँ और गुलगुला से परहेज करें । यदि राम,कृष्ण आदि का कोई अस्तित्व नहीं, तो शम्बूक, एकलव्य आदि भी अस्तित्वहीन हैं । इसलिए उनको विषय बनाकर कविता लिखना दलित कवियों के लिए अशोभनीय है । बेहतर यही होगा कि युवा कवि/कवयित्री अपनी कविताओं में इस तरह का प्रयोग करने से बचें । अन्यथा, दलित कवियों पर भी भविष्य में दोहरे चरित्र का आरोप लगने की संभावना है । अपने भावों और विचारों को कविता में अभिव्यक्त करने के लिए क्या दलित समाज में ऐतिहसिक पात्रों की कमी है ? बिल्कुल नहीं । बल्कि आवश्यकता पड़ने पर तो जीवित पात्रों का भी प्रयोग किया जा सकता है ।
युवा रचनाकारों को चाहिए कि वे दलित साहित्य का गहन अध्ययन करते हुए बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर के साहित्य का भी सूक्ष्म अध्ययन करें । इसके अतिरिक्त अंबेडकरवादी दृष्टि को कविता में सरस और कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता है । दलित कविता गैर-दलितों को कोंसने और गाली देने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह गैर-दलितों के सामने अपनी साहित्यिक प्रतिभा को प्रदर्शित करने और दलितों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देने का माध्यम है । यथार्थ चित्रण के नाम पर अश्लील और भड़काऊ शब्दों का प्रयोग करना सर्वथा अनुचित है । गैर दलितों के साहित्य को नकारकर दलित साहित्य शिखर को प्राप्त नहीं कर सकता । दलित साहित्य तभी शिखर को प्राप्त करेगा, जब उसमें श्रेष्ठ और साहित्यिक प्रतिमानों पर खरी उतरने वाली रचनाओं की विपुलता होगी; ठीक उसी तरह, जिस तरह कि किसी रेखा को छोटी करने के लिए उस रेखा को मिटाने की बजाय उससे बड़ी रेखा खींची जाती है । दलित कविता का सौंदर्यशास्त्र और दलित कविता के प्रतिमान आदि विषयों पर अभी संतोषजनक समीक्षात्मक अथवा आलोचनात्मक पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो सकी हैं । साथ ही ऐसे दलित समीक्षकों और आलोचकों का भी अभाव है, जो रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह की तरह दलित साहित्य की समीक्षा और आलोचना कर सकें । आलोचना के अभाव में दलित कविता भी अपनी लीक से विचलित होती दिखाई दे रही है ।
संदर्भ :
1. दलित साहित्य : संवेदना के आयाम, पृष्ठ 26, सं०- पी० रवि, बी०जी० गोपालकृष्णन
2. डॉ० शरण कुमार लिंबाले : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृष्ठ 111
3. ओमप्रकाश वाल्मीकि : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृष्ठ 31
4. नामदेव ढसाल : दलित पैंथर का जाहीरनामा
5. डाॅ० शरण कुमार लिंबाले : दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृष्ठ 117
6. डॉ० एन० सिंह : दलित साहित्य के प्रतिमान, पृष्ठ 10
7. सामाजिक न्याय और दलित साहित्य, पृष्ठ 226, सं०- डॉ० श्यौराज सिंह बेचैन
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
दलित साहित्य पर बहुत ही गहनता से आपने प्रकाश डाला है निश्चित ही आपके इस लेख/शोध से दलित साहित्यकारों का मार्ग दर्शन होगा और बहुत कुछ सीखने को मिलेगा ।
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट लेख के लिए साधुवाद ।
जय भीम ।।
जी, धन्यवाद । समीक्षात्मक टिप्पणी देने के लिए आपका आभार । सादर जय भीम !
जवाब देंहटाएंजी, धन्यवाद आदरणीय!
जवाब देंहटाएं