प्रेमचंद के साहित्य का मूल्यांकन : हीरालाल राजस्थानी

हंस पर एक कथा प्रचलित है कि वह दूध और पानी को अलग करने की क्षमता रखता है और 'हंस' के संपादक भी उसको निभाते समय चूकते नहीं हैं । यह बेबाकी दलित-स्त्री विमर्श को मुख्यधारा से जोड़ने में कारगर साबित हुई, शायद यही प्रयास 'हंस' के संस्थापक का भी रहा हो, रहा ही होगा ।

मैं उस संस्थान और परंपरा का शिष्य रहा हूँ, जहाँ सही को सही और खराब को खराब कहा जाता है । गुरुओं और प्रशंसकों में भी वह धैर्य और सहिष्णुता होनी चाहिए, जो हर सीखने और रचनात्मक कर्म करने वालों में होती है । मुझे याद है वरिष्ठ मूर्तिकार लतिका कट्ट जो कला क्षेत्र में जानी-मानी हस्तियों में से एक हैं, मेरी गुरु भी हैं । मैं इस बात पर गर्व भी करता हूँ, जो अकारण नहीं है । यहाँ बता दूँ कि वे सबसे पहले इस बात पर ज़ोर देती हैं कि किसी भी रचनात्मक क्ष्रेत्र में दाखिल होने से पहले एक अच्छा इंसान बने रहना बहुत ज़रूरी है, जिसमें अपनी आलोचना और कमियों को स्वीकारने व उनसे सीखने की क्षमता भी हो और इसे एक अध्याय के रूप में लेना चाहिए । मुझे याद है, जब वे जवाहर लाल नेहरू की 22 फीट की प्रतिमा (जो अब जवाहर भवन दिल्ली में स्थापित है) बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बलबीर सिंह कट्ट (उनके पति) के निवास पर जहाँ वे इस कलाकृति को अंजाम दे रही थीं । कट्ट सर खुद एक अच्छे पोर्ट्रेट बनाने वाले जाने-माने मूर्तिकार रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके उन्होंने मुझे भी आमंत्रित किया; यह कह कर कि जब तुम आओगे तब इस पोर्ट्रेट को अंतिम रूप माना जाएगा । उस समय 24 वर्ष का रहा हूँगा; मैं गया और मेरे राय मशविरे के बाद ही उन्होंने कहा कि मैं निश्चिन्त हूँ, अब इसे अंतिम रूप मानकर आगे बढ़ा जा सकता है । यह कर्म के प्रति उदारता और ईमानदारी साहित्य क्षेत्र में देखने को नहीं मिलती । किसी भी व्यक्ति का अपना नज़रिया होता है, होना ही चाहिए उसकी कसौटी पर कसते हुए स्वीकारना व नकारना विवेक अनुभव से तय हो । बने बनाये मापदंडों पर चलना ठहरे हुए पानी में छपके मारने जैसा होगा, जो सड़ांध फैलाने के सिवाय ज्यादा कुछ नहीं कर पाता । किसी भी कलाकार और साहित्यकार की सभी रचनाएँ मास्टर पीस नहीं हो सकती और न ही सब खराब ही । जिसे समय और व्यवहारिकता पर खरा उतरना पड़ता है, वर्तमान हंस के संपादक संजय सहाय ने 'कहानी चयन के पैमाने' शीर्षक से 20 जून 2020, शाम 6:32, फेसबुक लाइव पर प्रियदर्शन के साथ साक्षात्कार में कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानियों के बारे में खासतौर से 'बड़े घर की बेटी' और 'नमक का दरोगा' के लिए जो कहा, वो उनका अपना नज़रिया है; जो सही भी हो सकता है, उसे ठहरकर समझने व जाँचने की ज़रूरत है । हो सकता है, उनके मानदंड कुछ और हों । हाँ, उनका बेलिहाज कूड़ा कहना अखरता ज़रूर है । किसी-किसी पेड़ की सभी टहनियाँ और पत्ते एक जैसे स्वस्थ और आकार के नहीं होते, कुछ पत्ते समय के साथ सूखकर अपने आप गिर जाते हैं, कुछ साखों को हम छाँट देते हैं लेकिन पूरे पेड़ को नकारते नहीं हैं और न ही उसकी छाया में दोष निकालते हैं । यही तो सीखने-सिखाने और विश्लेषण करने की बात बचती है ।

समकालीन हिंदी दलित कविता (आलोचना) ☸

एक मर्तबा मैंने केवल स्मृति मात्र से ही लतिका मैडम का पोर्ट्रेट बनाया था । किस्सा कुछ यूँ था कि धुमिमल आर्ट गैलेरी दिल्ली 1995 में मूर्तिकारों की सामुहिक प्रदर्शनी होनी थी जिसका रख-रखाव (डिसप्ले) मैडम को ही देखना था, जिसमें उनका अपना भी मूर्तिशिल्प था मुझे मदद के लिए उन्होंने बुलाया था । मैं देरी से पहुँचा । उस पर वे नाराज़ हुई और वापस जाने को कह दिया मुझे बहुत बुरा लगा और मैं नाराजगी दिखाते हुए चला आया अगले दिन मुझे पंजाब के जलन्दर शहर जाना था किसी मूर्ति में मदद के लिए । वहाँ खाली मिले समय में मैंने उनका पोर्ट्रेट बनाया और एक चिट्ठी मैडम को लिखी जिसमें लिखकर बताया कि मैंने उनका पोर्ट्रेट बनाया है । कुछ दिनों बाद उनका टेलिग्राम आया दिल्ली बुलाने के लिए । मैं दिल्ली आया और फोन किया तो उन्होंने पोर्ट्रेट भी लाने को कहा । मैं पोर्ट्रेट लेकर गया और जैसे ही उन्होंने पोर्ट्रेट देखा वे हैरान होकर बोली ये तुमने कैसे बना लिया ? न मेरा फोटो ही तुम्हारे पास था और न ही मैंने तुम्हें सिटिंग दी । ये अद्धभुत है । मैं इसमें अपने को महसूस कर पा रही हूँ । सच कहूँ तो मैं कभी ऐसे नहीं बना सकती और अनेकों कलाकारों ने मुझे कई-कई दिनों बैठाकर बनाया लेकिन उनमें मैं कभी लगी ही नहीं । ये प्रोत्साहन भरी समीक्षा किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं थी और न ही वे वरिष्ठ कलाकार छोटे हुए थे । हाँ, कसौटी ज़रूर बनती - बिगड़ती रहती है । कुछ कसौटियाँ परंपराओं से जुड़ी होती हैं तो कुछ नई बनकर खड़ी होती हैं । संजय सहाय ने अपने जिस बुद्धि-विवेक की कसौटी पर प्रेमचंद की कहानियों को कूड़ा कहकर संबोधित किया, उसे समझने की ज़रूरत है । संजय सहाय ने प्रेमचंद के साहित्य को दलितों की तर्ज पर हिन्दू ग्रंथों की तरह सिरे से नहीं नकारा; जिनमें वर्णव्यवस्था और भेदभाव के अलावा भी बहुत कुछ है, जिसे जानने, समझने और सीखने की दरकार है ।

मलखान सिंह अपनी कविताओं में 'सुनो ब्राह्मण !' डंके की चोट पर ललकारते हैं । वह ललकार अनावश्यक भी नहीं है, लेकिन कोई ब्राह्मण 'सुनो चमार !', 'सुनो भंगी !', 'सुनो खटीक !' या 'सुनो यादव !' कहे तो दलितों का उसकी ज़बान खींच लेने का मन करता है ।

यह दलित साहित्य के आदर्श, मानदंड नहीं हो सकते और यह भी कि दलितों के हितों की बात दलित ही सोच सकता है यदि कोई और हिमाकत करें तो उनकी हिम्मत और पहल को दुत्कार दिया जाता है, ठीक वैसे ही जैसे मनुवादी दुत्कारते हैं दलितों को । कहीं कोई लचीलापन नहीं दिखता ।

दलित पात्रों के नामों को लेकर भी प्रेमचंद की खींचतान होती रही है, जैसे- गोबर, घीसू, झुनियां, धनियां, बुधिया, मुलिया, देवीदीन, मंगरु आदि; जबकि उस समय दलितों के ऐसे ही नाम रखे जाते थे । समय को दर्ज करने के लिए भी समयाधारित पात्रों के नाम चयन किये जाते हैं, लेकिन जब रूपनारायण सोनकर जैसे लेखक अपने लेखन में दलित पत्रों के नाम प्रेमचंद की तरह के रखते हैं जैसे - देवीदीन, घसीटे चमार, संकटा प्रसाद चिकवा, सलवंत यादव आदि तब कोई दिक्कत किसी दलित लेखक को नहीं होती । जबकि आज के समय में ऐसे नाम के विकल्प हो सकते हैं । ऐसे नाम अब दलितों में नहीं मिलेंगे । गलत कौन है ? वहीं कुछ दलित कवियों की कविताओं में गैर-दलितों को गाहे बगाहे, गाली-गलौज लिखे बिना कोई कविता पूरी नहीं होती; तब भी किसी दलित को आपत्ति नहीं । ऐसे बहुत से लेखक गिनवाए जा सकते हैं तथा सोचने की बात ये है कि ये अंधमार्ग हमें कहीं नहीं पहुँचाने वाले । यहाँ गौतम बुद्ध को समझने की  ज़रूरत है, जो अपने बुद्धि-विवेक के बल पर आगे बढ़ने की बात करते हैं ।

- हीरालाल राजस्थानी 
 अध्यक्ष : दलित लेखक संघ

3 टिप्पणियाँ

  1. आदरणीय हीरालाल राजस्थानी जी ने कम शब्दों में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के कथा साहित्य का उपयुक्त मूल्यांकन किया है । इसी के साथ उन्होंने दलित साहित्यकारों के अतिवाद को भी नकारा है । फेसबुक पर इनका यह लेख पढ़कर मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ, जिसके फलस्वरूप उनकी अनुमति प्राप्त करके इस लेख को मैंने इस ब्लॉग पर पोस्ट किया है । पाठकों से निवेदन है कि वे इस लेख को गंभीरता से पढ़ें और विचार करें ।

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  2. बहुत सही सवाल पोस्ट में उठाये गए हैं । एक मानवातावादी दृष्टि से लिखी गई वैज्ञानिक और वस्तुगत पोस्ट इसे कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए । नकार ही नहीं स्वीकार भी ,,,, दोनों के बीच तार्किकता के साथ वैचारिक संतुलन की लाइन खिंचती यह पोस्ट आगामी प्रगतिशील और सभी तरह के साहित्य के लिए मील का पत्थर सिद्ध हो सकती है । पोस्ट के शब्द शब्द में बुद्ध की करुणा और बाबा साहेब की तार्किकता और दूरदृष्टि को बड़ी आसानी से देखा जा सकता है । यह पोस्ट प्रेमचंद के बहाने एक ओर जहां सभी पूर्वग्रहों से ऊपर उठकर वैज्ञानिक अध्ययन की ओर इशारा करती है तो दूसरी ओर उन अंतर्विरोधों की ओर भी इशारा करती है जो आलोचना को स्वस्थ समीक्षा की बजाय गाली गलौच की ओर धकेलते हैं । हम सब को इन बातों पर आज के संदर्भ में परम्परा का मूल्यांकन करते हुए गहन विचार करने की ज़रूरत है ।
    जो मेरे लिए गलत है । वह दूसरे के लिए भी गलत हो सकता है । लेकिन जो मेरे लिए सही है कोई ज़रूरी नहीं कि वह दूसरे के लिए भी सही हो । इन दोनों के बीच हमें एक ऐसे रास्ते की खोज करनी चाहिए जिस पर चलने का आधार बुद्ध की करुणा और लोकतांत्रिक मूल्य हों ।

    समकालीन माथा पच्ची से बाहर निकालती बेहतरीन वैचारिक पोस्ट ।

    रवि निर्मला सिंह

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  3. हीरालाल राजस्थानी जी ने प्रेमचंद साहित्य के कुछ अंशों को संजय सहाय द्वारा कूड़ा कहे जाने को न तो नकारा है और न ही स्वीकार किया है।
    उन्होंने ऐसी स्थापना पर ठहरकर विचार करने और तब अपनी राय क़ायम करने की सलाह दी है।
    यह मध्यमार्ग है।
    इस मार्ग पर चलने में भलाई है।
    यह उन लोगों को भी नसीहत है जो प्रेमचंद की आँखों का रंग देखकर उनके लिखे हुए को कूड़ा या विष मानते हैं।

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