डॉ० मुसाफिर बैठा जी के कविता-संग्रह "बीमार मानस का गेह" का प्रथम संस्करण वर्ष 2011 में, जागृति साहित्य प्रकाशन पटना, से प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कुल अड़तीस कविताएँ हैं । संपूर्ण कविताओं को चार भागों में बाँटा गया है । पहले भाग का शीर्षक है "भ्रम की टाटी सबै उड़ांणी", जिसके अंतर्गत दस कविताएँ हैं । इस भाग की कविताएँ मिथकों का भ्रम तोड़ते हुए अंधविश्वास पर चोट करती हैं । दूसरे भाग का शीर्षक है "ऊँचे कुल क्या जनमियाँ", जिसके अंतर्गत सात कविताएँ हैं । इस भाग की कविताओं में तथाकथित ऊँचे कुल के कुंठित मानसिकता वाले लोगों पर व्यंग्य किया गया है । तीसरे भाग का शीर्षक है "हिरदा भीतर आरसी", जिसके अंतर्गत दस कविताएँ हैं । इस भाग की कविताएँ सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक यथार्थ का चिंतनपरक बिंब प्रस्तुत करती हैं । चौथे भाग का शीर्षक है "मन के भींगल कोर", जिसके अंतर्गत ग्यारह कविताएँ हैं । इस भाग की कविताओं के माध्यम से कवि ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को अभिव्यक्ति दी है ।
डाॅ० मुसाफिर बैठा जी का यह पहला कविता संग्रह है, जिसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उन्होंने इसमें अपने विभिन्न प्रकार के अनुभवों को समेटने का प्रयास किया है; जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें इस संग्रह की कविताओं को चार भागों में बाँटने की आवश्यकता पड़ी । डॉ० बैठा जी हिंदुओं की दृष्टि में जो ज्ञान की देवी है, उस काल्पनिक सरस्वती द्वारा प्रदत्त विद्या को ग्रहण करने से इनकार करते हैं । उसे संबोधित करते हुए "सुनो सरस्वती" कविता में कहते हैं :
सुनो सरस्वती !
सुनो !
कान खोलकर सुनो तुम,
तुम्हारी जड़ मूर्ति जिसने गढ़ी
उसी को तुम्हारी विकलांग विद्या मुबारक
हमने तो सीख लिया है
खुद अपने बूते विद्या गढ़ना
विद्या के बल पर बनना सँवरना [1]
यही नहीं; वे उस तथाकथित देवी को ललकारते हुए यह प्रश्न करते हैं कि " ऐसी कौन सी विद्या है, जिसे तुम्हारे बिना हम अर्जित नहीं कर सकते ? " उनके इस कथन से स्पष्ट है कि वे गौतम बुद्ध की वाणी "अप्प दीपो भव" से प्रभावित हैं । काल्पनिक देवी सरस्वती के पूजा-पाठ और प्रार्थना द्वारा ज्ञानार्जन की धारणा का खंडन करती हुई ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
ललकार है तुझे और दुत्कार भी
कि अगर बाकी है सचमुच की
कोई विद्यादायिनी शक्ति तुममें
जो अपना न सकें हम
बिना तुम्हारे सामने शीश नवाए, तुम्हें अराधे
तो बतलाओ
बतलाओ अभी
तुरंत । [2]
डॉ० बैठा जी चमत्कार के नाम पर होने वाले पाखंड-कर्म को देखकर अत्यधिक आक्रोशित हैं । यह किंवदंती है कि गणेश नामक देवता लड्डू खाता है । वे उस तथाकथित देवता को पशुमानव और खिचड़ी देहधारी कहते हैं । वे उसे पशुमानव इसलिए कहते हैं, क्योंकि गणेश का सिर हाथी का है और धड़ मनुष्य का; तथा खिचड़ी देहधारी इसलिए कहते हैं, क्योंकि उसके शरीर की संरचना पशु और मनुष्य के मिश्रण से निर्मित है । विडंबना यह है कि इस वैज्ञानिक युग में, जबकि अनुसंधानों द्वारा स्पष्ट हो चुका है कि देवी-देवताओं का कोई अस्तित्व नहीं है; फिर भी अंधभक्त लोग ऐसा मानते हैं कि गणेश की मूर्ति भी दूध पीती है । अंधश्रद्धालु इसे चमत्कार कहते हैं । सन् 1995 में 21 सितंबर (गणेश चतुर्थी) को यह अफवाह फैली कि गणेश प्रतिमाएँ दूध पी रही हैं । देखते ही देखते मंदिरों में भीड़ लग गई । न्यूज चैनलों पर अटल जी समेत कई नेता गणेश को दूध पिलाते दिख रहे थे । इसके बाद लोगों ने एक-दूसरे को फोन करके इसकी सूचना दी । जिसको जहाँ जानकारी मिली, गणेश-मंदिर का पता पूछकर वहाँ पहुँच गया । एक के बाद एक लोग दूध पिलाते रहे और गणेश प्रतिमाएँ वैसे ही दूध को पीती रहीं । इसके बाद समय-समय पर दूसरे देवी-देवताओं के दूध पीने की खबरें भी आती रहीं । मीडिया ने इस चमत्कार के सच को जानने की बजाय, खबर की वैल्यू को महत्व दिया और जमकर समाचार और फोटो छापे । न केवल भारतीय मीडिया बल्कि विदेशी मीडिया ने भी इस तथाकथित चमत्कार पर कार्य किया । सीएनएन, बीबीसी, वाशिंगटन पोस्ट, द न्यूयार्क टाइम्स, गार्जियन और डेली एक्सप्रेस जैसे अखबारों ने इस अद्वितीय घटना को कवर किया । कई सनकी पत्रकारों ने तो खुद गणेश-प्रतिमा को दूध पिलाकर पुष्टि भी की । इसी घटना को ध्यान में रखकर डॉ० बैठा जी ने बहुत ही तार्किक ढंग से इस अंधविश्वास का खंडन किया है । वे व्यंग्य करते हुए कहते हैं कि तथाकथित देवता गणेश ने बाल्टी का बाल्टी दूध पी लिया, किंतु लघुशंका छटांक भर भी नहीं किया । "चमत्कार" नामक कविता में चित्रित बिम्ब नकार, प्रतिरोध और हास्य रस से परिपूर्ण है :
किंवदंतियों में लड्डू जीमने वाले
पशुमानव खिचड़ी देवधारी देव गणेश ने
विज्ञान की इस इक्कीसवीं सदी की
आमद से ठीक पूर्व
एक खास दिन छककर दूध पिया
देश के भीतर और बाहर भी सर्वत्र
पर यकीनन घोर चमत्कार
ये बाल्टी की बाल्टी पी गये दूध
लघुशंका की छटांक भर भी नहीं । [3]
"ईश्वर के रहते भी" कविता में डॉ० बैठा जी ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं । यह कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस देश में करोड़ों देवी-देवता हैं और हर गाँव, हर नगर में देवी-देवताओं के मंदिर हैं, उस देश में दिन-प्रतिदिन अपराध होते रहते हैं । यहाँ तक कि मंदिर में देव-दर्शन के लिए जाती हुई महिलाओं/लड़कियों के साथ बीच रास्ते में बलात्कार हो जाता है । कभी-कभी तो मंदिर के प्रांगण में भी उनके साथ सामूहिक बलात्कार होता है । यदि सच में ईश्वर है, तो वह अपने भक्तों के साथ ऐसा कुकर्म होते हुए देखकर कैसे चुप रह जाता है ? यदि वह ऐसे निर्मम कुकृत्यों को देखकर भी मौन है, तो इसके दो कारण हो सकते हैं - या तो वह निर्दयी है, या फिर वह है ही नहीं । यदि वह निर्दयी है, तो भी वह पूजनीय नहीं है और यदि उसका अस्तित्व ही नहीं, तब तो उसका नाम लेना भी व्यर्थ है :
ईश्वर के रहते भी
क्यों मंदिर आती-जाती
किसी श्रद्धासिक्त महिला की
राह बीच लुट जाती है इज्जत
यहाँ तक कि जब-तब
मंदिर के प्रांगण के भीतर भी । [4]
रुद्रप्रयाग जिले में स्थित केदारनाथ मंदिर में 16 जून 2013 की रात बादल फटने और ग्लेशियर टूटने से जल प्रलय आ गया । पानी के साथ पहाड़ों से बड़े पत्थर भी बह कर आये । इस भीम शीला ने केदारनाथ मंदिर को तो बचा लिया लेकिन जल प्रवाह में सैकड़ों श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गयी । मई 2018 में निकटवर्ती चंपावत जिले में पूर्णागिरी मंदिर दर्शन के लिए पैदल जा रहे श्रद्धालुओं के एक समूह पर पीछे से तेज गति से आ रहे डंपर के चढ़ जाने से दस श्रद्धालुओं की मौत हो गयी । जुलाई 2018 में जम्मू कश्मीर के गांदेरबल जिले में अमरनाथ यात्रा के बालटाल मार्ग पर हुए भूस्खलन में पाँच लोगों की मौत हो गई और तीन अन्य घायल हो गये । यदि सच में देवी-देवता और ईश्वर हैं, तो वे अपने श्रद्धालुओं की रक्षा क्यों नहीं करते ? डॉ० बैठा जी प्रश्न करते हैं :
क्यों कुचलकर हो जाती है
भक्तों की असमय दर्दनाक मौत, अंग-भंग
बदहवास भगदड़ की जद में आकर
मंदिर की भगवत रक्षित देहरी पर भी । [5]
डॉ० बैठा जी की कविता "फिर भी आधुनिक" आधुनिकता का ढोंग करने वाले लोगों पर तीव्र व्यंग्य करती है । लोग आधुनिकता के नाम पर अश्लील कपड़े पहनते हैं, अंग्रेजी बोलते हैं, आधी रात को नाइट क्लबों में जाते हैं, जूते-चप्पल पहनकर खड़े-खड़े बफर में भोज खाते हैं, स्त्री-पुरुष का भेद त्यागकर एक साथ सहनृत्य करते हैं; लेकिन जब तर्क और बुद्धि की बात आती है, तब कटे पेड़ की तरह धराशायी हो जाते हैं । अंधविश्वास के दलदल में धँसे हुए लोग उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहते; बल्कि उसी में हाथ-पाँव मारते हैं, जिससे कि वे और भी धँसते चले जाते हैं । जब ऐसे अंधभक्त स्वयं को शान से आधुनिक कहते हैं, तब उनकी बुद्धि पर तरस ही नहीं आता, बल्कि हँसी भी आती है । आधुनिक होने का अर्थ है - वैज्ञानिक दृष्टिकोण से परिपूर्ण होना और तर्कशील होना । मूर्तिपूजा करने वाले लोगों को संबोधित करके डॉ० बैठा जी कहते हैं :
आप अपने घरों में
छत्तीस कोटि मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना
आपस में छत्तीसी रिश्ता बरतने वाले
देव-आराधना में आकंठ डूबें-तैरें
स्वार्थ कर्म में पड़कर
स्वकर्म धर्म छोड़
उनके जूते चाटें, तलवे सहलाएँ
आप फिर भी आधुनिक । [6]
वर्तमान समय में हर मनुष्य विज्ञान और वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा प्रदत्त सेवाओं व सुविधाओं से घिरा हुआ है । टीवी, पंखा, कूलर, एसी, फ्रिज, मोबाइल, कंप्यूटर, मोटरसाइकिल, कार, बस, रेलगाड़ी, हवाई जहाज आदि सभी विज्ञान की देन हैंं । विज्ञान के कारण ही मनुष्य सारी सुख-सुविधाओं का भोग करता है, फिर भी सुख के लिए प्रार्थना मंदिरों में करता है । यह मूर्खता नहीं, तो और क्या है ? स्त्रियाँ अनेक प्रकार के सौंदर्य-प्रसाधन का प्रयोग करके अपने सौंदर्य में निखार लाकर प्रकृति को भी चेतावनी देती हैं, तो केवल विज्ञान के बल पर । प्लास्टिक सर्जरी द्वारा अपराधी चेहरे पर नए चेहरे लगवाकर अपनी पहचान छुपा लेते हैं । फिर भी गुणगान काल्पनिक ईश्वर का गाते हैं; यानी कि " काम विज्ञान का और नाम भगवान का । " रही बात मनुवादियों की, तो वे पौराणिक बातों का गुणगान इसलिए भी करते हैं, क्योंकि वे उनके पूर्वजों की धरोहर है । धरोहर के नाम पर वे सिर पर कूड़ा-करकट भी ढोने के लिए समर्पित हैं । उनकी इसी कुंठित मानसिकता और कूप मंडूकता को लक्ष्य करके डॉ० बैठा जी कहते हैं :
आप दुनिया का हर आधुनिक ठाठ अपनाना चाहें
पर स्मृति-रामायण की कूप मानसिकता
और बाट न हरगिज़ छोड़ें
तन पर चढ़ जाएँ लाख लिबास आधुनिक
मन को आपके कतई
एक कतरा भी आधुनिकता न सुहाए
मनु-रक्त ही दौड़े आपकी रग-रग में रह रह
आप फिर भी आधुनिक । [7]
डॉ० मुसाफिर बैठा के कविता संग्रह "बीमार मानस का गेह" में संग्रहीत कविताएँ पाठक की आँखों पर पड़े अंधविश्वास के पर्दे को हटाती हैं । यही नहीं, उसके मन में बैठे अंधविश्वास को धकेलकर बाहर निकालने के लिए उसे प्रेरित करती हैं । अंधविश्वास एक मानसिक रोग है । इसका इलाज कोई भी चिकित्सक नहीं कर सकता । इस रोग को स्वयं रोगी ही ठीक कर सकता है, वह भी परहेज करके । परहेज करना होगा - हिंदू धर्म-ग्रंथों से । परहेज करना होगा - मंदिर, मठ और पुरोहितों से । इसी के साथ कुछ जड़ी-बूटियों का भी सेवन करना होगा । वे जड़ी-बूटियाँ हैं - बुद्ध का उपदेश और अंबेडकर का साहित्य । दलित साहित्य, बुद्ध और अंबेडकर के विचारों का ही प्रतिरूप है । दलित कवि डॉ० मुसाफिर बैठा जी की कविताएँ इन महापुरुषों के विचारों से पूर्णतया प्रभावित हैं । इनका यह कविता संग्रह अंधविश्वास और पाखंड से मुक्त होने तथा मानव को मानव के प्रति प्रेम और समानता का व्यवहार करने का संदेश प्रदान करता है ।
संदर्भ :-
[1] डॉ० मुसाफिर बैठा : बीमार मानस का गेह, पृष्ठ 21
[2] वही, पृष्ठ 22
[3] वही, पृष्ठ 24
[4] वही, पृष्ठ 30
[5] वही, पृष्ठ 30
[6] वही, पृष्ठ 33
[7] वही, पृष्ठ 35
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली, उत्तर प्रदेश