'बुद्ध और उनका धम्म' पुस्तक से प्रस्तुत है एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेख - 'अहिंसा के सिद्धांत की आलोचना' । लेखक - डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 282-283, समता प्रकाशन, प्रथम संस्करण ।
अहिंसा के सिद्धांत की आलोचना
1. ऐसे लोग थे, जो 'अहिंसा' के सिद्धांत के समर्थक न थे । उनका कहना था कि 'अहिंसा' का मतलब है, अन्याय तथा अत्याचार के सामने सिर झुकाना ।
2. भगवान बुद्ध का 'अहिंसा' से जो आशय था, यह उसकी मूलतः गलत व्याख्या है ।
3. भगवान बुद्ध ने अनेक अवसरों पर अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है, जिससे किसी को किसी प्रकार की अस्पष्टता वा गलत-फहमी न रहे ।
4. एक तो वह ही ऐसा अवसर है जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए, जब उन्होंने एक सैनिक के संघ में प्रविष्ट होने के बारे में नियम बनाया ।
5. एक बार मगध के सीमांत प्रदेश में उत्पात मच गया था । तब मगध-नरेश सेनिय बिंबिसार ने अपने सेनापति को आज्ञा दी, " अब जाओ और अपने सेना नायकों को कहो कि वे सीमा प्रांत में ढूँढ-ढूँढ कर अपराधियों का पता लगाएँ, उन्हें दंड दें और शांति स्थापित करें । " सेनापति ने आज्ञा का पालन किया ।
6. सेनापति की आज्ञा पाकर सेना-नायक बड़ी दुविधा में पड़ गए । वे जानते थे कि तथागत की शिक्षा है कि जो युद्ध में लड़ने जाते हैं और जिन्हें युद्ध करने में आनंद आता है, वे पाप करते हैं और बहुत अपुण्य लाभ करते हैं । दूसरी ओर राजा की आज्ञा यह थी कि अपराधियों का पता लगाकर उन्हें मार डाला जाए । सेना-नायक अपने से पूछने लगे - हम क्या करें ?
7. तब इन सेना-नायकों ने सोचा, यदि हम तथागत के भिक्षु संघ में प्रविष्ट हो जाएँ, तो हम इस दुविधा से बच जाएँगे ।
8. तब ये सेनानायक भिक्षुओं के पास पहुँचे और उनसे प्रव्रज्या की याचना की । भिक्षुओं ने उन्हें प्रव्रजित तथा उपसंपन्न कर दिया । सेना नायक सेना से गायब हो गए ।
9. सेनापति ने जब देखा कि सेना नायक नहीं दिखाई देते, तो उसने सैनिकों से पूछा - " क्या बात है कि सेना नायक नहीं दिखाई देते ? " सैनिकों ने उत्तर दिया - " सेनापति ! सेना नायक भिक्षु-संघ में सम्मिलित हो गए हैं । "
10. सेनापति बहुत अप्रसन्न तथा बहुत क्रोधित हुआ, " राजकीय सेना के लोगों को भिक्षु कैसे प्रव्रजित कर सकता है ? "
11. सेनापति ने इस बात की सूचना राजा को दी । राजा ने न्यायाधीशों से प्रश्न किया, " कृपया बताएँ कि जो राजकीय सेना के आदमियों को प्रव्रजित करे, उसे क्या दंड मिलना चाहिए ? "
12. " महाराज ! उपाध्याय का सिर काट डालना चाहिए, कम्मावाचा पढ़ने वाले की जुबान निकाल डालनी चाहिए और संघ के उन सदस्यों की- जो किसी राजकीय सैनिक को प्रव्रजित करे- आधी पसलियाँ तोड़ डालनी चाहिए । "
13. तब राजा वहाँ पहुँचा, जहाँ तथागत विराजमान थे; और अभिवादन करने के अनंतर उसने भगवान बुद्ध को सारी बात सुनाई ।
14. भगवान ! आप जानते हैं कि कई राजा धम्म के विरुद्ध हैं । ये विरोधी राजा बहुत मामूली-मामूली बातों के लिए भिक्षुओं को कष्ट देने के लिए तैयार रहते हैं । यदि ये जान जाएँगे कि भिक्षु सैनिकों को बरगला कर भिक्षु-संघ में भर्ती करते हैं, तो फिर इसकी कल्पना कर सकना कठिन है कि ये भिक्षुओं के विरुद्ध क्या-क्या कार्रवाईयाँ कर सकते हैं ? यथा योग्य करें ।
15. तथागत ने उत्तर दिया - " मेरी यह कभी मंशा नहीं रही कि 'अहिंसा' का नाम लेकर वा 'अहिंसा' की आड़ में सैनिक अपने राजा वा देश के प्रति, जो उनका कर्तव्य है, उससे विमुख हो जाए । "
16. तदनुसार भगवान बुद्ध ने राजकीय सैनिकों के संघ में प्रवेश होने के विरूद्ध एक कानून बना दिया और उसकी घोषणा कर दी, " भिक्षुओं ! किसी राजकीय सैनिक को प्रव्रज्या न मिले । यदि कोई देगा, तो उसे दुष्कृत की आपत्ति (दोष) होगी ।
17. एक बार श्रमण महावीर के अनुयायी सिंह सेनापति ने 'अहिंसा' के विषय में तथागत से प्रश्न किया था ।
18. सिंह ने पूछा, " अभी भी एक संदेह मेरे मन में शेष है । क्या आप कृपया मेरे मन के अंधकार को दूर कर देंगे, ताकि मैं धम्म को उसी रूप में समझ सकूँ, जिस रूप में आपने उसका प्रतिपादन किया है । "
19. तथागत के स्वीकार कर लेने पर सिंह सेनापति ने पूछा - " भगवान ! मैं सेनापति हूँ । मुझे राजा ने युद्ध लड़ने के लिए और अपने कानूनों का जनता द्वारा पालन करवाने के लिए ही नियुक्त किया है । तो क्या तथागत, जो दुखियों के प्रति दया और असीम करोड़ा की शिक्षा देते हैं, अपराधियों को दंड देने की अनुमति देते हैं ? और क्या तथागत का यह भी कहना है कि अपने घरों, अपने बीवी-बच्चों और अपनी संपत्ति की रक्षा के लिए युद्ध करना ठीक नहीं है ? क्या तथागत संपूर्ण आत्मसमर्पण की शिक्षा देते हैं कि हम आततायी को, जो वह चाहे कर दे और जो जोर-जबरदस्ती हमारी चीज हमसे छीन लेना चाहे, उसे वह ले लेने दें ? क्या तथागत का यह कहना है कि सभी प्रकार के युद्ध - ऐसे युद्ध भी जो न्याय की रक्षा के लिए लड़े जाएँ - वर्जित हैं ? "
20. तथागत का उत्तर था - " जो दंडनीय है, उसे दंड मिलना चाहिए । जो उपहार देने योग्य हो, उसे उपहार दिया ही जाना चाहिए । साथ ही किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि उनके साथ प्रेम और दया का बर्ताव होना चाहिए । ये आदेश परस्पर विरोधी नहीं हैं । जो कोई अपने अपराध के लिए दंड भुगतता है, न्यायाधीश की द्वेष-बुद्धि के कारण नहीं, बल्कि अपने ही अकुशल कर्म के परिणाम-स्वरुप । न्यायाधीश द्वारा दिया गया दंड उसके अपने कर्म का फल है । न्यायाधीश जब दंड देता है तो उसके मन में दंडनीय व्यक्ति के प्रति किसी भी प्रकार की द्वेष भावना नहीं होनी चाहिए और एक हत्यारे को भी जब फाँसी की सजा दी जाए, तो यही सोचना चाहिए कि यह उसके अपने अंतरतम को शुद्ध ही बनाएगा, तो कोई भी व्यक्ति अपने भाग्य को रोएगा नहीं, बल्कि प्रसन्न ही होगा ।
21. इन बातों पर अच्छी तरह विचार करने से यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि भगवान बुद्ध की देशना में अहिंसा का मुख्य स्थान है, किंतु वह निरपेक्ष नहीं है ।
22. उन्होंने सिखाया कि बुराई को भलाई से जीतो, लेकिन यह कहीं नहीं सिखाया की बुराई को ही भलाई को जीत लेने दो ।
23. वह अहिंसा के समर्थक थे और हिंसा के निंदक । लेकिन उन्होंने इससे कहीं इंकार नहीं किया कि बुराई से भलाई की रक्षा करने के लिए आखिर कहीं-कहीं हिंसा का भी आश्रय लेना पड़ सकता है ।
24. भगवान बुद्ध ने किसी खतरनाक सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया । आलोचक ही उसके यथार्थ स्वरूप और क्षेत्र को ठीक-ठीक समझ नहीं पाये ।
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आंबेडकर-दर्शन
भंते धम्मप्रिय के शब्दों में :-
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" भगवान बुद्ध 'जीव-हत्या करने की चेतना' और 'जीव-हत्या करने की आवश्यकता' में भेद करना चाहते थे । जहाँ 'जीव-हत्या करने की आवश्यकता' थी, वहाँ उन्होंने जीव-हत्या करना मना नहीं किया । उन्होंने वैसी जीव-हत्या को मना किया, जहाँ केवल 'जीव-हत्या की चेतना' है ।
ब्राह्मणी धर्म में 'जीव हिंसा' करने की चेतना है । जैन धर्म में 'जीव हिंसा' न करने की चेतना है । भगवान बुद्ध का सिद्धांत उनके मध्यम मार्ग के अनुरूप है । इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा जाए तो भगवान बुद्ध ने शील और विनय (नियम) में भेद किया है । उन्होंने अहिंसा को नियम नहीं बनाया । उन्होंने इसे जीवन का एक पथ माना है । इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसा करके भगवान बुद्ध ने बड़ी ही प्रज्ञा-सहगत बात की है । एक शील तुम्हें कार्य करने के लिए स्वतंत्र छोड़ता है । एक नियम स्वतंत्र नहीं छोड़ता । या तो तुम नियम को तोड़ते हो, या नियम तुम्हें तोड़ डालता है । "
_संदर्भ : "बोधिसत्व मिशन" पत्रिका, अंक अप्रैल-जून 2020, पृष्ठ 33_
*अहिंसा के इस अर्थ को ग्रहण करते हुए अंबेडकरवादियों को चाहिए कि वे उन लोगों की हड्डी-पसली तोड़ना शुरू कर दें, जो अंबेडकर की मूर्तियां तोड़ते हैं ।*
जिन अंबेडकरवादियों को अपने आस-पास के दुश्मनों की खबर नहीं, वे कैसे अंबेडकरवादी हैं ? अंबेडकरवादियों को चौकन्ना रहने की जरूरत है । दोस्तों से पहले दुश्मनों की पहचान करने की जरूरत है । मूर्तियाँ तोड़ने वाले 10 किलोमीटर दूर से चलकर नहीं आते । वे अपने पास-पड़ोस के ही होते हैं ।
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