कुछ वरिष्ठ दलित साहित्यकारों का मत था कि केवल दलित समाज के रचनाकारों को ही संकलन में शामिल किया जाए । चूँकि कई गैर-दलित रचनाकारों की कविताएँ मुझे प्रेषित की जा चुकी थीं, इसलिए मुझे उनकी कविताओं को अस्वीकार करना पड़ा । मेरे सामने एक समस्या यह थी कि कुछ रचनाकारों के उपनाम भ्रामक थे, जैसे - रामसूरत भारद्वाज और सूरजपाल सूर्यवंशी । इन दोनों रचनाकारों से फोन पर खेद प्रकट करते हुए मुझे उनकी जाति पूछनी पड़ी थी, जिसका अनुभव खेदजनक रहा । खैर, दोनों रचनाकार अनुसूचित जाति से ही हैं तथा किन्हीं विशेष परिस्थितियों में उन्होंने ऐसे उपनाम धारण किये हैं । कुछ सप्ताह बाद दलित चिंतक आर०डी० आनंद के द्वारा फेसबुक पर और युवा कवि रवि निर्मला सिंह के द्वारा व्हाट्सएप ग्रुप 'दलित साहित्य मंच' में इस विषय पर लंबा वाद-प्रतिवाद चलाया गया कि दलित साहित्यकार कौन है अथवा दलित साहित्यकार किसे कहा जाए ? तथा दलित साहित्य कौन लिख सकता है ? वाद-प्रतिवाद के दौरान दलित जीवन का यथार्थ और स्वानुभूति-सहानुभूति पर भी प्रश्न किये गये थे । इसलिए इन विषयों पर यहाँ चर्चा करना आवश्यक है ।
दलित और गैर-दलित लेखकों द्वारा लिखे गये दलित साहित्य में किसका 'दलित साहित्य' सच्चा है ? इस विषय पर साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने लिखा है, " दलित विमर्श में एक प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं ? मुझे लगता है कि दलित लेखकों को इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए । सवर्ण साहित्यकारों का एक दल आग्रह पूर्वक बताता है कि उनका लेखन भी दलित साहित्य है, जबकि दलित लेखकों की बड़ी ऊर्जा इस बात के खंडन में खर्च हो जाती है । मुझे लगता है कि दलित साहित्यकार तर्कों से कभी इस बात को नहीं सिद्ध कर पाएँगे कि किसका लेखन सच्चा दलित साहित्य है ? इसका जवाब ज्यादा अच्छी, सशक्त और जिंदा रचनाएँ लिखकर दे सकते हैं, जैसा कि स्त्री लेखन कर रहा है । वैसे भी साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है, जहाँ हर एक को अपनी बात कहने और लिखने की आजादी है । जो गैर-दलित लेखक दलित साहित्य लिख रहे हैं, उन्हें दलित न तो रोक पाएँगे, न ही रोकना चाहिए । उन्हें वर्णवाद के कटघरे में खड़ा करने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि अंततः बात इस पर आ जाएगी कि आपकी अपनी उपलब्धियाँ क्या हैं ? " [2] 'सहानुभूति' और 'स्वानुभूति की पुनर्रचना' आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रो० मैनेजर पांडेय ने लिखा है, " भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास जिस रूप में चलता रहा है, उसमें जब दलितों को पढ़ने-लिखने की ही सुविधा नहीं थी, तो वे अपने बारे में साहित्य कहाँ से लिखते ? इसलिए दलित साहित्य के रूप में अधिकांशतः वही साहित्य मिलता है, जो दलितों के बारे में गैर-दलितों ने लिखा है । इस साहित्य में बहुत कुछ ऐसा भी है, जो काफी हद तक दलित जीवन की वास्तविकताओं और अनुभवों को गहरी सहानुभूति के साथ व्यक्त करता है । उदाहरण के लिए प्रेमचंद और निराला की दलित जीवन से जुड़ी रचनाओं को देखा जा सकता है । लेकिन सारी सहानुभूति, करुणा, सहृदयता और परकाया प्रवेश की कला के बावजूद गैर-दलितों द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य में कला चाहे जितनी हो, परंतु अनुभव की वह प्रामाणिकता नहीं होती, जो किसी दलित द्वारा अपने समुदाय के बारे में स्वानुभूति की पुनर्रचना से उपजे साहित्य में होती है । " [3]
गैर-दलितों द्वारा दलित साहित्य लिखने की स्थिति पर संदेह करते हुए डॉ० तेज सिंह उन्हें घुसपैठिए की नजर से देखते हैं । उन्होंने अपने लेख 'हिंदी उपन्यास दलित विमर्श का पुराख्यान' में लिखा है, " इधर जब से हिंदी क्षेत्र में दलित साहित्य पर चर्चा हुई है, तभी से हिंदी साहित्य में दलित चेतना या दलित विमर्श के नाम पर गैर-दलितों द्वारा शोध कार्य के साथ-साथ काफी संख्या में आलोचनात्मक लेखन होने लगा है । ज्यादातर ऐसा शोध-लेखन दलित साहित्य को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है । गैर-दलित इसी इरादे से हिंदी साहित्य में दलित चेतना के नाम पर दलित विमर्श कर रहे हैं, ताकि दलित साहित्य में उनकी चोर दरवाजे से घुसपैठ हो जाए । यह इस हठधर्मिता का ही परिणाम है कि बलात् हिंदी साहित्य में दलित चेतना खोजी जाने लगी है । एक समय ऐसा भी आएगा, जब उन्हें वेद-उपनिषदों में भी दलित चेतना दिखाई देने लगेगी । दलितों को यह अप्रत्याशित नहीं लगना चाहिए, क्योंकि जब-जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित पिछड़ी जातियों ने विद्रोह की चेष्टा की है या विद्रोह किया है, तब-तब यह प्रक्रिया देखने में आई है । " [4]
इस विषय पर दलित साहित्यकार डाॅ० जयप्रकाश कर्दम कुछ रियायत बरतते हैं । उनके अनुसार, " दलित विमर्श पर जितनी बातें हो रही हैं, उनमें यह बताने की कोशिश की जा रही है कि दलित खुद को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सकते और उनके सोचने का स्तर सवर्णों से कम है । दलितों की प्रगति चाहने वाले उनके साथ सही भावनाओं के साथ जुड़ें तो कोई आपत्ति नहीं, लेकिन जब तक उनके गले में जनेऊ है यानी मन में संस्कार बैठे हैं, तब तक मानवीय समता की बात करना बेमानी है । " [5]
डाॅ० अजय नावरिया एक वैचारिक लकीर खींचते हुए 'सच्चा दलित साहित्य' का स्पष्टीकरण कुछ इस प्रकार करते हैं, " मुझे लगता है कि जब तक अपने बारे में लिखे हुए दलितों के साहित्य का पर्याप्त विकास नहीं होता, तब तक गैर-दलितों द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य को भी भले ही दलित साहित्य कहा जाए, लेकिन सच्चा दलित साहित्य वही होगा, जो दलितों के बारे में स्वयं दलित लिखेंगे । " [6] साहित्यिक कौशल पर अपना विचार व्यक्त करते हुए वे आगेे लिखते हैं, " जहाँ तक गैर-दलित लेखकों का यह कहना है कि वे (दलित) स्वयं को ठीक से व्यक्त कर पाने में पूर्ण सक्षम नहीं हैं, तब उनका तात्पर्य संवेदना से नहीं अपितु शिल्प से होता है । दलित लेखकों को यह तो मानना ही चाहिए । शिल्प एक कुशलता है, जो समय के साथ-साथ अर्जित की जाती है । निःसंदेह सपाटबयानी भी एक ढंग है, किंतु उसमें भी संवेदना की अतिसूक्ष्मता की दरकार होती है । यह कुशलता अभी दलित साहित्यकारों को अर्जित करनी है । " [7]
वर्तमान में अधिकांश दलित कवि भी सहानुभूति की ही कविताएँ लिख रहे हैं । कारण यह है कि जितने भी प्राध्यापक अथवा उच्च प्रशासनिक अधिकारी दलित साहित्यकार हैं, उनकी स्थिति सही मायने में दलित स्थिति नहीं है । ऐसी स्थिति में दलितों पर लिखा गया उनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य कैसे कहा जा सकता है ? कुछ प्रश्नों पर ध्यान देने की आवश्यकता है जैसे - (1) क्या बलात्कार संबंधी विषय पर लिखने वाले लेखक अथवा लेखिका खुद बलात्कार के शिकार हुये हैं ? यदि नहीं हुये हैं, तो यह उनकी स्वानुभूति कैसे हुई ? (2) कोरोना काल में जितनी भी कविताएँ प्रवासी मजदूरों पर केंद्रित हैं, क्या उन्हें लिखने वाला कोई भी कवि अथवा कवयित्री प्रवासी मजदूर है ? यदि नहीं, तो यह उनकी स्वानुभूति कैसे हुई ? जब आज दलित ही 'स्वानुभूति का साहित्य' नहीं लिख रहे हैं तो फिर स्वानुभूति का बहाना करके गैर-दलितों को 'दलित साहित्य' लिखने से और उन्हें 'दलित साहित्यकार' कहने से क्यों इनकार कर रहे हैं ? अब तो यही उचित है कि या तो गैर-दलितों को भी दलित साहित्य में शामिल किया जाए अथवा दलित साहित्य की अवधारणा में परिवर्तन किया जाए ।
एक चिंतनीय समस्या यह भी है कि दलित साहित्य का फलक पहले तो छोटा था ही, अब खंडित होकर और भी छोटा हो गया है । नामदेव ढसाल के अनुसार, " दलित यानी कि अनुसूचित जाति, जनजाति, बौद्ध, श्रमिक जनता, मजदूर, भूमिहीन, खेत मजदूर, यायावर और आदिवासी हैं । " [8] प्रोफेसर चमनलाल के अनुसार, " 'दलित' की जातिगत परिभाषा से भी बढ़कर है इसकी व्यापक परिभाषा - समाज के वे हिस्से, जिनमें उपरोक्त जातियाँ तो शामिल हैं ही, अन्य उत्पीड़ित हिस्से, जैसे - आदिवासी, विमुक्त जातियाँ, स्त्रियाँ, गरीब किसान व मजदूर आदि शामिल हैं, को भी 'दलित' शब्द की परिभाषा में शामिल किया गया है । " [9] इन दोनों विद्वानों के मत से स्पष्ट है कि 'आदिवासी' भी दलित हैं तथा दलित साहित्य का हिस्सा भी हैं । प्रश्न यह खड़ा होता है कि जब आदिवासी भी दलित साहित्य का हिस्सा हैं, तो फिर 'आदिवासी साहित्य' अलग क्यों है ? और आदिवासी साहित्य को अलग किसने किया ? इसका उत्तर है - रमणिका गुप्ता ने । विडंबना यह है कि उसी विघटनकारी महिला को कई वरिष्ठ दलित साहित्यकार अभी भी शान से अपनी 'श्रद्धेया' कहते हैं । साथ ही मजे की बात तो यह है कि 'आदिवासी साहित्य' कोई भी लिख सकता है, लेकिन 'दलित साहित्य' केवल दलित ही लिखेगा । यह गजब की कुंठा है । दलित साहित्यकारों की यह दोहरी मानसिकता निश्चित ही चिंंतनीय है ।
वर्तमान में दलित-नारीवाद का भी बहुत शोर है । अधिकांश दलित महिला लेखिकाएँ/कवयित्रियाँ आजादी-आजादी का राग अलापती रहती हैं । उनके साथ कुछ नारीवादी पुरुष भी नारी-स्वतंत्रता का झुनझुना बजाते फिरते हैं । कुछ दलित पुरुष नारीभक्त बनकर वर्तमान समय को स्त्रीकाल (नारी युग) कहने लगे हैं । लेकिन दलित महिलाओं की सामाजिक स्थिति का यथार्थ क्या है ? क्या दलित महिलाएँ सच में दलित पुरुषों की गुलाम हैं ? डाॅ० अजय नावरिया ने लिखा है, " जब भंगिन-चमारिन सदा से समाज में पारिवारिक उत्पादक वर्ग की अभिन्न सदस्या रही हैं, तब उनका 'मर्द की गुलामी' करने का कारण समझ से परे है । यह तथ्य सर्वविदित है कि दलित जातियों में तथाकथित सवर्ण जातियों की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक स्वतंत्र रही हैं । बाल विवाह, बाल विधवा, सती प्रथा आदि कुरीतियाँ समाज के सवर्ण हिंदुओं में ही व्याप्त रहीं । " [10] डाॅ० नावरिया के सुर में सुर मिलाकर दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान भी यही कहते हैं । सच में दलित समाज के नारियों की स्थिति का सामाजिक यथार्थ यही है । फिर भी नारी-स्वतंत्रता विमर्श और नारीवाद पर गंभीर अध्ययन और चिंतन की आवश्यकता है ।
नारीवाद क्या है ? अथवा नारी विमर्श का मुद्दा क्या होना चाहिए ? अभी तक इसे किसी भी नारीवादी लेखक अथवा लेखिका ने पूरी तरह स्पष्ट नहीं किया है । कथित नारीवादी केवल महिलाओं के कपड़ा पहनने, हँसने, बोलने और घूमने की आजादी पर ही अपना पुरजोर तर्क देते हुए अपनी ऊर्जा खर्च करते रहते हैं । अभी हाल ही में खबर मिली है कि उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में 10 से 18 साल तक की आदिवासी लड़कियों को काम देने से पहले उनके शरीर को माँगा जाता है यानी बलात्कार (रेप) किया जाता है । लड़कियाँ अपना शरीर उनके हवाले कर देती है, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से काम धंधे बंद हैं, लेकिन ये पेट क्या न करवाता ? सब कुछ करना पड़ता है । लड़कियों को पहाड़ी के पीछे ले जाते हैं । कई व्यक्ति एक लड़की के साथ बारी-बारी से रेप करते है । उन्हें असहनीय दर्द को सहन करना पड़ता है । मना करने पर पहाड़ी से नीचे फेंक देने और काम न देने की धमकी दी जाती है । नारीवादियों के लिए असली मुद्दा यह है । उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए । ऐसी महिलाओं और लड़कियों की मुक्ति के लिए उन्हें अपनी उर्जा लगानी चाहिए । लेकिन यहाँ तो सुविधाभोगी महिलाओं की स्वतंत्रता पर ही घंटों भाषण (लेक्चर) दिये जाते हैं । नारी-स्वतंत्रता का तात्पर्य जो मैं जानता और मानता हूँ, वह यह है कि - नारियों को शारीरिक शोषण से मुक्ति मिले, श्रम शोषण से मुक्ति मिले, वैचारिक शोषण से मुक्ति मिले । सीधे शब्दों में कहें, तो संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों के अनुसार उन्हें सभी अधिकार प्राप्त हों ।
प्रेम और अनुशासन के मूल्यों का हनन मानव सभ्यता के विरुद्ध है । स्वच्छंद प्रवृत्ति, पशु प्रवृत्ति कही जाती है । पशु और मनुष्य में मूल अंतर यही है कि पशु नग्न स्थिति में रहता है, उसे किसी से कोई लज्जा नहीं होती है, वह बिना पूछे किसी के भी खेत में घुसकर उसके खेत को बर्बाद कर देता है । लेकिन क्या यह मनुष्य के लिए उचित है ? चाहे वह पुरुष हो, चाहे स्त्री । प्रेम में बँधा हुआ व्यक्ति तो सही मायने में स्वतंत्र भी नहीं होता है । घर के मुखिया को अपने परिवार से इतना प्रेम होता है कि वह समय से सारा काम करके घर पहुँच जाता है । कुछ लोगों को अपनी गाय अथवा भैंस से इतना लगाव होता है कि उसे समय से दुहने के लिए रिश्तेदारी का खास प्रयोजन बीच में छोड़कर समय रहते घर निकल आते हैं । इन बातों को ध्यान में रखते हुए मूल्यों की गरिमा को समझने वाले बुद्धिजीवी इस नारीवादी सिद्धांत को कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि " हम नारियाँ कुछ भी करें, कहीं भी जाएँ, कैसे भी रहें, किसी भी समय जाएँ, किसी से भी बात करें आदि । " यह स्वछंदता तो पुरुषों को भी नहीं मिलनी चाहिए, क्योंकि इससे पारिवारिक कलह उत्पन्न होता है । एक सवाल यह भी है कि जब कभी पुरुषवाद का साहित्य नहीं रहा, तो यह नारीवाद का साहित्य क्यों ? हिंदी साहित्य का इतिहास साक्षी है कि कोई भी वाद लंबे समय तक नहीं चला । हर वाद पर विवाद हुआ और हर वाद का अंत हुआ । 'नारी-विमर्श' शब्द का प्रयोग करना ठीक है, लेकिन 'नारीवाद' शब्द का प्रयोग करना सर्वथा गलत है ।
संदर्भ :-
[1] देवचंद्र भारती 'प्रखर' की फेसबुक वाल से
[2] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 283-84, संपादक - पुन्नी सिंह कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[3] दलित चेतना साहित्य, नवलेखन प्रकाशन, पृष्ठ 4
[4] हिंदी उपन्यास : दलित विमर्श का पुराख्यान, हंस - जनवरी 2001, पृष्ठ 28
[5] दलित चेतना साहित्य, नवलेखन प्रकाशन, पृष्ठ 100
[6] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 298, संपादक - पुन्नी सिंह कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[7] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 303, संपादक - पुन्नी सिंह कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[8] नामदेव ढसाल : दलित पैंथर का जाहीरनामा
[9] दलित साहित्य - एक मूल्यांकन, पृष्ठ 34
[10] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 302, संपादक - पुन्नी सिंह, कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
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