आंबेडकरवादी साहित्य के प्रिय पाठकों! इस पोस्ट में आप जानेंगे कि सम्यक संबोधि प्राप्त करके बोधिसत्व गौतम कैसे सम्यक संबुद्ध हो गये ? साथ ही आप यह भी जानेंगे कि 'बोधिसत्व' कौन और क्या होता है और एक बोधिसत्व 'बुद्ध' कैसे बनता है ?
हिंदी के प्रमुख आंबेडकरवादी कवियों/कवयित्रियों की प्रमुख कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं -
1. कांता बौद्ध की कविताएँ
ऐसा तो नहीं था मेरा सपना
मन में खयाल आया
जैसे
कह रहे हैं बाबा साहेब
विचार छूट गया
कर्मकांड रह गया
ऐसा तो नहीं था मेरा सपना ।
सोच-समझ
बौद्ध धम्म धारण कर
दी बाईस प्रतिज्ञाएँ
ले जाना था
अंधविश्वास से दूर
पिछड़ों-दलितों को
ऐसा था मेरा सपना ।
समझे नहीं तुम
मेरी दुखती रग को
मेहनत कर
खून-पसीना बहाकर
अधिकार दिलाया तुमको
फिर भी नहीं निकले तुम
हिंदुओं के जाल से ।
आज भी पूजा-पाठ,
झाड़-फूँक, कर्मकांड
करते रहते हो ।
मेरी फोटो को
हार पहना कर
तुम मुझे
हिंदुओं से जोड़ते हो
ऐसा तो नहीं था मेरा सपना ।
शादी के बाद लड़की
क्या होता है शादी के बाद
लड़की का अपना ?
जन्म दिये परिवार को
छोड़ चल देती है
एक अजनबी के घर
जोड़ लेती है
बिना सोचे-जाने ही
रिश्तों की डोर
किसी की भाभी, चाची, ताई, बहू
और पत्नी बन
खुशियों की गठरी
बाँधे सी ही रहती है
सीमित सीमा में ।
हो अगर उसकी कोई चाह
चाहकर भी वह
पूरी नहीं कर पाती है
खुद को मिटाना ही
उसका कर्तव्य बन जाता है
पति की खुशियों को समेटकर
वह अपनी खुशियों का
खून कर लेती है
पति फिर भी नहीं समझता
उसे ताड़ता बराबर
घर की बांदी बना रखता है
घर में नारी का जीवन
दूसरों के समर्पण में
बीत जाता है ।
2. डाॅ० जगदीश घनघाव की कविताएँ
अज़ीम नायक
(हिंदी में लिखा हुआ पहला 'अखंड')
जोतिबा तुम हो।
पावक प्रचंड ।
उनका पाखंड ।
खोल दिया।।१।।
उस जमाने में ।
जात्यंध कुटिल ।
समस्या जटिल ।
तब बनी।।२।।
जातिवादियों ने ।
किया था शोषण ।
आपने रोशन ।
सदा किया।।३।।
धर्म के नाम से ।
उनका बवाल ।
आपका सवाल।
क्रांतिकारी।।४।।
आज के युग में ।
आपके विचार ।
क्रांति का प्रचार ।
बन गये।।५।।
हमारी रगों में।
क्रांति के विचार।
सम्यक आचार।
बह रहे।।६।।
कुछ लोगों में तो।
नहीं क्रांति भाव।
फिर बदलाव।
कैसे करें ?।।७।।
जोतिबा तुम हो।
अज़ीम नायक।
मैं अनुचारक।
विचारों का।।८।।
बाबा साहेब
(अष्टाक्षरी काव्यरचना)
बाबा साहेब ना होते
तो ये ज़िंदगी ना होती
विकास की बात दूर
ग़रीबी नष्ट ना होती
अंधेरा था ज़िंदगी में
सूरज बनके आये
ऐसा उजाला किया
सब चकित हो गये
यहाँ के हवा का रुख़
उन्होंने बदल दिया
पुरातन सभ्यता से
फिर से हमें जुटाया
उनके ही कानून ने
देश की शान बढ़ाई
भारतीयों की उन्होंने
दिल से की हैं भलाई ।
3. रघुवीर सिंह 'नाहर' की कविताएँ
एक लक्ष्य
रखा था एक लक्ष्य उसने
नफ़रत से लड़ा था वो
नफ़रत से लड़ूँगा मैं
अपने वतन की खातिर ।
सहस्त्रों बाधाएँ आईं
चली थी भयंकर आँधी
न विचलित जब हुआ था वो
न विचलित आज होऊँगा मैं
अपने वतन की खातिर ।
सुनाई मुझको देता है
दिखाई मुझको देता है
हुआ था खूब वज्रपात
अकेले ने सहा उत्पात
अपने वतन की खातिर ।
बिलखते वो रहे होंगे
तरसते वो रहे होंगे
खोये थे दो-दो लाल
चलो एक बार फिर सोचें
अपने वतन की खातिर ।
वो ही मंज़र है आज़
कुछ कर न पाएँ हम काज
उनकी शिक्षाएँ मानो
बढ़ रहे भेद को जानो
अपने वतन की खातिर ।
4. भीमराव गणवीर की कविताएँ
भेड़ियों की खाल
भेड़ियों की खाल में आदमी घूमने लगे,
बादल की आड़ में बवंडर मँडराने लगे ।
जनम-जनम जिन्होंने लाशों को कुरेदा,
वे ही आज फिर कफन बेचने लगे ।
भूख की बहस में पहरों बीत गये,
रोटी की आस में कितने मरने लगे ।
संसद की चौखट पर ईमानदारी का लिबास,
पहनकर नेताओं के कितने मेले लगे ।
अब भूल जाओ सारे रस्मो-रिवाज,
विद्रोह के परचम अब उठाकर चलें ।
लड़ो !
मानवता के हक के लिए लड़ो !
विषमता पर जीत के लिए लड़ो !
चहुँ ओर शोषण का बोलबाला,
उसके निर्मूलन के लिए लड़ो !
तोड़ दो गुलामी की जंजीर सारी,
आजादी की प्राप्ति के लिए लड़ो !
सत्ता की आँधी से अशांति फैली,
अमन की स्थापना के लिए लड़ो !
मान जाओ, ऊँचा-नीचा नहीं कोई,
समानता का परचम थामे लड़ो !
5. एस.एन. प्रसाद की कविताएँ
जाति का जहर
जातीय जहर
गाँव व शहर
सबको
अपने अंक में
समेट लिया है,
भारत जैसे देश को
मटियामेट किया है,
आइए हम सबसे पहले
शोषितों को समझाएँ,
अनुसूचित जाति में
जड़ जमाएँ
जाति को मिटाएँ,
ना कोई धोबी, खटिक, दुसाध
पासी, कोरी, रहे चमार,
बिखरे हैं जो अन्य और भी
सब मिलकर हों एकाकार ।
अपनों से
परम् पूज्य बाबा साहब की
अकथ वेदना याद करो,
हमसे जो उनकी उम्मीद थी
समझो, नहीं विवाद करो ।
जीवन में उन्होंने कुछ भी
हमसे कभी न चाह किया,
दारुण दुःख सहकर आजीवन
सबको नूतन राह दिया ।
क्या-क्या कहा हमें करने को
पढ़ो किताबें उनकी, जानो,
छोड़ो आपस की कटुता को
लक्ष्य पूर्ण करने की ठानो ।
सबका हो सम्मान परस्पर
सब सबका सहयोग करें,
एक प्रतिष्ठित कौम बनाकर
आपस का दुःख रोग हरें ।
अंधभक्ति रूढ़ियाँ आडम्बर
और कुरीतियाँ त्यागें हम,
अब तक सोकर बहुत गँवाया
समय नहीं है, जागें हम ।
6. जी.सी.लाल 'व्यथित ' की कविताएँ
इसे मान
उसे बताया गया था
भगवान की पूजा कर
तेरे बिगडे़ काम
बन जाएँगे ।
वह घंटों पूजा करता
आज उसकी सूजी
लाल आँखें
कुछ और ही बयां कर रही थीं,
वह रो रहा था ।
बताया तो कुछ नही उसने
बस कहने लगा
भगवान ने मेरा
साथ नही दिया
मैने उसकी मूर्तियाँ
बाहर फेंक दी ।
अब तो फुर्सत मिल गयी न !
फिर रो क्यों रहे थे ?
उसने कहा,
अफसोस !
मैने तुम्हारी नहीं मानी !
मैने कहा
अब मेरी मान ।
बुद्ध ने कहा था
'अत्त दीपो भव '
अपना दीपक आप बनो
इसे मान !
अधर्मी
देखकर
हाथ की पत्रिका
दिया उसने उलाहना
काहे को पढ़ते हो बच्चा
ऐसी साम्प्रदायिक पत्रिका
यह जो अम्बेडकर रहा है न !
हमेशा किया करता था गुमराह ।
भक्त और भगवान के बीच
बढा़ दी थी इसने दूरी
ऐसे ही लोगों को तो
कहा जाता है नास्तिक ।
पढ़ क्या लिये थे उसने चार अक्षर
समझने लगा था खुद को तोप ।
आस्था से मिलता है स्वर्ग
पढ़कर इसे
क्यों जाना चाहते हो नर्क को ।
अब बारी थी अपनी
कहा,
बाबा जी करोगे तर्क मुझसे
वह झल्लाया कहने लगा
तुम अधर्मी हो,
तूने भी गलत रास्ता पकड़ रखा है
मर इसी अम्बेडकर के साथ
हम तो योगी हैं
यती-जटी सन्यासी हैं
हमें क्या मतलब
चल हट..... ।
7. नंदलाल कौशल की कविताएँ
स्वर्ग की राह
पिता जी हाे गये थे स्वर्गवासी,
राे रहे थे सारे परिजन घर में छाई थी उदासी,
लाश लेकर गये गंगा किनारे
जहाँ बना था श्मशान घाट
वहाँ पर दाे सज्जन बहुत प्रेम से मिले
जैसे जोह रहे थे हमारी बाट
बोले, अरे यजमान !
पिता जी का हो गया है स्वर्गवास
काहे को हो आप लोग इतना उदास ?
वह तो लाखों की सम्पति बनाये हैं
आप लेंगे को बहुत पढाये हैं,
अब बताएँ,
कौन से रीति से दाह-संस्कार कराएँगे,
आर्य समाजी, सनातन, वैदिक
या अन्य रीति अपनायेंगे,
मैं बोला, जो उचित हो उसे ही कराइए,
पिता जी को स्वर्ग जरूर दिलाइए,
तपाक से बोले स्वर्ग की आखिरी
सीढ़ी तक तो पहुँचा ही दूँगा,
आगे का राजा भी दरवाजा खोलवा दूँगा,
ढेर सारी लकड़ी का चिता सजा दिया,
पिता जी की लाश को गंगाजल से नहला दिया,
पिता जी हाथ पर बालू का पिण्ड रखकर बोले,
अपनी छिपी इच्छा काे खोले,
अब आप लोग इनसे
लम्बी उमर का वरदान माँग लीजिए
सब लोग अपना दिल खोलकर
दान दीजिए,
हमने पचास रुपये का नोट रखकर प्रणाम किया,
सभी लोगों ने दस से पचास रुपया देकर
मृत पिता जी से वरदान लिया,
जाे लोग पिता जी को किसी मुसीबत में
दस रुपये नहीं दिये,
वे लोग भी इस मौके पर
पचास रुपये देकर वरदान लिये,
चिता में आग लगाई तो पूरी चिता जल गई,
पिता जी की लाश खाक में मिल गई,
फिर बोले कल फूल ले जाना,
इसे हरिद्वार में बहाना,
पहले हमारा इक्कीस सौ रूपया
दे दो मेहनताना,
पिताजी के हक में वह भी कर दिया,
अपनी जेब काे वहीं खाली कर दिया,
घर पर पुरोहित ने तालाब किनारे
खड़े पीपल के पेड़ पर घड़ा लटकवाया,
तेरह दिन तक ठंडे और गंदे पानी से नहाकर
पिताजी को खूब पानी पिलाया,
जिंदे पर तो बिना माँगे
एक गिलास पानी तक नहीं दिया,
इस तेरह दिन तक मृत पिताजी की खूब सेवा किया,
वैतरिणी पार कराने को गोदान भी किया,
भोज में करीब पाँच सौ लोगों ने खाना खाया,
पिताजी की खूब जय-जयकार मनाया,
पिताजी को स्वर्ग मिला या नहीं,
अभी तक संदेश नहीं आया,
पर उनको वहाँ तक पहुँचाने में जो कर्ज हुआ,
उससे उबर नहीं पाया ।
कर्ज का मर्ज
इनको तो कर्ज का मर्ज हो गया है,
आदमी कितना खुदगर्ज हो गया है,
हम तो इनके तराने पर तरस खाते हैं,
जब ये लोग आम आदमी का कर्जदार बताते हैं,
गरीबदास बोले,
अपना पाॅकेट टटोलकर खोले,
हमें तो अपने बच्चों के पालने के हैं लाले,
भला हम कैसे हो गये इनको कर्ज देने वाले,
फिर भी मंच से बार-बार चिल्ला रहे हैं,
अपने आपको हमारा कर्जदार बता रहे हैं,
गरीबदास सोचे,
शायद हमारे पूर्वज से इनके पूर्वज लिये हों,
परिस्थिति खराब रही होगी
अभी तक नहीं दिये हों
अब हमारा कर्ज चुकाकर
हमारी भुखमरी मिटाएँगे,
तब ये बहुत ईमानदार सपूत बन जाएँगे,
तब तक नेता बोला,
एक-एक वोट का कर्जदार बन जाऊँगा,
जब यह चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुँच जाऊँगा,
वापस आकर आप सबका कर्ज चुका दूँगा,
एक-एक आदमी का दुःख दर्द मिटा दूँगा,
गरीबदास अपने वोट की कीमत समझकर बोले,
अपने अन्दर छिपे गुब्बारे को खोले,
आप कर्जदार नहीं,
सरकार बनकर आएँगे,
हम सबके वफादार बनकर आएँगे,
तब कहीं सबका कर्ज उबर पाएगा,
नहीं तो आपके ऊपर ही चढ़ा रह जायेगा ।
8. डाॅ. कुसुम वियोगी की कविताएँ
रोटी और भूख
तुम
अभी
भरे पेट हो
कोई बात
तुम्हें
समझ नहीं आएगी !
तुम्हारे हाथ में
तांबे का लौटा है
सूरज को
अर्ध्य देने को !
पूजा का थाल है
आरती को !
अनचाहे,
मिल गया
इतना सब कुछ
यही से
उदय होता है
भाग्य और भगवान का सफर
जिस दिन
कोरोना काल की तरह
छिन जायेंगे
रोजी-रोटी के अवसर
कपाट
हो जायेंगे बंद
धर्म देवालयों की तरह
उस दिन
रोटी पर जमायेगा
गिद्ध सी आंख
मरोड़ती
आंत भरने को !
तभी
समझ पायेगा
रोटी और भूख का संबंध !
अभी तुम
भर पेट हो !
चिड़िया और चूज़े
तुम
चिड़िया की
चौंच बन
चूजों की
चौंच में
सामाजिक परिवर्तन के
वैचारिक शब्द
एक-एक कर
डालते रहो !
कभी,तो
विपल्वी गान
मानवी विहगो के
मुख से फूटेंगे !
व्यवस्था के
बे-रहम बैरियर
एक दिन
अवश्य टूटेंगे !
हम
आशवस्त है !
आँच !
हम
तुम्हारी
हथेली पर
आंच रखकर
एक-एक कर
यूं ही
चले जायेंगे !
हमारे
लिखे शब्द
कब
पढ़ लिख समझ
चींखोगे/चिल्लाओगे
हकमारो के खिलाफ ?
9. पुष्पा विवेक की कविताएँ
नारी शक्ति
तू उठ,
ललकार
दे चुनौती,
सुन तू अपने
दिल की बात
काट दे जंजीरें
गुलामी की
जिसमें करके कैद
तुझे रखा
नहीं दी आजादी
तुझे बोलने की
रही चुप तू
आदर भाव में
उसने समझा
तुझे कमजोर
दिखा दे उसे
अपने शक्ति,
करा दे उसे अहसास
अपनी वाचलता का
बनी है तू भी
उसी की तरह
उसी की तरह हैं
मन में भाव
फिर क्यों रहे
तू बन कर गुलाम
गुलामी का अहसास ही
करायेगा तुझे मुक्त
दिलायेगा आजादी की
सुकुन भरी ज़िन्दगी
आत्मविश्वास से भरकर
जब तू करायेगी उसे
अपनी शक्ति का अहसास ।
व्यवस्था की धरोहर
गर्दन काटकर गंगा में बहा देंगें,
इसी फिक्र के साथ
बेटियों की गर्दन
हमेशा झुकी रहती है ।
बेटियों ने गर्दन उठाई
या हुई उनकी आवाज ऊँची
या की उन्होंने आजादी की माँग
या प्यार में पड़कर
बढ़ाई प्रेमी संग पींगें
तो शायद
घर के बड़े
माता पिता, चाचा ताऊ,
भाई या समाज
या पंचायत का तुगलकी
गर्दन न काट दें
यही डर ,
भयभीत करता रहता उन्हें
बेटों की गर्दन तक
क्यों नहीं पहुंचते उनके हाथ
न कोई रोक टोक
और न कोई
पाबंदी लगती है उनपर
कोई टिप्पणी भी
नहीं करता
उनके रहन-सहन
और पहनावे पर
भेद लड़का और लड़की के बीच का
परवरिश में भी होता है
भेद भाव उनके साथ
व्यवस्था की विरासत में
मिलती है लड़कियों को
उपेक्षा और अनादर
सदियों से ढोती आईं हैं
विरासत की ये धरोहर
बेटियों की गर्दन
आज भी कटती है
कभी उनकी बेबाकी पर
उन्हें सूली चढ़ा दिया जाता
कभी बेटे की चाहत में वे,
गर्भ में ही मार दी जातीं
कभी दहेज की आग
उन्हें जिन्दा ही
निगल जाती
व्यवस्था की यह धरोहर
बेटियों के हिस्से ही
क्यों आती है ?
भेंट चढ़कर उनकी
आजादी पर
ब्रेक लगा दी जाती है ।
10. रामसनेही 'विनय' की कविताएँ
खाली हाथ
मैंने बरसों पूजे पत्थर,
रखें व्रत-उपवास,
अपनी तकलीफें दूर करने के लिए,
मैं जार-जार रोता रहा,
गिड़गिड़ाता रहा रात-दिन,
किंतु उसने नहीं सुनी मेरी आवाज़,
न पसीजा कभी उसका हृदय,
शायद इसलिए कि वह
केवल हृदयहीन पाषाण ही तो था,
या मुझे अपना नहीं
समझता था
अथवा उसमें क्षमता ही नहीं थी
मेरे दुःख दूर करने की,
अब मुझे लगता है कि -
टेसुए बहाने, व्रत-उपवास रखने,
विनती, पूजा, जागरण करने,
भजन-कीर्तन से शोरगुल मचाने
या पत्थर के सामने सिर पटकने से,
कोरोना की तरह,
कोई भी दुःख दूर नहीं होता,
सब कुछ अपने ही सत्कर्मों से मिलता है हमें,
बिना हाथ पैर चलाए
तो एक निवाला भी नहीं जा पाता
अपने ही मुँह के अंदर,
परंतु,
कर्म करके उसका फल
दरिया में मत फेंकना,
वरना तुम्हारी मेहनत के फल पर,
नजरें गड़ाए, ढोंगी, पाखंडी,
बुद्धि-विवेक हीन, आडंबर, अंधविश्वास,
और धार्मिक आतंक फैलाने वाले,
चालाक, निठल्ले, लंपट ही लूट खाएँगे उसे,
तथा धनपशु बनकर
खडी़ कर लेंगे अपनी कोठियाँ
और तुम्हारा भविष्य भी ले डूबेंगे
तुम अथक परिश्रम के बावजूद
खड़े रह जाओगे वहीं के वहीं -
खाली हाथ ।
11. बी. आर. विप्लवी की ग़ज़लें
(1)
जिन्हें कमज़ोर समझा जा रहा है ।
उन्हीं को चोर समझा जा रहा है ।।
धरम की पीठ पे बैठा शिखण्डी ।
बहुत शहज़ोर समझा जा रहा है ।।
अज़ां जिन बस्तियों से आ रही है ।
उन्हें लाहोर समझा जा रहा है ।।
वो डरते हैं हमारी चुप्पियों से ।
जिन्हें अब शोर समझा जा रहा है ।।
मुसलसल झूठ की ताक़त के बल पे ।
वो सच की ओर समझा जा रहा है ।।
मुनाफाखोर को दानी, प्रजा को ।
रिआयतखोर, समझा जा रहा है ।।
इस हिन्दू-स्थान में इंसान को भी ।
कि डंगर-ढोर समझा जा रहा है ।।
भला, खूंख़्वार परजीवी ठगों को ।
कब आदमखोर समझा जा रहा है ?
न बोलें 'विप्लवी' जो झूठ की जय ।
उन्हें मुंहज़ोर समझा जा रहा है ।।
* मुसलसल=लगातार
(2)
उजालों की हुई जबसे तबाही ।
अंधेरे कर रहे हैं वाह-वाही ।।
मिटा देगा कोरोना नस्ले-आदम ।
हुई है प्यार में कुछ तो कोताही ।।
बुलन्द इक़बाल हो राजा का हर सू ।
सियासत चाहती है राजशाही ।।
ये नफ़रत,मज़हबी है, तेज़ रौ क्यों?
कि जब पाबन्द है हर आवा-जाही ।।
महामारी के बाइस हैं 'विधर्मी' ।
हुआ है 'वाइरल', फ़रमान शाही ।।
करे है आदमीयत की तिजारत ।
कफ़न के नाम पर चंदा उगाही ।।
मिली है धर्म-पूंजी से सियासत ।
लगी है तोलने पर, ज़ारशाही ।।
फ़रेबी सल्तनत, हक़तलफ़ जनता ।
नुमाइश में है सबकी ख़ैरख़्वाही ।।
अमीरी खा रही है चांदी-सोना ।
ग़रीबी ने तो रोटी-दाल चाही ।।
ज़मीर ये मर गया तो, मर गये तुम ।
है बेमानी, ये सांसों की गवाही ।।
सरल बहुजन के संग चालाक़ बहमन ।
कि सादे बरक़ पे गाढ़ी सियाही ।।
न जाए अपसकुन जनता के सर ,फिर ।
जो शाही प्यास से टूटी सुराही ।।
ग़रीबी पे जहां होती हैं बहसें ।
ग़रीबों को है जाने की मनाही ।।
तेरे ग़म पे वो रोएगा, ख़ुदा से ।
मेरे सुल्तान के ढब हैं, जुदा ही ।।
इलाजे-मरज़ होगा, टोटकों से ?
हमें बहलाओ मत, ज़िल्ले- इलाही !
लड़ूंगा 'विप्लवी' , इंसाफ़ ख़ातिर ।
मैं अपने अज़्म का तन्हा सिपाही ।।
* तेज़ रौ = तीव्र गतिशीलता
* बाइस = कारण
* हक़तलफ़ = अधिकार से वंचित
* ख़ैरख़्वाही = भले की चाहत
* बरक़ = पृष्ठ
* इलाज़े मरज़ = रोग निदान
* ज़िल्ले इलाही = महामहिम (your majesty)
* अज़्म=संकल्प/दृढ़ निश्चय
12. डाॅ. धीरज वणकर की कविताएँ
छलिए
जनम के छलिए
शब्दों के जाल बिछा रहे हैं
नाना प्रकार के अभी भी,
उनकी बातों मत आना बंधुओं मेरे,
आदिवासी कल्याण के नाम पर
वे जोर-जोर से कितना
गरजते रहते हैं,
खाली आश्वासन देकर
सत्ता को हथियाने
साम दाम दंड भेद अपनाके
बिरसा मुंडा की जय बुलवाते
किंतु मत फँसना बंधुओं मेरे,
उनकी मंशा तहस-नहस करने
हाथ में मशाल लिए ललकारो,
रूकना मत, डरना मत,
जनम के छलिए को सबक सीखाने ।
कब तक
बात करते हो तुम
डिजिटल इंडिया की
और करते हो अंधविश्वास अभी भी,
जन्मकुंडली, ग्रह-नक्षत्र, मंत्र-तंत्र
रक्षासूत्र चोटी, काली हांडी, निम्बू मिर्च
यज्ञ-हवन कथा
वगैरह-वगैरह पर,
किंतु करोना महामारी के कहर में
तुम्हें बचाने में ये सब के सब रहे लाचार
तुम थर-थर, घर-घर काँप उठे
तब सिर्फ काम आया अस्पताल,
फिर भी तुम विज्ञान को
आखिर कब तक
नजरअंदाज करते रहोगे
कब तक !
13. दिलीप कुमार कसबे की कविताएँ
कोरोना
ये खाँसी, बुखार
अस्पताल,
निगेटिव-पॉजिटीव
पॉजिटिव-निगेटिव
अम्बुलन्स,
चौदह दिन क्वारंटाइन लाॅकडाऊन
गाँव, पुलिस पहरा कितना भयानक !
इतने शब्दों का,
करना अर्थ का अनर्थ, अनर्थ का अर्थ
तोड़ देता गाँव, परिवार, रिश्ते सबको
जीना है, संभालो ख़ुद को
परिवार को, अपनों को, देश को
वरना, उठ जाना है
श्मशान, कब्रिस्तान एक दिन
अब अपने पराये लगने लगे हैं,
पॉजिटिव शब्द ने
खड़ा कर दिया सबके अंदर भय
कोरोना का नाच करता दिखना
और मनुष्य का भयभीत होना,
टूट जाना
क्या है उचित ?
डरो मत, अरे अमृत इन्सान !
तुममें है इक्कीस दिनों के अनशन का बल,
ठहरों ! संभलों !
उठोगे फिर,
करोगे सुजलम सुफलम जीवन को
है विश्वास अपार ।
सवाल
भीमराव का नाम लेकर
तुम्हारा यह काम जो शुरू है
उसमें सच्चाई के गंध की
हमेशा ख़ुशबू भरी रहे ।
बड़ी आशा और उम्मीदें
लिए बार-बार आते हैं वे
तुम केवल पुतला बनकर
उनसे व्यवहार करना छोड़ ।
हर समय बाबा के विचारों का
खयाल रहे तुम्हें ।
लोग कहेंं,
वाक़ई उनके विचारों पर चलनेवाला
एक सच्चा इन्सान है ।
समाज विकास और जोश भरी
न्याय, समता, बंधुता की बातों को
कहीं भी जरा सी खरोंच न पहुँचे,
अपना नाम उज्वल करने का यह खेल न हो ।
मेरे बाबा के नाम से लाभ लेकर
भटककर, फँसे हुए उन लोगों से
निश्चय ही तुम अलग रहोगे
सवाल न उठने दोगे,
है अब,
अपार विश्वास तुम पर ।
24. भूपसिंह भारती की कविताएँ
रागनी
भारत का संविधान बनाया, भीम ने सबसे न्यारा।
भीमराव के सविधान से, चलता देश हमारा।।
कानूनों को कानून से काट, कानून लिखे निराले।
समता के कानून बनाकर, गुलामी के तोड़े ताले।
भेदभाव का नाम मिटाकर, सबका जीवन संवारा।
भारत का संविधान बनाया भीम ने सबसे न्यारा।।
मानव सारे एक करे, मिटा ऊँच-नीच की खाई।
जाति धर्म लिंग भेद की, कानूनन करी मनाही।
मौलिक अधिकार दिए, कानून बने रखवारा।
भारत का संविधान बनाया, भीम ने सबसे न्यारा।।
काम के घंटे निश्चित करके, मिटा दई बेगारी।
नारी को अधिकार दिलाए, अब रही नहीं बेचारी।
प्रसव अवकाश दिलाया, संग वेतन भत्ता सारा।
भारत का संविधान बनाया, भीम ने सबसे न्यारा।।
कह भारती के के लिखूँ, सबको सब अधिकार दिये।
मजूर किसान नारी शोषित, परले पार उतार दिये।
भीमराव को नमन करूँ, लगा जय भीम का नारा।
भारत का संविधान बनाया, भीम ने सबसे न्यारा।
भीमराव के संविधान से, चलता देश हमारा।।
कुण्डलिया
योग बुद्ध की देन है, दुनिया को सुन मीत।
बुद्ध काल से देश में, चली योग की रीत।
चली योग की रीत, गीत अब गाते सारे।
योग रोग को काट, कर रहा वारे न्यारे।
कहे 'भारती' योग, क्रिया गति मन शुद्ध की।
मिला योग से ज्ञान, देन है योग बुद्ध की।
सबसे श्रेष्ठ ग्रंथ है, देश का संविधान।
देश बनाया एक ये, करके सभी समान।
करके सभी समान, गजब का करा उजाला।
संविधान ही आज, बना सबका रखवाला।
भेदभाव मिट गया, लगा संविधान जबसे।
ग्रंथों में ये ग्रंथ, श्रेष्ठ संविधान सबसे।
फैलाया था चाँदणा, बेगमपुर की आस।
सारे मानस एक हैं, कहे गुरु रविदास।
कहे गुरु रविदास, मिले सबको अन्न पाणी।
आपस में रख प्रेम, खास गायी ये वाणी।
देख 'भारती' कर्म, गुरु ने श्रेष्ठ बताया।
अंधविश्वास मिटा, चाँदणा था फैलाया।
आरक्षण का रोवणा, लगा रहे हर बार।
आरक्षण से ही सजे, ये मन्दिर दरबार।
ये मन्दिर दरबार, रहे इनके हाथों में।
बात कहूँ मैं साँच, सुनो बातों बातों में।
पन्द्रह फिसद लोग, करे आधे का भक्षण।
पिचासी फिसदी का, आधा भी लगे आरक्षण।
26. उमेश 'राज' की कविताएँ
चिताभूमि
सदा रोका है तुमने हमें
प्रगति-पथ पर बढ़ने से,
सदियों-सदियों से दबाया है तुमने
हमारी आवाज़ को,
बहुत झेला है हमने
तुम्हारी अमानुषिकता को,
सदा ही की है तुमने
हमारी राहें अवरूद्ध
फिर भी हम बढ़ते गये
क़दम-दर-क़दम
अपनी मंजिल की ओर,
युग -युग से सहा है हमने
तुम्हारी नृशंसता को,
तुम्हारे पाशविकता को,
क्या इतना संवेदनहीन हो गया है
हमारा समाज,
जहाँ रोके जाते हैं
शादियों में, दलितों को
घोड़ी चढ़ने से,
आपत्ति होती है तुम्हें
दलितों को मूँछें रखने पर,
आपत्ति होती है तुम्हें
दलितों के शव को
गाँव से ले जाने पर,
क्यों ? आख़िर क्यों ?
करते हो इतनी नफ़रत हमसे,
आज तो,
तोड़ दी है तुमने
क्रूरता की सारी सीमाएँ
कर डाला है तुमने
मानवता को कलंकित,
हमने तो सुना था कि
श्मशानों पर होता -
डोम (दलितों ) का आधिपत्य,
पर तुमने तो वहाँ भी
कर रखा है अवैध क़ब्ज़ा
तभी तो,
एक दलित महिला के शव को
प्राप्त नहीं हो पाती है
उसकी हिस्से की आग
और उतार दिया जाता है उसे
चिता शय्या से,
और कर दिया जाता है
चिताभूमि से बेदख़ल ।
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
(भीम आर्मी के एक सदस्य के अनुरोध पर वर्ष 2018 में रचित कविता)
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
वर्ण मुक्त भारत एक बनाना है,
तोड़कर जंजीरें धर्म के गुलामी की
पाखंडों से हमें मुक्ति पाना है ।
आगे बढ़ता चल, आगे बढ़ता चल
नित नया पथ तू गढ़ता चल
नीला अम्बर शीश मुकुट तेरा
विजय परचम नीला लहराना है,
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
वर्ण मुक्त भारत एक बनाना है ।
कर्तव्य पथ पर नित बढ़े क़दम
आये चाहे परिस्थिति कोई विषम
तोड़कर प्रलोभनों के जाल को
नित आगे हमें बढ़ते जाना है,
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
वर्ण मुक्त भारत एक बनाना है ।
अब न हम रूकेंगे, अब न हम झुकेंगे
भय से तेरी राहे न अपनी मोड़ेंगे
अंधभक्ति के बंधन को तोड़कर
भीम संदेश जन-जन को पहुँचाना है,
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
वर्ण मुक्त भारत एक बनाना है ।
आओ हे भीम बंधुओं, जयघोष करूँ
लहू से अपने तुम्हारा अभिषेक करूँ
पग पखारूँ तुम्हारा, नयन जल से
राहों को तुम्हारी फूलों से सजाना है,
भीम बंधुओं ने अब ये ठाना है
वर्ण मुक्त भारत एक बनाना है ।
32. बिभाश कुमार की कविताएँ
अपने हिस्से का अम्बेडकर
गाद से मुक्त हुई नदियाँ
अपनी ही गाद से
बना रही हैं फिर एक नदी
बिना नाम की
अजस्र स्रोत श्रृंखलाएँ
होकर अवरुद्ध अकारण
उपस्थापित कर रहीं द्वीप कई
नदी के भीतर ही
गुम्फित और बेचैन कहीं
नदियों की बेचैनी
मूलस्रोत से दूर बहुत
द्वीपों के सृजन में हैं व्यस्त
जहाँ अपने विभंग अंग पर
चस्पा दिया है उसने
नाम एक अनाम सा
उस सृजन के बाद
अजनबी सी नदियाँ
नदी द्वीपों के अहंकार में
बह रहीं गुमनाम
और मूलस्रोत संजीदगी से
खामोश देख रही हैं
विखराव को अकेले-अकेले
बनाकर द्वीप अनेक
नदियाँ विसर्पों से ग्रसित
रेंग रही हैं हौले-हौले
उद्गम से मुहाने का सफर
विचारधाराओं से भिन्न
अनेक वितिरिकाओं में
बह रहीं दिग्भ्रमित अशांत
भ्रमित सपनों संग
व्याकुल नदियाँ
देख रही हैं गुमसुम
नदी द्वीपों में विभक्त
टीलाओं की चीख
गूँज जिसकी, गूँज रही
अंतर्मन में मेरे
द्वीपों के हिस्से का अम्बेडकर
अपने प्रश्न औचित्य पर
खामोशी से बाँट रहा
अपनी जातीय हिस्सेदारी
मूलस्रोत स्तब्ध परंतु
खामोश है अम्बेडकरी धाराएँ
देखकर द्वीपों की अपनी
बदनियति भरी मनमानी ।
अपने हिस्से का अम्बेडकर
गाद से मुक्त हुई नदियाँ
अपनी ही गाद से
बना रही हैं फिर एक नदी
बिना नाम की
अजस्र स्रोत श्रृंखलाएँ
होकर अवरुद्ध अकारण
उपस्थापित कर रहीं द्वीप कई
नदी के भीतर ही
गुम्फित और बेचैन कहीं
नदियों की बेचैनी
मूलस्रोत से दूर बहुत
द्वीपों के सृजन में हैं व्यस्त
जहाँ अपने विभंग अंग पर
चस्पा दिया है उसने
नाम एक अनाम सा
उस सृजन के बाद
अजनबी सी नदियाँ
नदी द्वीपों के अहंकार में
बह रहीं गुमनाम
और मूलस्रोत संजीदगी से
खामोश देख रही हैं
विखराव को अकेले-अकेले
बनाकर द्वीप अनेक
नदियाँ विसर्पों से ग्रसित
रेंग रही हैं हौले-हौले
उद्गम से मुहाने का सफर
विचारधाराओं से भिन्न
अनेक वितिरिकाओं में
बह रहीं दिग्भ्रमित अशांत
भ्रमित सपनों संग
व्याकुल नदियाँ
देख रही हैं गुमसुम
नदी द्वीपों में विभक्त
टीलाओं की चीख
गूँज जिसकी, गूँज रही
अंतर्मन में मेरे
द्वीपों के हिस्से का अम्बेडकर
अपने प्रश्न औचित्य पर
खामोशी से बाँट रहा
अपनी जातीय हिस्सेदारी
मूलस्रोत स्तब्ध परंतु
खामोश है अम्बेडकरी धाराएँ
देखकर द्वीपों की अपनी
बदनियति भरी मनमानी ।
34. राधेश विकास की कविताएँ
साटी
मुँह में बीड़ी सुलगाये
निकल पडते हो तुम,
पौ फटने से पहले
तुम्हारी साटिओं की सटाक
सुनकर सरपट दौड़ते
हुए घोड़ो की कतारें
अल सुबह सुनकर पत्नी की
झिझकी,
देखकर नौनिहालों
का मासूम चेहरा,
बूढी माँ का मोतियाबिंद,
खाँसते हुए बाप की डोरी से बँधा हुआ
बिना डंडियों का चश्मा,
तम्बाकू रगड़ते हुए साथियों की ठहाकों के
बीच उतर जाते हो नरपिशाचों के मुँह से
गोल गोल छल्लों वाले धुएं सी चिमनियों
के उठते हुए धुओं की बीच
सिकुड़ी अतडि़यों को
कुछ निवाले नसीब हो जाएंगे
पर तुम हर दिन गिरा दिये
जाते हो सिगरेट के गुल की तरह
और मसल दिये जाते हो
बूटों के नीचे बचे हुए अनुपयोगी अवशेष की तरह,
चिलचिलाती धूप में रोज
पसीने से तरोताजा करना चाहते हो
जिन्दगी को,
तुम्हारा रोज का ये सिलसिला
सदियों से अनवरत जारी है।
पर साँझ ढले रास्ता तकते
बुझे हुए चेहरे के साथ खुद को
निचोड कर बमुश्किल दिनभर
की भूखीं अतडि़यों को केवल इतना
दे पाते हो,
कि उनकी अपनी रात की नींद
और मीठे सपने पर कोई
खलल न पडे।
फिर मुँह अंधेरे उठकर तलाशते हो
साँटी बीड़ी सुलगाते हुए.क्योंकि दो वक्त की रोटी
छोटी कर देतु है तुम्हारी जीवन परिधि को,
फिर खो जाते हो तम्बाकू रगड़ते साथियों के ठहाकों में
क्यों कि तुम देख नहीं पा रहे हो
सदियों से अपनी पीठ पर सीधी पड़ती
साटिओं को..........।
मैं मजदूर हूँ
(1 मई, अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर दुनियाभर के कामगारों को समर्पित रचना)
हाँ ....
मैं मजदूर हूँ और
मेहनत मेरा मजहब है।
मालिक!
ये आलीशान अट्टालिकाएं,
कमरतोड़ मेहनत और
अपनी हड्डियों के सहारे खडी की है हमने,
ये धुआं उगलते कल कारखाने को
अपनी साँसों से हवा दी है हमने,
अपनी भूख किनारे कर
विपरीत मौसम में
हाड़तोड ठंड,
चोट करती बारिश की बौंछारें,
चिलचिलाती धूप में
बंजर पडी जमीनों पर तुम्हारे लिए उगाए हैं
लजीज़ व्यंजन तैयार होने
वाले अन्न फिर भी तुम्हें ही कहा अन्नदाता।
तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं की खातिर
काट लिये हमारे हाथ
फिर भी उफ तक नहीं किया,
केवल अपनी भूख की खातिर
पसीना पोंछते हुए माँगा अपना हक
और तुमने बरसा दी गोलियों की बौंछारें,
फिर भी चुप रहे,
तुम्हारी ही खातिर बेझिझक
उतर गये बदबूदार जानलेवा गैस से भरे
गहरे नालों में,
अपने जिगर के टुकड़ों,
रोज रास्ता तकती रसभरी आँखें,
बीमार वयोवृद्ध माँ बाप की ओर
तनिक भी नहीं निहारा
छोड़ कर बचपन की गलियों को
भूख लिए दूर बहुत दूर निकल आए
यह भी ख्याल न रहा कि लौटूँगा भी या नहीं
पर मालिक !
हमारी लम्बी यात्रा के दौरान
हमें कई बार ऐसे पड़ावों से गुजरना पड़ा
जहाँ आपको भी लगा कि अब ये नहीं लौटेगा
और मैं मुक्त हो जाऊँगा,
तुम्हारा ये भ्रम अद्यतन तक नहीं टूटा
क्योंकि तुमने अपने इर्दगिर्द
छद्म मायाजालों की रंगीन दुनिया में
इस तरह डूबे कि भूल गये
ये मजदूर भी मजदूर से पहले हमारी तरह इंसान है,
हमारी तरह इसे भी भूख लगती है,
हमारी तरह इसका भी परिवार है,
हमारी तरह इसकी भी नींद और सपने हैं,
इसने ही हमारे मस्तिष्क की आइडिया को अपने
अपने श्रम की साधना से जमीन पर उतारा है,
और दुनिया के सामने हमारा सिर ऊँचा किया,
पर मालिक!
एक बात और बोलूँ ?
अनेक बार आपके मुँह से हजार अपमान,
झिड़की, बेइज्जती के शब्दों को सुनकर भी
कभी कर्तव्य पथ से मुँह नहीं मोडा़,
आप हमारे हिस्से की रोटियाँ खाये पर सो न सके
और मैं भूखे रहकर भी बिना नींद की गोली खाए
भरपूर सोया हूँ,
अपनी झोपड़ी में मीठे सपनों के साथ
मुस्कुराते हुए जागा हूँ हर सुबह
आज भी खुद को खड़ा करता हूँ
और देश को भी,
क्योंकि जिस दिन
हम लाकडाउन कर ही देंगें तो
घुट जाएँगी तुम्हारी साँसें
उन दीवारों के बीच,
जहाँ से तुम केवल पोस्ट करते हो,
स्टे होम - सेव लाइफ ।
35. राजकुमार बोहत की कविताएँ
मेरा समाज
तू भी भूखा
वो भी भूखा
मैं कैसे खाना खाऊ ?
समाज पर मेरे
हो रहे अत्याचार,
मैं कैसे ख़ुशी मनाऊ ?
मारा जा रहा है
इनकी हत्याएँ, बलात्कार
हर दिन,
मैं कैसे चैन पाऊ ?
क्या यह देश मेरा भी है ?
सोच-सोच घबराऊ !
मेरा समाज भूखा है,
मैं कैसे खाना खाऊ ?
हमारे पूर्वज
कितने तडपाये,
कितने रुलाये होंगे
इन्होंने,
हमारे पूर्वजों को,
जब वे आ जाते
गाँव की तरफ,
जब बारिश में
गलती से घुस जाते
इनके मंदिर में,
कितने जुल्म ढाहते थे
जब पड़ जाती परछाईं इन पर,
कोड़े मारते -
गर्म काँच कान में डालते,
जीभ काट देते
इतना जुल्म !
और आज,
इनके बनाये मंदिर में जाकर
तुम सिर रगड़ते हो !
इनके मनगढ़त बना ।
इंदु रवि की कविता
कोरोना से सीख
खुली हवा में सांस लेना भी दुश्वार हो गया है
जब से करोना हमें ग्रास बनाने को तैयार हो गया है
हमारे देश के डॉक्टर, पर्यावरण रक्षक और पुलिस पर आशाओं का भार हो गया है ।
जब से करोना हमें ...............
आशा उठ रही है खुद के आस्तिक होने पर,
क्योंकि माता रानी की तरफ से अब तक कोई चमत्कार नहीं हुआ है
मैं तो कहती हूँ,
मैं रंग जाती आस्तिकता में एड़ी से मस्तक तक,
जब न पहुँचने देती, कोरोना को
भारत की सीमा तक
अगर वो कत्ल कर देती कोरोना को कटार से,
न बच पाता कोरोना माँ दुर्गा के प्रहार से,
सचमुच, मैं तो कहती हूँ, रंग जाती आस्तिकता में एड़ी से मस्तक तक;
खैर, अब तो ईश्वर के प्रति सोचना निराधार हो गया है ।
जब से करोना हमें .............
अब तो मंदिर को हॉस्पिटल बना दिया जाए
मंदिर के दान को कोरोना पीड़ित, गरीब भूखी जनता खाए
तो बोलो क्या है आपकी राय ?
जनकल्याण भावना से सुकून मिल जाए,
ये सब बातें सुन, दिल में करुणा सहयोग, अपनेपन का संचार हो गया है ।
जब से करोना हमें..........
हर मानव उसका घर है
तबाही से गुजर रहा शहर है डॉक्टर से फरियाद कर रहे अधर हैं
कोरोना ने बरसाया ऐसा कहर है
तो राम मंदिर की जगह ,
क्यों न, मानवों का इलाज किया जाए
मानव के मन में सुविचार आ गया है ।
जबसे कोरोना इसे ग्रास बनाने को तैयार हो गया है ।
वचन मेघ की कविताएँ
बस्स ! बहुत हो चुकी प्रताड़ना (हाइकु)
बस्स !
बहुत हो चुकी प्रताड़ना
हमारे साथ ।
नहीं जाएंगे
अब कभी मंदिर
मार खाने को ।
हो मुबारक
तुम्हें राम तुम्हारा
हनुमान भी ।
पत्थर पूजा
अब तुम्हीं करना
नारियल से ।
आएँगे नहीं
अब हवेली कभी
बेगार बन ।
नहीं करेंगे
प्रणाम कभी पंडों
हाथ जोड़ के ।
बैठेंगे नहीं
सुनों ठाकुरों अब
पैरो में कभी ।
नहीं करेंगे
जी हजुरी तुम्हारी
झुक-झुक के ।
बहुत किया
भेदभाव तुमने
हमारे साथ ।
नहीं करेंगे
अब स्वीकार जुल्म
हम तुम्हारें ।
उठेगी गुँज
चहुँ और तुम्हारें
प्रतिकार की ।
अब शिक्षित
है भीम के दम से
सब अछूत ।
अब बैठेंगे
साथ तुम्हारे हम
कार्यालयों में ।
पीएँगे पानी
एक ही मटके में
उसी लोटे से ।
साथ पढेंगे
तुम्हारे बच्चों संग
बच्चे हमारे ।
बदल दिया
जमाना भीम जी ने
संविधान से ।
आरक्षण दे
हमको मुक्त किया
बंधन तोड़ ।
नीरज सिंह कर्दम की कविताएँ
आम्बेडकरवादी हूँ
मैं आगे चलता था
चलता हूँ
और चलता रहूँगा,
ये समाज मेरा है
ये देश मेरा है
इसके लिए हमेशा लड़ता रहूँगा,
तुम चार आओगे तो
क्या मैं डर जाऊँगा,
अरे तुम सौ भी आओगे ना
तब भी मैं लड़ जाऊँगा,
मैं बाबा साहेब का बेटा हूँ
कोई कायर नहीं
जो डरकर तुमसे पीछे हट जाऊँगा,
घर में घुसकर मारने में
उधम सिंह हूँ,
मैं संविधान को श्रेष्ठ मानता हूँ,
इसलिए अपनी लड़ाई
संविधान के दायरे में लड़ता हूँ,
निस्वार्थ सेवा करना
कर्म है मेरा,
राजनीति से मत इसको जोड़ो
राजनीति के हर
कोने से वाकिफ हूँ
मुझे राजनीति मत सिखाओ,
मुझे तुम्हारी राजनिति से
कोई मतलब नहीं,
समाज सेवा करना ही
कर्म है मेरा,
समाज के गद्दारों !
समाज के लिए लड़ नही सकते
तो दीमक की तरह
समाज खोखला भी
मत कीजिए,
या खून में गुलामी
आज भी जिन्दा है ?
पर मैं वो नहीं हूँ
समाज को छोड़कर
किसी के भय से
घर में चुप बैठ जाऊँँ,
वो कायर नहीं हूँ मैं,
एक आम्बेडकरवादी हूँ
समाज के लिए
हमेशा आगे आऊँगा ।
सूरजपाल सूर्यवंशी की कविताएँँ
वीरांगना झलकारीबाई के वलिदान दिवस पर
बुंदेले हर बोलों ने झूठी गढ़ी कहानी थी ।
जो मैदान में नही लड़ी, वो कैसे मर्दानी थी ?
नहीं गाया, रण में जूझी, जो देश दीवानी थी ।
झलकारी लिख गयी अमर कहानी थी ।
सन् सतावन में चमक उठी, वो तलवार पुरानी थी ।
बूढ़े भारत मे आयी, फिर से नई जवानी थी ।
झलकारी रण में जूझी, वह तलवार तूफानी थी ।
इतिहास में लिख गई, जो ऐसी अमर कहानी थी ।
रणचंडी नहीं, गोरों पर बरसी बनके चिंगारी थी ।
हाथ फूल गये थे गोरों के, वह ना कोई भवानी थी ।
सदियाँ दोहराएँँगीं कीर्ति, उसकी अमिट कहानी थी ।
वो रण में लक्ष्मीबाई ना, वीरांगना झलकारी थी ।
फिरंगी जिससे डरते थे, ऐसी वो किलकारी थी ।
गोलियों से वीर हुई, वह लक्ष्मी नहीं झलकारी थी ।
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