डॉ. बुद्धप्रिय सुरेश सौरभ गाजीपुरी जी एक परिवर्तनकारी कवि हैं । ये उत्तर प्रदेश के अंतर्गत गाजीपुर जनपद के ग्राम रामपुर फुफुआँव के निवासी हैं । डॉ. सौरभ जी के नवीनतम प्रकाशित काव्य-संग्रह 'सुलगती संवेदनाएँ' की समीक्षात्मक भूमिका साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी के द्वारा लिखी गयी है, जो मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत है ।
डाॅ. बुद्धप्रिय सुरेश सौरभ गाजीपुरी की कविताओं में संवेदना के बिम्ब
बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात तथागत बुद्ध ने सर्वप्रथम कहा, " दुःख सत्य है । "अर्थात् संसार में दुःख का होना निश्चित है । संसार के हर प्राणी को कोई न कोई दुःख होता है । दुःख का समानार्थी शब्द है - 'वेदना' । संसार में अपनी वेदना को तो हर कोई समझता है, अनुभव करता है और दूसरों के सामने अपनी वेदना प्रकट करता है । लेकिन जो वेदना दूसरों की वेदना को अनुभव करके उत्पन्न होती है, उसे संवेदना कहते हैं । संवेदना का ही समानार्थी शब्द है - 'सहानुभूति' । सहानुभूति के लिए स्वानुभूति का होना आवश्यक है । क्योंकि जिसने स्वयं वेदना का अनुभव न किया हो, वह दूसरे की वेदना की अनुभूति नहीं कर सकता है । संत शिरोमणि गुरु रविदास जी ने अपने एक पद में कहा है, " सो कत जानै पीर पराई/जा कै अंतरि दरदु न पाई । " गुरु रविदास जी की इस उक्ति को परिवर्तित करके एक लोकोक्ति का रूप दे दिया गया है । वह लोकोक्ति चौपाई छंद में इस प्रकार है - "जाके पैर न फटी बिवाई/सो क्या जाने पीर पराई ।" तात्पर्य यह है कि जिसने स्वयं दुःख (वेदना) का अनुभव किया है, वही दूसरे का दुःख (वेदना) समझ सकता है । दुःख के मुख्यतः दो प्रकार हैं - शारीरिक दुःख और मानसिक दुःख । शारीरिक दुःख व्याधि और चोट के कारण उत्पन्न होता है । जबकि मानसिक दुःख की उत्पत्ति के अनेक कारण हैं । किसी को मूलभूत आवश्यकताओं (रोटी, कपड़ा, मकान) की पूर्ति न होने का दुःख होता है, तो किसी को इन सबके उपलब्ध होने के बाद भी दुःख होता है । उन्हें दुःख इसलिए होता है, क्योंकि उनका शौक पूरा नहीं होता है । शौकीन लोगों का दुःख दूर करने के लिए संस्कृत के विद्वानों ने 'चेष्टाम् दुखस्य कारणम्' और 'संतोषम् परम् सुखम्' जैसी सूक्तियाँ लिखी हैं । किंतु जो लोग मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी न होने के कारण दुखी हैं, उनके दुःख का निवारण इस प्रकार की सूक्तियों से संभव नहीं है । रोटी, कपड़ा और मकान तो मनुष्य की शारीरिक आवश्यकताएँ हैं, जबकि मानसिक आवश्यकताएँ हैं - समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व, प्रेम, करुणा, प्रज्ञा, शील, मैत्री आदि का व्यवहार ।
क्रांतिकारी आंबेडकरवादी कवि डॉ. सुरेश सौरभ गाजीपुरी जी के मन में जो वेदना है, उसकी उत्पत्ति का कारण है - मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति न होना । सुरेश जी ने बाल्यकाल से इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए संघर्ष किया है तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनैतिक बाधाओंं का सदैव सामना किया है । यही कारण है कि जब वे सम्मानपूर्वक जीवन जीने के लिए संघर्ष करते हुए किसी मनुष्य को देखते हैं, तो उनका मन संवेदना से भर जाता है । संघर्षशील व्यक्ति का शोषण और दमन देखकर तो मानो उनकी संवेदनाएँ सुलगने लगती हैं । सुलगती संवेदनाओं की आँच में वे अपनी कविताओं को तपाते हैं तथा भिन्न-भिन्न आकार देकर भिन्न-भिन्न अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करते हैं । सुरेश जी के काव्यरूपी अस्त्र-शस्त्र युद्ध के लिए नहीं, बल्कि आत्मरक्षा के लिए हैं ।✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर', समीक्षक
'आत्मरक्षा' का शाब्दिक अर्थ है - अपनी रक्षा । जब व्यक्ति अपनी रक्षा करता है, तो वह केवल अपने शरीर की ही रक्षा नहीं करता है ,बल्कि वह अपने सम्मान, सिद्धांत और सदाचरण आदि सभी की सुरक्षा करता है । डॉ. सुरेश जी आत्मसम्मान की रक्षा के प्रति इतने सजग हैं कि वे होली जैसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय हिंदू पर्व की आलोचना करने में बिल्कुल संकोच नहीं करते हैं । होली के दिन हुड़दंग करने वाले लोग अश्लीलता और दुराचार की सीमा पार कर जाते हैं । वे लोग 'बुरा न मानो होली है' का नारा लगाते हुए स्त्रियों और लड़कियों के संवेदनशील अंगों पर रंग लगाते हैं । इस प्रकार वे रंग लगाने के बहाने छेड़खानी करते हैं । वे लोग ऐसा दुस्साहस इसलिए करते हैं, क्योंकि ऐसे दुष्कर्म को धार्मिक मान्यता मिली हुई है । डॉ. सुरेश जी होली के दिन होने वाले कुकर्मों की कड़ी निंदा करते हैं । उनकी कविता 'होली के दिन' की कुछ पंक्तियाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं -
होली के दिन देश की जनता दारू पी बौराएगी ।
ढोल-मजीरा के संग में फूहड़ अश्लीलता गाएगी ।
बहन बेटियाँ हों या माँ हो, शर्म तनिक न आएगी ।
लेकर रंग गुलाल हाथ में नारी को नहलाएगी ।।
डॉ. सुरेश सौरभ गाजीपुरी एक क्रांतिकारी आंबेडकरवादी साहित्यकार हैं । सत्य के प्रति उनकी इतनी अधिक निष्ठा है कि वे देश और समाज को क्षति पहुँचाने वाली घटनाओं की सत्यता को अवश्य उजागर करते हैं । आजकल आंबेडकर-मिशन के नाम पर संगठन बनाकर कार्यक्रम करने वाले अधिकतर लोग भाषण तो खूब देते हैं, लेकिन उनके दैनिक व्यवहार और आचरण में अनेक कमियाँ नजर आती हैं । डॉ. आंबेडकर के प्रति श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति उनके सिद्धांतों को अवश्य जानता और मानता है । डॉ. आंबेडकर बौद्ध धम्म में विश्वास रखते थे । बौद्ध धम्म में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए पंचशील का पालन करना अनिवार्य है । पंचशील के अंतर्गत पाँचवा शील है - 'सुरामेरयमज्ज पमादट्ठाना वेरमणि सिक्खापदं समादियामि' अर्थात् 'मैं किसी भी प्रकार की मदिरा का सेवन न करने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ ।' डॉ. सुरेश जी ने अपनी कविता 'एक सच यह भी' में पंचशील का पालन न करने वाले तथाकथित आंबेडकरवादियों के दोहरे चरित्र का यथार्थ चित्रण किया है । उदाहरणार्थ -
पीकर मदिरा मिशन की वे बात करते हैं ।
बाबा साहेब का मिशन भी बर्बाद करते हैं ।।
डॉ. सुरेश जी तार्किकता एवं वैज्ञानिकता के समर्थक हैं । वे अंधविश्वास के कट्टर विरोधी हैं । हिंदुओं में नवप्रचलित करवाचौथ नामक पर्व को वे स्पष्ट शब्दों में बकवास कहते हैं । क्योंकि कहा जाता है कि पत्नी के द्वारा करवाचौथ व्रत धारण करने से पति की दीर्घायु होती है । यदि ऐसा होता, तो कोई स्त्री विधवा क्यों होती ? यही तर्क देते हुए डॉ. सुरेश जी अपनी कविता 'खरी बात' में करवाचौथ से संबंधित धारणाओं को मिथ्या सिद्ध करते हैं । यथा -
बकवास ये करवाचौथ सुनो!
क्यों होती पति की मौत गुनो!
विधवा बन जाती क्यों नारी ?
संघर्ष और सफलता दोनों के बीच गहरा संबंध है । सफलता उसे ही मिलती है, जो संघर्ष करता है । किंतु इसके लिए भी सही दिशा का ज्ञान होना आवश्यक है । यदि संघर्ष सही दिशा में न किया जाए, तो सफलता मिलने की संभावना कम हो जाती है । या फिर सफलता मिलने की अवधि लंबी हो जाती है । लंबी अवधि के कारण संघर्ष करने वाले कुछ लोग निराश हो जाते हैं । निराशा, मानसिक थकान उत्पन्न करती है । ऐसी स्थिति में कुछ लोग आगे बढ़ना बंद कर देते हैं, तो कुछ लोग अपना रास्ता ही बदल लेते हैं । डॉ. सुरेश सौरभ अपनी कविता 'पथिक' के द्वारा निरंतर संघर्ष करने की प्रेरणा देते हैं । उन्होंने इस कविता में सूर्योदय और सूर्यास्त के रूप में संघर्ष की आरंभिक और अंतिम स्थिति का संकेत किया है । उदाहरणार्थ -
हे पथिक! तू थक गया,
बस इतनी दूरी चलने में ।
अभी तो केवल भोर हुई है,
बाकी समय है ढलने में ।
बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी में आस्था रखने वाला व्यक्ति उनके द्वारा लिखे गये हर ग्रंथ में आस्था रखता है । बाबा साहेब भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं । इसलिए आंबेडकरवादी व्यक्ति के लिए संविधान की पुस्तक सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं पठनीय पुस्तक है । संविधान में वर्णित 'मौलिक अधिकार' स्वाभिमान से जीने के लिए उत्साहित करते हैं । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति संविधान की पुस्तक को केवल पढ़ता ही नहीं है, बल्कि दूसरों को भी उसे पढ़ने के लिए प्रेरित करता है । जो लोग आंबेडकरवाद के बारे में भली प्रकार से नहीं जानते हैं, वे आंबेडकरवादियों पर व्यंग्यपूर्ण टिप्पणी करते हैं । लेकिन सच्चे आंबेडकरवादी लोग किसी की व्यंग्यपूर्ण बातों पर ध्यान नहीं देते हैं और वे निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं । कवि डॉ. सुरेश जी ने अपनी कविता 'संविधान' में एक सच्चे आंबेडकरवादी के दृढ़ चरित्र का सुंदर अंकन किया है । यथा :
चला लेकर जो कंधे पर पढ़ाने संविधान को ।
छुपाया था हथेली में वो अपने स्वाभिमान को ।।
मगर कुछ तो कहेंगे लोग अपने व्यंग्यवाणी से ।
लिया ठेका जगाने का है जो सोये समाज को ।।
डॉ. सुरेश सौरभ की कविता 'किरदार' दार्शनिक भावना से परिपूर्ण है । इस कविता में डॉ. सुरेश जी ने मन में होने वाले क्रमिक परिवर्तन का बहुत ही सूक्ष्म एवं गंभीर रूप से उद्घाटन किया है । भारतीय समाज की ऐसी संरचना है कि यहाँ के मनुष्य वर्ण, वर्ग और जाति की भ्रांतियों में आबद्ध हैं । वर्ण, वर्ग और जाति ये सभी मनोविकार हैं । कवि डॉ. सुरेश जी का मानना है कि इन मनोविकारों से कोई व्यक्ति तभी मुक्त हो सकता है, जब वह अपने मन पर नियंत्रण कर ले । जो व्यक्ति अपने मन पर नियंत्रण कर लेता है, वह अपनी सभी ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण करने में सफल हो जाता है । जो व्यक्ति अपनी ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण कर लेता है, वह वर्ण, वर्ग और जाति आदि सभी के बंधनों से मुक्त हो जाता है । डॉ. सुरेश जी के शब्दों में -
मन बने जब सारथी,
रुग्ण न हो इंद्रियाँ ।
प्रेम से घृणा तिरस्कृत,
सद्भाव से असमानता ।
बस समाहित हो सदा,
केवल यहाँ समानता ।
टूट जाए वर्ण,
टूट जाए वर्ग,
टूट जाएँ जातियाँ,
मिट जाएँ भ्रांतियाँ ।
स्पष्ट है कि डॉ. सुरेश सौरभ गाजीपुरी की कविताओं में संवेदना के विविध बिंब परिलक्षित होते हैं । उनकी काव्याभिव्यक्ति का आधार आंबेडकरवादी चिंतन है । डॉ. सुरेश जी की आंबेडकरवादी चेतना वर्ण, वर्ग और जाति की सीमा से बाहर तथा व्यापक है । उनकी दृष्टि में समतावाद आंबेडकरवाद का प्रथम सोपान है । समता की भावना से संपन्न मनुष्य स्वतंत्रता और भाईचारा की भावना से स्वतः संबद्ध हो जाता है । समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय, प्रेम, करुणा, प्रज्ञा, शील और मैत्री आदि आंबेडकरवाद की अवधारणा के बिंदु मात्र ही नहीं हैं, बल्कि ये सभी प्रत्येक मनुष्य की मानसिक आवश्यकताएँ हैं । आंबेडकरवादी आंदोलन का लक्ष्य मनुष्य की इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति करना है । अतः आंबेडकरवाद प्रत्येक मनुष्य के लिए उपयोगी एवं महत्वपूर्ण दर्शन है । आंबेडकरवादी चिंतन से परिपूर्ण होने के कारण डॉ. सुरेश सौरभ गाजीपुरी की कविताएँ संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए हितकर हैं ।
...................दिनांक - 10/10/2023........................
✍️ समीक्षक - देवचंद्र भारती 'प्रखर'
महासचिव - GOAL, संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)