महाकवि एल.एन. सुधाकर के काव्य में आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप

महाकवि एल.एन. सुधाकर एक बौद्ध-आंबेडकरवादी विचारधारा के श्रेष्ठ साहित्यकार हैं । इन्होंने 'बुद्ध सागर' और 'भीम सागर' नामक दो महाकाव्यों की रचना की है । इनके प्रकाशित काव्य संग्रह हैं - 'उत्पीड़न की यात्रा', 'प्रबुद्ध भारती' और 'वामन फिर आ रहा है' आदि । समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' जी के द्वारा 'महाकवि सुधाकर जी के काव्य में आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप' शीर्षक से लिखित एक महत्वपूर्ण आलेख यहाँ प्रस्तुत है ।


महाकवि एल.एन. सुधाकर के काव्य में आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप - ✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर'

आंबेडकरवादी चिंतन का आरंभ डॉ. भीमराव आंबेडकर के जीवनकाल में ही हो गया था । जब डॉ. आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा ग्रहण की, तो उनके साथ लाखों वंचित लोगों ने भी धर्मांतरण किया । डॉ. आंबेडकर ने बौद्ध धम्म को इसलिए अपनाया, क्योंकि बौद्ध धम्म में समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, मैत्री, शीला आदि विशेषताएँ हैं । इसके अतिरिक्त बौद्ध धम्म में ईश्वर और आत्मा के लिए कोई स्थान नहीं है । यही कारण है कि बौद्ध धम्म वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न है । बौद्ध धम्म में शामिल ये सभी विशेषताएँ ही आंबेडकरवादी चिंतन का आधार हैं । 'बुद्ध सागर' और 'भीम सागर' नामक महाकाव्यों की रचना करने वाले महाकवि एल.एन. सुधाकर एक बौद्ध-आंबेडकरवादी विचारधारा के साहित्यकार हैं । उनकी कविता की एक-एक पंक्ति में आंबेडकरवादी चेतना समाहित है । इसका कारण यह है कि महाकवि सुधाकर जी ने अपनी किशोरावस्था से लेकर वर्तमान अवस्था (85 वर्ष की आयु) तक धम्मानुसार जीवन व्यतीत किया है । आंबेडकरवादी चेतना केवल उनकी कविताओं में ही नहीं, बल्कि उनके विचार और व्यवहार में भी परिलक्षित होती है । महाकवि सुधाकर जी की दृष्टि में अत्यंत स्पष्टता है । उन्होंने अपनी कविताओं में अपनी आंबेडकरवादी चेतना और धम्मानुकूल विचारों को हृदय खोलकर प्रकट किया है । महाकवि सुधाकर जी ने अपनी कविता 'उत्पीड़न की यात्रा' में वंचित-वर्ग के लोगों को डॉ. भीमराव आंबेडकर के मार्ग पर चलने तथा बौद्ध धम्म ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया है । यथा -

बोधिसत्व ने दलितों को अंतिम संदेश दिया था ।
बौद्ध धर्म अपनाने का सबको आदेश दिया था ।।
अनाचार, आतंकवाद यदि चाहो आज मिटाना ।
बुद्ध भूमि पर पुनः बुद्ध की शरण में होगा जाना ।। (1)

15 अगस्त 1947 को भारतवर्ष ब्रिटिश शासन से मुक्त हुआ । कहा जाता है कि समस्त भारतीय स्वतंत्र हुये, लेकिन महाकवि सुधाकर जी इस बात का विरोध करते हैं । उनका मानना है कि भारत के बहुसंख्यक लोग अभी भी पराधीन हैं । छुआछूत और जातिगत भेदभाव की परंपरा का अभी भी पालन किया जाता है और बहुसंख्यक लोगों को प्रताड़ित किया जाता है । महाकवि सुधाकर जी ने अपनी कविता 'आजादी' में आजादी को 'महल वालों की रानी' कहा है । उनके ऐसा कहने का आशय यह है कि सन् 1947 में संपूर्ण भारत स्वतंत्र नहीं हुआ, बल्कि यहाँ के पूँजीपति ही स्वतंत्र हुये । यथा  -

छुआछूत की परंपरागत अब तक रीति चली आती है ।
जाति, वर्ग की खाई चौड़ी दिन पर दिन होती जाती है ।।
झोपड़ियों तक आने वाली आजादी की यही कहानी ।
निकल फिरंगी के चंगुल से बनी महल वालों की रानी ।। (2)

महाकवि सुधाकर जी विषमता, द्वेष और भेदभाव को समाप्त करने के लिए कर्मठ जनों का आह्वान करते हैं तथा इस नये युग को नया मोड़ देने के लिए प्रेरित करते हैं । उन्होंने 'निराकरण' कविता में समता और एकता के सूत्र में सबको जोड़ने का संदेश दिया है । यथा -

विषमता हर क्षेत्र में जो आज है ।
द्वेष दूषित यों सकल समाज है ।।
भेद भाषा क्षेत्र का बढ़ने लगा ।
हो रहा खंडित अखंडित ताज है ।।
सूत्र समता एकता को जोड़ दो ।
इस नये युग को नया अब मोड़ दो ।। (3)

एक महान कवि किसी एक समुदाय, किसी एक वर्ग अथवा किसी एक धर्म के कल्याण की बात नहीं करता है, बल्कि एक महान कवि हर एक मनुष्य के कल्याण की कामना करता है । महाकवि सुधाकर जी से किसी मनुष्य की निर्धनता देखी नहीं जाती है । उन्होंने अपनी कविता 'लोकराज' में अवारापन के प्रति क्षोभ प्रकट किया है । उनकी अभिलाषा है कि सभी नर-नारी परिश्रम करें । महाकवि सुधाकर जी सामाजिक न्याय के पक्षधर हैं । उदाहरणार्थ -

मेहनतकश हों सब नर-नारी, कोई न यहाँ आवारा हो ।
न्यायालय न्याय करे सच्चा, अन्याय न कभी गवारा हो,
मिट जाए गरीबी की रेखा, धन-धरती का बँटवारा हो ।। (4)

आंबेडकरवादी चिंतन की सीमा केवल बौद्ध धम्म और सामाजिक क्रांति तक ही नहीं है, बल्कि राष्ट्रहित और राष्ट्ररक्षा का भाव भी आंबेडकरवादी चेतना की प्रमुख विशेषता है । आंबेडकरवादी चेतना की यह विशेषता महाकवि सुधाकर जी की कविता में स्पष्ट दिखाई देती है । 'हमारी एकता' कविता से । यथा -

मातृभूमि की रक्षा करना पहला धर्म हमारा ।
'जीओ और जीने दो' सम्यक यही हमारा नारा ।। (5)

धर्म के प्रति सुधाकर जी की धारणा बिल्कुल स्पष्ट है । उन्होंने धर्म की मूल अवधारणा को ध्यान में रखते हुए अपनी कविता 'दीपशिखा' में सद्धर्म को परिभाषित किया है । महाकवि सुधाकर जी की दृष्टि में सद्धर्म वही है, जो जन-जन का कल्याण करे । सुधाकर जी के शब्दों में -

धर्म वह हो नहीं सकता, जो बोये बीज नफरत के, 
करे कल्याण जन-जन का, उसे सद्धर्म कहते हैं । (6)

धर्म जोड़ने का कार्य करता है, तोड़ने का नहीं । लेकिन जो धर्म के धंधेबाज लोग हैं, वे धर्म के नाम पर लोगों को बाँटते हैं, समाज को तोड़ते हैं । महाकवि सुधाकर जी ऐसे धर्म के धंधेबाजों की कड़ी आलोचना करते हैं । उनका मानना है कि धर्म के धंधेबाजों ने देश की दुर्गति की है । अपनी कविता 'धर्म के धंधेबाज' में वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं -

राजनीति से धर्म को जोड़ा, धर्म के धंधेबाजों ने,
गंगाजल में गरल निचोड़ा, धर्म के धंधेबाजों ने ।
निर्मल दर्पण सा दिल तोड़ा, धर्म के धंधेबाजों ने,
नहीं कहीं का देश को छोड़ा, धर्म के धंधेबाजों ने ।। (7)

बाबा साहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर का यह मानना था कि जुल्म करने वाले से बड़ा गुनहगार जुल्म सहने वाला होता है । महाकवि सुधाकर जी का भी यही मानना है । 'शोषित' नामक कविता में वे शोषितों की दुर्दशा के लिए स्वयं शोषितों को ही जिम्मेदार मानते हैं । सुधाकर जी कहते हैं कि शोषित लोग स्वयं शोषकों के जाल में बसे हुये हैं । यथा :

जहाँ तक सवाल है शोषितों के हाल का, 
फँसे हुए सदियों से शोषकों के जाल में ।
निगल न पाएँ पर छोड़ भी तो रहे नहीं, 
पिसे जा रहे हैं क्रूर काल ही के गाल में ।। (8)

राजनेताओं तथा राजनैतिक मानसिकता वालों ने आरक्षण के विषय में इतना भ्रम फैला रखा है कि सामान्य लोग आरक्षण को दान अथवा अहसान समझते हैं । लोगों का यह भ्रम दूर करने के लिए महाकवि सुधाकर जी आरक्षण के सही तात्पर्य का स्पष्टीकरण करते हैं । वे बताते हैं कि आरक्षण कोई दान नहीं है, बल्कि अधिकार है और यह बाबा साहेब के संघर्ष का परिणाम है । सुधाकर जी कहते हैं कि 'आरक्षण' वास्तव में वंचितों के संरक्षण हेतु रक्षा-कवच की तरह है । कवि सुधाकर जी के द्वारा रचित यह कुंडलिया छंद द्रष्टव्य है -

आरक्षण अधिकार है, नहीं दान अहसान ।
दिलवाया है भीम ने, कर संघर्ष महान ।।
कर संघर्ष महान, हमें अधिकार दिलाया ।
स्वाभिमान सम्मान से जीना हमें सिखाया ।।
कहें सुधाकर सुनो, शोषितों का संरक्षण ।
भीम कृपा से मिला, वंचितों को आरक्षण ।। (9)

बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का मिशन न तो केवल धम्म दीक्षा है, न ही केवल राजनैतिक सत्ता है, न तो केवल शिक्षा है, न ही केवल समाज सेवा है । केवल साहित्य-सृजन भी आंबेडकर-मिशन नहीं है । बाबा साहेब का मिशन संपूर्णता में है । अर्थात् इन सभी क्षेत्रों में सामान रूप से आंबेडकरवाद का आधिपत्य होना चाहिए । बाबा साहेब ने अगर शिक्षित बनने, संगठित होने और संघर्ष करने के लिए कहा, तो इस पर भी विचार करने की आवश्यकता है । शिक्षित किसलिए होना है ? संगठित क्यों होना है और संघर्ष किसके लिए करना है ? इन्हीं बातों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए कवि एल.एन. सुधाकर जी ने अपनी कविता 'क्या मिशन इसी को कहते हैं ?' में मिशनरी लोगों से बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न किया है । यथा :

बाबा ने कहा, शिक्षित होकर संगठित बनो, संघर्ष करो ।
दलितों अपना लो बौद्ध धम्म, उठ जागो, तुम उत्कर्ष करो ।।
न बौद्ध बने, न एक हुये, संघर्ष तो करना दूर रहा ।
आंबेडकरवादी सोचो तो, क्या मिशन इसी को कहते हैं ? (10)

स्पष्ट है कि कवि एल.एन. सुधाकर जी के काव्य में आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप बिल्कुल शुद्ध और स्पष्ट है । उनकी काव्य-दृष्टि आंबेडकरवाद के मूल सिद्धांतों पर आधारित है । उनके काव्य का प्रयोजन आंबेडकरवाद को सम्यक रूप में प्रचारित-प्रसारित करना है । उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से समाज और राष्ट्र के उत्थान के लिए जनमानस को प्रेरित किया है । कवि सुधाकर जी समस्त मनुष्यों के कल्याण हेतु आंबेडकरवाद को महत्वपूर्ण मानते हैं । उनकी दृष्टि में आंबेडकरवाद के अंतर्गत बुद्धवाद, बहुजनवाद, समतावाद, आदर्शवाद, यथार्थवाद आदि सभी वादों का समावेश है । कवि सुधाकर जी के साहित्य का सम्यक विश्लेषण करने के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है कि उनका काव्य-चिंतन आंबेडकरवाद की परिधि से बाहर तनिक भी नहीं है ।


संदर्भ :-

(1) उत्पीड़न की यात्रा - एल.एन. सुधाकर, पृष्ठ 16, सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2022
(2) वही, पृष्ठ 20
(3) वही, पृष्ठ 37
(4) वही, पृष्ठ 39
(5) वही, पृष्ठ 41
(6) वही, पृष्ठ 53
(7) वही, पृष्ठ 56
(8) वही, पृष्ठ 61
(9) प्रबुद्ध भारती - एल.एन. सुधाकर, पृष्ठ 43, रतन प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2008
(10) वही, पृष्ठ 56

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