सजल-संग्रह 'अब वैसा न हो' की समीक्षा

हिंदी साहित्य में काव्य रस धारा, शताब्दियों से प्रवाहित होती रही है । पूर्ववर्ती काल में दोहा, चौपाई, सवैया, सोरठा, कवित्त, पद, कुंडलनियां आदि मान्य और प्रचलित विधाएं रहीं, किंतु खड़ी बोली का प्रादुर्भाव होने पर छंद युक्त और छंद मुक्त दोनों ही शैलियों में काव्य रचा जाने लगा । जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर प्रभृति कवियों ने कालजयी काव्य सृजन किया । समय के साथ तुकांत, अतुकांत कविता और गीत आदि विधाएँ विकसित हुईं ।

वहीं हिंदी के समानांतर उर्दू अदब भी विकसित होता रहा । मगर गौर करने वाली बात यह है कि गालिब, मीर, फैज़, साहिर, कैफ़ी आज़मी, ज़िगर, शकील, फ़िराक आदि लगभग सभी शायरों ने अपने कलाम या तो गज़ल में लिखे या फिर फुटकर अशआर शैली में । आधुनिक हिंदी काव्य में भी कविता रची जा रही है, तो मुक्तक, तुकांत, अकविता, और गीत शैली में ही । 


गत कुछ वर्षों से यह चर्चा में रहा है कि उर्दू की ग़ज़ल के समानांतर क्यों न हिंदी में भी गज़ल लिखी/पढ़ी जाय, जिसमें गज़ल की ही तरह सरल शब्दों में, सटीक ढंग से एक बात/विषय को अलग-अलग अंदाज में प्रस्तुत किया जाय, जिससे वह अधिक लोकग्राही हो सके और कवि सम्मेलनों का हिस्सा भी बन सके । गत कुछ समय से हिंदी साहित्य में इस तरह की कविता लिखने का उपक्रम प्रारंभ हो गया है , जिसे "सजल" नाम दिया गया है । डा.राम मनोहर राव "मनोहर" का ताजा कविता संग्रह इसी परंपरा को स्थापित करने का सशक्त प्रयास है ।

साहित्यकार का उद्देश्य स्वांतः सुखाय की रचना करने से कहीं बढ़कर बहुजन हिताय होना चाहिए और डाॅ. राव ने इसी को ध्यान में रखते हुए सजलों की रचना की है । इस संग्रह में कुल 56 सजलें हैं, जिनमें अधिकांश में आंबेडकरवादी चेतना ही मुख्य स्वर है । कहीं वे समाज की दशा के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं, तो कहीं समाज को दिशा दिखाने का कार्य भी करते हैं ।

संग्रह की प्रथम सजल वंचितों की वर्तमान स्थिति की ओर संकेत करती है  । "निर्दोष तब भी थे, निर्दोष आज भी हैं, बेचैन तब भी थे हम, बेचैन आज भी हैं"  । यूँ तो दलित समाज बहुसंख्यक है, किंतु अशिक्षा, आडंबर में उलझे रहने के कारण शोषक-वर्ग के इशारों पर नाच रहा है । (सजल संख्या 2)

"वो बेखौफ आजादी से करते अपने काम, हम भी तो उन्हीं का एहतराम कर रहे हैं । बावजूद उनकी कथनी और करनी में फर्क, मुकाबिल नहीं, उन्हीं को कर सलाम रहे हैं । (सजल सं 5)

बाबा साहेब की अनुपम देन भारत का संविधान इन सबसे निपटने की राह सुझाता है, अपने अधिकारों, कर्तव्यों का भान कराता है ।

"शिक्षा ही जगाती जिज्ञासा इंसान में, शिक्षित हों सभी, बाबा साहेब ने कहा,

हो विरोध अन्याय का , स्वाभिमान जागे, मक़सद यही संविधान लिखने का रहा. " सजल संख्या (8)

कवि मनोहर, शिक्षा के साथ-साथ, संगठन और संघर्ष की महत्ता को भी रेखांकित करते हैं ।

"झुकाए सिर हाथ फैलाए बिताया वक्त तमाम, 

हौसले हैं बुलंदियों पर संगठित चेतना के बाद ।

संख्या में हैं भारी भरकम, पर एकता क्यों नही, 

मनोहर पाएंगे मंजिल संग संग, संघर्षों के बाद  ।

(सजल संख्या 10)

डा. राव कहते हैं, हमें आत्ममंथन करते हुए अनुशासित रहकर उत्साहपूर्वक, संविधान की छत्रछाया में कार्य करना होगा ।

"दिखें भले ही कम, है सदियों की सोच, कुछेक को गिरा के कुछ होगा क्या,

अपनों में ऊंच-नीच, असमानता कैसी, हौसले बिन मुहिम छेड़ने से होगा क्या, 

भीड़ का होता नही अनुशासन, न लक्ष्य, अपनी ढपली अपना राग से होगा क्या ?

(सजल संख्या 24)

आचरण कर्म कोई सा आडंबर छोड़ो तो सही

राह मानवता की चुनो, पाखंड छोड़ो तो सही  

(सजल संख्या 35)

डाॅ. राव आज की राजनीतिक स्थिति की विवेचना करते हुए कहते हैं कि इतने संघर्षों के बाद मिली ये राजनीतिक आजादी, बिना सामाजिक आर्थिक समानता और संसाधनों के सम्यक वितरण के, व्यर्थ है ।

"लोकतांत्रिक देश में, काले कारनामे कैसे कैसे, 

जनता हुई बेहाल, जुल्म अन्याय सहते सहते।

कुर्बानी व्यर्थ जाएगी आजादी के दीवानों की,

सपने हुए काफूर, मुख्य धारा में बहते बहते।

चालीस फीसदी संपत्ति ,एक फीसदी के पास ,

"मनोहर" भरे खजाने, राष्ट्र  आपदा दुहते दुहते। 

( सजल संख्या 12)

आगे कहते हैं राजनीति, दूषित हो चुकी है और नीति नियंताओं की नीयत संदेह से परे नहीं है ।

"जो पांच साल पे करते थे वादे, अब उनको अपनों की पड़ी है, 

लगता है सबकी एक ही मंशा, कुछ जली कुछ बुझी ये लड़ी हैं।

(सजल संख्या 14)

जिसकी जैसी फितरत, हो जाते कहीं पे शुरू, 

करते हैवानियत, गला इंसानियत का मरोड़।

विधायक दलों से यूं टूटते, जैसे फल पेड़ से

देखिए लोकतंत्र में,है कैसा आता ये मोड़।

कोई जोड़े भारत , कोई जोड़े नेता मनोहर, 

अरे! मानवता के निमित दिलों को तो जोड़।। 

(सजल संख्या 15)

नारी सशक्तीकरण की आवश्यकता और महत्ता के बारे में कवि "मनोहर" का स्पष्ट मत इन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है -

स्वयं अपने हिस्से का प्यार और बांटती चीजें हों,

जान छिड़कती बहन बड़ी, कोई कैसे भूल सके।

जीवन के हर मोड़  जो साथ खड़ी पूर्ण समर्पित, 

पत्नी जो जीवन भर दे साथ, कोई कैसे भूल सके।

बेटी जो मां बाप की प्रतिकृति, हो उनकी अरमान,  

रखती सदा जो ध्यान हमारा कोई कैसे भूल सके।

दुनिया की आधी आबादी का सच पूर्ण "मनोहर"

स्त्री बिन पुरुष अधूरा, कोई कैसे भूल सके। 

(सजल संख्या 49)

दिया महिला ने जन्म, नर हो या नारी,

जननी सबकी पर सभी ने इन्हें छला।

देवदासी, दहेज, बलि, सती प्रथा दारुण, 

कन्या भ्रूण हत्या जैसी फिर आई बला।

बावजूद सबके नारी ने हिम्मत न हारी, 

संविधान के कारण फिर बढ़ा हौसला।

समता संग पा कर शिक्षा, वे बनीं सशक्त,

बढ़ चलीं, उन्नति का चहुं ओर सिलसिला।

दुर्व्यवहार नही बल्कि इन्हें सम्मान दिला, 

पुरुष संग चलें महिला कंधे से कंधा मिला।  

(सजल संख्या 33)

अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों जैसे युद्ध विभीषिका पर डाॅ. राव चुप नहीं हैं -

एक देश दूसरे का अस्तित्व मिटाने को तुला, 

हो अमन ओ चैन, हैवानियत न छोड़ रहा।

अंतर्राष्ट्रीय संगठन को धता बता रहा जबरा,

बेकसूर फंसे बच्चे, रूस यूक्रेन को मरोड़ रहा।

क्षुद्र स्वार्थ की खातिर चुप हैं सशक्त देश,

मानवता हो कायम, क्यों न दिलों को जोड़ रहा।

( सजल संख्या 38)

डाॅ. साहेब की यह सजल मशाल जैसे रोशनी दिखाती है - 

राहत हूँ, न गुलजार, पर लिखने में लगा हूँ 

लोगों के दिलों तक बात पहुंचाने में लगा हूँ,

शासक, न सुधारक, पत्रकार न पैगंबर,

समतामूलक विचार फैलाने में लगा हूँ ।

ज़्यादातर ऐसे, टूट गए हैं हौसले जिनके,

उठा सकें सवाल, जुबां खुलवाने में लगा हूं

मुश्किलों का हल,"मनोहर "ज्ञान संविधान से,

आंबेडकर वादी साहित्य पढ़वाने में लगा हूँ । 

(सजल संख्या 11)

इस संग्रह में जल, सूर्य आदि शक्तियों पर भी सजल हैं -

दो तिहाई धरती, भरा पानी ही पानी

जीवन का आधार भी होता यह पानी।

कहते आंसू जब यह आंखों से बहता, 

दुख सुख दोनों हालत आंखों से पानी।

तीनों रूप ठोस, द्रव गैस ये कर ले धारण,

 गर्म भाप से बादल, हिम पिघलने, तो पानी।

वर्षा में खुश कुदरत ही धरती हरी भरी, 

भरें पोखरे, तुम भी  करो इकठ्ठा पानी।

इंसान में प्यास जगी "मनोहर" कैसी कैसी,

 स्वार्थी हुए खून के प्यासे , खून हुआ पानी। 

(सजल संख्या 13,)

ढलता नहि सूरज, नहि जाए अस्ताचल,

घूम घूम कर धरती रुख लेती है बदल।

पहले तो गर्मजोशी से मिलते हैं लोग, 

इंसान फितरती, बदल जाए अगले पल।

धरती और सूरज का यूं प्रेम "मनोहर" ,

हों दिन रात, घूमती पहलू बदल बदल।

(सजल संख्या 16)

पर्यावरण के महत्व को रेखांकित करती कुछ पंक्तियां ..

मुकम्मल थी मौजूदगी, वो दरखतों की छांव, 

बसाने को शहर कंक्रीट का, कटा बाग बेचारा।

कभी बाढ़ कभी सूखा कभी जहरीली हवा, मिट्टी कटान कैसे रुकेगी, ये क्यों न विचारा।

जंगल बिना वन्य जीव जंतु परिंदे रहें जहां, ऑक्सीजन, मानसून के बनते ये पेड़ सहारा।

करें पेश सब ऐसे उदाहरण कर पक्का इरादा,

कटे यदि एक पेड़ तो नए लग जाएं दस बारा। (सजल संख्या 3)

वायु प्रदूषण पर भी चेतावनी दी है डाॅ. राव ने । देखें ..

प्रदूषण फैलाने में माहिर है हर इंसान यहां , 

फैक्ट्रियों, वाहन के धुएं से ही जहरीली हवा ।

जरा देर के मजे को फोड़ते बम और पटाखे, 

शायरी संग धुआं करे बेदम, बने दूषित जो हवा।

ये हवा कुदरत की बेशकीमती नियामत, 

"मनोहर" गरीब अमीर में फर्क न करती हवा। 

(सजल संख्या 20)

कोरोना जैसी महामारी,  इसके दुष्परिणाम और मास्क आदि की महत्ता पर भी कवि मनोहर मुखर हैं । देखें -

यूँ लगा धरा पर कुछ नहीं था, 

त्रस्त सभी, वक्त कुछ यूं गुज़रा।

प्रताड़ित थमती मायूस जिंदगी, 

असर कोविड साजिश का गहरा।

सबसे बड़ी त्रासदी, मानवता चीखी ,

कहर श्रमिकों पे जब पैदल गुज़रा।

आते जाते दृश्य ये क्या दिखलाया, 

सड़कों पे किसान, होते ठंड कोहरा। 

(सजल संख्या 26)

मिलते थे गले तपाक से, पास वो आ के, 

हाथ मिलाए बिन बस नमस्ते कह गए।

होंगे अजीब हालात, कचहरी में गवाह के,

 कहे ,पहचान  मास्क से मुजरिम छिपा गए।

जिंदा जैसे रहे मर के उठे कंधों पे चार के, 

डाला कूड़े गाड़ी में, इंसानियत से गिर गये। 

(सजल संख्या 9)

हमारे देश की वर्तमान स्थिति किसी से छुपी नहीं है । कवि "मनोहर" वस्तुस्थिति से सजग हैं और इन सजलोंं में कहते हैं -

जुल्म ढाते आए यूं पहले से लोग,

मीठी जुबां भविष्य पे तीर चलाते हैं ।

वे माहिर हैं भड़काने में जज़्बात,

 बिन पानी, रेत में फूल खिलाते हैं।(42)

वक्त संग वो बदले, पर पिछड़े न बदले, 

अफीम ली धर्म की, समझे ना चालाकियाँ ।

कारण पूर्ण बहुमत, संविधान हो उपेक्षित, 

लोकतंत्र चोटिल, छापे संग मिले धमकियाँ ।

भोजन करें झोपड़े में, हरिया संग क्यों,

मनोहर समझ में आने लगी बारीकियाँ । (40)

किसी को लूट, इमदाद बताना ठीक नहीं,

कर बर्बाद किसी को, आबाद बताना ठीक नहीं ।

माना कि तपन सहता है खरा सोना भी, 

पर किसी के जज्बातों को जलाना ठीक नहीं।

मनोहर उसूलों पे चलना ही होती है इबादत, 

महज़ फूल मूरत पे चढ़ाना ठीक नहीं (41)


कवि मनोहर की कामना वंचितों, दलितों को खुशहाल  देखने की है, मगर सामने दुश्वारियां बहुत हैं-

चुभन जब टूटे सपनों की, खुशहाल हों कैसे, 

घुटन जब बढ़ते जुल्मों की, खुशहाल हों कैसे

शिक्षा से मिलता ज्ञान, हुई गरीब की पहुंच से दूर, 

व्यवस्था में न मिले रोजगार, खुशहाल हों कैसे ।

योग्यता नहीं रही निर्णायक, जाति धर्म आधार,

छिन गए रोजगार मनोहर, खुशहाल हों कैसे ।  

(सजल संख्या 37)

संवैधानिक हित हमारे वो लोग कैसे गटक रहे, 

उनके बहकावे में आ वंचित कैसे भटक रहे ।

सरकारी महकमों में आरक्षण से मिलते जॉब,

बिक रहे सरकारी विभाग, जॉब तो सटक रहे। 

(सजल संख्या 36)

भोली जनता त्राहि त्राहि भले करें

काला धन पड़ा, वहीं उसे न ला पाए।

मंहगाई की मार से जनता त्रस्त रहे,

दर्द शोषण का दे मंद मंद मुस्काए।

संविधान प्रदत्त अधिकार हो रहे व्यर्थ,

जो करें विरोध, सजा राजद्रोह की पाए।

(सजल संख्या 34)

हमारी धार्मिक कुरीतियां, हमें पीछे ले जाती हैं । उनसे छुटकारा पाना ही एकमेव उपाय है -

करते रहे कर्म काण्ड, सिखाए थे जो भी तुमने,

किए आडम्बर पाखंड तब,पर अब वैसा न हो।

पूजा से मिले मोक्ष मुक्ति, कहा जीवन का लक्ष्य, 

पत्थर को भय से  रहे पूजते , पर अब वैसा न हो।

थी श्रमण संस्कृति, करनी पड़ी बेगारी बन बंधुआ, 

तब पशुवत जीते थे जीवन, पर अब वैसा न हो। 

(सजल संख्या 53)

जैसे हैं वे, वैसे ही ये क्यों  हो नहीं सकते,

जी वैसे थे, बदल के ऐसे क्यों हो नहीं सकते।

इजाज़त नही थी, शिक्षा की व्यवस्था में तुम्हारी, 

पा संविधान से हक़, विद्वान क्यों हो नहीं सकते।

सम्मान प्रेम पाकर बुझे दिल भी जाते खिल,

हौसला पाते मनोहर सफल क्यों हो नहीं सकते। 

(सजल संख्या 55)

बाबा साहेब डाॅ. भीम राव आंबेडकर और मान्यवर कांशीराम के योगदान को भी कवि मनोहर ने इन सजलोंं के माध्यम से भली-भाँति समझाया है -

दुख तमाम झेल कर जो स्वयं हुए बड़े,

वंचितों को हक मिले वो सदा रहे अड़े।

शिक्षित बनो प्रत्येक, कहा रहने को संगठित, 

हमें अधिकार मिलें अपने, यहां न बिन लड़े।

बाबा साहेब ने प्रावधान किया संविधान से,

असमानता, छुवा छूत पे, जड़े खूब हथौड़े।

शिक्षा , अभिव्यक्ति का दिलाया वंचितों को हक़,

महिलाओं को हक मिला ताकि पैरों पे हों खड़े। 

(सजल संख्या 44)

बड़ी जनसंख्या फिर भी अन्याय सहें शोषित जन, 

पंद्रह पचासी के नारे से छंटा जाहिली का कोहरा।

जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी, 

राजनीति में इस नीति के आगे कोई कहां ठहरा। 

(सजल संख्या 31)

डाॅ. मनोहर कवि समस्त समस्याओं का समाधान संविधान के अनुपालन में और करुणा मैत्री भरे धम्म, जिसमें त्रिशरण पंचशील के सम्यक अनुशीलन में मानते हैं -

स्वयं तर्क से चुन लो तुम माध्यम मार्ग,

प्रज्ञा, वैज्ञानिकता सब में हो सरताज।

"मनोहर" पंचशील तुम कर लो पालन,

बुद्धमय भारत, उन्नत बने समाज ।

(सजल संख्या 46)

करुणा मैत्री के भाव जगेंगे, बढ़ते ही ज्ञान,

,ज्ञान विवेक से आए चेतना, यूं ही कढ़ो नहीं।

स्वयं पे सब निर्भर अपना दीप बनो स्वयं तुम, 

पढ़ो साहित्य, संविधान कूड़ा कचरा पढ़ो नहीं।

(सजल संख्या 32)

कवि मनोहर अपने अंदाज में आशा जगाते हुए उदघोष करते हैं -

फिज़ा में जो खुशबू, संदेशों की तेरे महक होगी, 

रहें हुई रोशन को, रुखसार की तेरे दमक होगी।

कौंधने लगी बिजली सी, उजालों से राहें रोशन, 

मुस्कराते खुशहाल चेहरों की चमक होगी।

ये जो आने लगी धुन कानों में, मनोहर सुन, 

नमो बुद्धाय, जयभीम कहने वालों की चहक होगी।


डाॅ. राम मनोहर राव "मनोहर" का यह सजल संग्रह भावनाओं के उद्वेग से भरा है, जिसमें वंचितों की विचारोत्तेजकता भी है और वस्तुस्थिति का संयत, संतुलित विवेचन भी। साथ ही कवि बाबा साहेब रचित संविधान को पथ प्रदर्शक मानते हुए धम्म के सम्यक अनुशीलन को  ही समुचित मार्ग मानते हैं ।मेरी सम्मति में उक्त सजल संग्रह, आंबेडकरवादी साहित्य में महत्त्वपूर्ण होगा और इसकी विकास यात्रा में मील का एक पत्थर भी ।

मैं डाॅ. मनोहर को साधुवाद देता हूँ । साथ ही उनकी इस कृति की सफलता की शुभकामना भी ।


✍️  डाॅ. रमेश कुमार

भा. रा. से.प्र, धान आयकर आयुक्त (से.नि.)

अहमदाबाद

दिनांक - 04 अक्टूबर 2023


एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने