महाकवि एल.एन. सुधाकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित यह लेख 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका का संपादकीय लेख है । यह लेख मूल रूप में यहाँ प्रस्तुत है ।
महाकवि एल.एन. सुधाकर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
अपने लिखे जैसा नहीं जो कर सके,
वह क्यों लिखे, उसको नहीं अधिकार है ।
ग़ज़ल-संग्रह 'लज़्ज़त-ए-अलम' में संग्रहीत इस शेर का भावार्थ यह है कि जो साहित्यकार अपने लिखे हुये जैसा कार्य नहीं कर सकते हैं, उन्हें लिखने का कोई अधिकार नहीं है । किंतु ऐसे साहित्यकारों की भरमार है, जो लिखते कुछ और हैं, करते कुछ और हैं । साहित्यकार वही है, जो साहित्य का सृजन करता है । 'साहित्य' के मूल में 'सहित' (स+हित) शब्द है । जिससे मानव-समाज, देश और विश्व का हित हो, वही साहित्य है । समाज का अहित करने वाला 'साहित्य' नहीं, बल्कि 'आहित्य' है । वर्तमान में इस प्रकार का साहित्य अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध है, जो समाज में अंधविश्वास, पाखंड, कर्मकांड, मूर्तिपूजा, नायकपूजा, धर्मांधता, अश्लीलता, विघटन, वैमनस्यता, समुदायवाद, जातिवाद, लिंगवाद आदि को बढ़ावा दे रहा है । ऐसे समय में भी सम्यक साहित्य का सृजन करने वाले कुछ साहित्यकार हैं, जो अत्यंत दुर्लभ हैं । उन्हीं दुर्लभ साहित्यकारों में एक साहित्यकार हैं - महाकवि एल.एन. सुधाकर जी ।
महाकवि एल.एन. सुधाकर का पूरा नाम लक्ष्मी नारायण सुधाकर है । अपने जीवन के युवाकाल में आंबेडकरवाद से प्रभावित होने के उपरांत इन्होंने अपने नाम में निहित हिंदू देवी-देवता के नाम वाले शब्दों को संक्षिप्त रूप दे दिया । इनके पूर्वज कबीरपंथी थे, इसलिए आंबेडकरवाद को समझने में इन्हें अधिक कठिनाई नहीं हुई । क्योंकि कबीर के दार्शनिक-सिद्धांत तथागत बुद्ध के दार्शनिक-सिद्धांत से संबंधित हैं और बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के दार्शनिक सिद्धांतों का भी तथागत बुद्ध के दार्शनिक सिद्धांतों से घनिष्ठ संबंध है । आंबेडकरवाद को समझना सामान्य व्यक्तियों के वश की बात नहीं है । लेकिन जब आंबेडकरवाद की हवा चारों ओर बहने लगी, तो सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी अपने आपको गर्व से आंबेडकरवादी कहने लगा । इस कारण से आंबेडकरवाद के संबंध में जनमानस में अनेक भ्रम व्याप्त हैं । आंबेडकरवाद का भ्रम सामान्य व्यक्तियों के अतिरिक्त साहित्यकारों में भी देखने को मिलता है । ऐसे बहुत से साहित्यकार हैं, जो स्वयं को आंबेडकरवादी कहते हैं । जबकि उन्हें ठीक से आंबेडकरवाद का क-ख-ग भी नहीं पता है । महाकवि एल.एन. सुधाकर जी एक ऐसे साहित्यकार हैं, जो केवल आंबेडकरवाद की पूरी वर्णमाला ही नहीं जानते हैं, बल्कि इन्हें आंबेडकरवाद का व्याकरण, आंबेडकरवाद का भाषा-विज्ञान, आंबेडकरवाद का इतिहास, आंबेडकरवाद का भूगोल, आंबेडकरवाद का सामाजिक विज्ञान आदि सब भली-भाँति पता है ।
महाकवि एल.एन. सुधाकर ने आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण दो महाकाव्यों की रचना की है - 'बुद्ध सागर' और 'भीमसागर' । इन महाकाव्यों के अतिरिक्त सुधाकर जी के अन्य काव्य-संग्रह हैं - 'उत्पीड़न की यात्रा', 'आंबेडकर-शतक', 'प्रबुद्ध भारती', 'वामन फिर आ रहा है' । बौद्ध धम्म और आंबेडकर-दर्शन के मूल सिद्धांतों को ध्यान में रखते हुए महाकवि एल.एन. सुधाकर ने मानव-कल्याण हेतु सुंदर एवं सरस काव्य का सृजन किया है । प्रज्ञा, करुणा, शील, प्रेम और मैत्री के संदेश को जन-जन तक पहुँचाना ही इनके काव्य का प्रयोजन है । आंबेडकरवादी साहित्य के इस पुरोधा साहित्यकार में अनेक साहित्यिक, धाम्मिक एवं सामाजिक विशेषताएँ प्रबल रूप में विद्यमान हैं । फिर भी इस महान साहित्यकार की उपेक्षा की गयी है । सुधाकर जी के साहित्य पर न तो अभी तक कोई शोध-कार्य हुआ है और न ही इनके साहित्य पर कोई समीक्षात्मक/आलोचनात्मक पुस्तक लिखी गयी है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका का यह वर्तमान अंक महाकवि एल.एन. सुधाकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित इस प्रकार के अभाव की पूर्ति का एक प्रारंभिक प्रयास है ।
प्रस्तुत अंक में महाकवि एल.एन. सुधाकर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से संबंधित विचार, लेख, शोध-पत्र, साक्षात्कार, संस्मरण तथा इनके प्रतिनिधि काव्य का संकलन किया गया है । आशा है, यह अंक पूर्व अंकों की भाँति आंबेडकरवादी साहित्य के पाठकों को पसंद आएगा तथा शोधार्थियों एवं समालोचकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
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संपादकीय