कांशीराम जी एक राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक थे । उनका जन्म 15 मार्च 1934 को हुआ था तथा देहांत 9 अक्टूबर 2006 को हुआ ।
मान्यवर कांशीराम के जन्मदिन पर विशेष
साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' द्वारा 15 मार्च 2024 को यह टिप्पणी की गयी थी, जो विचारणीय है ।
आज (15 मार्च) एक ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन है, जिसने बुद्ध के बहुजन की अवधारणा को संकुचित करके केवल एससी, एसटी, ओबीसी तक सीमित कर दिया । जिसने लल्लुओं को नेता बना दिया और घर-घर नेता होने के कारण समाज का जुड़ना मुश्किल हो गया । उस व्यक्ति का नाम है - कांशीराम । कांशीराम ने बसपा की स्थापना की, लेकिन उन्होंने अपने परिवार के किसी सदस्य अथवा रिश्तेदार को बसपा का उत्तराधिकारी नहीं बनाया । उन्होंने दलित वर्ग की एक महिला को बसपा का अध्यक्ष बनाया । जबकि उस महत्वाकांक्षी महिला मायावती ने बसपा का उत्तराधिकारी अपने ही भतीजे को बनाया है । कांशीराम ने जातिवाद की राजनीति को जन्म दिया, लेकिन उनके मन में परिवारवाद, भाई-भतीजावाद की भावना नहीं थी । उनकी इस सामाजिक भावना का मैं सम्मान करता हूँ । - देवचंद्र भारती 'प्रखर', 15/03/2024
कांशीराम ने पहली बार जातिगत भेदभाव का अनुभव कब किया ?
कांशीराम जी ने ऑफिस में देखा कि जो कर्मचारी डॉ. आंबेडकर का जन्मदिन मनाने के लिए छुट्टी लेते थे, उनके साथ ऑफिस में भेदभाव किया जाता था । वे इस जातिगत भेदभाव को ख़त्म करने के लिए 1964 में एक सामाजिक कार्यकर्ता बन गए थे । बताया जाता है कि उन्होंने यह निर्णय डॉ. आंबेडकर की किताब "एनीहिलेशन ऑफ कास्ट" को पढ़कर लिया था । कांशीराम को बी.आर. आंबेडकर और उनके दर्शन ने बहुत प्रभावित किया था ।
BAMCEF की स्थापना और उद्देश्य
कांशीराम ने शुरू में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) का समर्थन किया था, लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़े रहने के कारण उनका भंग हो गया था । इस कारण से उन्होंने 1971 में अखिल भारतीय एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक कर्मचारी संघ की स्थापना की, जो कि बाद में चलकर 1978 में BAMCEF बन गया था ।
BAMCEF एक ऐसा संगठन था, जिसका उद्देश्य अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य वर्गों और अल्पसंख्यकों के शिक्षित सदस्यों को आंबेडकरवादी सिद्धांतों का समर्थन करने के लिए राजी करना था । BAMCEF न तो राजनैतिक, न ही धार्मिक संगठन था ।
BAMCEF ने दलित वर्ग के उस संपन्न तबके को इकठ्ठा करने का काम किया, जो कि ज्यादातर शहरी क्षेत्रों, छोटे शहरों में रहता था और सरकारी नौकरियों में काम करता था । साथ ही, अपने-अपने अछूत भाई-बहनों से भी किसी तरह के संपर्क में नहीं था ।
इसके बाद कांशीराम ने सन् 1981 में एक और सामाजिक संगठन बनाया, जिसे दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएसएसएस, DSSS या DS4) के नाम से जाना जाता है । उन्होंने दलित वोट को इकठ्ठा करने की अपनी कोशिश शुरू की और 1984 में उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की । उन्होंने अपना पहला चुनाव 1984 में छत्तीसगढ़ की जांजगीर-चांपा सीट से लड़ा था । बीएसपी को उत्तर प्रदेश में सफलता मिली ।
बहुजन समाज पार्टी का उत्तराधिकारी
ख़राब स्वास्थ्य के कारण कांशीराम जी ने सन् 2001 में सार्वजनिक रूप से मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था ।
बौद्ध धम्म ग्रहण करने की लालसा
सन् 2002 में, कांशीराम जी ने 14 अक्टूबर 2006 को डॉ. आंबेडकर के धर्म परिवर्तन की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर बौद्ध धम्म ग्रहण करने की अपनी लालसा की घोषणा की थी । कांशीराम जी की लालसा थी कि उनके साथ उनके 5 करोड़ समर्थक भी इसी समय धर्म परिवर्तन करें । किंतु 9 अक्टूबर 2006 को उनका निधन हो गया और उनकी बौद्ध धम्म ग्रहण करने की लालसा अधूरी रह गयी ।
कांशीराम की पुस्तकें
सन् 1982 में, कांशीराम जी ने 'चमचा युग' (The Era of the Stooges) नामक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने दलित नेताओं के लिए चमचा (stooge) शब्द का इस्तेमाल किया था । उन्होंने कहा कि ये दलित लीडर केवल अपने निजी फायदे के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और कांग्रेस जैसे दलों के साथ मिलकर राजनीति करते हैं ।
कांशीराम जी ने जगजीवन राम, रामविलास पासवान और रामदास अठावले जैसे दलित नेताओं का वर्णन करने के लिए "चमचा" शब्द का इस्तेमाल किया था । उन्होंने तर्क दिया कि दलितों को अन्य दलों के साथ काम करके अपनी विचारधारा से समझौता करने की बजाय अपने समाज के विकास के लिए राजनैतिक रूप से काम करना चाहिए ।
कांशीराम जी की पुस्तक बर्थ ऑफ़ BAMCEF भी प्रकाशित हुई थी ।
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