बुद्ध और उनके धम्म के बारे में डॉ० भीमराव आंबेडकर ने अपने ग्रंथ 'बुद्ध और उनका धम्म' में विस्तार से विवेचन किया है । फिर भी बौद्धजनों को बुद्ध और उनके धम्म के बारे में बहुत अधिक भ्रम है । इसका मूल कारण यही है कि वे लोग न तो ठीक से बुद्ध और उनके धम्म का अध्ययन करते हैं और न ही ठीक तरह से उसे समझने का प्रयास करते हैं । इस प्रकार का भ्रम फैलाने में बौद्धाचार्य एवं बौद्ध-भिक्षुओं की भी विशेष भूमिका रही है । इस भ्रामक स्थिति को ध्यान में रखकर ही यह लेख यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । इस लेख में आप जानेंगे कि तथागत बुद्ध ने 'संघ' क्यों बनाया ? तथा उनके संघ के क्या नियम थे ?
संघ का संगठन
1. भगवान बुद्ध के श्रावक दो हिस्सों में विभक्त थे, भिक्षु और गृहस्थ-श्रावक, जो उपासक कहलाते थे ।
2. भिक्षुओं का एक संगठित 'संघ' था, गृहस्थों का नहीं था ।
3. बौद्ध भिक्षु प्रथमतः एक परिव्राजक है । यह 'परिव्राजक-संस्था' बौद्ध भिक्षुओं से भी प्राचीन है ।
4. पुराने परिव्राजक ऐसे लोग थे, जिन्होंने पारिवारिक जीवन छोड़ दिया था और इधर से उधर घूमते रहते थे ।
5. उनके एक जगह से दूसरी जगह जाने का उद्देश्य था - भिन्न-भिन्न आचार्यों तथा दार्शनिकों से मिलकर सत्य का पता लगाने का प्रयास करना, उनके प्रवचन सुनना और नीति, दर्शन, प्रकृति तथा रहस्यवाद आदि विषयों पर उनसे चर्चा करना ।
6. कुछ पुराने ढंग के ऐसे भी परिव्राजक थे कि जब तक उन्हें कोई दूसरा गुरु न मिले, तब तक किसी एक गुरु की अधीनता में रहते थे । कुछ दूसरे थे, जो किसी को अपना गुरु नहीं मानते थे और अकेले ही रहते थे ।
7. इन पुराने ढर्रे के परिव्राजकों में कुछ स्त्रियाँ परिव्राजिकाएँ भी थीं । स्त्री-परिव्राजिकाएँ कभी-कभी पुरुषों के साथ रहती थीं और कभी-कभी अपने ही अकेली ।
8. इन पुराने ढंग के परिव्राजकों का कोई 'संघ' न था, उनके कोई निश्चित नियम-उपनियम न थे । उनके सामने कोई निश्चित आदर्श भी न था ।
9. इतिहास में पहली बार तथागत ने अपने भिक्षुओं का एक संघ बनाया, उसकी व्यवस्था के लिए संघ के नियम बनाये और संघ के सदस्यों के सामने एक निश्चित आदर्श उपस्थित किया ।
संघ में प्रवेश
1. संघ का प्रवेश सभी के लिए खुला था ।
2. जाति-पाँति की कोई बाधा न थी ।
3. स्त्री-पुरुष की कोई बाधा न थी ।
4. हैसियत की कोई बाधा न थी ।
5. जाति-पाँति के लिए संघ में कोई स्थान न था ।
6. सामाजिक स्थिति का संघ में कोई स्थान न था ।
7. संघ के भीतर सभी सदस्य समान थे ।
8. संघ के अंदर छोटे-बड़े का निर्णय सदस्य के गुणों से होता था, न कि उसके जन्म से ।
9. जैसा तथागत ने कहा था कि संघ एक समुद्र के समान है और भिक्षु उन नदियों के समान हैं, जो समुद्र में विलीन हो जाती हैं ।
10. नदी का अपना नाम होता है और अपना पृथक अस्तित्व रहता है ।
11. लेकिन जैसे ही नदी समुद्र में प्रवेश करती है, न उसका कोई पृथक नाम रहता है और न पृथक अस्तित्व ।
12. वह सब के साथ मिलकर एक हो जाती है ।
13. यही हाल 'संघ' का है । जब एक भिक्षु संघ में प्रवेश करता है, तो वह समुद्र के जल की तरह अन्य सबके साथ मिलकर एक हो जाता है ।
14. तथागत ने कहा - उसकी कोई पृथक जाति नहीं रही, उसकी कोई पृथक हैसियत नहीं रही ।
15. संघ के अंदर यदि कोई वर्गीकरण था, तो पुरुष-स्त्री की दृष्टि से था । भिक्षु संगठन पृथक था और भिक्षुणी संगठन पृथक ।
16. संघ में प्रवेश पाने वालों के दो वर्ग थे - श्रामणेर तथा भिक्षु ।
17. बीस वर्ष से कम आयु रहने पर कोई भी श्रामणेर बन सकता था ।
18. त्रिशरण तथा दस शीलों को ग्रहण करने से कोई भी बालक 'श्रामणेर' बन सकता है ।
19. मैं बुद्ध की शरण ग्रहण करता हूँ, मैं धम्म की शरण ग्रहण करता हूँ तथा मैं संघ की शरण ग्रहण करता हूँ - ये ही तीन शरण हैं ।
20. मैं प्राणी-हिंसा से विरत रहूँगा, मैं चोरी नहीं करूँगा, मैं अब्रह्मचर्य से विरत रहूँगा, मैं झूठ नहीं बोलूँगा तथा मैं नशीले पेय-पदार्थों से विरत रहूँगा ।
21. मैं विकाल भोजन से विरत रहूँगा, मैं नाचना-गाना-बजाना आदि से विरत रहूँगा, मैं आपको सजाने तथा अलंकृत करने से विरत रहूँगा, मैं ऊँची महान शैयाओं अर्थात् ऐशोआराम से विरत रहूँगा तथा मैं जात रूप-रजत (सोने-चाँदी) ग्रहण करने से विरत रहूँगा ।
22. ये दस शील हैं ।
23. एक श्रामणेर जब चाहे 'संघ' छोड़कर गृहस्थ भेष धारण कर सकता है । एक श्रामणेर एक भिक्षु से बँधा रहता है और उसका अधिकांश समय उसी की सेवा में खर्च होता है । वह एक प्रकार से 'प्रव्रजित' ही नहीं गिना जाता ।
24. दो अवस्थाओं में से गुजरने से आदमी 'भिक्षु' पद का अधिकारी बनता है । पहली अवस्था - 'प्रव्रजित' कहलाती है और दूसरी अवस्था 'उपसंपदा' । 'उपसंपदा' होने पर ही कोई 'भिक्षु' बनता है ।
25. जो प्रार्थी आगे चलकर 'भिक्षु' बनने के उद्देश्य से 'प्रव्रज्या' ग्रहण करना चाहता है, उसे एक उपाध्याय की खोज करनी पड़ती है । कम से कम दस वर्ष तक जो 'भिक्षु' रहा हो, वही 'उपाध्याय' हो सकता है ।
26. इस प्रकार का प्रार्थी, यदि उपाध्याय द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो, तो 'परिव्राजक' कहलाता है और उसे उपाध्याय की सेवा करते हुए उसी के 'संरक्षण' में रहना पड़ता है ।
27. शिक्षण-काल समाप्त होने पर 'उपाध्याय' को ही अपने 'परिव्राजक' का नाम संघ के सामने प्रस्तावित करना पड़ता है । 'संघ' की विशेष बैठक किसी को उपसंपन्न करने के लिए ही बुलाई जाती है । 'उपसंपदा' के लिए 'उपसंपदापेक्षी' को स्वयं संघ से प्रार्थना करनी पड़ती है ।
28. संघ पहले इस विषय में अपना संतोष कर लेता है कि प्रार्थी योग्य व्यक्ति है वा नहीं और भिक्षु बनने का अधिकारी है वा नहीं है ? इसके लिए कुछ निश्चित प्रश्न हैं, जिनका प्रार्थी को उत्तर देना पड़ता है ।
29. संघ के अनुमति देने पर ही उसे 'उपसंपदा' मिलती है और वह भिक्षु बनता है ।
30. भिक्षुणी-संघ में प्रवेश पाने के नियम भी बहुत कुछ वे ही वा वैसे ही हैंं, जो भिक्षु-संघ में प्रवेश पाने के नियम हैं ।
प्रस्तुतकर्ता - देवचंद्र भारती 'प्रखर'
संदर्भ :- बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 240-241 , प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
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