हिंदी मुक्तक काव्य परंपरा के अंतर्गत नवीन विधा के रूप में 'सजल' का आविष्कार किया गया है । इसके आविष्कारक और प्रवर्तक डॉ. अनिल कुमार गहलोत हैं । सजल की रचना के कुछ नियम निश्चित किये गये हैं । इसके लिए हिंदी के छंद एवं भाषा की प्रतिबद्धता है । हिंदी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के प्रचलित शब्द भी सजल में स्वीकार्य हैं ।
हिंदी में बाल-सजल की रचना करने वाले पहले कवि हैं - रघुवीर सिंह 'नाहर' । उनकी एक बाल-सजल बढ़ें और आनंद लें ।
बाल सजल- १
गर्मी की छुट्टी हुई, चल नानी के गांव।
सोनू भी तैयार है, उठने लग गये पांव।।
गये घूमने बाग में, है बच्चों की रेल।
सीटी देती चल रही, पल-पल बढ़ता चाव।।
छोटा भाई चुलबला, करता नटखट खेल।
बिल्ली को ले साथ में, चढ़ जाता है नांव।।
आया चूहा पास में, तोड़ ले गया दांत।
सोनू रोने लग गया, है यह कैसा घाव।।
आये बच्चे गांव के, बढ़ा रहे हैं मेल।
चोर-सिपाही बन रहे, चला रहे हैं दांव।।
तोता बैठा डाल पर, करता मन की बात।
बारम्बार बुला रहा, पेड़ों वाली छांव।।
गिल्ली-डंडा हाथ में, आ जाते मैदान।
बचपन नाहर छिन गया, झलक रहे हैं भाव।।
(०७/०९/२०२४)
बाल सजल- २
सूरज ढ़लने लग रहा, बंद हुए सब हाट।।
शीघ्र घर पहुंचे नहीं, आज पड़ेगी डांट।।
दूर घरों से आ गये, मौसम हुआ खराब।
चलना भी दुश्वार है, टेढ़े-मेढ़े बांट।।
हैं कंटीली झाड़ियां, हम बच्चे नादान।
कौन बचाएगा हमें, सुनें नहीं आहट।।
संगी-साथी देखकर, हाथ पतंग की डोर।
झूम-झूम नाचें सभी, आ सरिता के पाट।।
गुब्बारे लेकर खड़ा, हरे लाल ही लाल।
दो आने में दे रहा, क्यों पड़ती है डांट।।
देख कदम के पेड़ पर, चिड़ियों की चहकार।
दौड़े-दौड़े आ गये, सभी एक ही घाट।।
नाहर दिल को भा रहे, तुतलाते यह बोल।
ज़हर कभी ना घोलना, कल बैठें इक खाट।।
बाल सजल- ३
खेल-खेल में सीखते, हो पक्की बुनियाद।
सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ें, सदा रहें आबाद।।
बच्चों की अठखेलियां, करती भावविभोर।
पलभर में रूठें मनें, रुकें नहीं संवाद।।
छोटे बच्चे लाड़ले, करते सबको प्यार।
महक सदा देते रहें, बचपन है आजाद।।
छोटी-छोटी उंगलियां, छोटे-छोटे पांव।
सरपट दौड़े आ रहे, फिर करते हैं वाद।।
बच्चों की टोली चली, अलगोजों के साथ।
नाचें गाएं घूमते, मन को भाते नाद।।
मीठी-मीठी बोलियां, घर आंगन के द्वार।
आ जाते हैं खेलने, हम को सब पर माद।।
नाहर कहें बच्चे सदा, करते दिल की बात।
पल-पल हर पल सीखते, समय न हो बर्बाद।।
बाल सजल- ४
बुलबुल चुलबुल कर रहे, है बच्चों से प्यार।
निकल नीड़ से आ गये, यह इनका संसार।।
बच्चों की टोली बनी, खड़े पेड़ की छांव।
हरियल तोता साथ में, है इनका परिवार।।
खग देखे आकाश में, करते बड़े कमाल।
क्या छीना है बाज़ का, होते रोज शिकार।।
बाल हाथ ले झुंझुना, चला मात के संग।
अंग-अंग बौरारहा, देखी मस्त बहार।।
छोड़ उंगली चल दिया, आ पहुंचा मैदान।
सर्दी से बचकर रहो, ठंडी चलें बयार।।
गिल्ली-डंडा खेलते, चलते मेंढक चाल।
नदी किनारे आ खड़े, टूट गया पतवार।।
मिलजुल बच्चे खेलते, नहीं धर्म की बात।
कह नाहर सब एक हैं, देते महक अपार।।
बाल सजल- ५
मात-पिता के बीच में, बंद हुआ संवाद।
रोज-रोज हर बात पर,करते वाद-विवाद।।
समय कभी देते नहीं, सुनें न कोई बात।
खेत उजड़ने लग रहा, मिले न उर्वर खाद।।
बच्चे पूछें मात से, जाना उनका हाल।
फूट-फूट रोने लगी,कल डाला है वाद।।
लड़का सुन मुर्छित हुआ,यह कैसा व्यवहार।
हम डांटेंगे तात को, कौन सुने फरियाद।।
घर में बालिग बहिन है, माता है लाचार।
करे चाकरी गांव में, हुए बहुत बर्बाद।।
दिन ढलते फिर चल दिये, मधुशाला की ओर।
रोक न पाओगे कभी, पंछी है आजाद।।
नाहर बुद्ध के सार पर,करना तनिक विचार।
जो खोया वह भूलकर, शुरू करो संवाद।।
रघुवीर सिंह 'नाहर', अधिवक्ता (अलवर, राजस्थान)
संपर्क - नाहर भवन 8A, शास्त्री नगर, एडवोकेट मार्ग, अलवर (राजस्थान) 301001
मो.- 9413058580
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