डॉ० भीमराव आंबेडकर का जीवन संघर्ष

'डॉ० भीमराव आंबेडकर का जीवन संघर्ष' नामक इस शीर्षक के अंतर्गत डॉ० आंबेडकर जी के संपूर्ण जीवन संघर्ष का परिचय देने की बजाय केवल उनके प्रारंभिक जीवन संघर्ष का ही वर्णन प्रस्तुत किया गया है, क्योंकि डॉ० आंबेडकर जी के जीवन संघर्ष के बारे में तो एक वृहदाकार पुस्तक लिखी जाती है; भला एक अध्याय के अंतर्गत उनके जीवन संघर्ष को प्रस्तुत करना कैसे संभव है ? इस अध्याय में तो केवल उनके जीवन की उन कष्टकर घटनाओं का उल्लेख किया गया है, जिनके कारण उनके मन-मस्तिष्क को गहरा आघात पहुँचा । डॉ० आंबेडकर जी का जीवन संघर्ष हर उस स्वाभिमानी युवक के लिए प्रेरणादायक और अनुकरणीय है, जो निर्धनता, असमानता और साधनविहीन परिस्थिति में अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु प्रयासरत है । यदि इस ग्रंथ में इस अध्याय के औचित्य की बात की जाए, तो इसका औचित्य यह है कि डॉ० आंबेडकर जी के जीवन संघर्ष की बात किये बिना उनके दर्शन और मिशन की बात अधूरी लगती है तथा आंबेडकर के दर्शन और मिशन की बात किये बिना आंबेडकरवाद को समझना व समझाना भी कठिन होता है । इसलिए यहाँ प्रस्तुत है - डॉ० आंबेडकर जी का प्रारंभिक जीवन संघर्ष ।

महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के मांडलगढ़ तहसील में दापोली के पास एक छोटा सा गाँव है - 'आंबावडे' । यही बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के पूर्वजों का गाँव है । भीमराव की माताजी का नाम भीमाबाई और पिता जी का नाम रामजी सकपाल था । उनके दादा जी का नाम मालोजी सकपाल था । 'सकपाल' उनके परिवार के कुल का नाम है, जो उनका भूषण व गौरव माना जाता है । डॉ० आंबेडकर जी हिंदुओं द्वारा अछूत समझी जाने वाली महार जाति में पैदा हुये थे । उनके पूर्वज अपने गाँव में धार्मिक त्यौहारों के समय हिंदू देवी-देवताओं की पालकियाँ उठाने का काम किया करते थे । डॉ० एम० एल० परिहार जी ने लिखा है, " बहादुर लेकिन हेय समझे जाने के कारण महारों को अच्छी सरकारी नौकरियाँ, पुलिस विभाग या इज्ज़त वाले काम-धंधे नहीं मिलते थे । इन्हें रास्तों की सफाई करना, शौचालय साफ करना, जूते बनाना, गाँव की चौकीदारी, मरे मवेशियों की खाल उतारना, बाँस की चीजें बनाना आदि हेय काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता था । खेतों में भी दास व गुलामों की तरह बेगार कराई जाती थी । महारों का कोई जातिगत व्यवसाय नहीं था । खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा पर भी कई पाबंदियाँ लगी होती थीं । हर ओर अपमान व शोषण के कारण इस बहादुर व बुद्धिमान कौम का जीवन नारकीय व पशुओं से भी बदतर था । इन अछूतों पर हिंदू समाज की ओर से धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यावसायिक शोषण व अन्याय की अति थी । " [1] 

महार जाति की बस्ती गाँव से बाहर की ओर होती थी, जिसे सवर्ण लोग हेय दृष्टि से 'महारवाड़ा' कहते हैं । इतिहासकारों का मानना है कि महार लोग महाराष्ट्र के मूल निवासी थे और उन्हीं के नाम पर 'महार-राष्ट्र' या 'महारराष्ट्र' नाम पड़ा । 'महार' शब्द की उत्पत्ति 'महा-अरि' से मानी जाती है, जिसका अर्थ है - महान शत्रु । इस जाति के लोग मजबूत कद काठी वाले, रौबीली आवाज, बुद्धिमान, बहादुर व लड़ाकू प्रवृति के होते थे । इसी कारण राजाओ-महाराजाओं द्वारा सेना में महारों को प्राथमिकता से रखा जाता था । उस समय भारत में आने वाले यूरोपियन लोगों ने बहादुर महारों की पहचान की और ईस्ट इंडिया कंपनी की मुंबई आर्मी में 'महार रेजीमेंट' की भर्ती ली । कथित सवर्ण हिंदू इन्हें नीच समझकर दुत्कारते थे । पेशवाओं की सेना में उन्हें भर्ती नहीं किया जाता था । इसलिए अपने परिवार के पालन के लिए ब्रिटिश सेना में भर्ती होना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि वहाँ जाति-पाँति को नहीं देखा जाता था । आरंभ में ब्रिटिश सरकार की सेना में एक भारतीय फौजी सूबेदार व मेजर के पद तक पहुँच सकता था, इसी कारण से कई महार सूबेदार व मेजर पद तक पहुँचे थे; उन्हीं में से एक रामजी सकपाल भी थे । ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्मी में लड़के-लड़कियों के लिए प्राथमिक शिक्षा निशुल्क व जरूरी थी । अनिवार्य शिक्षा के इस नियम से सैनिक परिवारों को पढ़ने-लिखने का अवसर मिल गया, जबकि इनसे बाहर जाति-पाँति, छुआछूत व हिंदू धर्म के बंधनों के कारण अछूतों के लिए स्कूलों के दरवाजे बंद थे । 

सन् 1890 ई० तक रामजी सूबेदार को तेरह संतानें हुईं । जब रामजी सूबेदार की फौजी टुकड़ी मध्य प्रदेश में इंदौर के पास महू छावनी में थी, तब वे अपने पूरे परिवार के साथ वहीं रहते थे । वहीं मिलिट्री कैंप में 14 अप्रैल सन् 1891 ई० को भीमाबाई को पुत्र-रत्न की प्राप्ति हुई । उस नवजात शिशु का नाम 'भीम' रखा गया । भीम अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान थे । परिवार में सभी उन्हें प्यार से 'भीवा' कहकर पुकारते थे और बाद में वे 'भीमराव' के नाम से प्रसिद्ध हुये । भीमराव के पिता सूबेदार रामजी सकपाल आर्मी में पच्चीस साल नौकरी करने के बाद सन् 1894 ई० में सेना से रिटायर हुये । उस समय भीमराव की उम्र तीन साल थी । रामजी सकपाल कुछ समय तक तो महू के आर्मी कैंप के क्वार्टर में ही रहे । उसके बाद वे अपने परिवार के साथ महाराष्ट्र के रत्नागिरी तहसील मेंं अपने पैतृक गाँव 'आंबावडे' के पास दापोली गाँव में जाकर बस गये । उस समय तक दापोली नगर परिषद की पाठशालाओं में अछूत छात्रों के प्रवेश पर प्रतिबंध था । इसलिए वे सन् 1896 में सपरिवार दापोली से बंबई आ गये । उन्होंने सेना के अफसरों को निवेदन पत्र भेजा, तो उन्हें सतारा के पीडब्ल्यूडी के दफ्तर में स्टोर कीपर की नौकरी मिल गई और वे सतारा के 'महारवाड़ा' के पास रहने लगे । " जब वे सतारा आये, तो वहाँ भी स्कूल में अछूतों का प्रवेश असंभव था । इस घोर अमानवीयता व अन्याय को भोगते हुए वे दुखी थे । मजबूर होकर एक दिन एक अंग्रेज आर्मी ऑफिसर के पास गये और निवेदन किया कि उन्होंने जीवन भर सेना में रहते हुए सरकार की सेवा की है और उनके ही बच्चों को ऐसे क्रूर बंधनों के कारण किसी स्कूल में प्रवेश नहीं मिल रहा है, यह कैसी अमानवीय व्यवस्था है ? आखिर आफिसर ने सुनी और नवंबर 1897 ई० में सतारा के 'आर्मी कैंप स्कूल' में प्रवेश मिल गया । " [2]

जब प्रवेश हो गया, तो भीमराव और बड़े भाई आनंद राव दोनों रोज पाठशाला जाने लगे । भीमराव व अन्य अछूत बच्चों को जाति के कारण पाठशाला में रोज अपमानित होना पड़ता था । सतारा की पाठशाला में भीम की पढ़ाई चल रही थी । इस दौरान बाल उम्र में ही उन्हें जाति-पाँति, भेदभाव, छुआछूत के कई कड़वे अनुभव हुये, जिन्हें वे जीवन भर भुला नहीं पाये । पाठशाला में हिंदू सवर्ण बच्चे भीमराव और उनके बड़े भाई आनंद राव को साथ में बेंच पर बैठने नहीं देते थे । दोनों भाई इसके लिए घर से टाट का एक टुकड़ा रोज साथ ले जाते थे और कमरे के बाहर बैठना पड़ता था । टाट के टुकड़े को भी पाठशाला में नहीं रखने दिया जाता था, क्योंकि उसे छूने से पाठशाला की अन्य चीजों के अपवित्र होने का डर था । जब भीमराव को प्यास लगती थी, तो नल की टोंटी से खुद पानी नहीं पी सकते थे । नल की टोंटी चपरासी या किसी सवर्ण बालक द्वारा खोले जाने पर ही भीमराव व अन्य अछूत बालक पानी पीते थे । ऐसा नहीं होने पर, वे कभी-कभी प्यासे ही रह जाते थे और घर आकर ही प्यास बुझाते थे । मध्यावकाश के समय में रुखा-सूखा खाने के बाद उन्हें पानी तभी मिल पाता था, जब अन्य सवर्ण बच्चे पानी पी लेते थे । कभी-कभी सवर्ण बच्चे खुद पानी पीने के बाद टोंटी बंद करके चले जाते थे और भीमराव व भाई आनंद राव मुँह देखते रह जाते थे । अमानवीयता की हद तो तब होती थी, जब कुछ शिक्षक भी अछूत बच्चों के साथ छुआछूत करते थे । कुछ शिक्षक अछूत बच्चों की किताबों व नोटबुक्स को हाथ नहीं लगाते थे । जब शिक्षक कक्षा-कक्ष की ओर जाते थे, तो भीमराव व अन्य अछूत बच्चे एक तरफ कमरे के बाहर अनाथों की तरह खड़े रहते थे और जब शिक्षक कक्ष के अंदर जाते, तो वे दरवाजे के बाहर बैठ जाते थे । इससे वे श्यामपट्ट पर लिखे अक्षरों को दूर से अच्छी तरह पढ़ भी नहीं पाते थे । 

भीमाबाई का देहांत अप्रैल 1896 ई० में हो जाने के बाद बुआ मीराबाई ने ही भीमराव का पालन-पोषण किया । भीमराव की उम्र छः वर्ष हो चुकी थी । उन दिनों रामजी सूबेदार सतारा से कुछ दूर गोरेगाँव में नौकरी करते थे । एक दिन भीमराव, बड़ा भाई आनंद राव और बहन तीनों पिताजी से मिलने के लिए जा रहे थे । भीमराव ने पिताजी को पहले ही चिट्ठी लिख दी थी कि अमुक रेलगाड़ी से वे वहाँ पहुँच रहे थे, लेकिन वह चिट्ठी पिताजी को समय पर नहीं मिल पायी । तीनों भाई-बहन पाड़ली रेलवे स्टेशन से रेलगाड़ी में बैठ गये और आगे मसूर स्टेशन पर उतर गये । बच्चे पिताजी से मिलने के लिए आतुर व खुश थे और इस आशा से रेलगाड़ी से उतरे कि वे उन्हें लेने के लिए स्टेशन पर तैयार खड़े होंगे, लेकिन पिताजी को चिट्ठी नहीं मिलने के कारण वे नहीं आ पाये । सभी यात्री स्टेशन से चले गये । वहाँ सिर्फ वही तीनों बच्चे खड़े थे । बच्चों को ऐसे खड़ा देखकर स्टेशन मास्टर ने उनसे पूछताछ की । उनके रंगरूप व साफ कपड़ों को देखकर स्टेशन मास्टर को लगा कि बच्चे किसी संपन्न परिवार के होंगे, लेकिन जब यह मालूम पड़ा कि वे तो अछूत महार हैं, तो वह कई कदम पीछे हट गया । फिर भी उसने एक गाड़ी वाले को इस बात के लिए राजी कर दिया कि वह बच्चों को आगे लेकर जाए । " बैलगाड़ी अभी मुश्किल से दस गज चली ही होगी और बच्चों से बातचीत की शुरुआत में जाति पूछने पर गाड़ी मालिक को पता चल गया कि बच्चे महार हैं, तो वह गुस्से से आगबबूला हो गया । उसे लगा कि उसकी गाड़ी अछूत बच्चों के बैठने से अपवित्र हो गई । उसने बच्चों को निर्दयता से ऐसे धक्का देकर बाहर फेंक दिया, जैसे टोकरी से कूड़ा-करकट फेंका जाता है । रात का समय था । उस ग्रामीण इलाके में रास्ते में दीया भी नहीं जल रहा था । चारों ओर रात का सन्नाटा था, बच्चे डर भी रहे थे कि अब क्या होगा ? इसी दौरान भीमराव के बड़े भाई ने जब दोगुना किराया देने का लालच दिया, तो गाड़ी वाला मान गया, लेकिन बच्चों के साथ गाड़ी में नहीं बैठा । बाद में यह तय हुआ कि वह गाड़ी नहीं चलाएगा । अछूतों के लिए गाड़ी चलाना वह अपनी शान के खिलाफ समझता था । वह पैदल चलता रहा और भीम का बड़ा भाई आनंद राव गाड़ी चलाता रहा । गर्मी के दिन थे । प्यास के मारे मासूम बच्चों का बुरा हाल हो रहा था । रास्ते में कुछ जगह पानी माँगा, लेकिन जाति मालूम होने पर किसी ने पानी नहीं पिलाया । कुछ लोग गंदे पानी की ओर इशारा करते थे, तो कुछ तिरस्कार कर पानी देने से मना करते हुए दुत्कार देते थे । आधी रात तक बच्चों ने उस बैलगाड़ी में वह अपमानजनक सफर तय किया । दूसरे दिन अधमरी हालत में वे अपने मुकाम पर पहुँचे । " [3]

इस घटना के कुछ ही दिनों बाद एक और घटना घटी । स्कूल जाते समय भीमराव व भाई आनंद राव प्यास लगने पर एक सार्वजनिक कुएँ से चुपके से पानी खींचकर पी लिया करते थे । एक बार एक सवर्ण को इसकी खबर लग गई । भीमराव को वहीं कुएँ पर पकड़ लिया और जानवर की तरह बुरी तरह से पीटा; फिर से ऐसी हिम्मत न करने की चेतावनी भी दी । बदन पर लगी चोट अभी पूरी तरह से पीड़ाशून्य हुई ही नहीं थी कि फिर से एक और घटना घटी । एक दिन भीमराव अपने बाल कटाने के लिए नाई के पास जाकर बोले, " बाल कटाने हैं । " नाई नफरत से बोला, " अरे ! तू तो अछूत है । तेरे बाल मैं कैसे काट सकता हूँ ? जा ! चला जा यहाँ से । " इस अपमान से भीमराव को बहुत बुरा लगा, आँखें भर आईं । बड़ी बहन तुलसी ने भीमराव की व्यथा सुनी, तो भीमराव को प्यार से पुचकारते हुए कहा, " मेरे भाई, मत रो ! यही तो इस समाज की रीत है । मैं तेरे बाल बना देती हूँ । " भैंसों के बाल काटने वाला नाई भी भीमराव के बाल काटने से अपना धर्म भ्रष्ट होना मानता था, इसलिए उनकी बहन ही चबूतरे पर बैठाकर दोनों भाइयों के बाल काटती थी । 

सन् 1905 ई० में रामजी सूबेदार ने भीमराव को मुंबई की सरकारी स्कूल 'एल्फिंस्टन हाई स्कूल' में नौवीं क्लास में प्रवेश दिला दिया । बाॅम्बे का 'एल्फिंस्टन हाई स्कूल' उस जमाने में एक प्रतिष्ठित सरकारी स्कूल था, लेकिन वहाँ का माहौल भी छुआछूत, जातिवाद व घृणा से मुक्त नहीं था; जैसे हिंदुओं के अन्य प्राइवेट स्कूलों में होता था, जहाँ समाज की सोच का व्यावहारिक घृणित व तिरस्कृत रूप ही कदम-कदम पर नजर आता था । एक दिन गणित के अध्यापक ने भीमराव को श्यामपट्ट पर रेखागणित के एक सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए बुलाया । भीमराव ज्यों ही श्यामपट्ट की ओर बढे़, त्यों ही कुछ सवर्ण हिंदू छात्र एक साथ चिल्ला उठे, " सर ! भीम एक अछूत है, उसे रोकिए ।" दरअसल श्यामपट्ट एक तख्त पर था और उस तख्त पर सवर्ण लड़कों के लंच के डिब्बे रखे हुये थे । जब सभी ने अपने-अपने डिब्बे उठा लिये, तभी भीमराव को बोर्ड के पास जाने दिया । उस समय भीमराव के मन में आक्रोश तो था, लेकिन वे बुद्धि से अपमान का बदला लिये और तुरंत ही सवाल हल करके सबको चौंका दिये । एलफिंस्टन स्कूल में ही एक ब्राह्मण अध्यापक बात-बात पर भीमराव को उनकी जाति का नाम लेकर अपमानित करते थे । " एक दिन वे भीमराव से बोले, " अरे ! तू महार का छोकरा है, पढ़-लिखकर क्या करेगा ? " बार-बार ऐसे अपमान से भीमराव को गुस्सा आता था । इस बार उन्होंने आक्रोश में करारा जवाब दिया, " सर ! पढ़-लिखकर मैं क्या करूँगा, यह सवाल पूछना आपका काम नहीं है । अगर फिर कभी आपने मेरी जाति का नाम लेकर मुझे छेड़ा, तो कह देता हूँ कि उसका परिणाम अच्छा नहीं होगा । " भीमराव बचपन से ही स्वाभिमानी होने के साथ निडर भी थे और जातिवादी मानसिकता वाले शिक्षक को करारा जवाब देने से नहीं चूके । " [4]

इन सब अपमानों के बावजूद भी भीमराव अपने अध्ययन में मग्न रहते थे । इधर रामजी सूबेदार की आर्थिक स्थिति और भी चिंतनीय हो गई । उन्होंने आनंद राव की पढ़ाई रोक कर उन्हें रोजगार में लगा दिया । अब दोनों ने भीमराव की पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान केंद्रित किया । परिणामतः सन् 1907 ई० में भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की । उन्हें 750 अंकों में 282 अंक प्राप्त हुये । समस्त महार समाज ने गौरव का अनुभव करते हुए हर्ष मनाया और एक सभा का आयोजन किया । एक प्रसिद्ध समाज सुधारक माननीय एस०के० बोले जी को सभा का अध्यक्ष बनाया गया । उस सभा में एक और प्रसिद्ध समाज सुधारक और मराठी लेखक माननीय केलुस्कर जी भी उपस्थित थे । वे उस समय सिटी हाई स्कूल में सहायक अध्यापक थे तथा बाद में प्रधानाध्यापक भी बने । भीमराव और केलुस्कर जी  दोनों स्कूलों से छुट्टी होते ही नियमपूर्वक पुस्तक पढ़ने के लिए चर्नी रोड गार्डन में निश्चित स्थानों जाकर बैठते थे । भीमराव को नियमपूर्वक पढ़ते देखकर केलुस्कर जी बहुत प्रसन्न हुये । एक दिन पास जाकर उन्होंने भीमराव का परिचय पूछा । भीमराल ने अपने बारे में सब कुछ साफ-साफ बता दिया । भीमराव एक अछूत लड़का है, यह सुनकर केलुस्कर जी आश्चर्यचकित हुये । उसके बाद केलुस्कर जी ने भीमराव को अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ने के लिए देना प्रारंभ कर दिया । उन्होंने अपनी नई पुस्तक 'बुद्ध-चरित' की एक प्रति भीमराव को भेंट की । उसी वर्ष यानी सन् 1907 ई० में सोलह वर्षीय भीमराव का विवाह नौ वर्ष की रामीबाई के साथ हुआ । विवाह के बाद रामीबाई का नाम 'रमाबाई' रख दिया गया । भीमराव रमाबाई को प्यार से 'रामू' कहकर पुकारते थे तथा रमाबाई भीमराव को सम्मान से 'साहेब' कहकर पुकारती थीं ।

सन् 1909 ई० में भीमराव ने इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की । उस समय रामजी सूबेदार आर्थिक दृष्टि से बिल्कुल पंगु हो गये थे । फिर भी अपने पुत्र की सफलता पर वे अत्यधिक प्रसन्न थे । ऐसी स्थिति में माननीय केलुस्कर जी ने सहायता की । वे भीमराव को लेकर बड़ौदा के शिक्षाप्रेमी महाराजा सयाजीराव गायकवाड की सेवा में उपस्थित हुये । महाराज उस समय बाम्बे आये हुये थे । उन्होंने एक सभा में यह घोषणा की थी कि वे किसी होनहार परिश्रमी अछूत छात्र की आर्थिक सहायता करने को तैयार हैं । माननीय केलुस्कर जी ने महाराज को उस घोषणा की याद दिलाई और उपस्थित भीमराव का वहाँ परिचय दिया । महाराज ने भीमराव से कुछ सवाल किये, जिनका उत्तर उन्होंने बड़े सुंदर ढंग से दिया । महाराज बड़े प्रसन्न हुए और भीमराव की बुद्धि और व्यक्तित्व को परखकर 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति देना स्वीकार किया । " इसी बीच रामजी सूबेदार ने डबल चाल का कमरा छोड़ दिया । मुंबई के परेल क्षेत्र में इंप्रूवमेंट ट्रस्ट चाल नंबर - 1 की मंजिल पर उन्होंने दो कमरे किराये पर लिये । कमरा नंबर 50 और 51 एक-दूसरे के आमने-सामने थे । एक कमरा अध्ययन कक्ष और सोने के लिए बनाया गया तथा दूसरा कमरा पारिवारिक सामान के लिए । भीमराव अध्ययन कक्ष में अच्छी तरह पढ़ने लगे । रामजी सूबेदार यही चाहते थे कि भीमराव किसी तरह बी०ए० पास कर लें । " [5] आखिर कड़ी मेहनत के बाद भीमराव ने सन् 1912 ई० में बी०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की ।

बी०ए० करने के बाद भीमराव के सामने नौकरी करने का सवाल पैदा हुआ । रामजी सूबेदार चाहते थे कि वे बाॅम्बे में ही कोई काम ढूँढे । अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध भीमराव ने बड़ौदा महाराजा को नौकरी के लिए एक पत्र लिखा । वे महाराजा से छात्रवृत्ति पाने के कारण बड़ौदा सरकार के ऋण से मुक्त होने के लिए बड़ौदा में ही नौकरी करना चाहते थे । भीमराव जब बड़ौदा पहुँचे, तो उन्हें राज्य की फौज में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्त किया गया । जनवरी 1913 ई० में भीमराव ने मुश्किल से पंद्रह दिन ही काम किया था कि मुंबई से एक तार मिला कि उनके पिता की हालत चिंताजनक है । वे बहुत चिंतित हुये और मुंबई चल दिये । नौकरी की आठ दिन की ही तनख्वाह उन्हें मिल पाई । रास्ते में, सूरत रेलवे स्टेशन पर अपने पिता के लिए बर्फी खरीदने के लिए नीचे उतरे, कुछ विलंब हो गया और गाड़ी चल दी । वे दूसरे दिन बाॅम्बे पहुँचे । घर पहुँचने पर जब उन्होंने अपने पिताजी की बिगड़ती हालत को देखा, तो उन्हें बहुत दुःख हुआ । रामजी सूबेदार मरणासन्न स्थिति में चारपाई पर पड़े हुये थे । परिवार के सभी सदस्य उन्हें घेरकर बैठे थे । रामजी सूबेदार ने पुत्र भीमराव की ओर देखा, स्नेहपूर्ण हाथ उनकी पीठ पर फेरा, कुछ देर तक भीमराव की ओर एकटक देखते रहे और फिर सदैव के लिए चिरनिद्रा में सो गये । भीमराव फूट-फूट कर रोने लगे । उन्हें सूरत स्टेशन पर उतरने का बड़ा पश्चाताप हुआ । 2 फरवरी 1913 ई० का वह दिन डॉ० आंबेडकर के लिए उनके जीवन का सबसे बुरा दिन था, जिसे वे कभी भुला नहीं पाये ।

रामजी सूबेदार की मृत्यु के बाद भीमराव को खुद अपने पैरों पर खड़ा होना पड़ा । उन्होंने फिर से बड़ौदा की उसी नौकरी पर जाने का इरादा बनाया, जिसके लिए उनके पिताजी सहमत नहीं थे । उसी समय एक और सुनहरा अवसर आया । बड़ौदा महाराज ने कुछ शिक्षार्थियों को कोलंबिया विश्वविद्यालय (अमेरिका) भेजने का निश्चय किया । महाराज उस समय बाॅम्बे में ही थे । भीमराव उनसे मिले और अपनी सारी आप बीती सुनाई । महाराज भीमराव की अंग्रेजी से बहुत प्रसन्न हुये । उन्होंने भीमराव को सलाह दिया कि वे छात्रवृत्ति के लिए आवेदन कर दें, उन्होंने वैसा ही किया । अन्य तीन शिक्षार्थियों के साथ भीमराव की भी छात्रवृत्ति स्वीकृत हो गई । छात्रवृत्ति की अवधि, 15 जून 1913 ई० से 14 जून 1916 ई० तक निश्चित हुई । भीमराव को तीन वर्ष विदेश में रहकर शिक्षा ग्रहण करने का अवसर मिल गया । साथ ही साथ बड़ौदा के उप-शिक्षामंत्री के समक्ष भीमराव को समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर करना पड़ा कि " मैं अमेरिका में अपना समय अध्ययन में ही व्यतीत करूँगा और अध्ययन समाप्त होने पर बड़ौदा रियासत में दस वर्ष तक नौकरी करूँगा । " भीमराव ने बड़ौदा नरेश के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए हृदय से धन्यवाद दिया । अमेरिका जाने का प्रबंध तो हो गया, लेकिन भीमराव को परिवार के खर्च की चिंता सताने लगी । अकेले आनंद राव ही कमाने वाले थे, जबकि खाने वाले परिवार के दर्जन भर सदस्य थे । इसलिए भीमराव ने बड़ौदा के शिक्षा विभाग से कुछ रुपए पेशगी के रूप में लिये ।  उनमें से कुछ रुपए आनंद राव को घर खर्च के लिए दिये । 21 जुलाई सन् 1913 ई० को न्यूयार्क पहुँचकर उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया ।

भीमराव लगातार दो वर्षों तक अपनी ज्ञान-साधना में लगे रहे । सन् 1915 ई० में उन्हें अपने 'प्राचीन भारत में व्यापार' नामक शोधग्रंथ पर कोलंबिया यूनिवर्सिटी से एम०ए० की डिग्री मिली । मई 1916 ई० में डॉ० गोल्डनवीजर के 'मानव वंशशास्त्र' (एथ्रोपोलोजी) सेमिनार के समक्ष उन्होंने अपना शोधपूर्ण आलेख 'भारत में जातिभेद' (कास्ट्स इन इंडिया) पढ़ा । भीमराव एक साथ दो शोध-प्रबंध लिख रहे थे । उनका दूसरा शोध-प्रबंध 'भारत के राष्ट्रीय मुनाफे का बँटवारा : एक ऐतिहासिक और विवेचनात्मक अध्ययन' (नेशनल डिविडेंड ऑफ इंडिया : ए हिस्टॉरिकल एंड एनालिटिकल स्टडी) जून 1916 ई० में कोलंबिया यूनिवर्सिटी को प्रस्तुत किया, जिसे पीएच०डी० की डिग्री के लिए स्वीकृत किया गया, लेकिन विधिवत् पीएच०डी० की डिग्री लेने के लिए शोध-प्रबंध को पब्लिश करके उसकी कुछ प्रतियाँ यूनिवर्सिटी को भेंट करना जरूरी था, जबकि भीमराव के पास इतना पैसा नहीं था कि उस थीसिस (शोध-प्रबंध) को प्रकाशित करा सकें । अंततः आठ वर्ष बाद सन् 1924 ई० में भीमराव ने यह प्रबंध मैसर्स 'पी०एस० किंग एंड संस' लंदन की प्रकाशन संस्था की ओर से 'ब्रिटिश भारत में प्रांतीय अर्थव्यवस्था का विकास' नाम से प्रकाशित कराया । इस प्रकाशित ग्रंथ की कुछ प्रतियाँ भेंट करने पर कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने उनको पीएच०डी० की डिग्री विधिपूर्वक प्रदान की । अर्थशास्त्र के छात्रों और विद्वानों ने इस महत्वपूर्ण ग्रंथ की बहुत प्रशंसा की ।

कोलंबिया यूनिवर्सिटी में सफलता प्राप्त करने के पश्चात भीमराव का ध्यान लंदन की ओर मुड़ा, क्योंकि उनके ज्ञान की पिपासा शांत नहीं हुई । वे लंदन जैसे अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा केंद्र से ज्ञान प्राप्त करके बैरिस्टर बनना चाहते थे, लेकिन धन की बहुत कमी थी । छात्रवृत्ति की अवधि की समाप्ति का समय भी समीप आ गया था । भीमराव ने प्रोफेसर सेलिंग्मन की सिफारिश के साथ एक निवेदन-पत्र बड़ौदा नरेश के पास भेजा कि उनकी छात्रवृत्ति की अवधि दो वर्ष के लिए और बढ़ा दी जाए । महाराज ने छात्रवृत्ति की अवधि एक वर्ष और बढ़ा दी । यह खुशखबरी सुनने से पहले ही वे न्यूयार्क से जून 1916 ई० में लंदन के लिए रवाना हो चुके थे । शीघ्र ही भीमराव ने अक्टूबर 1916 ई० में बैरिस्टरी के लिए ग्रेज-इन और अर्थशास्त्र की पढ़ाई के लिए 'लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स एंड पॉलीटिकल साइंस' में प्रवेश ले लिया । उन्होंने अमेरिका की भाँति लंदन में भी अपने आपको अध्ययन में ही व्यस्त रखा । इसी बीच उनकी छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त हो गई और उन्हें बड़ौदा के दीवान ने भारत वापस आने का बुलावा भेजा । उन्होंने महाराजा को फिर निवेदन-पत्र भेजा कि उनकी छात्रवृत्ति की अवधि बढ़ाई जाए, लेकिन इस बार संभव नहीं हुआ । उस समय भीमराव अपना मन मसोसकर रह गये । उन्होंने निश्चय किया कि वे भारत लौटकर पैसा कमाएँगे और फिर लंदन आकर एम०एससी०, डी०एससी० तथा बार-एट-लाॅ की डिग्रियाँ प्राप्त करेंगे । प्रोफेसर एडविन कैनान की दयालु सिफारिश पर उन्हें लंदन यूनिवर्सिटी ने यह आज्ञा दे दी कि वे अक्टूबर 1917 ई० से लेकर चार वर्ष की अवधि तक अपना अध्ययन पुनः आरंभ कर सकते हैं । " लंदन छोड़ने में भीमराव को कोई खुशी नहीं थी । कोई डिग्री प्राप्त किये बिना ही वहाँ से वापस आना दुःख की बात थी । उन्होंने अपने सारे सामान को, जिसमें बहुमूल्य पुस्तकें भी सम्मिलित थीं, 'मेसर्स टाॅमस कुक एंड संस'  को सुरक्षित पहुँचाने के लिए सौंप दिया । उधर वे एक ट्रेन द्वारा वूलेन से मार्सलीज पहुँचे और वहाँ से 'कैसर-ए-हिंद' (जहाज) पर बाम्बे के लिए रवाना हो गये । डॉ० आंबेडकर ने परिवार वालों को पहले से ही आने की सूचना भेज दी थी । उन दिनों महायुद्ध चल रहा था । टार्पेडो से जहाजों को जलमग्न किया जा रहा था । उन दिनों समुद्री यात्रा करना बड़ा ही खतरनाक था । एक दिन परिवार वालों ने अखबार में पढ़ा कि लंदन से हिन्दुस्तान आने वाला जहाज समुद्र में डूब गया । संभवतः भीमराव भी उसी में होंगे । सारे घर में शोक का वातावरण छा गया । तारों का आदान-प्रदान हुआ, तो ज्ञात हुआ कि भीमराव कैसर-ए-हिंद से आ रहे हैं, जो सुरक्षित हैं । बाद में मालूम हुआ कि जिस जहाज में उनका सामान आ रहा था, वह डूब गया था । भीमराव को बड़ा दुःख हुआ, क्योंकि उसमें उनके द्वारा इकट्ठी की गई सभी बहुमूल्य पुस्तकें थीं, जिन्हें वे जान से प्यारी मानते थे । " [6]

बड़ौदा सरकार के साथ हुए एग्रीमेंट के अनुसार अमेरिका में शिक्षा प्राप्त करने के बाद भारत लौटने पर बड़ौदा राज्य में दस साल नौकरी करनी थी । लंदन से लौटने पर वे कुछ दिन मुंबई रहे और फिर बड़ौदा जाने का विचार किया, लेकिन वहाँ जाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे । तभी 'थॉमस एंड कुक' कंपनी ने उन्हें छः सौ रूपये हर्जाने के रूप में दिये, जिस समान का उन्होंने बीमा करवाया था । वे छः सौ रूपये उस घोर आर्थिक संकट में भीमराव के बहुत काम आये । उनमें से आधे पैसे अपनी पत्नी को घर का खर्च चलाने के लिए दे दिये और आधे पैसे खुद के खर्च के लिए रखकर बड़ौदा जाने की तैयारी कर ली । बड़ौदा महाराज ने अपने कर्मचारियों को आदेश दिया था कि वे भीमराव के स्वागत के लिए रेलवे स्टेशन पहुँचे, लेकिन जब भीमराव रेलवे स्टेशन पहुँचे, तो वहाँ कोई नहीं था । उनके साथ बड़े भाई आनंद राव भी थे । महार अछूत का स्वागत करने वाला कोई नहीं था । दरअसल बड़ौदा शहर में पहले से ही यह खबर फैल गई थी कि एक महार युवक यहाँ नौकरी पर आ रहा है । " भीमराव बड़ौदा शहर पहुँचे, लेकिन रहने को स्थान पाने के लिए पूरे शहर में भटकते रहे । जाति बताने पर सवर्ण लोग मना ही नहीं करते, बल्कि दुत्कार करके बाहर निकाल देते थे । उनको किसी भी हिंदू और मुस्लिम होटल में जगह नहीं दी गई । चारों ओर के दरवाजे भीमराव के लिए बंद थे । किराए पर भी उन्हें मकान नहीं मिल पाया, क्योंकि वे अछूत महार थे । बड़ौदा सरकार की ओर से भी उनके रहने के लिए कोई प्रबंध नहीं किया गया । आखिर उन्होंने अपनी जाति छुपाकर एक पारसी सराय में नकली पारसी बनकर रहने का फैसला किया । उन्होंने अपना बनावटी पारसी नाम 'एदलजी सोहराबजी' रखा और जहाँगीर जी होटल वाला के पारसी होटल में रहने लगे । भीमराव को ऐसा बनावटी व्यवहार कतई पसंद नहीं था, लेकिन वहाँ की विकट मजबूरियों के कारण ऐसा करना पड़ा । " [7]

भीमराव को बड़ौदा महाराजा के मिलिट्री सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किया गया । महाराजा उन्हें फाइनेंस मिनिस्टर बनाना चाहते थे, लेकिन वित्त व अन्य विभागों का प्रशासनिक अनुभव भी कराना चाहते थे, इसलिए पहले मिलिट्री सचिव बनाया । इसके साथ ही रियासत के सेक्रेटेरिएट के सवर्ण हिंदुओं में कानाफूसी होने लगी कि एक अछूत को सवर्ण हिंदुओं के सिर पर लाकर बैठा दिया है, जो सवर्ण हिंदुओं का अपमान है । सभी कर्मचारी अधिकारी भीमराव को घृणा, उपेक्षा व तिरस्कार की नजर से व्यवहार करने लगे । इतने ऊँचे पद पर आसीन देश-विदेश से उच्च शिक्षा लिए अधिकारी को वहाँ के क्लर्क, मुंशी और यहाँ तक कि अनपढ़ चपरासी भी उनकी टेबल पर दूर से ही कागज-पत्र और फाइलें फेंककर देता था, कि कहीं वे अपवित्र न हो जाएँ । जब वे अपनी कुर्सी से उठकर जाते, तो उनके नीचे बिछी दरी को भी समेट देते थे । ऑफिस में उन्हें कोई पानी पिलाने को तैयार नहीं था । वहाँ कर्मचारियों के साथ अधिकारियों का व्यवहार भी बहुत अमानवीय था । " अफसरों का एक क्लब था, जहाँ रियासत के अफसर खाने, खेलने का शौक पूरा करते थे । भीमराव भी क्लब जाने लगे, लेकिन वहाँ भी सवर्ण हिंदू अफसरों ने कहा कि वे यहाँ किसी खेल में भाग न लें और एक कोने में ही बैठ जाया करें । इस तरह अपमानित होकर भीमराव ने क्लब जाना भी छोड़ दिया । विडंबना यह थी कि क्लब में आने वाले पारसी व मुस्लिम अफसर भी छुआछूत करते थे । सवर्ण हिंदू अफसरों को गैरधर्मी पारसी व मुस्लिमों से कोई शिकायत नहीं थी, वे बस अछूत भीमराव से ही घृणा करते थे । " [8] जब भीमराव अपनी शिकायत लेकर सयाजीराव गायकवाड के पास गये और उनसे मदद माँगी, तो महाराज ने उन्हें यह कहकर लौटा दिया कि " इस सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ मैं नहीं लड़ सकता और न ही विरोध कर सकता हूँ, लेकिन तुम चाहो तो मैं तुम्हें दस वर्ष के अनुबंध से मुक्त कर सकता हूँ । "  इसलिए भीमराव बड़ौदा से वापस लौट आये ।

भीमराव ने लंदन यूनिवर्सिटी से एम०एससी०, डी०एससी० और ग्रेज-इन की बैरिस्टर डिग्री का अधूरा रह गया अध्ययन भी पूरा करने का मन बना लिया । वापस लंदन जाने से पहले पैसा कमाना बहुत जरूरी था । इसके लिए मुंबई में ही नौकरी के लिए भागदौड़ शुरू कर दी, लेकिन नौकरी नहीं मिली । उनका अछूत होना ही उनके आगे बढ़ने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा था । उन जैसे उच्च शिक्षित व्यक्ति को भी रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ रहा था । वकालत करने का भी विचार आया, लेकिन इसके लिए पहले बैरिस्टर की डिग्री हासिल करना चाहते थे । इन्हीं दिनों न्यूयार्क में अपने साथ पढ़े अपने पुराने पारसी मित्र नवल मथेना की मदद से दो छात्रों की ट्यूशन लेने का मौका मिला । दावर्स कॉलेज के कोचिंग इंस्टिट्यूट में इकोनॉमिक्स बैंकिंग पढ़ाते थे । 150 रूपये महीने के मिल जाते थे । आर्थिक तंगी भारी संकट बन गया था । इसके साथ ही उन्होंने अर्थशास्त्र के ज्ञान के आधार पर लोगों को स्टॉक मार्केट और शेयर की जानकारी देने के लिए एक कामर्शियल कंपनी शुरू कर दी । 'स्टॉक्स एंड शेयर्स एडवाइजर्स' नामक कंपनी के द्वारा बड़े व्यापारियों और व्यापारिक कंपनियों को आर्थिक सलाह देने का काम शुरू किया । भीमराव अर्थशास्त्र के विद्वान थे, इसलिए आय भी अच्छी होने लग गई । लेकिन यहाँ भी जाति ने उनका पीछा नहीं छोड़ा । थोड़े दिनों बाद, ज्यों ही गुजराती और मारवाड़ी व्यापारियों को मालूम हुआ कि सलाहकार कंपनी एक अछूत की है, तो सबने आना बंद कर दिया । एक अछूत से व्यापारिक सलाह लेना किसी को मंजूर नहीं था । आखिर वह कंपनी बंद करनी पड़ी । इसके बाद एक अमीर पारसी व्यक्ति के यहाँ पत्र-व्यवहार व हिसाब-किताब रखने का काम करने लगे । इस प्रकार जैसे-तैसे कुछ कमाई करके घर का खर्च जुटाने के लिए संघर्ष करते रहे । एक-डेढ़ साल तक ऐसे मुश्किल हालातों में जीवन व्यतीत करते रहे । परिवार का खर्च भी जैसे-तैसे चल रहा था । उन्हें दुःख हो रहा था कि धन की कमी के कारण वे लंदन नहीं जा पा रहे थे । वे धन कमाने की पूरी कोशिश भी कर रहे थे, लेकिन जाति का पहाड़ बाधा बन जाता था । ऐसी स्थिति में भी उन्होंने बहुत क्षमता के सहारे जग को जीतने का संकल्प नहीं छोड़ा । इसी समय उन्होंने बट्रैण्ड रसेल की किताब 'सामाजिक संरचना के तत्व' पर एक समीक्षात्मक लेख जर्नल आफ इंडियन इकोनॉमिक सोसाइटी की पत्रिका में लिखा । इन्हीं दिनों उन्होंने अमेरिका में लिखा हुआ प्रबंध 'कास्ट इन इंडिया' प्रकाशित कराया, लेकिन इस किताब से भी उन्हें इतना पैसा नहीं मिला, जिससे वे वापस लंदन जाकर अपना अध्ययन पूरा कर सकें । " एक दिन उन्हें मालूम हुआ कि मुंबई के सरकारी सिडेनहैम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स में एक प्रोफेसर की जगह खाली है । उन्होंने फौरन 5 दिसंबर 1917 को अपनी अर्जी भेज दी । इस कॉलेज की स्थापना मुंबई के भूतपूर्व गवर्नर लार्ड सिडेनहैम के नाम पर हुई थी और लंदन में भीमराव का लाॅर्ड सिडेनहम से परिचय हो गया था । भीमराव ने सिडेनहम को पत्र लिखकर आग्रह किया कि आप मेरी सिफारिश करें । एक पद के लिए ग्यारह उम्मीदवार थे और वहाँ के प्रिंसिपल अवस्थी आर०एन० जोशी को लेना चाहते थे, लेकिन उन्होंने इंग्लैंड से प्रोफेसर एडविन की राय में कहा कि छात्रों को पास कर आगे बढ़ाने के लिए अंबेडकर अपने ज्ञान का सारा खजाना उनके सामने उड़ेल देंगे । " [9] लॉर्ड सिडेनहम ने पूरी तरह से भीमराव के चयन की सिफारिश की । इसके साथ ही उनका साक्षात्कार भी अच्छा हो गया और 11 नवंबर 1918 ई० को भीमराव चार सौ पचास रूपये मासिक वेतन पर सिडेनहम कॉलेज में प्रोफेसर नियुक्त हुये । इससे परिजनों, रिश्तेदारों व मित्रजनों को बहुुत खुशी हुई । सबसे बड़ी बात यह थी कि इससे पैसा कमाकर भीमराव का लंदन जाना आसान हो गया ।

उपर्युक्त घटनाओं से स्पष्ट है कि बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर को अपने जीवन में बाल्यकाल से लेकर युवाकाल तक अनेक बार छुआछूत और जातिभेद का असहनीय दुःख सहन करना पड़ा । फिर भी वे अपने अदम्य साहस के बल पर अपने लक्ष्य की ओर निरंतर अग्रसर रहे । वे भारतीय समाज में व्याप्त विषमता से अत्यंत दुखी थे । इस देश के बहुजनों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार को देखकर और स्वयं भुक्तभोगी होकर वे मानसिक रूप से पीड़ित थे । सबसे अधिक दुःख तो उन्हें तब हुआ था, जब वे महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ के सचिवालय में सचिव के पद पर नियुक्त होने के बाद एक अत्यंत अपमानजनक घटना के शिकार हुए थे । " आंबेडकर जिस पारसी आवास-गृह में रहते थे, वहाँ एक दिन क्रोध से आगबबूला पारसियों का एक झुंड हाथ में लाठियाँ लेकर आ पहुँचा । उस संतप्त झुंड के एक व्यक्ति ने उनसे पूछा, " तुम कौन हो ? " तुरंत आंबेडकर ने उत्तर दिया, " मैं हिंदू हूँ । " उस पर उस व्यक्ति ने कहा, " तुम कौन हो ? यह हम जानते हैं ।  तुमने हमारे समाज के वसतिगृह को भ्रष्ट किया है । तुम इसी समय यहाँ से बाहर जाओ । " आंबेडकर ने अपनी पूरी शक्ति इकट्ठा करके उनसे कहा, " आठ घंटे बाद मैं यहाँ से चला जाऊँगा । " वे दिन ताऊन के थे । महाराज मैसूर जाने की जल्दी में होंगे । उन्होंने इस संबंध में दीवान से मिलने के लिए आंबेडकर से कहा । दीवान ने इस मामले पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया । नगर में कोई भी हिंदू या मुस्लिम आंबेडकर को आश्रय देने के लिए तैयार नहीं था । आखिर भूख और प्यास से व्याकुल आंबेडकर एक पेड़ के तले बैठकर फफककर रो पड़े । [10] एक निडर, साहसी, स्वाभिमानी व विद्वान व्यक्ति धर्म की अमानवीय व घृणित जाति-व्यवस्था के आगे असहाय था, लेकिन इस घटना से उनके मन में व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की ज्वाला तेज धधकने लगी । वे सोच रहे थे कि जब मुझ जैसे पढ़े-लिखे व्यक्ति का ऐसा अपमान हो रहा है, तो गाँव में रहने वाले मेरे गरीब भाइयों पर क्या बीतती होगी ? हमारे पूर्वजों ने कई युद्ध लड़े हैं, रण-संग्राम में कई बार जीते हैं और अपने स्वामी को जिताकर ताज पहनाया है । मन में ऐसे विचार आये और वीर रस का संचार हुआ । उन्हें पूर्वजों की बहादुरी के गौरव का अनुभव हुआ और उन्होंने उस 23 सितंबर 1917 ई० के दिन उसी वृक्ष के नीचे बैठकर संकल्प लिया कि " मैं हजारों वर्षों से पशुओं से भी बद्तर गुलामी का जीवन जी रहे अपने समाज के लोगों को इस गुलामी से मुक्त करूँगा और उनके अधिकार व सम्मान की लड़ाई लड़ूगा । अगर मैं अपने समाज को स्वाभिमान की जिंदगी नहीं दिला सका, तो खुद को गोली मारकर हत्या कर लूँगा । " जिस स्थान पर बाबा साहेब डाॅ० भीमराव आंबेडकर जी ने यह संकल्प लिया था, उस स्थान को बड़ौदा में 'संकल्प भूमि के' नाम से जाना जाता है ।


संदर्भ :- 
[1] बाबा साहेब आंबेडकर - लाइफ एंड मिशन : डॉ० एम०एल० परिहार, पृष्ठ 7, प्रकाशक - बुद्धम पब्लिशर्स, श्याम नगर (जयपुर)
[2] वही, पृष्ठ 12
[3] वही, पृष्ठ 15
[4] वही, पृष्ठ 20
[5] डॉ० बी० आर० आंबेडकर - व्यक्तित्व एवं कृतित्व : डॉ० डी०आर० जाटव, पृष्ठ 26, प्रकाशक - समता साहित्य सदन राजस्थान, प्रथम संस्करण 1964
[6] वही, पृष्ठ 31-32
[7] बाबा साहेब आंबेडकर - लाइफ एंड मिशन : डॉ० एम०एल० परिहार, पृष्ठ 35, प्रकाशक - बुद्धम पब्लिशर्स, श्याम नगर (जयपुर)
[8] वही, पृष्ठ 
[9] वही, पृष्ठ 40,41
[10] डॉ० बाबा साहेब आंबेडकर - जीवन चरित : धनंजय कीर, पृष्ठ 35 

📘 'आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान' (लेखक - देवचंद्र भारती 'प्रखर') पुस्तक से साभार प्रस्तुत ।

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने