छायावादी काव्य पर बुद्ध-दर्शन का प्रभाव

छायावादी काव्य पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव

छायावाद के प्रवर्तक जयशंकर प्रसाद जी ने लिखा है कि - " दु:ख अभिशाप नहीं है, अपितु प्रकृति के द्वारा दिया गया रहस्य पूर्ण वरदान है ।

जिसे तुम समझे हो अभिशाप,
जगत की ज्वालाओं का मूल ।
ईश का वह रहस्य वरदान,
कभी मत जाओ इसको भूल ।।

प्रसाद जी प्रेम में वेदना को विशेष महत्व प्रदान करते हैं । प्रसाद में करुणा की यह झलक बौद्ध धम्म के दुःखवाद से प्रभावित है ।

जो घनीभूत पीड़ा थी, मस्तक में स्मृति-सी छाई ।
दुर्दिन में आंसू बनकर, वह आज बरसने आई ।।

निराला ने जीवनभर जिन परिस्थितियों का सामना किया और जो कष्ट उठाया, उसका संकेत इनकी रचनाओं मिलता है । सरोज स्मृति' में निराला स्वयं कहते हैं -

दुःख ही जीवन की कथा रही ।
क्या कहूं आज, जो नहीं कही ।।

निराला अकेले ही समस्त कष्टों को झेलते रहे । इनकी आर्थिक स्थिति सदैव विपन्न रही, लेकिन अर्थागम के लिए कभी सिद्धांत च्युत नहीं हुए और न पराजय स्वीकार की ।

लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर ।
हारता रहा मैं स्वार्थ - समर ।।

सामाजिक विषमता के कारण मानव कितना दयनीय बन जाता है । इसकी अभिव्यक्ति भिक्षुक कविता की इन पंक्तियों में हुई है -

चाट रहे जूठी पत्तल वे, कभी सड़क पर खड़े हुए ।
और झपट लेने को उनसे, कुत्ते भी हैं अड़े हुए ।।

छायावाद-युग के चौथे स्तंभ के रूप में आधुनिक युग की मीरा बाई' की उपमा से अभिहित, कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं पर भी बौद्ध धम्म दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है । जो विरह आँसू बनकर प्रसाद की आँख में बरस रहा है, उसी विरह वेदना ने महादेवी वर्मा को व्यग्र बनाकर उन्हें अपनी तुलना नीर भरी बदली से करने को विवश कर दिया है ।

मैं नीर भरी दुख की बदली ।
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी, मिट आज चली ।

वह अपने सुख-दुख एवं हर्ष-विषाद को अपने गीतों का विषय बनाती हैं । उनके गीतों में व्यक्ति एवं जगत का दुख सर्वत्र व्याप्त है -

विरह का जलजात जीवन, विरह का जलजात ।
आंसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल ।।

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
🏡 वाराणसी, उत्तर प्रदेश
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका 
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'

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