'लज़्ज़त-ए-अलम' का अर्थ होता है - 'दुःखों का आनंद' । 'प्रखर' अपने प्यार के दर्द को बयां तो करते ही हैं, साथ ही प्यार के दर्द से मुक्त होने और दर्द में मजा मिलने की हालत को भी अभिव्यक्त करते हैं । 'प्रखर' की अभिव्यक्ति में ईमानदारी और सादगी है । इनकी भाषा में न तो बनावटीपन है और न ही वह बोलचाल की भाषा से दूर हुई है ।
व्यवस्था की आलोचना या व्यवस्थाजन्य दमन का प्रतिरोध भी 'प्रखर' के यहाँ दिखाई पड़ता है । शोषण का प्रतिरोध उनकी कुछ पंक्तियों में बहुत सादगी और पुरअसर ढंग से उभर आया है । 'प्रखर' के कई अशआर सुंदर बन गये हैं । उन अशआर में बात कहने का ढंग सुंदर है और उनमें कोई न कोई बोलती हुई बात है । ✍️ डाॅ० अजीत प्रियदर्शी, एसोसिएट प्रोफेसर - डी०ए०वी० कॉलेज, लखनऊ
भूमिका (ग़ज़ल का तात्पर्य, ग़ज़ल की बहरें और मेरी आंबेडकरवादी ग़ज़लें) - ✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ग़ज़ल का तात्पर्य
ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ है - स्त्री या प्रेमिका से वार्तालाप (उर्दू हिंदी शब्दकोश, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ) । किंतु अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने इस विषय में एक अलग तथ्य प्रस्तुत किया है । उनके अनुसार, " ग़ज़ल यूँ तो अरबी भाषा का शब्द है । मगर ईरानियों ने इसे विशेष तौर पर अपनाया है । वहाँ हजार वर्ष से ज्यादा ग़ज़ल का दौर रहा । 'सुखन अज़ ज़नान गुफ़्तन' या 'अज़ माशूक़ गुफ़्तन' जिसका सही अर्थ है - औरतों की बात करना या औरतों का जिक्र करना । लेकिन प्रारंभ में किसी लेखक ने 'अज़' शब्द के भ्रम में पड़कर ग़ज़ल का अर्थ 'औरतों से बात करना' लिख दिया और बाद के लिखने वाले उसी भूल को दोहराते रहे । यदि औरत से बात करना अभीष्ट होता, तो 'सुख़न बा ज़नान' कहते, न कि 'अज़ जनान' । अतः ग़ज़ल का अर्थ हुआ - औरतों का जिक्र करना, उनके इश्क का दम भरना और उनकी मुहब्बत में मरना (शेर ओ सुखन भाग 2, अयोध्या प्रसाद गोयलीय ) । आधुनिक काल में ग़ज़ल के व्यापक विषय-क्षेत्र को ध्यान में रखते हुए वीनस केसरी ने ग़ज़ल की नई परिभाषा इस प्रकार दी है, " ग़ज़ल वह पद्य रचना है, जिसमें अरूज़ अनुसार बहर और वज्न का ध्यान रखते हुए रदीफ़, का़फिया को निभाते हुए कुछ अशआर हों, जो कहन के लिहाज से स्वतंत्र हों व जिसका भाव पक्ष मानवीय संवेदना और जीवन दर्शन के किसी एक या अनेक पक्षों को इंगितों में प्रकट करता हो । इंगितों से आशय यह है कि नियमों को निभाते हुए जो बात कही जाए, वह बिल्कुल स्पष्ट न होकर रूपकों, प्रतीकों के एक झीने पर्दे से ढँकी हो " ( ग़ज़ल की बाबत, पृष्ठ 23) ।
उपर्युक्त अर्थ एवं परिभाषाओं से स्पष्ट है कि -
1. ग़ज़ल शब्द अरबी-फारसी भाषा का शब्द है ।
2. प्रारंभ में ग़ज़ल का अर्थ औरत और इश्क़ से संबंधित था ।
3. ग़ज़ल एक पद्य रचना है, जो बहर में लिखी जाती है ।
4. ग़ज़ल में रदीफ़ और का़फिया का निर्वहन किया जाता है ।
5. ग़ज़ल में रूपकों और प्रतीकों के सहारे विचारों को व्यक्त किया जाता है ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
लज़्ज़त-ए-अलम (आंबेडकरवादी ग़ज़ल संग्रह)
रचनाकार : देवचंद्र भारती 'प्रखर'
ISBN : 9789389099560,
प्रथम संस्करण - 2020, द्वितीय संस्करण - 2023
📚 मुद्रित पुस्तक मँगाने के लिए संपर्क करें :-
प्रकाशक : आशीष सिंह - साहित्य संस्थान, गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)📱 8375811307
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल को लेकर आजकल जिरह का माहौल है । 'हिंदी ग़ज़ल की रिवायत : एक जिरह' नामक अपने आलेख में सुल्तान अहमद ने लिखा है, " हिंदी ग़ज़ल की परंपरा बहुत लंबी बताई जाती है । कहते हैं, इसकी शुरुआत अमीर खुसरो से हुई । मेरे ख्याल से यह मान्यता दुरुस्त नहीं है । बहुत-बहुत तो उनकी डेढ़ ग़ज़लें दूरस्थ पहाड़ की ऊँची चोटियाँ कही जा सकती हैं । एक तो यह, 'जब यार देखा नैन भर/दिल की गयी चिंता उतर' और आधी हिंदी ग़ज़ल उनके इस प्रसिद्ध दो सूखने में हैं, 'जेहाल-ए-मिस्कीं मकुन तगाफुल/दुराय नैना बनाय बतियां' में । परंपरा इसे नहीं कहते कि वह एक शिखर बनाकर दो सौ साल तक आराम करे । फिर कबीर पैदा हों, तो एक और शिखर बनाएँ, 'हमन है इश्क मस्ताना/हमन को होशियारी क्या ?' बताने वाले इस बीच के कई भजनों को भी हिंदी ग़ज़लें बताते हैं और अपनी हिंदी ग़ज़ल की परंपरा से प्रेम दिखाते हैं । माफ कीजिएगा, मैं भजनों को गजलों की परंपरा में स्वीकार कर पाने की स्थिति में नहीं हूँ । फिर कई सौ साल बाद भारतेंदु आते हैं ।...... इस तरह हिंदी ग़ज़ल के छः सौ साल पूरे हो जाते हैं । इस बीच उर्दू में धुआँधार ग़ज़लें लिखी जाती रहीं, मगर हमको उनसे क्या ? भारतीय हिंदू के बाद बीसवीं सदी के प्रारंभ के कवियों मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध, श्रीधर पाठक, जयशंकर प्रसाद आदि ने मनबहलाव के लिए ग़ज़ल के आकार में जो कुछ लिखा, क्या उन्हें वे ग़ज़लें कहना पसंद भी करते । मेरे ख्याल से ग़ज़ल की बहस में उन्हें घसीटना भी मुनासिब न होगा " (शताब्दी कविता, पृष्ठ 324-25) । ............. (पूरी 'भूमिका' पढ़ने के लिए पुस्तक अथवा ई-बुक खरीदें )
सुल्तान अहमद ने अपने इस आलेख में निराला और दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों को भी बेबहर घोषित किया है । लेकिन उन्होंने शमशेर बहादुर सिंह को एक ग़ज़लगो के रूप में स्वीकार किया है । सुल्तान अहमद की दृष्टि में वही ग़ज़लें महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सामाजिक चेतना हो । ✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
आंबेडकरवादी ग़ज़लों का स्वरूप और मेरी ग़ज़लें
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आंबेडकरवादी ग़ज़लों का स्वरूप, सामान्य ग़ज़लों के स्वरूप से थोड़ा सा अलग है । आंबेडकरवादी ग़ज़लों के लिए आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण होना अनिवार्य है । आंबेडकरवादी चेतना के अभाव में, बहर तथा रदीफ़, का़फिया आदि सभी नियमों का पालन करने के उपरांत भी कोई ग़ज़ल आंबेडकरवादी ग़ज़ल नहीं मानी जा सकती है । एक आंबेडकरवादी साहित्यकार अपनी ग़ज़लों में ईश्वर, भाग्य, आत्मा आदि के प्रति आस्था नहीं प्रकट करता है । वह अपनी ग़ज़लों में इन शब्दों का उल्लेख कर सकता है, लेकिन केवल नकार के भाव में; समर्थन में नहीं । आंबेडकरवादी चेतना के प्रमुख बिंदुओं में अनीश्वरवाद, अनात्मवाद और प्रतीत्यसमुत्पाद के अतिरिक्त समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम की भावना को सम्मिलित किया जाता है । समता का तात्पर्य है - लिंग, जाति, धर्म आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करना । यही कारण है कि नारीवाद को आंबेडकरवादी चेतना में शामिल नहीं किया जाता है । स्वतंत्रता का तात्पर्य 'अनियंत्रित स्वतंत्रता' से नहीं है । बल्कि उस स्वतंत्रता से है, जो भारतीय संविधान में स्वतंत्रता के अधिकार के रूप में वर्णित है । ........................ (पूरी 'भूमिका' पढ़ने के लिए पुस्तक अथवा ई-बुक खरीदें )
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं समालोचक
संपादक - 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका
संस्थापक एवं महासचिव - 'GOAL'
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~