संत रविदास के काव्य में बौद्ध चिंतन

संतकवि रविदास जी के जीवन परिचय और उनकी विचारधारा के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है । हिंदू विद्वान उन्हें एक हिंदू भक्त के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जबकि बौद्ध विद्वान उन्हें बौद्ध विरासत का पुरोधा कहते हैं । संत रविदास जी के पंथ का अनुसरण करने वाले लोग उनके नाम पर 'रविदासिया धर्म' की स्थापना कर चुके हैं । रविदासिया धर्म का अनुपालन करने वाले लोग उन्हें देवता की तरह पूजते हैं, लेकिन उन्हें एक भक्त मानते हैं । यह विचित्र विडंबना है कि एक भक्त एक देवता भी है । वास्तव में, 'रविदासिया धर्म' का केवल नाम ही अलग है, जबकि वह हिंदू धर्म की ही एक शाखा है, क्योंकि उसकी समस्त विचारधारा हिंदू धर्म के समान है । ध्यातव्य है कि रविदासिया धर्म के लोग बौद्ध धम्म के प्रति असंतोष प्रकट करते हैं, जबकि बौद्ध धम्म के सिद्धांत विज्ञान पर आधारित हैं और सार्वभौमिक सत्य के अत्यधिक निकट हैं । यदि संत रविदास जी की कविताओं का सम्यक मूल्यांकन किया जाए, तो उनकी मूल विचारधारा बुद्ध की वाणी के समान सिद्ध होती है । 



डॉ० सूरजमल सितम जी ने अपनी पुस्तक 'बोधिसत्व गुरु रविदास और उनके आंदोलन' में बुद्ध-वाणी और रविदास-वाणी में समानता सिद्ध किया है । डाॅ० सितम जी के अनुसार, " भगवान बुद्ध ने मन के महत्व पर अधिक जोर दिया है, इसलिए धम्मपद ग्रंथ की शुरुआत ही मन से की गई है - ' मनो पुब्बंगमा धम्मा मनोसेट्ठा मनोमया/मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा/ततो नं सुखमन्वेति छाया व अनपायिनी' अर्थात् जब व्यक्ति स्वच्छ मन से बोलता व कार्य करता है, तब सुख उसके पीछे-पीछे वैसे ही हो लेता है, जैसे कभी साथ न छोड़ने वाली उसकी परछाई उसके साथ रहती है । " [1] इसी प्रकार संत रविदास जी ने भी मन की पूजा अर्थात् मन को निर्मल करने और साधने का विचार प्रकट किया है । यथा : 

मन ही पूजा मन ही धूप ।
मन ही सेऊँ सहज स्वरूप ।। [2]

बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने अपनी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' में लिखा है, " जाति-पाँति के लिए संघ में कोई स्थान न था । सामाजिक स्थिति का संघ में कोई स्थान न था । संघ के भीतर सभी सदस्य समान थे । संघ के अंदर छोटे-बड़े का निर्णय सदस्य के गुणों से होता था, न कि उसके जन्म से । जैसा तथागत ने कहा था कि संघ एक समुद्र के समान है और भिक्षु नदियों के समान हैं, जो समुद्र में विलीन हो जाती हैं । " [3] तथागत बुद्ध ने कहा - " जाति मा पुच्छ चरणं पुच्छ । " अर्थात् जाति मत पूछो, आचरण पूछो । इसी प्रकार संत रविदास जी ने भी कहा है :

रविदास जन्म कै कारनै, होत न कोऊ नीच ।
नर कू नीच करि डारि है, ओछे करम कौ कीच ।। [4]

तथागत गौतम बुद्ध ने सारनाथ में पाँचों ब्राह्मण परिव्राजकों को उपदेश देते हुए सफल और कल्याणकारी जीवन के आठ मार्ग बताये, जिसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है । अष्टांगिक मार्ग हैं - सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि । राहुल सांकृत्यायन ने ठीक प्रयत्न (सम्यक व्यायाम) का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है, " इंद्रियों पर संयम, बुरी भावनाओं को रोकने तथा अच्छी भावनाओं के उत्पादन का प्रयत्न, उत्पन्न अच्छी भावनाओं को कायम रखने का प्रयत्न - ये ठीक प्रयत्न हैं । " [5] सम्यक व्यायाम जैसी उक्ति का प्रयोग संत रविदास जी ने भी अपने एक पद में किया है । यथा :

सो कहा जाने पीर पराई ।
जाकी दिल में दरद न आई ।। [6]

स्वरूपचंद्र बौद्ध जी ने अपनी पुस्तक 'बौद्ध विरासत के पुरोधा गुरु रविदास' में लिखा है, " बुद्ध वचन को समय-समय पर हजारों विद्वानों ने भिक्खु-संघ की सम्मिलित संगीति-सभाओं में समयानुसार संशोधित किया और सुक्त या शब्द-रटंत (कंठस्थ) के आधार पर प्रतिष्ठित ज्ञान की समपुष्टि की गयी । परिणामतः इस ज्ञान में गतिशीलता आयी और विचार व विमर्श को महत्त्व मिला । यही गतिशीलता और विश्वास आगे चलकर विभिन्न यानों के रूप में पल्लवित हुआ । हीनयान, महायान, वज्रयान और सहजयान इसकी क्रमबद्ध कड़ियाँ हैं । " [7] सहजयान ही परिणत होकर नाथपंथ और संत-परंपरा का रूप ग्रहण कर लिया । इस प्रकार संतों की वाणी में उनकी पूर्व परंपरा की विचारधारा समाहित है । राहुल सांकृत्यायन ने बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन के शून्यता-दर्शन को स्पष्ट करते हुए लिखा है, " आचार्य ने बतलाया है कि जो शून्यता को समझता है, वह प्रतीत्य-समुत्पाद (विच्छिन्न प्रवाह के तौर पर उत्पत्ति) को समझ सकता है । प्रतीत्य-समुत्पाद समझने वाला चारों आर्य सत्यों को समझ सकता है । चारों सत्यों के समझने पर उसे तृष्णा-निरोध (निर्वाण) आदि पदार्थों की प्राप्ति हो सकती है । प्रतीत्य-समुत्पाद जानने वाला जान सकता है कि क्या धर्म है, क्या धर्म का हेतु और क्या धर्म का फल है ? वह जान सकता है कि अधर्म, अधर्म हेतु अधर्म फल क्या है ? क्लेश (चित्त-मल), क्लेश-हेतु, क्लेश-वस्तु क्या है ? जिसे यह सब मालूम है, वह जान सकता है कि क्या है सुगति या दुर्गति ? क्या है सुगति-दुर्गति में जाना, क्या है सुगति-दुर्गति में जाने का मार्ग, क्या है सुगति-दुर्गति से निकलना तथा उसका उपाय । शून्यता से नागार्जुन का अर्थ है - प्रतीत्य-समुत्पाद । विश्व और उसकी सारी जड़-चेतन वस्तुएँ किसी भी स्थिर, अचल तत्व से बिल्कुल शून्य हैं । अर्थात् विश्व घटनाएँ हैं, वस्तु-समूह नहीं । " [8] बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' में लिखा है, " बौद्ध 'शून्यता' का मतलब सोलह आने निषेध नहीं है । इसका मतलब इतना ही है कि संसार में जो कुछ है, वह प्रतिक्षण बदल रहा है । " [9] वास्तव में, शून्यवाद का सिद्धांत अनित्यता के सिद्धांत का ही परिवर्तित रूप है । संतकवि रविदास जी अपने एक पद में कहते हैं कि अब मैं हार चुका हूँ । लोक-वेद की बड़ाई करके, दोनों तरह से (हाल-चाल) थक चुका हूँ । नाचते-गाते और सेवा-पूजा करके भी थक चुका हूँ । काम क्रोध से शरीर थक चुकी है; और दूसरी बात क्या कहूँ ? अब तो मैं न ही रामजन हो पाता हूँ, न हीं भक्तजन हो पाता हूँ और न ही देवताओं के पैर पखारता हूँ । मैं जो-जो भी करता हूँ, उससे और भी सांसारिक बंधनों में बँधता जाता हूँ । पहले तो मैं ज्ञान का दीपक जलाया, फिर उसे बुझा दिया । सुन्न सहज (शून्य साधना) में मैंने दोनों को छोड़ दिया । अब मैं न ही राम कहता हूँ, न ही खुदा कहता हूँ । मैंने ज्ञान-ध्यान (पूजा-पाठ) दोनों छोड़ दिया है । अब तक मैं जिसके लिए दौड़ता फिरता था, मैंने उसे अपने ही भीतर पा लिया है । अब मेरी पाँचों इंद्रियाँ मेरी सहेली बन गयी हैं । उन्होंने मुझे असली निधि को बता दिया है । अब मैं इस संसार में रहकर ही प्रसन्न रहता हूँ और अब वह (शून्य) भी मेरे अंदर समा गया है । रविदास जी कहते हैं कि अब वह (शून्य) मुझे सहज रूप में सम्मुख दिखाई देता है । रविदास जी ने सोहम् (स: + अहम् ) अर्थात् 'वह से मैं की ओर', 'बाहर से भीतर की ओर' के साधना-रूप को स्वीकार किया । इस प्रकार की साधना तथागत गौतम बुद्ध के शून्यवाद के निकट है । अवलोकनार्थ :

अब मैं हार्यो रे भाई ।
थकित भयो सब हाल-चाल थैं, लोकन वेद बड़ाई ।।
थकित भयो गाइण अरु नाचण, थाकी सेवा पूजा ।
काम क्रोध थै देह थकित भई, कहूं कहां लो दूजा ।।
राम जन होऊँ ना भगत कहाऊँ, चरण पषालूं न देवा ।
जोई जोई करूं उलटि मोही बांधे, ताथे निकट न भेवा ।।
पहली ज्ञान का किया चांदना, पीछे दीया बुझाई ।
सुन्न सहज में दोऊ त्यागे, राम कहूँ न खुदाई ।।
हरै बसे खटक्रम सकल अरू, दूरिब कीन्हें सेऊ ।
ज्ञान ध्यान दोउ दूरी कीए, दूरिब छाड़ि तेऊ ।।
पंचू थकित भए जहां-तहां, जहां-तहां थिति पाई ।
जा कारण में दौरो फिरतो, सो अब घट में पाई ।।
पंचू मेरी सखी सहेली, तिन निधि दई बताई ।
अब मन फूलि भयो जग महिया, उलटि आपो में समाई ।।
चलत-चलत मेरो निजमन थाकौ, अब मोपै चलो न जाई ।
सोई सहज मिलो सोइ सन्मुख, कहै रैदास बताई ।। [10]

भद्रशील रावत, श्याम सिंह और स्वरूपचंद्र बौद्ध आदि बौद्ध विद्वानों ने संत रविदास जी को बौद्ध विचारधारा का पोषक सिद्ध किया है । भद्रशील रावत जी ने 'संत रविदास वाणी में बौद्ध चिंतन' नामक अपनी पुस्तक में संत रविदास जी की वाणी में बौद्ध-चिंतन का सम्यक विवेचन किया है । श्याम सिंह जी ने अपनी पुस्तक 'संत रविदास जी की मूल विचारधारा' में संत रविदास जी की मूल विचारधारा को बौद्ध विचारधारा के रूप में विश्लेषित किया है । स्वरूपचंद्र बौद्ध जी ने तो 'बौद्ध विरासत के पुरोधा गुरु रविदास' नामक पुस्तक लिखकर उन्हें बौद्ध विरासत का पुरोधा घोषित कर दिया है । अतः संत रविदास जी के काव्य का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने से स्पष्ट है कि उनके काव्य में बौद्ध-चिंतन का विपुल प्रभाव है । इसका एक कारण यह भी है कि संत रविदास जी के गुरु रैवतप्रज्ञ जी थे, जिन्हें डॉ० एस.के. पंजम जी ने अपनी पुस्तक 'संत रविदास-जन रविदास' में शारदानंद के नाम से अभिहित किया है । 

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संदर्भ :-

[1] बोधिसत्व गुरु रैदास और उनके आंदोलन : डाॅ० सूरजमल सितम, पृष्ठ 117-118 
[2] मध्ययुगीन काव्य : संपादक डॉ० सत्यनारायण सिंह, पृष्ठ 140, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2017
[3] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 241, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
[4] बौद्ध विरासत के पुरोधा - गुरु रैदास : स्वरूपचंद्र बौद्ध, पृष्ठ 123, प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2008
[5] बौद्ध दर्शन : राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 23-24, प्रकाशक - किताब महल नई दिल्ली, पहला संस्करण 1943
[6] मध्ययुगीन काव्य : संपादक डॉ० सत्यनारायण सिंह, पृष्ठ 141, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2017
[7] बौद्ध विरासत के पुरोधा - गुरु रैदास : स्वरूपचंद्र बौद्ध, पृष्ठ 17, प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2008
[8] बौद्ध दर्शन : राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 23-24, प्रकाशक - किताब महल नई दिल्ली, पहला संस्करण 1943
[9] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 149, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
[10] मध्ययुगीन काव्य : संपादक डॉ० सत्यनारायण सिंह, पृष्ठ 139, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2017

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मोहरगंज (चंदौली) उत्तर प्रदेश

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