सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का कविता-संग्रह " बस्स ! बहुत हो चुका " वर्ष 1997 ई० में प्रकाशित हुआ था । इस पुस्तक के प्रकाशन से आठ वर्ष पूर्व उनका पहला कविता संग्रह " सदियों का संताप " सन् 1989 ई० में प्रकाशित हो चुका था, जिसमें उन्होंने दलित समाज की पीड़ा का यथार्थ बिंब प्रस्तुत किया है । इस संसार का प्रत्येक प्राणी असहनीय पीड़ा मिलने पर चीखता है, चिल्लाता है और अपने बचाव हेतु प्रतिरोध भी करता है । पशु भी अपनी रक्षा के लिए प्रतिरोध करते हैं, आक्रोशित होते हैं और कभी-कभी तो हिंसक प्रहार भी कर देते हैं । जब पशुओं में इतना विवेक हो सकता है तो फिर मनुष्य में क्यों नहीं ? असहनीय पीड़ा पाकर मनुष्य कब तक चुप रह सकता है ? इसीलिए अपने पूर्वजों द्वारा " सदियों का संताप " का अनुमान करते हुए तथा स्वयं उन्हीं के जैसी वेदना से संतप्त होकर वाल्मीकि जी प्रतिरोध करते हुए कहते हैं - " बस्स ! बहुत हो चुका " ।
पीड़ा से त्रस्त कवि जब अपनी चुप्पी तोड़ता है तो वह अमानवीय व्यवहार करने वालों से प्रश्न करता है । विषमता के पोषक, जातिगत ऊँच-नीच की भावना रखने वाले पाखंडी लोगों से तार्किक प्रश्न पूछते हुए वे उनके द्वारा की गई पुनर्जन्म की कल्पना को भी परोक्ष रूप से नकारते हैं । " शायद आप जानते हों " कविता में वाल्मीकि जी अंधविश्वास पर प्रहार करते हुए कहते हैं :
गंगा किनारे
कोई वटवृक्ष ढूँढकर
भागवत का पाठ कर लो
आत्म तुष्टि के लिए
कहीं अकाल मृत्यु के बाद
भयभीत आत्मा
भटकते - भटकते
किसी कुत्ते या सूअर की मृत देह में
प्रवेश न कर जाए
या फिर पुनर्जन्म की लालसा में
किसी डोम या चूहड़े के घर
पैदा न हो जाए !
चूहड़े या डोम की आत्मा
ब्रह्म का अंश क्यों नहीं है
मैं नहीं जानता
शायद आप जानते हों ! [1]
इस देश में एक ऐसा वर्ग है जो स्वयं को भूदेव कहता है । यहाँ के निवासियों के लिए वह त्रिकालदर्शी है । मानव जीवन के भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों परिस्थितियों का वाचन करता है । वह स्वयं को पंडित कहता है । ज्योतिष उसका धंधा है, पोथी उसकी पहचान है । वह मनुष्य का भविष्य रुपए की तराजू पर तौलता है । जो जितना अधिक रुपया देता है, उसका भविष्य उतना ही उज्ज्वल बताता है । जो जितना कम रूपया देता है, उसके भविष्य में उतना ही अंधकार बताता है । वह मनुष्य का चेहरा देखकर उसकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति का अनुमान लगा लेता है । वह मनोविज्ञान का अच्छा ज्ञाता है । वह किसी व्यक्ति के व्यवहार को देखकर उसके मन को पढ़ लेता है । वह गोरा, सुंदर व बलिष्ठ व्यक्ति देखकर उसके समीप जाता है और काला, कुरूप व दुर्बल व्यक्ति से दूर भागता है । वह मनुष्य की पहचान उसकी जाति से करता है । धूर्त ज्योतिषी की जातिवादी मानसिकता का प्रतिरोध करते हुए वाल्मीकि जी ने "पंडित का चेहरा" कविता में उसके छुआछूत के बर्ताव का बिम्ब प्रस्तुत किया है :
पंडित का चेहरा
याद क्यों नहीं आता ?
जब कि मैं सब कुछ
याद कर लेना चाहता हूँ
जो कुछ भी लिखा था
उस पंडित की पोथी में !
यदि लिखा था सब कुछ
तो क्यों डाँटकर भगा दिया था
मेरी माँ को पंडित ने
उस वक्त, जब वह पूछने गई थी
मेरा भविष्य । [2]
इतिहास साक्षी है कि प्राचीन समय में भारतीय समाज वर्ण व्यवस्था पर आधारित था । जो लोग चारो वर्णों की श्रेणी से बाहर थे अर्थात् अवर्ण थे, उन्हें अछूत समझा गया । उनका मंदिर में प्रवेश करना वर्जित था, तथाकथित सवर्ण उनके हाथ का छुआ पानी भी नहीं पीते थे । यहाँ तक कि भूलवश उनकी परछाई पड़ जाने पर उन्हें बुरी तरह पीटा जाता था । वे सार्वजनिक स्थानों पर थूक नहीं सकते थे । उनके पैरों के निशान पर अपना पैर रखना भी तथाकथित सवर्णों के लिए पाप था । इसीलिए उन्हें गले में हांडी और कमर में झाड़ू बाँधकर राह चलने को विवश कर दिया गया था । जिस समय हिंदी साहित्य का आधुनिक युग चल रहा था । उस समय छः वर्ष की आयु में बाबा साहब डॉ० भीमराव अंबेडकर को बैलगाड़ी वाले द्वारा, नाई द्वारा और स्कूल में अध्यापकों व छात्रों द्वारा छुआछूत का दंश झेलना पड़ा था । हिंदी साहित्य में वह समय भारतेंदु युग का अंतिम और दिवेदी युग का प्रारंभिक समय था । जिस समय हिंदुओं द्वारा अनेक सुधारवादी आंदोलन चलाए जा रहे थे, उस समय भी अछूतों की स्थिति पूर्ववत रही । डॉ० अंबेडकर ने अपनी कष्टपूर्ण आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए उच्चतम शैक्षिक स्थिति को प्राप्त किया । भारतवर्ष अंग्रेजी शासन से स्वतंत्र हो गया । देश का संविधान लिखने का कार्यभार डॉ० अंबेडकर को सौंपा गया । उन्होंने अछूतों को अनुसूचित वर्ग के नाम से संबोधित करके संवैधानिक रूप से उन्हें मौलिक अधिकार प्रदान किया । संवैधानिक रूप से अछूतों को मौलिक अधिकार के रूप में समता, स्वतंत्रता और अस्पृश्यता से मुक्ति के अधिकार तो मिल गये, किंतु व्यवहारिक जीवन में उन्हें छुआछूत और अपमान के घूँट पीने ही पड़ते थे । ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने अपनी आत्मकथा 'जूठन' (1997) में अपने भोगे हुए दुःखों को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया है । उन्होंने लिखा है, " उन दिनों देश को आजादी मिले आठ साल हो गये थे । गांधीजी के अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती थी । सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खुलने शुरू तो हो गये थे, लेकिन जनसामान्य की मानसिकता में कोई विशेष बदलाव नहीं आया था । स्कूल में दूसरों से दूर बैठना पड़ता था, वह भी जमीन पर । अपने बैठने की जगह तक आते-आते चटाई छोटी पड़ जाती थी । कभी-कभी तो एकदम पीछे दरवाजे के पास बैठना पड़ता था । जहाँ से बोर्ड पर लिखे अक्षर धुँधले दिखते थे । " [3] जिन्हें लंबे समय तक हिंदू धर्मग्रंथों का आधार लेकर प्रताड़ित किया गया हो, क्या उन्हें उस धर्म और धार्मिक ग्रंथों से प्रेम हो सकता है ? बिल्कुल नहीं, घृणा होना स्वाभाविक है । इसीलिए "घृणा और प्रेम कहाँ से शुरू होते हैं ?" कविता में घृणा और प्रेम के कारणों को स्पष्ट करते हुए वाल्मीकि जी कहते हैं :
याद करो,
उस सरकारी क्लर्क का चेहरा
जिसे पानी पिलाने में कतराता है
चपरासी
इन सबके बावजूद भी
तुम नहीं जानना चाहते
घृणा और प्रेम कहाँ से शुरू होते हैं ? [4]
हिंदू धर्म के ठेकेदारों के लिए मनुष्य के प्राणों से भी प्यारा धर्म है । धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने लाखों मनुष्यों की हत्या किया और करवाया है । इस भारतभूमि पर धर्म के नाम से अनेक बार दंगे हुये हैं । धार्मिक दंगे प्रायः हिंदू और मुसलमान के बीच ही होते हैं । दंगों में केवल हिंदू ही नहीं मरते हैं, बल्कि मुसलमान भी मरते हैं । सच तो यह है कि न कोई हिंदू मरता है, न कोई मुसलमान; मरता है तो केवल इंसान । " कभी सोचा है " कविता में ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने हिंदुओं की धर्मांधता का उल्लेख करते हुए उनकी निर्दयता का चित्रण किया है कि किस प्रकार वे दंगों में मरने वाले लोगों की खबरें अनसुनी करते हुए पूजा-पाठ में लीन हो जाते हैं ? प्रस्तुत हैं कुछ पंक्तियाँ :
जब दंगों में मारे जाते हैं
अब्दुल और कासिम
कल्लू और बिरजू
तब तुम सत्यनारायण की कथा सुनते हुए
भूल जाते हो अखबार पढ़ना । [5]
हिंदू धर्म में मूर्ति पूजा का विधान है । मंदिर में मूर्ति स्थापित करते समय तथाकथित ब्राह्मण संस्कृत में मंत्रोच्चारण करके मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की घोषणा करता है । कहा जाता है कि देवता दयालु होते हैं, लेकिन मंदिरों में देवदासी प्रथा के नाम पर सैकड़ों वर्षो तक निर्धन कन्याओं का बलात्कार होता रहा और मंदिर में प्रवेश करने पर अछूतों को निर्दयता पूर्वक पीटा गया, तो देवताओं को उन विवश, निर्धन, असहाय जनों पर दया क्यों नहीं आयी ? वे उनकी रक्षा करने के लिए क्यों नहीं प्रकट हुये ? हर वर्ष शिवरात्रि के अवसर पर शिवलिंग के ऊपर लाखों लीटर दूध गिराकर नालियों में बहा दिया जाता है । ऐसी अंधभक्ति के परिणाम स्वरूप देश की दुर्दशा होती रही है । वाल्मीकि जी इन मूर्खतापूर्ण कर्मकांडों का विरोध करते हुए " तुम्हारी गौरवगाथा " कविता में ऐसे अंधभक्तों को धिक्कारते हैं :
क्यों नहीं जाग्रत हो जाता देवता
प्राण प्रतिष्ठा के बाद
क्यों रह जाता है जड़
भूख और जुल्म देखकर
न जाने कितना दूध
बहा दिया तुमने नाली में
भूखे बच्चों से छीन कर
अरे, तुम्हारे इन्हीं कुकर्मों ने हमें
कंगाल बना दिया है । [6]
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी अतीत में मिले अपने पूर्वजों के दुःख से परिचित हैं । उहें श्रेष्ठता का आवरण ओढ़े हुए निर्दयी और निकृष्ट पुरोहितों से ईर्ष्या है, क्योंकि उन्होंने सदैव छल से सत्यशोधक महापुरुषों की हत्या किया तथा अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए श्लोक रूप में रचित गालियों और अपने विरोधियों के प्रति की गई अमंगल कामनाओं को धार्मिक मंत्र का नाम दे दिया । वाल्मीकि जी जब भी किसी पुरोहित को श्लोक पाठ करते हुए देखते हैं, तो उन्हें उनके पुरखों की वेदनापूर्ण स्मृति परेशान करती है । उनका प्रतिरोध भाव जाग्रत हो जाता है । इसी प्रकार के प्रतिरोध भाव की अभिव्यक्ति " सोचने नहीं देते " कविता में है :
जब गुनगुनाते हो कोई पंक्ति
किसी प्राचीन ग्रंथ से
मुझे याद आते हैं
अपने पुरखों के रक्त सने जिस्म भयातुर चेहरे
बोझ से झुकी देह पर नीले निशान । [7]
वाल्मीकि जी जातिगत भेदभाव से इतने त्रस्त हैं कि उन्हें हिंदुओं के काल्पनिक स्वर्ग में जाना स्वीकार नहीं है, जबकि हिंदू लोग स्वर्ग की प्राप्ति के लिए अनेक कर्मकांड करते हैं । कितनी विडंबना है कि लोग जीते-जी भले ही हजारों प्रकार के दुःख सहें, किंतु मरने के बाद स्वर्गीय सुख की कामना अवश्य करते हैं । वाल्मीकि जी हिंदुओं के इस मिथ्याडंबर से भलीभाँति परिचित हैं । " जाति " नामक कविता में वे स्वर्ग में भी जातीय भेदभाव की कल्पना करते हुए स्वर्ग में जाने से इनकार करते हैं । इसी बहाने वे स्वर्ग के अस्तित्व को नकारते हैं :
स्वीकार्य नहीं मुझे
जाना,
मृत्यु के बाद
तुम्हारे स्वर्ग में,
वहाँ भी तुम
पहचानोगे मुझे
मेरी जाति से ही । [8]
संग्रह की शीर्षक कविता " बस्स ! बहुत हो चुका " में वाल्मीकि जी सफाईकर्मियों की वर्तमान दशा को देखकर दुःखी हैं । जब भी वे किसी के हाथ में झाड़ू या गंदगी से भरी बाल्टी देखते हैं, तो उन्हें हजारों वर्षों तक मिली पुरखों की यातना का स्मरण हो जाता है । वे उस अपमानजनक वेदना से मुक्त होने के लिए आक्रोशित हैं । आक्रोश के मिश्रण से उनका प्रतिरोध भाव और प्रबल हो जाता है । संसार में सामान्य रूप से ऐसी घटना घटित होती दिखाई देती है कि जब कोई मनुष्य अपने ऊपर अत्याचार करने वाले प्राणी पर क्रोधित होता है, तो वह आत्मरक्षा हेतु प्रहार करता है । उसके समीप जो भी वस्तु दिखाई देती है, वह उसे उठाकर अपने शत्रु पर दे मारता है; चाहे वह रास्ते में व्यर्थ पड़ा हुआ कोई पत्थर ही क्यों न हो । इन पंक्तियों में इसी प्रकार की भावाभिव्यक्ति है :
बस्स !
बहुत हो चुका
चुप रहना
निरर्थक पड़े पत्थर
अब काम आएँगे संतप्त जनों के । [9]
वाल्मीकि जी के लिए चिंता की बात तो यह है कि शोषक वर्ग ने शोषण के कारण उत्पन्न दलितों के दुःखों को भाग्य का नाम दे दिया है । वे यह प्रचार करते हैं कि गरीब और अमीर होना पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है, दुःख पाप के कारण उत्पन्न होता है, भाग्य के लिखे को कोई मिटा नहीं सकता तथा समय से पहले और भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता इत्यादि । वाल्मीकि जी ने " वंशज " नामक कविता में धर्म का धंधा करने वाले कुटिल जनों के प्रपंच का अनावरण किया है । वे भाग्यवाद को नकारते हुए कहते हैं :
नियति के बहाने
अच्छा प्रपंच रचा है तुमने
जख्मों से पटे चेहरे
अब पहचाने नहीं जाते । [10]
अंततः यह स्पष्ट है कि कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने अपने कविता-संग्रह " बस्स ! बहुत हो चुका " में वेदनाभिव्यक्ति के साथ-साथ प्रतिरोध के स्वर को भी मुखरित किया है । जिन कविताओं में वेदना की अभिव्यक्ति है, उनमें भी कवि की कथ्यशैली प्रतिरोधात्मक ही है । आक्रोश, नकार और विद्रोह आदि भाव प्रतिरोध के पूरक हैं । जहाँ प्रतिरोध का भाव हो, वहाँ इनकी उपस्थिति स्वाभाविक है । इसलिए प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से यत्र-तत्र आक्रोश, नकार और अल्प विद्रोह आदि भावों की अभिव्यक्ति के दर्शन हो ही जाते हैं ।
संदर्भ :
[1] ओमप्रकाश वाल्मीकि : बस्स ! बहुत हो चुका, पृष्ठ 13
[2] वही, पृष्ठ 32 - 33
[3] ओमप्रकाश वाल्मीकि : जूठन, पृष्ठ 6
[4] ओमप्रकाश वाल्मीकि : बस्स ! बहुत हो चुका, पृष्ठ 42-43
[5] वही, पृष्ठ 51
[6] वही, पृष्ठ 52
[7] वही, पृष्ठ 55
[8] वही, पृष्ठ 78
[9] वही, पृष्ठ 80
[10] वही, पृष्ठ 89
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538
आज सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी का जन्मदिन (30 जून) है । इस अवसर पर मेरी ओर से जनमानस के लिए उपहार स्वरूप प्रस्तुत है यह शोधपत्र - " बस्स ! बहुत हो चुका " में प्रतिरोध के स्वर ।
जवाब देंहटाएंओमप्रकाश वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय :-
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जन्म : 30 जून 1950
जन्मस्थान : बरेला, जिला - मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम०ए० (हिंदी साहित्य)
प्रकाशित कृतियाँ : सदियों का संताप, बस्स ! बहुत हो चुका, अब और नहीं, शब्द झूठ नहीं बोलते, चयनित कविताएँ (कविता संग्रह); जूठन (आत्मकथा दो भागों में); सलाम, घुसपैठिए, अम्मा एंड अदर स्टोरीज, छतरी (कहानी संग्रह); दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य, दलित साहित्य : अनुभव संघर्ष और यथार्थ (आलोचना); सफाई देवता (सामाजिक अध्ययन)
अन्य : लगभग 60 नाटकों में अभिनय एवं निर्देशन; अनेक विश्वविद्यालयों, पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल; प्रथम हिंदी दलित साहित्य सम्मेलन, 1993, नागपुर के अध्यक्ष; 28वें अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन, 2008, चंद्रपुर, महाराष्ट्र के अध्यक्ष; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, राष्ट्रपति निवास, शिमला सोसाइटी के सदस्य ।
पुरस्कार/सम्मान : डॉ० अंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार 1993; परिवेश सम्मान 1995; जय श्री सम्मान 1996; कथाक्रम सम्मान 2001; न्यू इंडिया बुक पुरस्कार 2004; साहित्य भूषण सम्मान 2006; आठवाँ विश्व हिंदी सम्मेलन 2007; न्यूयॉर्क, अमेरिका सम्मान; उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का सम्मान ।
निधन : 17 नवंबर 2013