प्रख्यात वरिष्ठ दलित साहित्यकार डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी के कविता संग्रह "तिनका तिनका आग" का प्रथम संस्करण वर्ष 2005 में (दूसरा संस्करण वर्ष 2019 में, अमन प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित) सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ था । इस संग्रह में कुल 38 कविताएँ हैं । इस संग्रह के प्रकाशन संबंधी उद्देश्य को केंद्र में रखकर तत्कालीन परिस्थितियों पर प्रकाश डालते हुए डॉ० एन० सिंह जी ने लिखा है," डाॅ० जयप्रकाश कर्दम का काव्य संग्रह 'तिनका तिनका आग' ऐसे समय में आया है, जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में दलितों की सरकार जाने के बाद वहाँ दलित उत्पीड़न की वारदातों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो गई है । जातीय हिंसा की ये घटनाएँ, जातीय अहम की परिणतियाँ हैं । उदाहरण के तौर पर, सुश्री मायावती के चुनाव क्षेत्र हरौड़ा के गाँव संतागढ़ में दो दलित युवकों की राजपूतों द्वारा इसलिए हत्या कर दी गई कि वे दोनों क्रिकेट के बहुत अच्छे खिलाड़ी थे और उन्होंने राजपूत युवकों को एक मैच में हरा दिया था । " [1] स्पष्ट है कि ऐसी विषम परिस्थितियों और परिवेश में इस संग्रह का प्रकाशित होना कितना महत्वपूर्ण है ।
तथाकथित सवर्णों द्वारा दलितों को तिनका-तिनका करने का षड्यंत्र दीर्घकाल से रचा जा रहा है । उन षड्यंत्रकारियों को चेतावनी देते हुए डॉ० कर्दम जी कहते हैं कि तिनका-तिनका आग है । यह कथन उन विषमतावादी मनुवादियों के सामने केवल अपने समाज की अतुलनीय शक्ति का उद्घोष करने के लिए ही नहीं, बल्कि शोषित दलितों को जाग्रत, ऊर्जित और आन्दोलित करने के लिए भी प्रयोग किया गया है । संग्रह की सभी कविताओं का अपना एक निश्चित उद्देश्य है । पहली कविता के विषय में डॉ० एन० सिंह जी ने लिखा है, " इस संग्रह की पहली कविता 'अप्प दीपो भव', 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की हिंदू वाणी और बुद्ध की 'अपना दीपक आप बनो' के अंतर को स्पष्ट करते हुए हमें चिंतन के यथार्थ को समझाती है कि ब्राह्मण संस्कृति चूँकि अकर्मण्यों की संस्कृति है, जो अंधकार से निकलने की भी दूसरों से ही प्रार्थना करती है; जबकि बौद्ध संस्कृति चूँकि श्रम संस्कृति है, इसलिए वह अपना दीपक आप बनने की बात कहती है । " [2] प्रस्तुत हैं "अप्प दीपो भव" कविता की कुछ पंक्तियाँ -
जिंदगी का हर युद्ध
मैदान से पहले मस्तिष्क में
लड़ा जाता है
डरोगे या हिम्मत हारोगे तो
किसी भी मोर्चे पर
नहीं जीत पाओगे
याद रखो यह भी
छोटे लक्ष्य के साथ
किसी ऊँचाई तक
नहीं पहुँचा जा सकता
आगे बढ़ना है यदि
अपने लक्ष्य को बड़ा बनाओ
तमसो मा ज्योतिर्गमय की याचना छोड़
अप्प दीपो भव को अपनाओ । [3]
डाॅ० कर्दम जी चाहते हैं कि बाबा साहेब डॉ० अंबेडकर द्वारा आरंभ की गई सम्यक क्रांति का संदेश जन-जन तक पहुँचे । इसलिए प्राचीन समय में प्रेमी जन जिस कबूतर को संदेशवाहक बनाकर प्रेम का संदेश भेजते थे, उसी कबूतर को सामान्य जन तक क्रांति का संदेश पहुँचाने के लिए आदेश देते हुए वे "संदेश" कविता में कहते हैं :
कपोत, तुम उड़ो
दूर देश तक जाओ
लेकिन,
प्रेम की पाती नहीं
इस बार
क्रांति का संदेश लेकर जाओ
उस व्यक्ति के पास
नहीं पहुँचती जिस तक
अखबार की खबरें भी । [4]
डाॅ० कर्दम जी समतामूलक समाज की स्थापना हेतु केवल विचारों से ही नहीं, बल्कि कर्म से भी समर्पित हैं । उनका मानना है कि जीवन एक संघर्ष है । मनुष्य को संघर्ष से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए । उसे परिस्थितियों से हारकर कभी निराश नहीं होना चाहिए । एक कहावत है कि " जब तक आसा, तब तक साँसा । " निराशा मौत को निमंत्रण देती है । उदासीन व्यक्ति जिन्दा लाश की तरह होता है । इसलिए डॉ० कर्दम जी जीवन से संघर्ष करने की प्रेरणा देते हुए कविता "तिनका तिनका आग" में क्रांतिपथ पर निरंतर चलते रहने के लिए प्रोत्साहित करते हैं :
विषमताओं के विशाल जंगल में
तिनका तिनका सुलगती
आग है
जिंदगी जेहाद है
जारी रहना है जिसे
उदित होने तक
क्रांति का सूर्य
स्थापित होने तक
समता का समाज । [5]
क्रांति की बातें तो अन्य भी बहुत सारे लोग करते हैं, किंतु उनमें से अधिकांश लोगों की स्थिति वही है कि " पर उपदेश कुशल बहुतेरे "; जबकि डॉ० कर्दम जी केवल दूसरों को ही उपदेश देना उचित नहीं समझते, बल्कि वे स्वयं भी उस मार्ग पर चलते हैं । दूसरों को संघर्ष करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ वे स्वयं संघर्षरत हैं । "संघर्ष" नामक कविता में वे कहते हैं :
न हिम्मत हारा हूँ मैं
न भयभीत हूँ
मूक, निष्क्रिय नहीं रहा मैं
न रहूँगा कभी
कायरों की तरह
जारी रहेगा मेरा संघर्ष
ब्राह्मणवादी शक्तियों के खिलाफ
अनवरत । [6]
कवि के लिए शब्द ही उसके हथियार होते हैं । अपने अधिकारों की रक्षा और अपनी सुरक्षा के लिए वह आवश्यकतानुसार उपयुक्त शब्दों का चयन करता है । जब उसे अपनी वेदना को अभिव्यक्त करना होता है, तो वह कोमल शब्दों का प्रयोग करता है; लेकिन जब कभी उसे क्रांति के लिए लोगों को प्रेरणा प्रदान करने की आवश्यकता पड़ती है, तो वह क्रांतिकारी और ओजपूर्ण शब्दों का प्रयोग करता है । डॉ० कर्दम जी अपनी और अपने समाज की वेदना को स्वर देते-देते थक चुके हैं । वे समझ चुके हैं कि अधिकार माँगने से नहीं मिलता, छीनना पड़ता है । इसीलिए वे अपनी कविता के शब्दों को दब्बूपन छोड़कर हुंकार भरने के लिए उद्बोधित करते हैं । "क्रांति का बिगुल बजा दो" कविता में वे कहते हैं :
मेरे शब्दों, अब
कीड़े-मकोड़े मत बने रहो
उतार कर फेंक दो
अपनी केंचुली
फुफकार कर खड़े हो जाओ
अपनी हुंकार से
धरती-आसमान को हिला दो
अन्याय की इस दुनिया में
आग लगा दो
क्रांति का बिगुल बजा दो । [7]
डॉ० कर्दम जी को संस्कृत भाषा में अपने लिए आशीर्वाद की वाणी सुनना पसंद नहीं, क्योंकि वे जानते हैं कि अतीत में इस भाषा के उच्चारण मात्र से उनके पूर्वजों की जिह्वा काट दी गई और गर्म सलाखों से आँखें फोड़ दी गईं । संस्कृत को देवभाषा कहा जाता है । देश की स्वतंत्रता से पूर्व तक तो भूदेव यानी ब्राह्मण ही इस भाषा का प्रयोग करने के अधिकारी थे, दलितों को दानव समझा जाता था । इसी बात को लक्ष्य करके डॉ० कर्दम जी अपनी कविता "जन की भाषा में" कहते हैं :
मेरे दोस्त,
मेरे लिए उस भाषा में
मंगल कामना मत करो
जो भाषा
कभी मेरी नहीं रही
जिसके लिए रहा मैं सदैव
अंत्यज, अस्पृश्य । [8]
डॉ० कर्दम जी मानते हैं कि कलम में बहुत बड़ी ताकत है । वे कहते हैं कि कलम केवल कागज पर ही नहीं चलती, बल्कि वह कलेजों पर भी चलती है । कलम से मजदूरों के वेतन काट लिए जाते हैं, ईमानदार कर्मचारियों को निलंबित कर दिया जाता है, मेधावी छात्रों को अनुतीर्ण कर दिया जाता है और खलनायक को महानायक बना दिया जाता है । शोषकों ने सदैव कलम का दुरुपयोग किया । उन्होंने कलम को शोषण करने का हथियार बनाया । इसीलिए डॉ० कर्दम जी दलितों को कलम का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हुए "कलम" कविता में कहते हैं :
सीखना होगा दलितों को भी
कलम का महत्व
हथियार के रूप में उसका प्रयोग
क्योंकि कलम से
लिखे जा सकते हैं
परिवर्तन के गीत
ध्वस्त किए जा सकते हैं
अन्याय के किले । [9]
जिस मनुष्य को अपने मान-सम्मान, स्वाभिमान का ध्यान नहीं, वह पशु के समान होता है । अपने स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने वाले लोग ही अपनी अस्मिता की रक्षा कर पाते हैं । यदि सदियों तक इस देश के विशाल जनसमूह को अछूत कहकर सताया गया, तो इसके लिए खुद वे भी जिम्मेदार थे । बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर जी ने कहा था कि जुल्म करने वाले से बड़ा गुनाहगार जुल्म सहने वाला होता है । जो अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं सकता, वही गुलाम होता है । डॉ० कर्दम जी दलित समाज के लोगों को अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा देते हैं । अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करने को प्रोत्साहित करते हैं । "स्वाभिमान के पथ पर" कविता में वे कहते हैं :
एक दिन
तुम्हारी संताने तुमसे पूछेंगी
तुमने हमें क्यों पैदा किया
यदि नहीं लड़ सकते थे तुम
अपने अधिकारों की लड़ाई
नहीं कर सकते थे रक्षा
अपनी अस्मिता की । [10]
इस देश में विद्वानों की कमी न ही पहले थी, न ही अब है । अनेक विषयों पर निरंतर चिंतन होते रहे हैं । इतिहास, भूगोल, समाज, राजनीति, शिक्षा और साहित्य आदि विषयों पर लिखी हुई हजारों मोटी-मोटी किताबें पुस्तकालयों में पड़ी हुई हैं । यहाँ धार्मिक चिंतन को सर्वोपरि माना जाता है । धार्मिक चिंतन के समक्ष सारे चिंतन महत्वहीन हो जाते हैं । विद्वानों का भी अपना धर्म है, अपना संप्रदाय है, अपनी जाति है । वे उस सीमा से बाहर निकलने का साहस नहीं कर पाते । भारतीय चिंतन पर व्यंग्य करते हुए डॉ० कर्दम जी "भारतीय चिंतन की गाड़ी" कविता में रूपक, बिम्ब और प्रतीक के माध्यम से कलात्मक शैली में कहते हैं :
लोकतंत्र की धुरी पर चलने वाली
भारतीय चिंतन की यह गाड़ी
इक्कीसवीं सदी में भी
जाति के स्टेशन से
बचकर निकलती है । [11]
डॉ० कर्दम जी एकता में विश्वास रखते हैं । उनका मानना है कि कोई भी आंदोलन एकता के बिना सफल नहीं हो सकता । एकता केवल जातिगत तौर पर नहीं होनी चाहिए । समतामूलक समाज की स्थापना के लिए केवल दलित समाज के लोग ही नहीं, बल्कि संपूर्ण बहुजन समाज को एकमत होकर विषमता के विरुद्ध वैचारिक युद्ध करने की आवश्यकता है । इसीलिए वे हर जाति, हर वर्ग के लोगों का आह्वान करते हुए अपनी कविता "मनुष्यता" में कहते हैं :
आओ, मनुष्यता के हित-चिंतकों
तमाम बुद्धिजीवियों
प्रगतिशील साथियों आओ
अपने गलों में लटके
जनेऊ तोड़कर आओ
अपनी चोटियों में लगी
गाँठें खोलकर आओ
माथों पर लगे
त्रिपुंड मिटाकर आओ
समता और न्याय के सिपहसालारों, आओ
आओ, सब मिलकर
एक मजबूत रस्सी में बदल जाएँ
फंदा बनकर
फासीवाद के गले में लटक जाएँ । [12]
निष्कर्षतः डाॅ० जयप्रकाश कर्दम जी का कविता संग्रह " तिनका तिनका आग " सामाजिक परिवर्तन की भावनाओं से परिपूर्ण है । मोहनदास नैमिशराय जी के शब्दों में, " कर्दम जी की कविताओं में परिवर्तन की गूँज है । " [13] इस संग्रह की कविताएँ पाठक के अंतस्तल को झकझोरती हैं, उसे उद्वेलित करती हैं, उत्प्रेरित करती हैं, उसके मन में सामाजिक चेतना उत्पन्न करती हैं और अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु क्रांति करने के लिए उत्साहित करती हैं ।
संदर्भ :-
[1] डॉ० एन० सिंह : दलित साहित्य के प्रतिमान, पृष्ठ 129
[2] वही, पृष्ठ 130
[3] डाॅ० जयप्रकाश कर्दम : तिनका तिनका आग, पृष्ठ 12
[4] वही, पृष्ठ 15
[5] वही, पृष्ठ 17
[6] वही, पृष्ठ 18
[7] वही, पृष्ठ 19
[8] वही, पृष्ठ 25
[9] वही, पृष्ठ 32
[10] वही, पृष्ठ 37
[11] वही, पृष्ठ 55
[12] वही, पृष्ठ 64
[13] वही, भूमिका, पृष्ठ 7
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538
वरिष्ठ दलित साहित्यकार डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी को जन्मदिवस (5 जुलाई) की हार्दिक बधाई !
जवाब देंहटाएं//आदरणीय कर्दम जी के लिए मेरी ओर से उपहार स्वरूप प्रस्तुत है - "तिनका तिनका आग" में परिवर्तन की अनुगूँज //
डाॅ० जयप्रकाश कर्दम जी का संक्षिप्त परिचय
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जन्म : 5 जुलाई 1958
शिक्षा : एम०ए० (दर्शनशास्त्र, हिंदी, इतिहास), पीएच०डी० (हिंदी)
प्रकाशित कृतियाँ : छप्पर, करुणा, शमशान का रहस्य (उपन्यास); गूँगा नहीं था मैं, तिनका-तिनका आग (कविता संग्रह); तलाश (कहानी संग्रह); श्रीलाल शुक्ल कृत राग दरबारी का समाजशास्त्रीय अध्ययन (शोध प्रबंध)
संपर्क : 343, संस्कृति अपार्टमेंट्स, सेक्टर- 19 बी, द्वारका, नई दिल्ली- 110075
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मो० : 9871216298