धम्म चक्र प्रवर्तन दिवस (आषाढ़ पूर्णिमा)

आषाढ़ी पूर्णिमा का बौद्धों के लिए ऐतिहासिक महत्व है । जैसा कि ज्ञात है, 528 ईसा पूर्व यानी 35 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ गौतम को बोधगया में बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी और वे तथागत बुद्ध कहलाने लगे । महाकारुणिक सम्यकसम्बुद्ध ने बोधगया में बुद्धत्व प्राप्त करने के दो माह पश्चात आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन सारनाथ में पञ्चवर्गीय भिक्खओं को अपना प्रथम ऐतिहासिक धम्मोपदेश दिया था । इस उपदेश के माध्यम से तथागत बुद्ध ने प्राणिमात्र के कल्याण के लिए "धम्म का चक्का" घुमाकर भिक्खुसंघ की स्थापना की थी । बौद्ध देशों में आषाढ़ी पूर्णिमा 'धम्मचक्कप्पवत्तन दिवस' को बौद्ध धम्म के स्थापना दिवस के रूप में पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है । क्योंकि इसी दिन बौद्ध धम्म की स्थापना हुई थी ।

आषाढ़ी पूर्णिमा का ऐतिहासिक महत्व
 
आषाढी पूर्णिमा को भगवान बुद्ध ने सारनाथ में पंच्चवर्गीय भिक्खओं को अपना प्रथम धम्म- उपदेश दिया था । इसी उपदेश को बौद्ध साहित्य में “धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त” के नाम से जाना जाता है । आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन से भिक्खओं का 'वर्षावास' शुरू होता है । वर्षाऋतु में आषाढ़ पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा (क्वार) अर्थात तीन माह तक बौद्ध भिक्खु को एक विहार में वास करने को वर्षावास कहा जाता है ।कार्तिक का पूरा महीना वर्षावास समापन समारोह में व्यतीत हो जाता है अर्थात भिक्खु के वर्षावास का समापन समारोह कार्तिक पूर्णिमा तक किया जाता है । वर्षावास प्रारम्भ होने से समापन तक चार माह होते हैं, इसलिए इसे चातुर्मास भी कहते हैं । वर्षा के इन चार महीनों को ही चौमासा भी कहते हैं । वर्षावास रखने का प्रावधान श्रमण संस्कृति का अभिन्न अंग है । बौद्ध लोग इसे वर्षावास कहते हैं, तो जैन लोग इसे चातुर्मास अथवा चातुर्याम, जिसका पालन बौद्ध भिक्खु और जैन मुनि करते हैं । वर्षावास करने की परम्परा का आरम्भ स्वयं भगवान बुद्ध ने किया था, जो आज तक भी निरन्तर चली आ रही है । यह कार्य भी भिक्खुओं का विनय बना हुआ है । आषाढ़ पूर्णिमा को सम्पूर्ण जगत के बौद्ध भिक्खु किसी बुद्ध विहार में तीन महीने तक एक ही स्थान पर रहने का संकल्प लेते हैं ।

☸ आषाढी़ पूर्णिमा को निम्न घटनाओं के कारण प्रमुख माना जाता है -
  • आज ही के दिन सिद्धार्थ गौतम ने माता महामाया की कोख में गर्भ धारण किया था ।
  • आज ही के दिन राजकुमार सिद्धार्थ ने लोक-कल्याण की भावना से महाभिनिष्क्रमण किया था ।
  • आज ही के दिन बुद्ध ने सारनाथ की पावन भूमि पर पंच्चवर्गीय भिक्खुओं को 'धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त' का उपदेश दिया था ।
  • आज ही के दिन पंच्चवर्गीय भिक्खओं ने तथागत को अपना गुरू स्वीकार किया था, जिसकी वजह से इस पूर्णिमा को संसार में "गुरू पूर्णिमा" भी कहते हैं ।
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नागपंचमी का सच 👇
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डॉ० भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखित पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' में वर्णित कथा इस प्रकार है  :- 👇

सारनाथ आगमन 

1. धम्मोपदेश का निश्चय कर चुकने के अनंतर बुद्ध ने अपने आप से प्रश्न किया कि मैं सर्वप्रथम किसे धम्मोपदेश दूँ ? उन्हें सबसे पहले आलार कलाम का ख्याल आया, जो बुद्ध की सम्मति में विद्वान था, बुद्धिमान था, समझदार था और काफी निर्मल था । बुद्ध ने सोचा यह कैसा हो, यदि मैं सर्वप्रथम उसे ही धम्मोपदेश करूँ ? लेकिन बुद्ध को पता लगा कि आलार कलाम की मृत्यु हो चुकी है ।
2. तब उन्होंने उद्धत राम पुत्र को भी उपदेश देने का विचार किया किंतु उसका भी शरीर आंत हो चुका था ।
3. तब उन्हें अपने उन पाँच साथियों का ध्यान आया, जो निरंजना नदी के तट पर उनकी सेवा में थे और जो सिद्धार्थ गौतम के तपस्या और काय-क्लेश का पथ त्याग देने पर असंतुष्ट हो उन्हें छोड़कर चले गये थे ।

[ जब गौतम राजगृह में एक कुटी बनाकर ठहरे हुए थे, उसी समय पाँच दूसरे परिव्राजक भी आये और उन्होंने भी उसके पास ही एक कुटी बना ली । इन पाँच परिव्राजकों के नाम थे - कौडन्य, अश्वजित, वाष्प, महानाम, भद्रिक ]

4. उन्होंने सोचा, " उन्होंने मेरे लिए बहुत किया, मेरी बड़ी सेवा की, मेरे लिए बहुत कष्ट उठाया । कैसा हो यदि मैं उन्हें ही सर्वप्रथम धम्म का उपदेश दूँ ?
5. उन्होंने उनके ठिकाने का पता लगाया । जब उन्हें पता लगा कि वे वाराणसी (सारनाथ) के इसिपत्तन के मृगदाय में रहते हैं, तो बुद्ध उधर ही चल दिए ।
6. उन पाँचों ने जब बुद्ध को आते देखा तो आपस में तय किया कि बुद्ध का स्वागत नहीं करेंगे । उनमें से एक बोला, " मित्रों ! वह श्रवण गौतम चला आ रहा है, जो पथभ्रष्ट हो गया है, जिसने तपस्या का मार्ग त्याग आराम-तलबी और काम भोग का पथ अपना लिया है । वह पापी है । इसलिए हमें न उसका स्वागत करना चाहिए, न उसका पात्र और चीवर ग्रहण करना चाहिए । हम उसके लिए एक आसान रख देते हैं, इच्छा होगी तो वह उस पर बैठ जाएगा । " वे सब सहमत थे ।
7. लेकिन जब बुद्ध समीप पहुँचे, तो वे पाँचों परिव्राजक अपने संकल्प पर दृढ़ न रह सके । बुद्ध के व्यक्तित्व ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि वे सभी अपने आसन से उठ खड़े हुए । एक ने बुद्ध का पात्र लिया, एक ने चीवर संभाला, एक ने आसन बिछाया और दूसरा पाँव धोने के लिए पानी ले आया ।
8. यह सचमुच एक अप्रिय अतिथि का असाधारण स्वागत था ।
9. इस प्रकार जो उपेक्षावान थे, श्रद्धावान बन गये ।

धम्म चक्र प्रवर्तन 

कुशल क्षेम की बातचीत हो चुकने के बाद परिव्राजकों ने बुद्ध से प्रश्न किया - क्या आप अब भी तपश्चर्या तथा काय-क्लेश में विश्वास रखते हैं ? बुद्ध का उत्तर नकारात्मक था ।
2. बुद्ध ने कहा - दो सिरे की बातें हैं, दो-दो किनारों की - एक तो काम-भोग का जीवन और दूसरा काय-क्लेश का जीवन ।
3. एक का कहना है, खाओ-पीओ मौज उड़ाओ, क्योंकि कल तो मरना ही है । दूसरे का कहना है, तमाम वासनाओं का मूलोच्छेद कर दे, क्योंकि वे पुनर्जन्म का कारण हैं । उन्होंने दोनों को आदमी की शान के योग्य नहीं माना ।
4. वे मध्यम मार्ग को मानने वाले थे - बीच का मार्ग; जो कि न तो काम-भोग का मार्ग और न काय-क्लेश का मार्ग है ।
5. बुद्ध ने परिव्राजकों से प्रश्न किया - मेरे इस प्रश्न का उत्तर दो कि जब तक किसी के मन में पार्थिव या स्वर्गीय भोगों की कामना बनी रहेगी, तब तक क्या उसका समस्त काय-क्लेश व्यर्थ नहीं होगा ? उनका उत्तर था - " जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है । "
6. " यदि आप काय-क्लेश द्वारा काम तृष्णा को शांत नहीं कर सकते, तो काय-क्लेश का दरिद्र जीवन बिताने से आप अपने को कैसे जीत सकते हैं ? " उनका उत्तर था - " जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है । "
7. " जब आप अपने आप पर विजय पा लेंगे, तभी आप काम तृष्णा से मुक्त होंगे, तब आपको काम-भोग की कामना न रहेगी और तब प्राकृतिक इच्छाओं की पूर्ति विकार पैदा नहीं करेगी । आप अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के हिसाब से खाना-पीना ग्रहण करें । "
8. " सभी तरह की कामवासना उत्तेजक होती है । कामुक अपनी काम-वासना का गुलाम होता है । सभी काम-भोगों के चक्कर में पड़े रहना गँवारपन और नीच कर्म है । लेकिन मैं तुम्हें कहता हूँ कि शरीर की स्वाभाविक आवश्यकताओं की पूर्ति में बुराई नहीं है । शरीर को स्वस्थ बनाए रखना एक कर्तव्य है । अन्यथा तुम अपने मनोबल को दृढ़ बनाए न रख सकोगे और प्रज्ञा रूपी प्रदीप भी प्रज्वलित न रह सकेगा । "
9. हे परिव्राजकों ! इस बात को समझ लो कि आदमी को इन दोनों अंत की बातों से सदा बचना चाहिए - एक तो उन चीजों के चक्कर में पड़े रहने से, जिनका आकर्षण काम-भोग संबंधी तृष्णा पर निर्भर करता है - यह एक बहुत निम्न कोटि की बात है, अयोग्य है, हानिकर है तथा दूसरी ओर तपस्या अथवा  काय क्लेश से, क्योंकि वह भी कष्टप्रद है, अयोग्य है तथा हानिकर है ।

[ डॉ० भीमराव अंबेडकर द्वारा लिखित 'बुद्ध और उनका धम्म' पुस्तक से, अनुवादक : डॉ० भदंत आनंद कौसल्यायन ]

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