"अब मैं साँस ले रहा हूँ" में विद्रोह भाव

असंगघोष जी का कविता-संग्रह "अब मैं साँस ले रहा हूँ" वर्ष 2018 में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ । इस संग्रह में कुल 66 कविताएँ हैं । इससे पूर्व इनके छः कविता-संग्रह "खामोश नहीं हूँ मैं", "हम गवाही देंगे", "मैं दूँगा माकूल जवाब", "समय को इतिहास लिखने दो", "हम ही हटाएँगे कोहरा" और "ईश्वर की मौत" प्रकाशित हो चुके थे । 
इस संग्रह के शीर्षक से तो ऐसा लगता है जैसे वे अब राहत की साँस ले रहे हैं, जबकि इसमें संग्रहीत कविताओं में सन्निहित आक्रोश, नकार, प्रतिरोध और विद्रोह आदि भावों से स्पष्ट होता है कि वे पूरी तरह पीड़ा से मुक्त नहीं हुए हैं । वे अपनी व्यथा को अभिव्यक्ति देते हुए स्वयं को गन्ने की उपमा से अभिहित करते हैं और कहते हैं कि शोषक शत्रु उन्हें गन्ने की तरह चरखी में पेरता रहा । पेरने के बाद बचे अवशेष को भट्टी में जलने के लिए फेंक दिया । वे निरंतर उस शोषण-रूपी भट्टी की आग में जलते रहे । लेकिन अब वही आग उनके सीने में आक्रोश बनकर धधकने लगी है और उसकी लपटें विद्रोह का रूप ले चुकी हैं । इसलिए "फूँकूँगा तुझे मैं ही" कविता में वे कहते हैं :

एक दिन 
अपनी इसी उष्मा को संचित कर 
फूँकूँगा तुझे मैं ही 
अपने भीतर की धधकती हुई आग में । [1]

असंगघोष जी अपनी कविता "वर्जनाओं की बेड़ियाँ" में स्वयं को एक बंधुआ मजदूर के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि वे वर्जनाओं से मुक्त होकर बगावत करने के लिए व्याकुल हैं । वे अपने भीतर पर्याप्त शक्ति संचित कर चुके हैं और उन्हें भरोसा है कि वे अपने पैरों में जकड़ी हुई बेगारी की बेड़ियों को जरूर तोड़ देंगे । असंगघोष जी के द्वारा प्रयोग किया गया 'मैं' सर्वनाम "बंधुआ मजदूर वर्ग" के रूप में समूहवाचक संज्ञा का बोध कराता है । इस कविता के माध्यम से वे बंधुआ मजदूरों को वर्जनओं की बेड़ियाँ तोड़ने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं । इस कविता में एक ओर शोषक वर्ग के लिए चेतावनी है, तो दूसरी ओर शोषित वर्ग के लिए आत्मविश्वास । इसमें वर्जना का नकार है, बेगारी का विरोध है और शोषण के प्रति विद्रोह का भाव है । असंगघोष जी के शब्दों में :

अब नहीं करा पाएगा आगे 
मुझसे कोई बेगार 
अपने ही हाथों 
पाँवों में जकड़ी हुई 
इन बेड़ियो को मैं तोड़ डालूँगा 
इतनी शक्ति तो संचित 
कर ही ली है मैंने 
कि मैं खुद को 
इन वर्जनओं से मुक्त घोषित कर सकूँ । [2]

असंगघोष जी 'राष्ट्रवाद' कविता में संवाद शैली का प्रयोग करते हुए राष्ट्रवाद का ढोंग करने वाले लोगों की धूर्तता का पर्दाफाश उन्हीं के शब्दों में करते हैं । उन छद्म राष्ट्रवादियों को इस देश में कहीं भी जातिवाद नहीं दिखाई देता । जातिवाद के विरुद्ध आवाज उठाने वालों को वे देशद्रोही घोषित करते हैं । वे सत्ताधारी लोग क्रांतिकारियों को यह धमकी देते हैं कि " या तो भारतमाता की जय कहो या देश से बाहर जाओ । " व्याकरण के अनुसार सभी देशों का नाम पुल्लिंग है । 'भारत' भी एक पुल्लिंग संज्ञा शब्द है, इसलिए इसके साथ स्त्रीलिंग शब्द 'माता' का प्रयोग करना व्याकरण सम्मत दोष है । वे लोग जान-बूझकर वर्षों से इस दोषपूर्ण शब्द का प्रचार करते चले आ रहे हैं । भारत के बहुसंख्यक समाज का निरंतर शोषण करने वाले और सांप्रदायिक दंगे करवाने वाले वे निर्दयी लोग स्वयं देशद्रोही हैं, किंतु अपने दोष को समता सैनिकों के सिर पर मढ़ते हुए उन्हें देशद्रोही के रूप में प्रचारित करते हैं । देश के उच्चतम पद पर आसीन वे लोग "जिसकी लाठी उसकी भैंस" नामक लोकोक्ति को सदैव चरितार्थ करते हैं । उन वर्चस्ववादी जातिवादियों द्वारा भारत में जातिवाद की बात को इनकार करने पर अपने द्वारा प्रत्युत्तर में कही गई बात को असंगघोष जी कविता में इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं :

मैं कहता हूँ 
कि यहाँ जातिवाद है 
वे नकारते हैं 
यहाँ नहीं है कोई 
जातिवाद 
मैं कहता हूँ 
तुम्हारी दृष्टि में दोष है 
इस दोष को ठीक कराओ । [3]

कोई दलित, पीड़ित व्यक्ति डाकू क्यों बन जाता है ? इसके कारणों से असंगघोष जी भली-भाँति परिचित हैं । "बेनकाब करूँगा" कविता में वे स्वयं को एक डाकू के रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि वे लोग (शोषक वर्ग) झुंड बनाकर आये, मुझे पकड़ा, गालियाँ दीं, पीटा और गले में जूतों की माला डालकर सरेआम घुमाया । मैं अपने इसी अपमान का बदला लेने के लिए हाथों में हथियार लेकर बीहड़ में उतर गया, तो वे मुझे 'डाकू' कहते हैं । वे इस कविता के माध्यम से निर्बल निर्धनों पर होने वाले अत्याचार का केवल मार्मिक चित्रण ही नहीं करते हैं, बल्कि उनके द्वारा अपराध-मार्ग को चुनने के कारणों को भी प्रस्तुत करते हैं । इतना ही नहीं, वे देश की प्रशासनिक व्यवस्था पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं । जब किसी न्यायप्रिय व्यक्ति को समाज से, प्रशासन से अथवा न्यायालय से न्याय नहीं मिले और यदि वह अन्यायियों को दंडित करने के लिए हिंसक राह चुन ले, तो इसमें क्या बुराई है ? क्या अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने हेतु शत्रुओं की हत्या करना अपराध है ? यदि शत्रुओं से स्वयं की रक्षा करना अपराध है, तो सरकार देश की सीमा पर लाखों सैनिकों को क्यों तैनात करती है ? साम्राज्य सुरक्षा के लिए अतीत में हुए युद्धों का इतिहास पाठ्यक्रम में सम्मिलित करके छात्रों को क्यों पढ़ाया जाता है ? ऐसे कई प्रश्न इस कविता की पृष्ठभूमि में हैं । फिर भी कवि असंगघोष जी अपने मन को एक ही भावभूमि पर केंद्रित करते हैं और 'डाकू' शब्द को दूसरे भावार्थ से जोड़ते हुए कहते हैं :

हाँ, 
सचमुच अब मैं डाकू हूँ 
उसकी हर चाल पर 
उसकी नीयत पर 
डाका डाल 
मैं उसे सरेआम नंगा करूँगा । [4]

अब तक उपलब्ध ऐतिहासिक स्रोतों और शोधों से स्पष्ट हो चुका है कि जो लोग अछूत हैं, वे अवर्ण हैं; और जो अवर्ण हैं, वे हिंदू नहीं हैं । वास्तव में हिंदू वही लोग हैं, जो वर्ण व्यवस्था के अंतर्गत हैं; यानी कि प्राचीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । दलित कहे जाने वाले लोग वर्ण व्यवस्था के बाहर हैं, इसीलिए उन्हें अछूत समझा जाता रहा है । असंगघोष जी की कविता "हाँ, मैं हिंदू हूँ" इन तथ्यों के विपरीत है । उनकी यह कविता अंबेडकरवादी दर्शन से उनके मानसिक भटकाव की स्थिति को अभिव्यक्त करती है । मनुवादियों के प्रति अत्यधिक आक्रोश के कारण वे अपने उद्देश्य से विचलित हो जाते हैं । जिस प्रकार कोई शरीफ व्यक्ति अदालत में चोरी का आरोप लगने से क्रोधित होकर कहता है - हाँ, मैं चोर हूँ, ठीक उसी प्रकार असंगघोष जी आक्रोशित होकर कहते हैं - हाँ, मैं हिंदू हूँ । कविता के अंत में तो वे यह भी कह देते हैं कि " मैं हिंदू हूँ और हिंदू ही रहूँगा ।" वे क्यों हिंदू बने रहना चाहते हैं ? क्योंकि उन्हें मनुवादियों को जी भर कोसना है, उन्हें गालियाँ देनी हैं, उनके पूर्वजों के द्वारा किए गए कुकर्म का बार-बार जाप करना है । निश्चित रूप से यह कविता दलित चेतना के विरुद्ध है और इस संग्रह की समस्त कविताओं को महत्वहीन करने के लिए पर्याप्त है । अवलोकनार्थ काव्यांश :

मैं उसकी कुटिलता पर
उसे भड़वा कह सकूँ
मेरी गालियाँ खाते उसका पिछवाड़ा
जलकर राख हो जाने के बाद भी
वह मेरा कुछ उखाड़ ना सके इसलिए मैं अब तक हिंदू हूँ
मैं तब तक
हिंदू ही रहूँगा
जब तक
कि उसकी श्रेष्ठता को जमीन में
गाड़ ना दूँ । [5]

असंगघोष जी जातिवाद से बहुत अधिक त्रस्त हैं । उन्हें ऐसा लगता है कि जातिवाद केवल मंच पर भाषण देने और साहित्य लिखने से दूर नहीं हो सकता । इसके लिए लठैतों की भी जरूरत है । वे लाठीधारी लोगों को संबोधित करते हुए उन्हें मानसिक निष्क्रियता दूर करने के लिए प्रेरित करते हैं । वे जातिवाद दूर करने के लिए लठैतों को अपने साथ चलने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे जातिवादियों की पिटाई करने के मिजाज में हैं । उनकी आक्रोशपूर्ण विद्रोह भावना उनकी कविता "उठाओ लट्ठ" में अभिव्यक्त है :

बस हमारे साथ चल सको
जातिवाद दूर करने
तो हाथों में लट्ठ ले चल पड़ो
ताकि इस मनुवादी का पिछवाड़ा
तबीयत से कूट सकें,
बिना कूटे इसे समझ आएगी नहीं । [6]

असंगघोष जी शोषण करने वाले को आदमखोर की संज्ञा देते हैं । उनका मानना है कि इंसान कभी इंसान का भक्षण नहीं कर सकता । इंसान का भक्षण करने वाला जानवर ही हो सकता है, इसीलिए वे उसे दोपाया जानवर, आदमखोर जानवर कहते हैं । वे कहते हैं कि आदमखोर का हश्र मौत है । उसे मारने हेतु इनके पास गेंती, सब्बल, राँपी आदि हथियार हैं । इस कविता के माध्यम से वे शोषित लोगों को अपने घरेलू हथियारों का प्रयोग करके शत्रुओं का सामना करने के लिए उत्साहित करते हैं और शोषकों को उनकी दुष्टता के परिणाम का भी संकेत करते हैं । "आदमखोर जानवर" कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :

आदमखोर का हस्र
मौत होती है
अच्छे से सुन ले
समझ ले
और मरने के लिए
तैयार रह
तेरा सामना करने
मेरे पास अपने हथियार
गेंती,
सब्बल,
राँपी है । [7]

असंगघोष जी महर्षि शंबूक की निर्मम हत्या का स्मरण करते हुए हत्या की पीड़ा का स्वयं अनुभव करते हैं । एक कवि स्वभाव से भावुक होता है । वह अनुभूति के धरातल पर पीड़ा, हास्य, प्रेम, उत्साह आदि का अनुभव निरंतर करता रहता है । इसलिए शोषकों द्वारा निरंतर किसी न किसी दलित को मारने की खबर सुनकर, प्रत्येक की मौत में अपनी मौत का अनुभव करके असंगघोष जी कहते हैं कि " हे महर्षि ! कई बार तुम्हारी तरह मैं भी मरा हूँ । मुझे पेड़ों पर लटकाया गया, खंभों में बाँधा गया, घुटनों के बल बैठाकर तलवार से मेरा सिर उड़ा दिया गया ।" ये पंक्तियाँ दलितों पर दिन-प्रतिदिन होने वाले अत्याचार का बिम्ब प्रस्तुत करती हैं । "थामनी है हत्यारी तलवार" कविता में इन्हीं करुण बिम्बों की सृष्टि करके असंगघोष जी अपने आक्रोश को अभिव्यक्त किये हैं । पीड़ा से उत्पन्न आक्रोश विकसित होकर विद्रोह के मिश्रण से हिंसक भावना का रूप ले चुका है । इसलिए वे कहते हैं :

कई-कई मरे-मारे गये
मेरे साथ
तुम्हारे मारे जाने के बाद
कब तक चलेगा
यह सिलसिला !
थामनी है
हमें ही
अपने ही हाथों में
इस हत्यारे की तलवार । [8]

पौराणिक कथानुसार कृष्ण नामक हिंदू देवता ने द्रोपदी नामक राजकुमारी का चीरहरण होते समय उसका चीर बढ़ाकर उसके अस्मत की रक्षा की थी । ऐसा कहा जाता है कि उस कृष्ण का अस्तित्व आज भी है, इसीलिए हर वर्ष भादो (भाद्रपद) महीने में कृष्णपक्ष की अष्टमी को उसका जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाता है । उसे दीनदयालु कहा जाता है । कवि असंगघोष जी प्रश्न करते हैं कि यदि वह दीनानाथ है, तो दीन-हीन दलितों पर उसे दया क्यों नहीं आती ? जिस महिला को सरेआम निर्वस्त्र करके पूरे गाँव में घुमाया जाता है, उसका चीर बढ़ाने के लिए वह कृष्ण क्यों नहीं आता है ? "मिथकों को नकारता हूँ" कविता में असंगघोष जी इसी सामाजिक यथार्थ को चित्रित करते हुए सभी मिथकों को नकारते हैं और उन मिथकों के प्रचारक की नीयत पर थूकते हैं :

सरेआम
निर्वस्त्र कर
जिसे तूने
पूरे गाँव में घुमाया
उस अबला का
चीर बढ़ाने
कृष्ण क्यों नहीं आया ?
मेरा एक यही सवाल
तेरे सारे मिथकों को
सिरे से नकारता है
तेरी नियत पर
जी भर थूकता है
आऽऽऽऽक थू । [9]

वर्चस्ववादी शोषकों द्वारा अवर्ण लोगों का सदियों से शोषण किया जाता रहा है । वे हमेशा दमन करते रहे, शोषण करते रहे, हर समय हर जगह प्रताड़ित करते रहे, उन्होंने हजारों घाव दिये, घावों पर कील लगी लाठियाँ बरसाईं, पीड़ितों की चीख-पुकार सुनकर उन्हें तनिक भी उन पर करुणा नहीं आई । दलित तो इसी आशा में रहे कि वे किसी दिन सुधरेंगे, लेकिन ऐसा अभी तक नहीं हुआ; बल्कि जैसे-जैसे दलितों की चेतना जाग्रत हो रही है, परिस्थितियाँ और भी बुरी होती जा रही हैं । स्वयं असंगघोष जी भी पीड़ित हैं । वे उन शोषकों के सुधरने की आशा को अपने मन की दुर्बलता समझते हैं और अब तो उन्हें अपनी इस आशापूर्ण सोच से भी घृणा हो गई है । हिंसा के प्रतिकार में वे हिंसा करना नहीं चाहते हैं, लेकिन अपनी सुरक्षा के लिए हिंसा करने में उन्हें कोई संकोच नहीं है । "रक्त सने हाथ" कविता में वे कहते हैं :

तेरी तरह हिंसक होना नहीं चाहता
किंतु अहिंसा मेरी मजबूरी भी नहीं है
मेरी राँपी
मेरी हथौड़ी
अब तक मरी खाल को ही
छीलती-कूटती रही है
मेरे सब्र की अब और परीक्षा मत ले । [10]

निष्कर्षतः यह स्पष्ट है कि असंगघोष जी के कविता संग्रह "अब मैं साँस ले रहा हूँ" में आक्रोश, नकार, प्रतिरोध आदि भावों के अतिरिक्त विद्रोह भाव प्रबल एवं प्रमुख रूप में विद्यमान है । कई कविताओं में तो यह विद्रोह भाव हिंसक रूप में प्रस्फुटित हुआ है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अवलोकन करें, तो हिंसा के प्रति आक्रोश और विद्रोह करना मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है । पीड़ा सहन करने की भी एक सीमा होती है । हिंसा के प्रति हिंसा का व्यवहार अनुचित नहीं है । अहिंसा के शील का उपदेश देने वाले बुद्ध ने भी 'हिंसा की चेतना' और 'हिंसा की आवश्यकता' में अंतर बताया है । " वह अहिंसा के समर्थक थे और हिंसा के निंदक । लेकिन उन्होंने इससे कहीं इनकार नहीं किया कि बुराई से भलाई की रक्षा करने के लिए आखिर कहीं-कहीं हिंसा का भी आश्रय लेना पड़ सकता है । " [11] असंगघोष जी का यह कविता-संग्रह दलितों को शोसकों से संघर्ष करते हुए अपनी सुरक्षा करने के लिए प्रेरित करता है, इसलिए महत्वपूर्ण है । फिर भी उन्होंने कई कविताओं में अनावश्यक रूप से गालियों का प्रयोग किया है, जो उनके काव्य-रस को बाधित करता है और काव्य-शिल्प की अपरिपक्वता को चिन्हित करता है ।

संदर्भ :
[1] डॉ० असंगघोष : अब मैं साँस ले रहा हूँ, पृष्ठ 13, प्रथम संस्करण, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
[2] वही, पृष्ठ 20
[3] वही, पृष्ठ 26
[4] वही, पृष्ठ 34
[5] वही, पृष्ठ 38
[6] वही, पृष्ठ 42
[7] वही, पृष्ठ 48
[8] वही, पृष्ठ 50
[9] वही, पृष्ठ 61
[10] वही, पृष्ठ 100
[11] डॉ० भीमराव अंबेडकर : बुद्ध और उनका धम्म, पृष्ठ 283, अनुवादक - डॉ० भदंत आनंद कौसल्यायन, प्रथम संस्करण, प्रकाशक - समता प्रकाशन, नागपुर

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538

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