वर्ष 2020 में, प्रकाशन संस्थान नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह 'खामोश बहती धाराएँ' में कुल 84 कविताएँ हैं । युवा कवि बिभाश कुमार की यह पहली प्रकाशित कृति है । पुस्तक का शीर्षक भले ही 'खामोश बहती धाराएँ' है, लेकिन सच में कवि बिभाश खामोश नहीं हैं । वे अपने आस-पास की परिस्थितियों से प्रभावित होकर अपने अनुभवों को शाब्दिक रूप प्रदान करते हैं और सामाजिक समस्याओं को उद्घाटित करते हैं ।
बिभाश कुमार की कविताओं में आक्रोश, प्रतिरोध, नकार आदि भावों का अभाव है; विद्रोह भाव तो बिल्कुल भी नहीं है । किसी-किसी कविता में आक्रोश का दर्शन हो जाता है, लेकिन वह भी दबे स्वर में । फिर भी उन्होंने अपनी कविताओं में दलित समाज की पीड़ा को गंभीरता से चित्रित किया है । 'जातिवाद' कविता में वे जातिगत भेद करने वालों के दोहरे चरित्र का पर्दाफाश करते हैं । जातिवादी लोग धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, राजनैतिक और साहित्यिक आदि मामलों में जातिगत बर्ताव तो करते हैं, लेकिन शारीरिक सुख के मामले में वे जातिभेद भूल जाते हैं । यौनसुख के लिए वे आदिवासियों की काली और कुरूप लड़कियों से भी शारीरिक संबंध बनाने में संकोच नहीं करते । तब उन्हें धार्मिक दोष नहीं लगता, पाप का भागी बनने का डर नहीं सताता और तब उन्हें जातीय श्रेष्ठता का बोध नहीं होता । विडंबना यह कि यौनसुख के उपरांत वे फिर से जातीय श्रेष्ठता का दंभ भरने लगते हैं । उनके इसी नीच कर्म की ओर इंगित करते हुए बिभाश कुमार कहते हैं :
नोचता रहा
अछूत कन्याओं के
गंदे एवं मांसल शरीर को
क्योंकि काम-क्रीड़ा में
नहीं रखता मायने कोई
जातिभेद का । [1]
भेड़िया एक हिंसक और शिकारी जानवर है, जो बड़ी ही चालाकी से अपने शिकार पर हमला करता है । एक हत्यारा मनुष्य भी भेड़िये की भाँति ही पैंतरेबाज होता है । हत्यारा मनुष्य भी सदैव मौके की खोज में रहता है । वह निर्जन क्षेत्र में अकेले व्यक्ति को पाकर उस पर आक्रमण कर देता है । वह स्वार्थ के लिए किसी सुहागिन को विधवा बना देता है, सनाथ को अनाथ बना देता है और हँसते-खेलते आँगन को श्मशान बना देता है । वह भी भीड़ से उसी प्रकार डरता है, जैसे भेड़िया । बिभाश कुमार की कविता 'भेड़िया' में भेड़िया किसी हत्यारे मनुष्य का प्रतीक नहीं, बल्कि रूपक है । कुछ समीक्षकों को दृष्टिदोष के कारण भेड़िया प्रतीक के रूप में भी दिखाई दे सकता है । कविता की प्रारंभिक पंक्तियों को पढ़कर इस प्रकार का भ्रम अवश्य होता है, लेकिन कविता की अंतिम पंक्तियों " आदमियों की भीड़ में उसने भी/अपना लिया है/आदमी की ही शक्ल " का अर्थ ग्रहण करके स्पष्ट हो जाता है कि भेड़िया प्रतीक नहीं, बल्कि रूपक है । इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है - 'आदमी की शक्ल में भेड़िया' यानी 'आदमी रूपी भेड़िया' यानी कि रूपक अलंकार । अवलोकनार्थ :
भेड़िया दिख नहीं रहा है
पर वह है जरूर कहीं
तभी तो उसकी आहट से
हो जाती है सड़कें
विधवा की मांग सदृश
वह कहीं न कहीं
छोड़ जाता है अस्पष्ट छाप
और हम
उस आदमखोर भेड़िया को कैद नहीं कर पाते
क्योंकि
आदमियों की भीड़ में उसने भी
अपना लिया है
आदमी की ही शक्ल । [2]
बिभाश कुमार फुटपाथ पर टूटी-फूटी झोपड़ी में अपना जीवन व्यतीत करने वाले निर्धनों की पीड़ा से द्रवित हैं । वे लोग मौसम की मार सहते हुए सदैव प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष करते रहते हैं । दिनभर धूप की तपन सहते हैं और शाम को तेज हवा के झोंकों का सामना करते हैं । 'फुटपाथ के लोग' कविता में बिभाश कुमार ने ऐसे लोगों के लिए 'मरा हुआ' शब्द का प्रयोग किया है और वे कहते हैं कि मरे हुए को मौत नहीं आती । इस कविता में कवि शब्दों के जाल में उलझ कर रह गया है । यदि फुटपाथ के लोग मरे हुए हैं या मुर्दे के समान हैं, तो फिर जीवन के प्रति उनका संघर्ष कैसा ? मरे हुए लोग कभी संघर्ष नहीं करते । कवि के ये दोनों कथन एक-दूसरे के विपरीत हैं और एक-दूसरे का खंडन करते हैं । इस कविता में जिस प्रकार फुटपाथ के लोगों के संघर्ष को चित्रित किया गया है, उससे स्पष्ट है कि वे लोग जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं; जीवन में सुधार करने के लिए संघर्षरत नहीं हैं । एक प्रकार से वे लोग पशुओं जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं । ऐसी स्थिति में कविता की ये पंक्तियाँ अपना महत्व खो देती हैं :
दिनभर
संघर्ष की तपन से झुलसकर
जीते हैं जिंदगी
फुटपाथ की
तेज हवाओं के अल्हड़ झोंके
और सहते हैं
मौसम-बेमौसम की बौछारें
धूप की तपती किरणें । [3]
'गंगा के प्रति' कविता में बिभाश कुमार का आक्रोश प्रबल रूप में प्रदर्शित होता है । धर्म के ठेकेदारों द्वारा भक्ति और आस्था का बँटवारा किए जाने और मानव-मानव में ऊँच-नीच का भेद किए जाने से वे अत्यंत पीड़ित हैं । मौन स्थिर गंगा नदी के जल में विभाजन-रेखा खींचे जाने से वे इतने दुखी हैं कि अपने आक्रोश पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं और गंगा को 'छिनाल व्यवस्था का कोढ़' कहने में भी वे संकोच नहीं करते हैं ।
गंगे !
अनुचित और निषिद्ध शब्द की भाँति ही
तुम भी बन गई क्या
छिनाल व्यवस्था का कोढ़
जहाँ दलित विमर्श पर भी
होना पड़ता है अभिशापित । [4]
कवि बिभाश कुमार की भावुकता के साथ-साथ उनकी वैचारिकता भी प्रभावी है । वे 'दलित शब्द' कविता में 'दलित' शब्द की उत्पत्ति पर विचार करते हुए उसके प्रयोग के समय होने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार का उल्लेख करते हैं । 'दलित' यानी जिसका दलन किया गया, जिसको दबाया गया, जिसके समूह (दल) को तोड़ दिया गया । दलित शब्द नीचता का बोध कराने वाला शब्द नहीं है, बल्कि यह एक ऐसे वर्ग का बोधक है, जो बिखरा हुआ है । बिभाश कुमार की दृष्टि में, यह वर्ग अपनी स्थिति में बदलाव तभी ला पाएगा, जब यह बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर के विचारों को अपनाएगा और तभी दलितों के अस्मिता की सुरक्षा संभव है । बिभाश कुमार के शब्दों में :
बाबा साहेब के विचारों को
अपनी अस्मिता से जोड़कर
यथार्थ की मुख्यधारा में
दलित कहलाना चाहेगा कोई भी शब्द । [5]
ईश्वर की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए बिभाश कुमार ने ईश्वर का भय दिखाकर लोगों के साथ छल करने वालों के चेहरे से धूर्तता का नकाब हटाने का प्रयास किया है । अपनी कविता 'ईश्वर की प्रसंगिकता' में उन्होंने इतिहास की ओर संकेत करते हुए मानवता के उन शत्रुओं के सच को 'हारा हुआ झूठ' कहा है । कवि के अनुसार, वास्तव में यह उनकी घृणा का ही प्रतिरूप है, जो सामाजिक मान्यता प्राप्त कर चुका है । वे अपनी बुराइयों पर पर्दा डालने के लिए और अपने विरोधियों को विवश करने के लिए जनमानस में ईश्वर और देवी-देवताओं की अफवाह फैलाते हैं । उन्होंने अपनी कल्पना को मूर्ति का रूप प्रदान किया और पूजा-पाठ में लोगों की आस्था उत्पन्न की । गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी को पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम कहकर भाग्य का नाम दे दिया । आस्थावान लोग अपनी दयनीय दशा को अपना भाग्य समझकर मौन धारण कर लेते हैं । फिर भी कवि आश्वस्त है कि भारत के बहुजन एक दिन इन भ्रमों से मुक्त होंगे और अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु युद्ध करेंगे । बहुजनों के पास भी उनके निजी हथियार हैं, जिनके लिए सरकारी लाइसेंस की जरूरत नहीं ।
अपनी समूची घृणा को
दिलाकर सामाजिक मान्यता
अमानवीय सीमा तक
ईश्वर का भय दिखाया तुमने
परंतु तुम्हारा सच भी
हारा हुआ एक झूठ है
जिसके खिलाफ उठेंगे हाथ भी हमारे
हँसिया कुदाल से लेकर
तीर कमान तक । [6]
कवि बिभाश कुमार धर्म की आड़ में हो रहे व्यापार और भ्रष्टाचार से अवगत हैं । 'मंदिर के प्रांगण में' कविता के माध्यम से वे मंदिर के प्रांगण में होने वाले पापाचार का यथार्थ बिंब प्रस्तुत करते हैं । समाचार-पत्रों में प्रायः ऐसी घटनाएँ छपती रहती हैं कि किसी मंदिर में मठाधीश देवदासियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म करते हैं, तो किसी मंदिर में पुजारी वेश्याओं के साथ रंगरेलियाँ मनाते हैं । कविता में प्रयुक्त पंक्ति "आम्रपाली की वंश धरोहर" का आशय वेश्याओं से है; क्योंकि आम्रपाली बौद्ध काल में वैशाली (बिहार) नगर की एक वेश्या और राजनर्तकी थी । पवित्रता का ढोंग करने वाले कथित ब्राह्मणों के दुश्चरित्र को कवि बहुत ही धैर्य और विनम्रता के साथ प्रदर्शित करता है । शुद्धता का प्रवचन देने वाले लम्पट ब्राह्मणों द्वारा अंधकार में किए जाने वाले कुकर्म को प्रकाशित कर रही ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
सहसा
परछाइयों-सी निकलती हैं
व्यवस्थित करते बालों और श्रृंगारों को
देव मंदिर के अंदर
ध्वनियाँ बजती हैं जैसे
सुनता हूँ अक्सर आवाजें
ब्लू फिल्मों के अंदर
देवदासियाँ हैं ये अथवा
आम्रपाली की वंश धरोहर । [7]
कोयलांचल में आदिवासी लड़कियों की दिन-प्रतिदिन हो रही तस्करी से कवि चिंतित है । आदिवासियों की गरीबी का लाभ उठाकर मानव तस्कर गिरोह के सदस्य उनकी लड़कियों को काम दिलाने का बहाना बनाकर अपने साथ ले जाते हैं । दिल्ली-मुरादाबाद आदि नगरों-महानगरों में वे उन्हें अमीरों के हाथों बेच देते हैं । वे आदिवासी लड़कियाँ उन हवशी खूँखार भेड़ियों के नुकीले पंजों से प्रतिदिन घायल होती हैं । शारीरिक और मानसिक पीड़ा से आहत होकर कुछ दिनों तक तो वे अपने घर, गाँव और परिवेश को याद करती हैं, फिर समय बीतने के साथ धीरे-धीरे अपने जंगली जीवन के सुख को भूल जाती हैं । 'आदिवासी बेटियाँ' कविता में बिभाश कुमार उनकी इसी पीड़ा को चित्रित करते हैं और कहते हैं कि वे बीते दिनों को भूलकर अपने वर्तमान में जीने लगती हैं । उन्हें याद रह जाते हैं - हवस के भूखे भेड़ियों द्वारा नोचा गया उनका शरीर, अंगों पर लगे घाव और उनकी पीड़ा । वे अपनी पीड़ा को किसी से कह नहीं पाती हैं और आलीशान कमरों में रहते हुए भी छुप-छुपकर रोती रहती हैं । इस कविता में कई स्थानों पर व्याकरण संबंधी अशुद्धियाँ हैं, जिसे कवि स्वयं स्वीकार करता है । चूँकि कवि विज्ञान वर्ग का छात्र रहा है, इसलिए उससे हिंदी-व्याकरण संबंधी त्रुटियाँ प्रायः हो जाती हैं । कतिपय अभावों के अतिरिक्त भी यह कविता महत्वपूर्ण है । कविता की इन पंक्तियों में निहित पीड़ा हृदय-विदारक है :
याद आती है बस
जंगल के बियाबान में भटकते भेड़िए
नोचता है जो देह
आलीशान कमरों में
छुप-छुप कर रोती हैं
आदिवासी बेटियाँ । [8]
'नक्सलवाद' कविता में बिभाश कुमार वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत को आधार बनाकर शासन और प्रशासन के प्रति विद्रोह करने वालों के अंतस्तल की मलिनता को प्रकाशित करते हैं । चूँकि वे पेशे से एक पुलिसकर्मी हैं, इसलिए उनका दृष्टिकोण भी पुलिसकर्मी जैसा है । नक्सलवाद को वे संदेह की दृष्टि से देखते हैं । यह सच है कि कुछ नक्सली बदले की भावना में अपने शत्रुओं की बहन-बेटियों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, किंतु यह भी सच है कि बहुत से पुलिसकर्मी नक्सल क्षेत्र में जाकर उनके समुदाय की लड़कियों व औरतों के साथ दुष्कर्म करते हैं । इस कविता में कवि स्त्री-अस्मिता की आड़ में अपने विभागीय अनुभव से उत्पन्न रोष को अभिव्यक्त करता है । नक्सलवाद के नाम पर स्त्री-अस्मिता से खिलवाड़ करने वाले लोगों से कवि प्रश्न करता है :
नाम पर वर्ग संघर्ष के
गढ़ते हो सिद्धांत नक्सलवाद का
पर क्या सच नहीं है ?
दैहिक सुख को रख मन के अंदर
पुलिसिया आतंक के विरुद्ध
अपाहिज श्रद्धा के विकृतियों के संग ही
मटमैली चमक हेतु
स्त्री अस्मिता का
करते हो अक्सर
नक्सलवाद के नाम पर खिलवाड़ । [9]
'प्रेम-प्रसंग में भागी लड़कियाँ' कविता के भावभूमि की परिधि में पारिवारिक, सामाजिक, प्रशासनिक और संवैधानिक आदि सभी स्थितियाँ हैं । आजकल प्रेम केवल शारीरिक सुख का साधन मात्र बनकर रह गया है, जो गर्लफ्रेंड और ब्वॉयफ्रेंड आदि शब्दों से प्रारंभ होता है । अधिकांश लड़के-लड़कियाँ यौन-पिपासा के प्रथम अनुभव की व्याकुलता को प्रेमानुभूति का नाम देते हैं । समर्पण और प्रतिबद्धता से विहीन प्रेम का व्यावहारिक रूप देखकर कवि खिन्न है । प्रायः देखा जाता है कि प्रेम करके जो लड़कियाँ घर से भाग जाती हैं, वे कुछ दिनों तक स्वछंद होकर प्रेमी के साथ यौन-आनंद प्राप्त करती हैं । इधर उनके भागने के बाद उनके परिवार वाले थाने में जाकर लड़की के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करवा देते हैं । प्रेमी के साथ इधर-उधर भटकने के बाद जब पुलिस और परिजनों से सामना होता है, तो वे लड़कियाँ भावुक हो जाती हैं । वे अपहरण के पक्ष में अपना बयान देती हैं । प्रेमी को अपराधी घोषित करके जेल की रोटियाँ खाने को विवश कर देती हैं । इस प्रकार वे प्रेम के आदर्शों और मानवीय मूल्यों का हनन करती हैं । वे एकांत प्रेम को जातीय समीकरण की सीमा में सीमित कर देती हैं । कवि इस प्रकार की प्रेमानुभूति को 'डोपामाइन' की संज्ञा देता है । 'डोपामाइन' मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाला एक हार्मोन है, जो मस्तिष्क में आनंद की अनुभूति और इच्छा जाग्रत करता है । इसकी कमी के कारण मनुष्य की कामेच्छा में कमी आ जाती है । कवि इसी को बायोलॉजिकल (जैविक) चक्र कहता है ।
प्रेम-प्रसंग में भागी हुई लड़कियाँ
डोपामाइन के असर तक ही
प्रेम जानती हैं शायद
यौन संतुष्टि के लिए फिर तो
बायोलॉजिकल चक्र में फँसकर
प्रेम के प्रति प्रतिबद्धता पर
करती हैं कुठाराघात । [10]
अंततः स्पष्ट है कि कवि अपने सामाजिक परिवेश के यथार्थ से भली-भाँति परिचित है और वह कुछ न कहते हुए भी बहुत कुछ कह देता है । इस संग्रह में अंबेडकरवादी चेतना की कविताएँ बहुत ही कम हैं । कवि बिभाश कुमार ने अपनी कविताओं में कुछ शिल्पगत प्रवृत्तियों को समाहित करने का यथासंभव प्रयास किया है । कुछ संवेदना से परिपूर्ण कविताएँ नवीन शिल्पों के प्रयोग से अत्यंत सुंदर हो गई हैं । 'बंजर भूमि का ताप', 'कवच', 'आत्मदाह', 'द्रोपदी से विरक्ति', 'उर्वशी ! सूर्य हूँ मैं' आदि कविताओं में शिल्प की अव्यवस्था और क्रमहीनता के कारण कविता की भाषिक-संरचना दुष्प्रभावित हुई है तथा संप्रेषणीयता भी बाधित हुई है । 'नरक यात्रा' कविता की पंक्ति "जन्म लेना ही मेरा नरक यात्रा का पहला पायदान है", 'मंदिर' कविता की पंक्ति, "बाबा साहब के संविधान के मंदिर में" और 'हरिजनों का सच' कविता में प्रयुक्त 'हरिजन टोला' पद आदि सभी अंबेडकरवादी दृष्टिकोण से अनुपयुक्त और अनुचित हैं; जो अंबेडकरवादी चेतना के विरुद्ध हैं । बिभाश कुमार एक नये कवि हैं, अतः भविष्य के कविता-संग्रहों में पर्याप्त सुधार की आशा की जा सकती है ।
संदर्भ :
[1] बिभाश कुमार : खामोश बहती धाराएँ, पृष्ठ 50
[2] वही, पृष्ठ 59
[3] वही, पृष्ठ 69
[4] वही, पृष्ठ 81
[5] वही, पृष्ठ 84
[6] वही, पृष्ठ 87
[7] वही, पृष्ठ 90
[8] वही, पृष्ठ 111-112
[9] वही, पृष्ठ 125
[10] वही, पृष्ठ 131-132
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538
परत दर परत खोलती समीक्षा के लिए बधाई
जवाब देंहटाएंप्रिय श्याम निर्मोही जी ! साभार धन्यवाद ।
हटाएंअभी तक बिभाश जी की कविताएँ पढ़ने को मन कर रहा था, अब प्रखर जी की समीक्षा पढ़कर मन में एक तीव्र बेचैनी पैदा हो गई है कि कितनी जल्दी पुस्तक प्राप्त हो जाय और उसे पढ़ डालूँ। प्रखर जी में कविता की समझ है इसलिए उनकी समीक्षाएँ कविता के अंतर्भूत तक पहुँच जाती है। चाहे आदिवासी लड़कियों पर सवर्णों का दोगलापन हो, चाहे भेड़िए की शक्ल में आदमी हो, चाहे दलित शब्द की मर्यादाएँ हों या फिर बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर के आलोक में दलित मूल्यों की बात हो, आम्बेडकर साहब का कट्टर अनुयायी होने के कारण प्रखर जी में जातिप्रथा और उसके विरोध की एक गहरी समझ है। इसी कारण उनकी लिखी समीक्षाएँ वजनी होती हैं। बिभाश कि पुस्तक पर लिखी उनकी समीक्षा न सिर्फ समीक्षा है बल्कि दलित परिदृश्य को एक बड़े पर्दे पर दिखाना भी है। बिभाश जी के साथ प्रखर जी को भी साहित्यिक योगदान के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंआर डी आनंद
27.07.2020
आदरणीय आर०डी० आनंद जी ! आप एक कवि, साहित्यकार, समीक्षक, आलोचक और अंबेडकरवादी क्रांतिकारी आंदोलनकर्ता हैं । आपको सादर जय भीम !
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