जुलाई 2020 में प्रकाशित पुस्तक 'कब तक मारे जाओगे' नरेंद्र वाल्मीकि द्वारा संपादित दूसरा साझा काव्य-संग्रह है, जिसे सिद्धार्थ बुक्स, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है । इससे पहले इनके द्वारा संपादित साझा काव्य-संग्रह 'व्यवस्था पर चोट' रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हो चुका है । इस पुस्तक में 62 कवियों की कुल 129 कविताएँ संकलित हैं । इस पुस्तक में संंकलित सभी कविताएँ सफाई कामगारों से संबंधित हैं ।
नरेंद्र वाल्मीकि प्रख्यात दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि को अपना आदर्श मानते हैं, इसलिए साझा संग्रह में उनकी कुछ रचनाएँ सम्मिलित करना आवश्यक समझते हैं । इस पुस्तक में उन्होंने ओमप्रकाश वाल्मीकि की चार कविताएँ सम्मिलित की हैं, जिनमें 'झाड़ू वाली' कविता मेेेहतर महिला की दुर्दशा को चित्रित करती है । सरकारें बदलती रहती हैं, लेकिन झाड़ू वाली के जीवन-स्थिति में कोई बदलाव नहीं होता है । लोकतांत्रिक व्यवस्था का पूरी तरह लागू न होना ही उसकी इस स्थिति का प्रमुख कारण है । इसलिए ओमप्रकाश वाल्मीकि कहते हैं :
साल दर साल गुजरते हैं
दीवारों पर चिपके चुनावी पोस्टर
मुँह चिढ़ाते हैं
जब तक रामेसरी के हाथ में
खड़ांग-खांग घिसटती लौहगाड़ी है
मेरे देश का लोकतंत्र
एक गाली है । [1]
डॉ० सुशीला टॉकभौरे जातिगत भेदभाव से अत्यधिक पीड़ित हैं । वे मानती हैं कि पेशा बदलने के पश्चात भी इस देश में व्यक्ति की जाति के अनुसार ही बर्ताव किया जाता है । वे लोगों की जातीय मानसिकता को बदलने के लिए क्रांतिकारी आंदोलन चलाने के पक्ष में है । अपनी कविता 'यातना के स्वर' में वे कहती हैं :
बदलना होगा, नासमझ प्रतीक्षा को
संघर्षशील क्रांतिकारी आंदोलन में
अन्यथा पीएच०डी० प्राप्त
कालेज की प्राध्यापिका
जाति के नाम पर
आज भी कहलाती रहेगी
सिर्फ 'झाड़ू वाली' । [2]
सूरजपाल चौहान राजनेताओं के गिरगिट जैसा रंग बदलने से क्षुब्ध हैं । वे उन्हें 'बहुरूपिया' कहकर संबोधित करते हैं । राजनेता अपना वोट बैंक बनाने के लिए स्वच्छता अभियान के नाम पर झाड़ू लगाते हैं और अपने भाषण में लच्छेदार शब्दों का प्रयोग करके जनता की प्रशंसा प्राप्त करते हैं । उनके इस दिखावे पर आक्रोशित होकर सूरजपाल चौहान अपनी कविता 'याद आ जाएँगे तुम्हें अपने चारों धाम' में कहते हैं :
अरे... बेहरूपियों !
केवल झाड़ू बुहारना
नहीं है स्वच्छता अभियान
और, ना केवल लच्छेदार भाषा में
बातें फेंकना
है कोई बड़ा काम;
ओ... बेहरुपियों !
देश की जनता
परेशान और हैरान है
सोचकर कि -
तुम्हारा ध्यान क्यों नहीं जाता
गटर और सीवर की सफाई की ओर । [3]
जयप्रकाश वाल्मीकि की कविता 'सफाई कर्मचारी हूँ मैं' व्यंग्यार्थ से परिपूर्ण है, जिसका अर्थ समझने के लिए पाठक को व्यंजना शक्ति का प्रयोग करना पड़ता है । कवि स्वयं को सफाई कर्मचारी के रूप में स्वीकार करता है । समाज में फैली रूढ़ियों, अंधविश्वासों और कुप्रथाओं की सफाई करना ही उसका काम है । वह अपनी बात पर बल देकर कहता है :
हाँ,
सफाई कर्मचारी हूँ मैं
करूँगा सफाई
मेरे समाज में फैली रूढ़ियों की
लोगों द्वारा फैलाए अंधविश्वासों की
हाँ,
सफाई कर्मचारी हूँ मैं
करूँगा सफाई
उन खर्चीली
नई-नई प्रथाओं की
झूठी शान-शौकत दिखाने की । [4]
डॉ० पूनम तुषामड़ अपनी कविता 'स्वाभिमान' में कहती हैं कि व्यक्ति जाति से हीन नहीं, बल्कि उसका पेशा उसे हीन बनाता है; जबकि डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे पीएच०डी डिग्रीधारी और कालेज की प्राध्यापिका के साथ भी जातिगत दुर्व्यवहार की बात करती हैं । दोनों के कथन एक-दूसरे का खंडन करते हैं । दोनों में किसकी बात सही है ? यदि सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखकर विचार किया जाए, तो डॉ० सुशीला टाॅकभौरे का ही कथन सही है । डॉ० पूनम तुषामड़ का कथन सर्वथा गलत सिद्ध होता है । इतिहास साक्षी है कि डॉ० भीमराव अंबेडकर एक प्रोफेसर होने के उपरांत भी कॉलेज में शिक्षण करते समय सवर्ण विद्यार्थियों द्वारा अपमानित किये गये थे । विडंबना तो यह है कि कविताओं का संकलन करते समय संपादक को भी इसका ध्यान नहीं रहा । या तो वे कवयित्री को स्वजातीय जानकर कविता में निहित इस गलती को स्वीकार कर लिये होंगे, या फिर उन्हें इस बात की समझ ही नहीं । अवलोकन के लिए प्रस्तुत हैं कविता की ये पंक्तियाँ :
जाति से व्यक्ति हीन नहीं
उसका पेशा उसे हीन बनाता है,
पेशे से व्यक्ति की पहचान है
पेशे से व्यक्ति महान है
पेशे से स्वाभिमान है
पेशे से ही सम्मान है
पेशे से अपमान है
पेशा ही उठाता है
पेशा ही गिराता है । [5]
अरविंद भारती अपनी कविता 'उजालों की ओर' में संवाद शैली का प्रयोग करते हुए दो व्यक्तियों का वार्तालाप प्रस्तुत करते हैं । वे कविता के माध्यम से यह व्यक्त करते हैं कि सफाई कामगार अब धीरे-धीरे जागरूक हो रहे हैं । कवि को विश्वास है कि आने वाले समय में उन्हें अपने पुश्तैनी पेशे से बिल्कुल मोह नहीं रह जाएगा । कवि के शब्दों में :
तुम्हारे हाथ में भी
झाड़ू है, पंजी है
क्या तुम लोगों की
यही नियति है ?
वह बोला, नहीं...
भले ही आज हाथ में मेरे
झाड़ू है, पंजी है
लेकिन... कल ऐसा नहीं होगा । [6]
संकलन में सम्मिलित अधिकांश कवियों ने सफाई कामगारों को झाड़ू छोड़कर कलम पकड़ने के लिए प्रेरित किया है । एक ओर अधिकांश कवि/कवयित्रियाँ उनके घृणित पेशे की निंदा करके पेशा छोड़ने की बात करते हैं, तो दूसरी ओर डॉ० सुरेखा अपनी कविता 'सफाई सैनिक' में लिखती हैं कि वे कोरोना काल में अपने इसी काम के कारण पूजे जा रहे हैं । यदि सफाई कर्मी का कार्य घृणित है, तो कोरोना काल में उनके द्वारा किया गया योगदान महत्वपूर्ण क्यों है ? उनके इस कर्म की प्रशंसा क्यों की जाए और वे इस तरह की प्रशंसा व सम्मान को क्यों स्वीकार करते हैं ? सुधी पाठक इन बातों पर गंभीरता से अवश्य विचार करें । उदाहरण के रूप में कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
कहीं हो रही फूलों की वर्षा
कहीं लोग ही पैरों में गिरे जा रहे हैं
कोरोना की इस लड़ाई में देखो
सफाई सैनिक पूजे जा रहे हैं,
करते थे जो अपमान हर दिन
आज गले में हार पहना रहे हैं । [7]
दीपक मेवाती 'वाल्मीकि' अपनी कविता 'वो काम अनूठा करता है' में सफाई कर्मियों की तुलना सीमा के सैनिकों से करते हुए उन्हें भी उनके बराबर का महत्व देते हैं । यहाँ तक कि वे सफाईकर्मियों के कार्य की प्रशंसा करते हुए उनके कार्य को अनूठा कहते हैं । कोई सुधी पाठक इस बात को कैसे पचा सकता है ? क्या एक ही पेशा घृणित भी हो सकता है और अनूठा भी ? इन दोनों बातों में कौन सी बात सही है ? इस पुस्तक का संपादक एक तो सफाई कामगारों के पेशे का विरोध करते हुए प्रश्न करता है कि 'कब तक मारे जाओगे ?' और फिर उसी समुदाय के ही बुद्धिजीवी कवियों और कवयित्रियों (दीपक मेवाती और डॉ० सुरेखा आदि) द्वारा रचित सफाईकर्मियों के कार्य की प्रशंसा करने वाली कविताओं को पुस्तक में स्थान देता है । इससे संपादक का उद्देश्य संदेह के घेरे में आ जाता है । खैर, दीपक मेवाती की कविता का अवलोकन पाठक स्वयं करें :
हर कोई नहीं करता है, वो काम अनूठा करता है
सीमा से ज्यादा गटरों में, वो देश की खातिर मरता है । [8]
संपादक नरेंद्र वाल्मीकि की मानें तो काव्य-सृजन उनका शौक है । उन्होंने बहुत अधिक नहीं, अब तक लगभग दो दर्जन कविताएँ ही लिखी हैं । वे संपादन पर अधिक ध्यान देते हैं । आजकल भारतवर्ष में संपादन का रोग बड़ी तेजी से फैल रहा है । वे भी इस रोग से ग्रसित हैं, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । संपादन करना कोई बुरा कार्य नहीं है, लेकिन संपादन उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए । केवल शौक और नाम के लिए संपादन करना निंदनीय है । नरेंद्र वाल्मीकि पुस्तक के शीर्षक पर अपने ध्यान को केंद्रित करते हुए अपनी कविता 'आखिर कब तक' में मेहतर लोगों से प्रश्न करते हैं :
आखिर कब तक
करते रहोगे अमानवीय काम
ढोते रहोगे मलमूत्र
मरते रहोगे सीवरों में ? [9]
डॉ० नीरा परमार की कविता 'विदाई का शोक गीत' भारत की सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाती है । वे प्राचीन समय की वर्णव्यवस्था का स्मरण करते हुए विषमतापूर्ण सामाजिक संरचना का निर्माण करने वालों की धूर्तता की ओर संकेत करती हैं । वे प्रश्न करती हैं :
किसने बनाया है विधान
किसने अपने गुनाहगार
खून में डूबी कलम से
हमारे माथे पर उकेर दिया है
गटर में पैदा होकर
गटर की मौत मर जाने का फरमान ! [10]
आर०डी० आनंद की कविता 'गटर' भाग्य का अंधविश्वास त्यागकर कर्म में विश्वास करने की प्रेरणा देती है । वे मेहतरों को अपनी अगली पीढ़ी में सुधार करने के लिए उत्साहित करते हैं । झाड़ू छोड़कर कलम पकड़ने का संदेश देते हुए वे मेहतर लोगों को संबोधित करके कहते हैं :
कोस न कोख
कोस न नसीब
नसीब बनाई जाती है
तेरा न सही
तेरे बच्चों का सही
गटर से निकल
झाड़ू छोड़
कलम पकड़ । [11]
डॉ० महेंद्र सिंह बेनीवाल की कविता 'कब तक मारे जाओगे' के शीर्षक को ही संपादक ने इस पुस्तक का शीर्षक बनाया है । वे सफाईकर्मियों द्वारा घृणित कर्म करते समय वीभत्स दृश्य को देखकर आहत हैं । सीवरों में दम घुटने से हुई उनके संबंधियों की मौत को देखकर वे अत्यधिक दुखी हैं । वे नहीं चाहते कि इसी तरह और लोग भी मरते रहें । इसलिए वे कहते हैं :
ठीक है, तुम्हारा जन्म
तुम्हारे बस में नहीं
पर यहाँ जन्म लेने की सजा
कब तक पाओगे
और कितनी सदियों तक
झाड़ू ही लगाओगे
सीवरों में दम घुटने से
तुम कब तक मारे जाओगे ? [12]
डॉ० कौशल पँवार की कविता 'भंगी महिला' एक चेतावनी पूर्ण कविता है, जो व्यवस्था के ठेकेदारों को संबोधित करके लिखी गई है । वर्तमान में बहुत सी सफाईकर्मी महिलाओं ने झाड़ू छोड़कर कलम पकड़ लिया है । अब वे अच्छे पदों पर हैं और अच्छे वेतन के साथ जीविकोपार्जन कर रही हैं । इसी सामाजिक परिवर्तन पर अपना ध्यान केंद्रित करके वे कहती हैं :
ऐ व्यवस्था के ठेकेदारों !
अब संभल जाओ
देखो-देखो वह आ रही है
भंगी महिला -
हाथ में झाड़ू की जगह
कलम उठाये । [13]
डॉ० सुशील शीलू अपनी कविता 'मोहल्ला देवस्थान में झाड़ू वाली' के माध्यम से धार्मिक अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं । ढोंगी ज्योतिषी ब्राह्मणों के मुख से मैला साफ करके स्वर्ग प्राप्ति का प्रवचन सुनकर वे आक्रोशित हैं । वे इस तरह का घिनौना कार्य करके होने वाली स्वर्ग की प्राप्ति को नकारते हैं । कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
भविष्यद्रष्टा ने
थमा दिया उसे बासी रोटी के साथ
अगले जन्म सुधरने का आश्वासन
पर सुनो !
जिस स्वर्ग का रास्ता
तुम्हारे पाखाने होकर जाता है
वह स्वर्ग मुबारक हो तुम्हें ही ! [14]
रेखा सहदेव की कविता 'सम्मान' में सफाईकर्मियों को सम्मान देने की कामना की गई है । वे गले लगाने को असली सम्मान कहती हैं । क्या सफाईकर्मियों को गले लगाना ही उनका असली सम्मान है ? यदि ऐसा है, तब तो राजनेता हर बार चुनाव के समय उन्हें गले लगातेे हैं और उनका पैर छूते हैं; तो फिर अपमान-अपमान चिल्लाने की क्या आवश्यकता है ? जातीय श्रेष्ठता पर गर्व करने वाले लोगों द्वारा स्वार्थवश कथित निम्न जाति के लोगों के साथ उठने-बैठने, खाने-पीने तक की खबरें हमेशा अखबारों में छपती रहती हैं । क्या इतने से ही संतोष कर लेना चाहिए ? बिल्कुल नहीं । अवलोकनार्थ रेखा सहदेव के कविता की ये चार पंक्तियाँ :
ना माला पहनाने से होगा
ना पुष्प बरसाने से होगा
असल सम्मान तो प्यारे
गले लगाने से होगा । [15]
डॉ० संतराम आर्य की कविता 'कहीं प्रथा न बन जाए' भावात्मक और विचारात्मक दोनों दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । उन्हें सफाईकर्मी के घिनौने कार्य और सीवर के अंदर उसके मर जाने की उतनी चिंता नहीं, जितना कि उसके इस कार्य को 'प्रथा' बन जाने का डर है । स्वयं को एक सफाईकर्मी के रूप में प्रस्तुत करते हुए वे कहते हैं :
मेरा बाप मरा सीवर के अंदर
मैं भी मर जाऊँगा
डर तो है इस बात का बेटे
मैं प्रथा बन जाऊँगा । [16]
डॉ० बाबूलाल चाँवरिया अपनी कविता 'हया नहीं प्रतिष्ठा में' के द्वारा सफाईकर्मी की नौकरी छोड़ने को ऐसे कहते हैं, जैसे नौकरी पाना दाल-भात का कौर है; कि तुरंत उंगलियों में लपेटे और गटक गये । दूसरों को नौकरी छोड़ने की सीख देना सरल है, लेकिन नौकरी पाना कितना कठिन है ? ये वही युवा समझते हैं, जो 'ग्रुप डी' की नौकरी पाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं ।
सुनो कौम के भाई-बहनों,
छोड़ो यह नौकरियाँ
कब तक सिर पे रखे रहोगे
झाड़ू और टोकरियाँ । [17]
डॉ० खन्ना प्रसाद अमीन की कविता 'सुनो दलित' के अनुसार सफाई कामगारों की दयनीय स्थिति स्वयं उनके ही हीनताबोध और पुश्तैनी पेशे से लगाव के कारण है । एक सच्चाई यह भी है कि अधिकांश सफाई कामगार अनपढ़ और अयोग्य होने के कारण पुश्तैनी पेशा करने के लिए विवश हैं । इसी के साथ यह भी सच है कि जीवन एक संघर्ष है और संघर्ष से मुँह मोड़ना कायरता है । इस दृष्टि से यह कविता विचारणीय है :
फेंक कर झाड़ू
पकड़ी क्यों नहीं कलम
तुम अपने आप ही
चिपक कर रहना चाहते हो
अपने पुश्तैनी व्यवसाय से । [18]
'डिप्रेस्ड एक्सप्रेस' पत्रिका के संपादक और कवि डी०के० भास्कर की कविता 'एक रोटी के एवज में' सफाईकर्मी के एक भिन्न रूप को प्रस्तुत करती है । वाल्मीकि और चर्मकार जाति की महिलाएँ 'दाई' (धात्री) का कार्य भी करती हैं । वे हर वर्ग, हर जाति की गर्भस्थ महिलाओं के बच्चे पैदा कराती हैं । वे नवजात शिशुओं के अंग-प्रत्यंग को अपने हाथों से साफ करती हैं, उनकी नाभि-नाल को काटती हैं, मुँह में अंगुली डालकर उनका गला साफ करती हैं । दुःख तो तब होता है, जब वही बच्चे बड़े होकर उन्हें 'नीच' कहकर संबोधित करते हैं । कवि डी०के भास्कर के शब्दों में :
दाई बनकर
जनाती है बच्चे
नाभि-नाल काटती है
नहलाती है
मुँह में अंगुली डाल
साफ करती है गला
बाद में वही बड़ा होकर
गला साफ करता है
उसे गाली देकर । [19]
श्याम निर्मोही अपनी कविता 'इस अछूत से क्यों हमदर्दी' में राजनेताओं द्वारा सफाईकर्मियों को माला पहनाने, उन्हें सम्मान देने और उनसे हमदर्दी जताने को दिखावा समझते हैं । वे उनके ऐसे व्यवहारों से सशंकित हैं, क्योंकि राजनेता राजनीतिक पद, प्रतिष्ठा और कुर्सी पाने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाते रहते हैं । इसलिए वे प्रश्न करते हैं :
कहीं फूल मालाएँ पहनाई जा रही हैं
कहीं नोटों की मालाएँ पहनाई जा रही हैं
मेरी पीठ थपथपाई जा रही है,
बताओ तो सही इस अछूत से
क्यों हमदर्दी जताई जा रही है ? [20]
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि साझा काव्य-संग्रह की पुस्तक 'कब तक मारे जाओगे' में संकलित अधिकांश कविताओं में सफाईकर्मियों की दयनीय दशा, उनके घृणित कर्म और उनकी श्रम-पीड़ा का ही चित्रण, वर्णन और उल्लेख है । अधिकांश कवियों ने सफाईकर्मियों को झाड़ू छोड़कर कलम पकड़ने का संदेश दिया है । ध्यातव्य है कि कलम पकड़कर शिक्षित होने के बाद व्यक्ति नौकरी के लिए प्रयास करता है । कोई बड़ी नौकरी न मिलने पर अंत में कोई चतुर्थ श्रेणी की नौकरी (चाहे वह सफाईकर्मी की हो या चपरासी की) करने के लिए विवश होता है । जब पढ़-लिखकर भी व्यक्ति को अंत में सफाईकर्मी की ही नौकरी करनी पड़े, तो फिर सफाईकर्मी का पेशा छोड़ने का क्या औचित्य है ? समाज में यह भी देखा जाता है कि उच्च शिक्षित बेरोजगार या कम वेतन पाने वालों को छोड़कर लोग कम पढ़े-लिखे और अधिक वेतन पाने वाले सफाईकर्मियों के साथ ही अपनी बहन-बेटियों का विवाह करना पसंद करते हैं । उस समय तो उन्हें शिक्षित व्यक्ति से लगाव नहीं होता और न ही वे शिक्षा को कोई महत्व देते हैं । ऐसी स्थिति में सफाईकर्मी पेेशे को घृणित कहना और उस पेेेशे को छोड़ने के लिए कहना कितना उचित है ? चर्मकार (चमार) समाज के लोग अपने पुश्तैनी पेशे से कैसे मुक्त हुये ? उनके उत्थान पर शोध करने से ज्ञात होता है कि जो चर्मकार मरे जानवर ढोने, चमड़ा छीलने और चमड़ा सुखाने का कार्य करते थे, उनके घर में गंदगी और गंध होती थी । कालांतर में जागरूक चर्मकार उन पुश्तैनी पेशे वाले चर्मकारों के घर वैवाहिक रिश्ता जोड़ना और उनके घर जाना छोड़ दिये । उन्हें इस बात का अनुभव हुआ और उन्होंने उस पेशे को छोड़ दिया । अतः स्पष्ट है कि केवल कहने अथवा लिखने से कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं होता । भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार के अंतर्गत 'स्वतंत्रता का अधिकार' (अनुच्छेद 19 से 22 तक) भी है । अनुच्छेद 19 (छ) में लिखा है, " किसी भी व्यक्ति को कोई भी वृति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा । " इस आधार पर किसी को पेशा बदलने की प्रेरणा देना अथवा दबाव देना असंवैधानिक है और कानूनन जुर्म है । मजे की बात तो यह है कि उत्तर प्रदेश में बहन कुमारी मायावती के शासन में हुये भर्ती सफाईकर्मियों की वर्तमान में तनख्वाह ₹30000 मासिक है । चूँकि भर्ती के समय सफाईकर्मियों की न्यूनतम योग्यता आठवीं पास थी, इसलिए अधिकांश सफाईकर्मी इंटरमीडिएट अथवा ग्रेजुएट हैं । कुछ तो पोस्ट ग्रेजुएट तक की शिक्षा प्राप्त हैं । इसलिए 'झाड़ू छोड़ो, कलम पकड़ो' का कथन सर्वथा अनुपयुक्त है ।
संदर्भ :-
[1] कब तक मारे जाओगे, पृष्ठ 16, संपादक - नरेंद्र वाल्मीकि, प्रकाशक - सिद्धार्थ बुक्स नई दिल्ली, प्रथम संस्करण
[2] वही, पृष्ठ 25
[3] वही, पृष्ठ 31
[4] वही, पृष्ठ 38
[5] वही, पृष्ठ 54
[6] वही, पृष्ठ 74
[7] वही, पृष्ठ 84
[8] वही, पृष्ठ 93
[9] वही, पृष्ठ 98
[10] वही, पृष्ठ 111
[11] वही, पृष्ठ 113
[12] वही, पृष्ठ 115
[13] वही, पृष्ठ 123
[14] वही, पृष्ठ 125
[15] वही, पृष्ठ 157
[16] वही, पृष्ठ 167
[17] वही, पृष्ठ 180
[18] वही, पृष्ठ 198
[19] वही, पृष्ठ 212
[20] वही, पृष्ठ 229
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538
इस पेशे को छोड़ने और शिक्षा के द्वारा ही इस समाज में चेतना आएगी..... इसमें साहित्य भी अपनी भूमिका निभा सकता है ।
जवाब देंहटाएंमेरी कविता की इतनी शानदार समीक्षा के लिए धन्यवाद आपका ।