जाति-गौरव का साहित्य आंबेडकरवाद के विरुद्ध है ।

एक ओर आंबेडकरवाद के अंतर्गत जातीय चेतना और जाति-व्यवस्था के उन्मूलन की बातें की जाती हैं, दूसरी ओर जाति पर आधारित किताबें लिखी जाती हैं । क्या इनमें कोई मेल है ? बिल्कुल नहीं । ये दोनों एक-दूसरे के विरोधी दृष्टिकोण हैं ।

सम्यक प्रकाशन और अन्य आंबेडकरवादी प्रकाशनों के द्वारा बौद्ध धम्म और आंबेडकरवाद का प्रचार किया जाता है, यह तो ठीक है; लेकिन फिर अलग-अलग जातियों पर जाति-गौरव से परिपूर्ण अलग-अलग किताबें प्रकाशित की जाती हैं, यह बिल्कुल गलत है ।

सतनाम सिंह की पुस्तक 'चमार जाति का गौरवशाली इतिहास', डॉ० विजय कुमार त्रिशरण की पुस्तक 'दुसाध जाति : उद्भव और विकास', भगवान दास और सतनाम सिंह के सहयोग से लिखी गई पुस्तक 'धोबी समाज : संक्षिप्त इतिहास' और रामप्रकाश सरोज की पुस्तक 'पासी समाज दर्पण' आदि कुछ ऐसी ही पुस्तकें हैं, जो जाति-गौरव का अभिज्ञान कराने हेतु लिखी गई हैं ।

ऐसी स्थिति में सभी जातियों के लोग अपनी-अपनी जाति पर ही गर्व करते रह जाएँगे और वे मानसिक रूप से कुंठित हो जाएँगे । वे अपनी-अपनी जातियों के विकास और उत्थान के बारे में ही सोचते रह जाएँगे । तो फिर बाबा साहब डॉ० भीमराव अंबेडकर के उद्देश्य 'समतामूलक समाज की स्थापना' का क्या होगा ?

बाबा साहब द्वारा चलाए गए आंदोलन की कमजोरी का कारण यही है कि आज अधिकतर आंदोलनकर्ता अपनी-अपनी जातियों के नाम पर संगठन बनाकर अपनी-अपनी जातियों का इतिहास बताना शुरू कर दिए हैं; और अपनी-अपनी जातियों के हित पर ही चर्चा करते रहते हैं ।

वर्तमान समय 'द ग्रेट चमार', 'जय वाल्मीकि', 'जय दुसाध' आदि कहने का नहीं है, बल्कि एकजुट होकर क्रांतिकारी आंदोलन करने का समय है ।


✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली (उत्तर प्रदेश)
मो० : 9454199538

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