आत्मगाथा : हमारे गाँव में हमारा क्या है ?

बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा वर्ष 2019 में प्रकाशित कविता-संग्रह की पुस्तक ' हमारे गाँव में हमारा क्या है ' युवा दलित कवि अमित धर्म सिंह की पहली प्रकाशित काव्यकृति है, जिसमें कुल इकतालीस कविताओं का सम्मिलन है । यह कविता-संग्रह मूलतः कवि की आत्मगाथा है । कवि ने अपने बचपन में घटित घटनाओं का विवरण क्रमशः कविताओं में प्रस्तुत किया है ।

डॉ० जयप्रकाश कर्दम के शब्दों में , " गाँव हो या शहर, घर तो सब जगह मिलेंगे, लेकिन गाँव की पहचान खेतों से है । गाँव उसका होता है, जिसके पास गाँव में अपने खेत होते हैं । जिसके पास खेत होंगे, उसके पास हल, बैल, ट्रैक्टर, ट्यूबवेल, कोल्हू आदि हो सकते हैं । जिसके पास खेत नहीं, उसके पास क्या होगा ? हिंदी के लीजेंड दलित कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की प्रसिद्ध कविता है ' ठाकुर का कुआँ ' । इस कविता के अंत में वह यही सवाल करते हैं कि सब कुछ तो दूसरों का ही है ' फिर अपना क्या ? गाँव ? शहर ? देश ? । ' सूरजपाल चौहान भी अपनी कविता ' मेरा गाँव ' में यही कहते हैं कि ' मेरा गाँव कैसा गाँव/ना कहीं ठौर ना कहीं ठाँव । ' गाँव के बारे में सभी दलित कवियों की अनुभूति लगभग यही है । " [1] इस संग्रह की पहली कविता है ' हमारे गाँव में हमारा क्या है ', जिसे कवि ने इस पुस्तक का शीर्षक बना दिया है । इस कविता में कवि कहता है कि वह आठ बाई दस के कड़ियों वाले कमरे में पैदा हुआ । जब वह खेलना सीखा तो उसकी माँ ने बताया कि उनके कमरे से लगा कमरा उनका नहीं है और दस कदम की दूरी के बाद आँगन दूसरों का है । स्पष्ट है कि कवि के माता-पिता अत्यंत निर्धन थे और उसका बचपन अभावों में बीता है । अपनी माँ की कही बात को बताते हुए कवि कहता है :

ये खेत मलखान का है 
वो ट्यूबवेल फूल सिंह की है 
ये लाला की दुकान है 
वो फैक्ट्री बंसल की है 
ये चक धुम्मी का है 
वो ताप्पड़ चौधरी का है 
ये बाग खान का है 
वो कोल्हू पठान का है 
ये धर्मशाला जैनियों की है 
वो मंदिर पंडितों का है 
कुछ इस तरह जाना हमने अपने गाँव को 
हमारे गाँव में हमारा क्या है ?
ये हम आज तक नहीं जान पाये । [2]

यदि किसी व्यक्ति के पास मकान नहीं हो और उसे सरकार की ओर से मकान बनवाने के लिए धनराशि मिल जाए, लेकिन मकान बनवाने के लिए उसके पास जमीन ही नहीं हो, तो वह क्या करेगा ? इसका उत्तर तो एक मंदबुद्धि बालक भी दे सकता है । यानी कि वह मकान नहीं बनवा पाएगा । मकान न होने का जितना दुःख होता है, उससे कई गुना दुःख होता है - जमीन के अभाव में मकान न बनवा पाने का । अमित धर्म सिंह 'जमीन' कविता में अपने माता-पिता के इसी दुःख को अभिव्यक्त करते हैं :

एक प्रधान की योजना में 
माँ-पापा के नाम से मकान आया
मगर वह जमीन न होने की वजह से 
बनवाया न जा सका 
प्रधान ने बहुत कहा -
मिस्त्री मकान अपने साले के प्लाट में बनवा ले 
बाद में या तो 
मलबा उखाड़ लेना 
या अपने साले को ही दे देना 
मगर मामा न माने । [3]

'आलू का ठप्पा' नामक कविता में अमित धर्म सिंह ने अपने बचपन में होली के अवसर पर की जाने वाली शरारतों का बिंब प्रस्तुत किया है । आलू के ठप्पे पर रंग लगाकर अपने बालसखाओं की पीठ अथवा कपड़े पर छापना और उन पर अपना अधिकार जमाते हुए उन्हें चिढ़ाना ही उनके लिए होली का उत्सव था । यह कविता अत्यंत मनोरंजनपूर्ण है, जिसे पढ़कर पाठक भी आनंदित होता है । हास्य रस से युक्त इस कविता की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :

आलू के ठप्पे से 
होली खेलने वालों की पीठ थापते
जिस किसी के कपड़ों पर 
या नंगी पीठ पर ठप्पा लगता 
उसी पर अपना नाम छप जाता; 
हम उसे चिढ़ाते -
" आज से तू हमारा हुआ । " [4]

अमित धर्म सिंह बचपन में डेग (लाउडस्पीकर) से निकले पीकर के चुंबक को लेकर उसे किसी मोटी लकड़ी में फँसाकर रख लेते थे । तपती दोपहरी हो अथवा कड़कती सर्दी, किसी भी मौसम में किसी भी समय, घर से आँख बचाकर चुम्बक लेकर गाँव की टूटी-फूटी सड़कों पर निकल पड़ते थे । अपने हुलिया का वर्णन करते हुए उन्होंने लिखा है, " नंगे पैर ढीली शर्ट/बटन कुछ खुले कुछ टूटे/झबले नेकर में/पतली-पतली मैली टाँगें/ये ही हुलिया था हमारा " । गाँव की सड़क के दोनों और सरिया मिलें या रेलिंग मिलें थीं । उनमें बड़े-बड़े सरिये, एंगल, गेट चैनल और गाटर बनते, जो ऊँची-ऊँची इमारतें और बड़े-बड़े पुल बनाने में काम आते । उन फैक्ट्रियों में लोड हुई गाड़ियाँ जब बाहर निकलतीं, तो उनसे लोहे का चूरा छनकर गाँव की सड़क पर गिरा करता । अमित धर्म सिंह उसी लोहे को चुंबक पर चिपकाकर किसी पन्नी या शर्ट की जेब में जमा कर लेते । उन्होंने सुना था कि ऐसा लोहा गोली-कारतूस भरने के काम आता है, इसलिए उन्हें उसे बेचने की जल्दी रहती । उस लोहे को खरीदने वाला एक ही दुकानदार था, जो बहुत बड़ा ठग था । वह चार-छः सौ ग्राम लोहे को तौलकर सौ-दो सौ ग्राम बताता और अठन्नी-चवन्नी या बिस्कुट-टॉफी देकर चलता कर देता । अमित धर्म सिंह उतने में ही सब्र करते और दीन-सी खुशी मनाते । वे ढेर सारा लोहा इकट्ठा करने की उम्मीद में सड़क की खाक् छानते फिरते । अपनी कविता 'लोहा' में वे अपने बालमन की इसी वेदना को व्यक्त करते हैं :

एक दिन नहीं 
दो दिन नहीं 
बरसों-बरस 
खूब सपने देखे 
खूब खाक् छानी 
ढेर सारे लोहे के लिए 
मगर ढेर सारा लोहा 
कभी हाथ नहीं लगा 
आखिर हमारे मन में बसने वाला 
ढेर सारा लोहा 
पिघलाकर जम गया 
हमारे मन में ही 
हमेशा के लिए । [5]

'गिरोह' कविता में अमित धर्म सिंह ने अपने बचपन में गिरोह बनाने की योजना और उसके परिणाम तक पहुँचने की कथा को समाहित किया है । उनके गाँव में गोबर गैस के दो बंद गड्ढे थे । एक गड्ढा पूरी तरह गोबर से आँट दिया गया था, दूसरा खाली रहता; जिसमें छुपकर वे साथियों के साथ माचिस के तास और छुपम-छुपाई के खेल खेलते । खेलते-खेलते पाँच दोस्त हो गये, जिनमें दो जवान लड़के, दो बालक और एक सयानी लड़की थी; वही गिरोह की सरगना थी । उसका रहन-सहन बिल्कुल लड़कों जैसा था । न हाथ में चूड़ी, न नाक-कान में कुछ पहनती, बाल छोटे-छोटे, ढीली-ढाली शर्ट और पैंट । कोई नहीं पहचान पाता कि वह लड़की है । एक दिन पाँचों घर से भाग निकले । मुजफ्फरनगर स्टेशन से अम्बाला वाली ट्रेन पकड़ ली । दिसंबर की सर्दी के दिन थे । उन पाँचों के बीच में दो लोई और एक शाॅल थी, जिन्हें ओढ़ने के बाद भी वे ठंड से काँपते रहे । उनके पास जो भी थोड़े से पैसे थे, वे एक स्टेशन पर छोले-भटूरे खाने में खर्च कर दिये । टिकट के लिए उनके पास पैसे नहीं बचे थे । सभी लड़के घर वापस चलने की बात कहने लगे । लड़की ने लाख समझाया कि वापस जाना ठीक नहीं, लेकिन जवान लड़का रोने लगा । उससे भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी । सबकी जिद्द के आगे लड़की मजबूर हो गई । जब देर रात ट्रेन अंबाला जाकर रुकी, तो सब उतर गये । वे मुजफ्फरनगर जाने वाली ट्रेन पूछे । किसी ने मुजफ्फरनगर से होते हुए दिल्ली जाने वाली ट्रेन बता दी । टिकट न होने के डर से सभी ट्रेन की छत पर चढ़ गये । जब ट्रेन चलने लगी, तो सर्दी के कारण उनके हाड़ काँपने लगे । रात भर चलने के बाद दिन में जब ट्रेन रुकी, तो वे मुजफ्फरनगर की बजाय दिल्ली पहुँच चुके थे । उतरते ही टी०टी० ने पकड़ लिया । टिकट न होने पर पूछताछ होने लगी; सारे जवाब लड़की देती । सुबह से लेकर रात के तीन बजे तक पुलिस ऑफिस में उन्हें डराती-धमकाती रही । लड़की लगातार बचाव करती रही । बाद में एक भले पुलिस वाले ने उनसे प्यार से पूछा, तो उन्होंने सच-सच बता दिया । तब उसने उन्हें खाना खिलाया, तीन लोगों का टिकट लेकर दिया और चार बजे वाली ट्रेन में बिठाया । सुबह ग्यारह बजे सभी मुजफ्फरनगर स्टेशन पर पहुँच गये । घर पहुँचकर सब अपनी-अपनी परेशानियों में खो गये । गिरोह बनने से पहले ही बिखर गया था । गिरोह बनाने का उद्देश्य क्या था ? यह पढ़कर पाठक अपनी हँसी नहीं रोक पाता । उदाहरणार्थ हास्य रस से परिपूर्ण ये पंक्तियाँ :

खेलते-खेलते पाँच दोस्त इकट्ठा होने लगे 
पाँचों अपने घर के हालात से तंग थे 
पाँचों के बड़े-बड़े सपने थे 
जिनको साकार करने के बहुत से उपाय सोचे जाते 
सोचा गया कि अमीरों को लूटकर 
गरीबों में माल बाँटा जाए । [6]

'दो रंग की चप्पलें' कविता में अमित धर्म सिंह अपनी माँ की करुण स्थिति को व्यक्त करते हैं । उनकी माँ दस बहन-भाइयों में दूसरे नंबर पर थी । उनके नाना परिवार के सभी सदस्यों को लेकर भट्टे पर जाते । कोई घाणी बनाता, कोई ईंटे पाथता, कोई ईंटे ढोता, कोई चिनता, कोई मिट्टी फैलाता, कोई काटता । उनकी माँ सुबह पाँच बजे उठकर सबका खाना बनाकर ले जातीं और बाद में ईंट पथवातीं । ससुराल आने के बाद भी उनके कार्यों में कोई रियायत नहीं बरती गई, बल्कि दिनोंदिन उनके कंधे जिम्मेदारियों से भारी होते गये । वे घरेलू कार्यों में इतनी व्यस्त रहतीं कि उन्हें अपनी कोई सुधि नहीं रहती । उन्हें शारीरिक श्रृंगार करने का भी समय नहीं मिल पाता । आर्थिक तंगी के कारण वे दोनों पैरों में दो रंग की चप्पलें पहनने को विवश थीं ।

हमने होश संभाला 
तो देखा 
वह चार-पाँच बच्चों से घिरी 
सुबह-शाम चूल्हे में तो सिंधड़ती ही है 
दिन में दो बार घास भी लाती है 
न नाक में कुछ, न कान में 
न पाँव में, बस हाथ में दो-चार चूड़ी -
और पाँव में दो रंग की चप्पले 
माँग में सिंदूर भी तीज-त्यौहार को ही । [7]

गाँव हो या शहर, प्रायः देखा जाता है कि बड़ी कक्षाओं के छात्र छोटी कक्षाओं के छात्रों पर अपनी पढ़ाई का रौब दिखाते हुए उनसे कोई न कोई प्रश्न पूछते हैं और सही उत्तर न मिलने पर उनका उपहास भी करते हैं । गाँवों में तो मेहमानों के सामने भी ज्ञान की परीक्षा ली जाती है । अमित धर्म सिंह की कविता 'पढ़ाई का रौब' में इसी ग्रामीण स्थिति का चित्रण है । वे कहते हैं कि घर पर मेहमान आते तो उन्हें बुलाया जाता । मेहमान को भले ही कुछ न आता हो, लेकिन मेहमान गिनती, पहाड़ा, हिंदी और अंग्रेजी वर्णमाला आदि सुनाने के लिए जरूर कहते । इसके अतिरिक्त कुछ कठिन बातें भी बोलने के लिए कहते । अमित धर्म सिंह के शब्दों में :

हमसे बुलवाते -
' गड़गड़गाम मोर मुकम्मचपुर '
बोलना शुरू करते 
तो गड़गड़ में ही गड़बड़ हो जाती 
या मुकम्मचपुर का 
मुकन्चमपुर हो जाता; 
' कच्चे पापड़ पक्के पापड़ ' को 
एक साँस में जल्दी-जल्दी बोलते
तो पापड़ का पाकड़ होता रहता । [8]

बचपन में अमित धर्म सिंह को उनके गाँव के अन्य बच्चों की तरह उन्हें भी वीसीआर देखने का बड़ा शौक था । गाँव के किसी भी कोने में वीसीआर आने की खबर हो जाती, तो वे शाम से ही वीसीआर देखने की तैयारी करने लगते । वीसीआर लाने वाले अपने आँगन के बाहर ही वीसीआर चलाते । देखने वालों का हुजूम नीचे बैठता । अमित धर्म सिंह भी अन्य बच्चों की तरह कट्टा आदि बिछाकर या जमीन पर ही बैठकर, धूल-धक्कड़ में रात भर वीसीआर देखते । 'शौक' नामक कविता में वे कहते हैं कि कल्लू वीसीआर लाने का बड़ा शौकीन था । वीसीआर चलाना भी अधिकतर उसे ही आता । वह कनस्तर फैक्ट्री में काम करता था । हर साल कनस्तर फैक्ट्री में 17 सितंबर की रात वीसीआर चलता । अगली सुबह विश्वकर्मा की पूजा होती, इसलिए वह दिन उनके लिए सबसे खास था । वे कहते हैं :

हमें 17 सितंबर का 
होली-दिवाली की तरह 
इंतजार रहता 
काफी रोक-टोक के बाद 
घर से डेढ़ किलोमीटर दूर 
कनस्तर फैक्ट्री में 
वीसीआर देखने जाते । [9]

अपनी कविता 'टोट्टे की निशानी' में अमित धर्म सिंह बड़े बूढ़ों द्वारा बताई गई पारिवारिक दुर्दशा की तीन निशानियों की बात करते हैं । वे कहते हैं कि उनके घर में टोट्टे की तीनों निशानियाँ हैं - टूटी खाट, फूटे बर्तन और फटे-पुराने कपड़े । यह कविता उनके निर्धन परिवार की अत्यंत दयनीय स्थिति को प्रदर्शित करती है । एक चर्चित लोकोक्ति को उन्होंने अपनी इस कविता का माध्यम बनाया है । वे कहते हैं :

बड़े बूढ़े टोट्टे की 
तीन निशानी बताते 
टूटी खाट, 
फूटे बर्तन, 
फटे-पुराने कपड़े; 
तीनों हमारे घर में थीं । [10]

इस देश के अधिकांश वासी अंधी दौड़ लगा रहे हैं । अंधविश्वास तो इस देश की संस्कृति का ही एक हिस्सा है । भारतवर्ष 'त्यौहारों का देश' कहा जाता है । यहाँ वर्ष में लगभग हर महीने कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता है । कई त्योहार ऐसे हैं, जो केवल व्रत पर ही आधारित हैं । व्रत यानी उपवास का वैज्ञानिक कारण भी बताया जाता है, लेकिन इस देश में हर व्रत के अलग-अलग कारण और अलग-अलग लाभ गिनाए जाते हैं । सावन का व्रत विशेष रूप से केवल लड़कियों के लिए होता है, जो सुंदर पति पाने के लिए व्रत रखती हैं । तीज और करवा चौथ आदि ऐसे व्रत होते हैं, जो केवल सुहागिनों के लिए होते हैं । अधिकांश महिलाएँ और लड़कियाँ तो कारण जाने बिना ही देखी-देखा करके व्रत रखती हैं । कवि अमित धर्म सिंह भी अपने बचपन में दूसरों का देखकर ही जन्माष्टमी का व्रत रखे थे । 'बरत' कविता में वे कहते हैं :

जन्माष्टमी का बरत रखना शुरू किया 
क्यों किया ? पता नहीं, 
क्या लाभ होगा ? पता नहीं, 
देखा-देखी करते रहे, हर साल । [11]

अतः स्पष्ट है कि अमित धर्म सिंह ने अपने इस काव्य-संग्रह में अपनी बाल्यावस्था में घटित घटनाओं की कहानी का वाचन काव्य के रूप में किया है । कविताएँ पढ़ते समय ऐसा अनुभव होता है, जैसे कवि सामने बैठकर अपनी कहानी सुना रहा हो । डॉ० जयप्रकाश कर्दम ने भी इसे ' काव्यमय आत्मकथा ' का नाम दिया है । इस काव्यमय आत्मकथा में कवि ने अपनी दरिद्रता और अपना संघर्ष यथार्थ रूप में अभिव्यक्त किया है ।  प्रोफेसर कैलाश नारायण तिवारी के अनुसार, " कहने के लिए ये कविताएँ नवे दशक के उत्तरार्ध से दसवें दशक के अंतिम समय तक के कालखंड की कविताएँ हैं, लेकिन इन कविताओं का विस्तार देश के दूर-दराज के इलाकों तक है, जिनमें लोग अभाव और उपेक्षा का जीवन जी रहे हैं । " [12] अमित धर्म सिंह की भाषा-शैली ग्रामीण परिवेश और बाल जीवन के अनुकूल है । उन्होंने मुजफ्फरनगर की क्षेत्रीय बोली का प्रयोग किया है । मुहावरों और लोकोक्तियों के भावानुकूल प्रयोग के साथ भाषा में भी प्रवाह है । उनकी शैली सरसता, रोचकता और नाटकीयता से परिपूर्ण कथा शैली है । बाल्यावस्था में अंबेडकरवादी विचारधारा से उनका जुड़ाव नहीं था, इसलिए उनकी कविताओं में विषमतावादी सामाजिक व्यवस्था के प्रति कहीं भी नकार, आक्रोश अथवा प्रतिरोध के स्वर मुखरित नहीं हुये हैं ।

संदर्भ :
[1] अमित धर्म सिंह : हमारे गाँव में हमारा क्या है ?, पृष्ठ 7
[2] वही, पृष्ठ 16
[3] वही, पृष्ठ 31
[4] वही, पृष्ठ 40
[5] वही, पृष्ठ 70
[6] वही, पृष्ठ 78
[7] वही, पृष्ठ 101-102
[8] वही, पृष्ठ 104
[9] वही, पृष्ठ 134
[10] वही, पृष्ठ 141
[11] वही, पृष्ठ 162
[12] वही, पृष्ठ 14

✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली, उत्तर प्रदेश

2 टिप्पणियाँ

  1. गत वर्ष जुलाई में ही प्रकाशित होकर आया था, यह काव्य संग्रह। और, ठीक आज ही के दिन मेरी मां ने घर पर ही इसका विमोचन किया था। आज इस पुस्तक के प्रथम जन्मदिवस पर आपकी समीक्षा मेरे लिए कई संदर्भ में अनमोल हो गई है। आभारी हूं...।
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1200992480072262&id=100004845638878

    जवाब देंहटाएं
और नया पुराने