कविता संग्रह 'युद्ध अभी जारी है' को बोधि प्रकाशन जयपुर, ने वर्ष 2017 में प्रकाशित किया । युवा कवि अरविंद भारती का यह पहला कविता-संग्रह है, जिसमें कुल 65 कविताएँ संग्रहीत हैं । अपनी कविताओं में उन्होंने जाति, धर्म और ईश्वर पर प्रश्न चिन्ह लगाया है । उनकी कविताएँ मनुष्य को मनुष्य होने का बोध कराती हैं और मनुष्यता को कलंकित करने वाली व्यवस्था का प्रतिरोध करती हैं । उनकी दृष्टि में जाति व्यवस्था मनुष्यता के माथे पर लगा हुआ सबसे बड़ा कलंक है । कितनी बड़ी विडंबना है कि इस देश में व्यक्ति कर्म से नहीं, जन्म से महान माना जाता है । जिस कुल या जाति में उसका जन्म होता है, उसी के आधार पर उसे सम्मान दिया जाता है ।
अरविंद भारती अपने आपको जाति की कैद में अनुभव करते हैं । जाति उनका पीछा नहीं छोड़ती । वे जहाँ भी जाते हैं, जाति उनके साथ जाती है । कभी-कभी तो जाति उनसे पहले ही पहुँच जाती है । तात्पर्य यह कि व्यक्ति चाहे किसी भी पेशे में हो, उसकी जाति अवश्य पूछी जाती है और जाति का पता चलते ही जाति आधारित व्यवहार प्रकट होने लगते हैं । जब कोई व्यक्ति किसी नौकरी के लिए आवेदन करता है, तो आवेदन-पत्र में भी जाति पूछी जाती है । आवेदन-पत्र जमा हो जाता है । जब वह साक्षात्कार के लिए जाता है तो, चूँकि उसकी जाति उससे पहले पहुँच गई होती है, इसलिए उसके वहाँ पहुँचते ही उससे जाति पूछे बिना ही जातिगत व्यवहार होने लगते हैं । 'कैद में हूँ' कविता में अरविंद भारती कहते हैं :
यह सिलसिला अब से नहीं
तब से है जबसे मैं गर्भ में था
तभी से पीछे पड़ी है जाति मेरे
और पैदा होते ही
कर लिया है अपहरण मेरा
तभी से मैं उसकी कैद में हूँ । [1]
जाति व्यवस्था का निर्माण करने वाले वर्ग को संबोधित करते हुए वे उनकी जातीय श्रेष्ठता के दंभ को उजागर करते हैं । अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए उन्होंने समाज में ऊँच-नीच की भावना का संचार किया । उन्होंने इस देश की विशाल जनसंख्या को 'अछूत' कहकर उनके साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया । युग बीते, कई पीढ़ियाँ समाप्त हो गईं, फिर भी 'अछूत' शब्द अद्यतन प्रयोग में है । अपने पूर्वजों पर हुए जुल्म का इतिहास याद करते हुए अरविंद भारती अपनी कविता 'गुनहगार' में कहते हैं :
स्वरचित जातीय श्रेष्ठता के दंभ में
तुम कुचलते रहे मासूमों को
छीन ली हमसे
शिक्षा, संपत्ति और आजादी
बनाया हमें गुलाम और अछूत
मजबूर किया
जानवरों से भी बदतर जीवन जीने को
तुम्हारा इतिहास ही नहीं वर्तमान भी
हमारा गुनहगार है । [2]
'जाति का नाग' कविता में इन्होंने संवाद शैली का प्रयोग किया है । इस कविता में नाटकीयता, संप्रेषणीयता और बिंब सभी समाहित हैं । कविता में निहित पीड़ा की अनुभूति हृदय को द्रवित कर देती है । एक पिता, जिसने अपनी पुत्री को सदैव मानवता का पाठ सिखाया, लेकिन शिक्षालय में उसकी जाति पूछकर और जातिसूचक शब्द 'चमरिया' का प्रयोग करके उसे अपमानित किया गया; तो वह पुत्री अपने पिता से जो कहती है और पूछती है, वह 'मेरा भारत महान' का नारा लगाने वाले लोगों के लिए एक चुनौती भरा प्रश्न है । अवलोकनार्थ :
रोते-रोते बोली बिटिया
पापा-पापा ये चमरिया क्या होता है ?
क्या मैं चमरिया हूँ ?
मासूम के सवालों से विचलित पिता
उसके सर पर हाथ फेरता रहा
और बिटिया रानी सर गोदी में रखकर
बस एक ही रट लगाती रही
मुझे चमरिया नहीं बनना पापा !
मुझे चमरिया नहीं बनना । [3]
इस देश में जो लोग 'अछूत' नाम से संबोधित किए जाते हैं, वे इस देश में सामाजिक और आर्थिक विषमता को भोगते हुए पशुवत जीवन व्यतीत करने को विवश हैं । उनकी बेटियाँ फटे-पुराने कपड़ों में दिन गुजारती हैं । यदि वे खूबसूरत हों, तो उन्हें हवसी दरिंदों के शोषण का शिकार होना पड़ता है । 'अछूत' कविता में अरविंद भारती कहते हैं :
जातीय हिंसा की आग में
झुलस रहे हैं वे
मजबूर हैं जुल्म सहने को
बेगार करने को, जूठन खाने को
क्योंकि वे इंसान नहीं
अछूत हैं । [4]
'जाति का बम' कविता में अरविंद भारती रासायनिक बम और वैचारिक बम की तुलना करते हुए राष्ट्रीय और सामाजिक यथार्थ का बहुत ही मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करते हैं । वे कहते हैं कि जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहर में जब परमाणु बम गिराया गया, तो दोनों शहर तबाह हो गये । बच्चे, बूढ़े, जवान, महिला-पुरुष आदि सभी उसके शिकार हुये । परमाणु बम का इतना बुरा प्रभाव पड़ा कि आने वाली नस्लें भी विकलांग पैदा होती रहीं । फिर भी जापानियों ने अपने दृढ़निश्चय, संगठन, लगन और परिश्रम से अपने देश का विकास और उत्थान किया । परिणामस्वरूप जापान का नाम अब विकसित देशों में गिना जाता है । वे कहते हैं कि जापान में तो परमाणु बम गिराया गया था, लेकिन भारत में सदियों पहले जाति रूपी बम गिराया गया; जिसका दुष्प्रभाव अभी तक दिखाई दे रहा है । इस जाति-बम के प्रभाव ने भारत को अभी तक विकसित नहीं होने दिया । वे कहते हैं :
सदियों पहले भारत में
बिना किसी तकनीक के
फोड़ा गया जाति-बम
जिसके प्रभाव में आये
बच्चे, बूढ़े, जवान, महिला-पुरुष
हुये ग्रसित
छुआछूत और ऊँच-नीच के रोग से । [5]
इस देश की सामाजिक दुर्व्यवस्था के आधार पर कोई जन्म से ही श्रेष्ठ है, तो कोई जन्म से ही निम्न है । कवि अरविंद भारती इस स्थिति को मात्र एक दुर्घटना कहते हैं । 'दुर्घटना' कविता में वे इसी बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं :
जन्म पर नहीं जोर किसी का
थोप दिया जाता है धर्म
पैदा होते ही
बाँध दिये जाते हैं घुँघरू
जाति के;
बजता है कानफोड़ू संगीत उम्र भर । [6]
'विद्रोहिणी' कविता में अरविंद भारती एक विद्रोहिणी दलित कन्या की संघर्ष-कथा का वर्णन करते हैं । सामान्यतः दलित लड़कियाँ अपनी अस्मत लुटने के बाद समाज में बदनामी के डर से चुप रहती हैं । उनकी इस चुप्पी को बलात्कारी कायरता समझ लेते हैं और बार-बार उनके साथ दुष्कर्म करते रहते हैं; लेकिन कवि ने इस कविता में एक ऐसी विद्रोहिणी दलित कन्या की कथा कही है, जो बलात्कार-पीड़िता मृत निर्भया के पक्ष में उठी आवाज और मीडिया के सहयोग को देखकर प्रभावित थी । उस दलित कन्या के संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि दरिंदों द्वारा उसका बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी जाती है । अखबार में खबर छपती है, तो केवल कुछ ही पंक्तियों में एक छोटी सी खबर । कवि ने अपनी इस कविता के माध्यम से आदर्शवादी भारतीय मीडिया की जातिवादी मानसिकता और दोहरे चरित्र को उजागर किया है । कविता की कुछ पंक्तियाँ अवलोकन हेतु प्रस्तुत हैं :
वो घिरी हुई है दरिंदों से
पर उसने हार ना मानी
बस लड़ती रही,
कुछ दिनों बाद अखबार में
छोटी सी खबर थी
दलित लड़की की
सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या । [7]
इस देश में प्रायः ऐसा होता है कि दो नादान किशोर व किशोरी दुनियादारी से अनजान रहकर आपस में प्रेम कर लेते हैं । उनका प्रेम इतना प्रगाढ़ हो जाता है कि एक-दूसरे से दूर रहना उनके लिए मुश्किल हो जाता है और वे साथ जीने-मरने की कसम खा लेते हैं । अफसोस, उनका प्रेम सफल नहीं हो पाता है । 'प्रेम की दुश्मन जाति' कविता में अरविंद भारती कहते हैं कि उनके बीच में जाति का नाग फुँफकारते हुए खड़ा हो जाता है और उनके प्रेम को डस लेता है । यदि अलंकार की बात की जाए, तो इस कविता में रूपक और मानवीकरण दोनों के दर्शन होते हैं; जिसमें नाग (सर्प) रूपक है और प्रेम का मानवीकरण किया गया है । अवलोकनार्थ :
डस लिया था
जिसने
प्रेम को
वो
नाग था
जाति का । [8]
कवि अरविंद भारती जातिभेद से इतने त्रस्त हैं कि वे जाति का मानवीकरण करते हुए उससे इस दुनिया से दूर जाने के लिए आग्रह करते हैं । वे यह सोचकर दुखी हैं कि जाति क्यों नहीं जाती ? चिंता की बात तो यह है कि जाति जाए भी तो कैसे ? वह भी विवश है । उसे जातिवादियों ने अपने मन-मस्तिष्क में कैद करके रखा है । अरविंद भारती कहते हैं कि जिन्होंने जाति को पाला और पोसा, उन्होंने सदैव मनुष्यता को धोखा दिया । उन्होंने मनुष्य और मनुष्य के बीच में ईर्ष्या और घृणा उत्पन्न किया । 'मर क्यों नहीं जाती ?' कविता की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं :
शर्मिंदा नहीं है आज भी
वो अपने कर्म पर
शर्म के मारे तुम खुद
मर क्यों नहीं जाती ? [9]
जाति का मानवीकरण करके उससे आग्रह करते हुए अरविंद भारती थक जाते हैं । उनका आग्रह, निराशा और खीझ के सोपान पर चढ़ते हुए आक्रोश की मुंडेर पर पहुँच जाता है तथा प्रतिरोध की छत पर आसन लगाते हुए विद्रोह करता है । 'धर्म का पेड़' कविता में अरविंद भारती धर्म को पेड़ की संज्ञा देते हैं और जाति को तना, शाखा व पत्ती की उपमा देते हैं । वे कहते हैं कि जातियों को खत्म करने के लिए धर्म रूपी पेड़ में अंबेडकरवाद रूपी मट्ठा डालकर इसे उखाड़ फेंकना होगा । कवि के शब्दों में :
करनी है अगर तुमको
खत्म ये जातियाँ
जड़ में मट्ठा डाल
उखाड़ फेंकना होगा पेड़ को । [10]
स्पष्ट है कि कवि अरविंद भारती ने अपने कविता संग्रह 'युद्ध अभी जारी है' में जाति-व्यवस्था के दुष्परिणाम के साथ-साथ उसके कारण और निवारण के संदर्भ में भी अपना भावपूर्ण विचार प्रस्तुत किया है । 'दर्पण' कविता में आक्रोश भाव, 'वो नहीं है' कविता में नकार भाव, 'दीवार' कविता में प्रतिरोध भाव और 'क्रांति' कविता में विद्रोह भाव परिलक्षित होते हैं । यह कविता-संग्रह दलित चेतना से परिपूर्ण होने के कारण दलित साहित्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । अरविंद भारती की दृष्टि पूर्णतः अंबेडकरवादी है, इसलिए इनकी कविताओं में भी अंबेडकरवाद केंद्रीय भाव के रूप में विद्यमान है । इनकी कविताओं में निहित जाति-व्यवस्था के विरोध भाव और भारतीय समाज की वर्तमान स्थिति का यदि योग कर दिया जाए, तो एक यथार्थवादी वाक्य बन जाता है - जाति व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध अभी जारी है ।
संदर्भ :
[1] अरविंद भारती : युद्ध अभी जारी है, पृष्ठ 8
[2] वही, पृष्ठ 10
[3] वही, पृष्ठ 11-12
[4] वही, पृष्ठ 13
[5] वही, पृष्ठ 15
[6] वही, पृष्ठ 20
[7] वही, पृष्ठ 33
[8] वही, पृष्ठ 35
[9] वही, पृष्ठ 18
[10] वही, पृष्ठ 16
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय, चंदौली, उत्तर प्रदेश