आंबेडकरवादी साहित्य विमर्श

आंबेडकरवादी साहित्य विमर्श के अंतर्गत प्रस्तुत है - लेखक ईश कुमार गंंगानिया का एक महत्वपूर्ण लेख :



आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्विरोध

जिस साहित्य के लिए आज ‘आंबेडकरवादी साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया जा रहा है, वह अपने विकास की प्रारंभिक यात्रा में ‘दलित साहित्य’ के नाम से ही जाना जाता था। इसके केन्द्र में तब भी आंबेडकरवादी विचारधारा थी और आंबेडकरवादी साहित्य के केन्द्र में भी आंबेडकरवादी विचार ही है। लेकिन आंबेडकरवादी साहित्य के रूप में इसे स्थापित करने का उद्देेेेश्य उससे जुड़ी विभिन्न भ्रांतियों और विवादों का निवारण ही नहीं ‘करना’, बल्कि इसकी वैचारिक प्रतिबद्धता को एक निश्चित दिशा निर्धारित कर इसके विस्तृत स्वरूप को सार्वभौमिकता प्रदान करना है। इस लेख का शीर्षक ‘आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्विरोध' दिया गया है, लेकिन साहित्य के इस प्रारंभिक अंतर्विरोध को इसके प्रारंभिक नाम ‘दलित साहित्य’ के अंतर्गत प्रयोग की जाने वाली शब्दावली के माध्यम से विचार किया गया है, ताकि इसके अंतर को आंबेडकरवादी साहित्य के सैद्धांतिक पक्ष से जोड़कर नवाजा जा सके और इस परिवर्तन की अनिवार्यता व प्रासंगिकता के महत्व को समझा जा सके। 
साहित्य ‘समाज और संस्कृति’ का अत्यंत संवेदनशील अव्यव होता है, जिसमें विभिन्न आर्थिक, धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक व नैतिक पहलुओं का समावेश होता है, जो आपस में इतनी मजबूती से गुंथे रहते हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना संभव नहीं है। समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई ‘व्यक्ति’ के व्यक्तित्व के विकास में साहित्य अहम् भूमिका अदा करता है और व्यक्तियों के व्यक्तित्व के अनुरूप ही समाज में विभिन्न प्रकार की मान्यताएँ, परंपराएँ, संस्कार और व्यवहार का जन्म होता है, जो समाज की उन्नति या अवनति के लिए जिम्मेदार होता है। दूसरे शब्दों में यूं भी कहा जा सकता है कि किसी राष्ट्र का उत्थान या पतन उसके समाज पर निर्भर करता है, जिसमें साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सदियों से मुट्ठीभर वर्णवादियों ने साहित्य का तालिबानीकरण कर अनेक प्रकार के अंधविश्वास, रूढ़ियाँ और दूषित परंपराएँ समाज की नस-नस में रोप दी और इसे विकृत बना दिया, जिसके कारण पूरा समाज, जाति, धर्म, वर्ण, क्षेत्रा और भाषा के आधार पर विभाजित हो गया। परिणामस्वरूप समाज का एक बड़ा और महत्वपूर्ण हिस्सा स्वतंत्रता, समानता व बंधुता जैसे मानवीय गुणों से वंचित होकर दलन, शोषण और घिनौने उत्पीड़न का शिकार हो गया, जिसके कारण उसका शारीरिक, मानसिक व सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध हो गया। ऊपर से वर्जनाओं के लदान ने उसे पशु से भी बद्तर जीवन जीने के लिए विवश कर दिया। यद्यपि भारत का इतिहास चीख-चीखकर इन तालिबानियों की करतूतों का बयान कर, देश की गुलामी के लिए इन्हें कटघरे में खड़ा कर रहा है, लेकिन ये संकीर्णतावादी मुट्ठीभर, इतिहास को नज़रअंदाज कर अपनी खुराफ़ातों से बाज नहीं आ रहे हैं और देश को पुनः गुलामी की दलदल में घसीटने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहें। ऐसे में सभी प्रकार की असमानताओं, शोषण और उत्पीड़न को धराशाही कर समाज को शक्तिहीन, प्रगतिहीन, दिशाहीन व विकलांग बनने से रोकने के लिए सच्चे मानवतावादी साहित्य का उदय होना स्वभाविक भी था और अनिवार्य भी, जिससे देश की स्वतंत्राता अक्षुण्ण रह सके। वर्तमान में इस साहित्य को ‘दलित साहित्य’ के रूप में जाना जाता है, जो समाज में व्याप्त सभी प्रकार के अमानवीय कृत्यों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाता है। कहने में संकोच नहीं कि दलित आज भी दलन और शोषण के शिकार हैं, कल भी थे और भविष्य के विषय में भी कोई ठोस रूपरेखा अभी तक तैयार नहीं है, जो दलन से मुक्ति की गारंटी प्रदान कर सके। यद्यपि दलितों की स्थिति में थोड़ा आर्थिक सुधार आया है और शोषण से थोड़ी से राहत मिली है, लेकिन जातिगत कीच के छींटे जब देश के प्रथम नागरिक के पाक दामन तक को मलिन करने से नहीं चूकते, तो साधारण जनता जो अधिकांशतः गांवों में निवास करती है, जहाँ सामंती सत्ता चलती है; उनकी दयनीय हालत का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। जातिगत क्रूरता को देखते हुए अनिवार्य हो जाता है कि दलित साहित्य की प्राथमिकता जाति-उन्मूलन की होनी चाहिए, फिर इसका विकास स्‍त्री, पिछड़ें व अल्पसंख्यक तक होते-होते सवर्णवादी अवधारणा को क्षीण कर देगा और समाज ‘पूरा का पूरा’ इसकी विषयवस्तु बन जाएगा। यहां चर्चा करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि जैसे-जैसे समय और परिस्थितियों के अनुरूप ‘दलित साहित्य’ का विस्तार व्यापक होगा, इसके नाम में भी व्यापकता की संभावनाएं प्रबल होगी। यद्यपि ‘दलित साहित्य’ हिन्दी जगत में दो दशक पार कर चुका है और मराठी में इसकी उपस्थिति और भी पुरानी है, फिर भी इसमें अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे हैं, जो निरंतर विचार-विमर्श की आवश्यकता का अहसास कराते हैं ताकि आंबेडकरवादी साहित्य के संदर्भ में एक सर्वसम्मत सोच विकसित हो सके, जो इसके खिलाफ़़ उठने वाली आवाजों को विराम दे सके और इसका स्वाभाविक विकास किसी भी तरह बाधित न हो। मैं अपना लेख इन्हीं मुद्दों पर केंद्रित करना चाहूँगा, क्योंकि दलित साहित्य के कंधों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष दोहरी जिम्मेदारी है। पहली जिम्मेदारी है उन साहित्यकारों के रू-ब-रू होने की जो समाज की पुरानी व सड़ी-गली परंपराओं को जिंदा रखने के लिए ‘दलित साहित्य’ पर बे-बुनियाद लांछन लगाते हैं। दूसरे, ‘दलित साहित्य’ में ऐसे साहित्यिक मानदंडों को स्थापित करने की जो ‘इस साहित्य’ को प्रासंगिक, तर्कयुक्त और मानव कल्याणकारी बनाने में सक्षम कर सकें।

सबसे पहले मैं चर्चा करना चाहूंगा, एक साधारण से प्रश्न की जो दलित लेखकों के सामने बड़े व्यंग्यपूर्ण अंदाज में बार-बार उछाला जाता है कि क्या है दलित साहित्य? साहित्य भी कोई दलित होता है? यानी इसकी परिभाषा को मुद्दा बनाया जाता है। परिभाषा के मुद्दे को दलित लेखक संघ के प्रथम दो दिवसीय अधिवेशन जो 20-21 अपै्रल 2002 को जे.एन.यू. सीटी सेंटर में हुआ था, जिसका विषय था ‘इक्कीसवीं सदी में दलित आंदोलन के समक्ष चुनौतियां’ में डा.जयप्रकाश ‘कर्दम’ ने अपने बीज भाषण में उठाया, जिस पर हिन्दी की जानी-मानी पत्रिका ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र प्रसाद यादव ने अपनी टिप्पणी में कहा-‘‘दलित साहित्य अभी विकास की प्रक्रिया से गुजर रहा है और परिभाषित होने पर कोई भी प्रवृत्ति समापन की और चली जाती है और उसका विकास रुक जाता है।’’ यद्यपि डाॅ. तेजसिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में निर्णायक शब्दों में कहा-‘‘दलित साहित्य की परिभाषा हो चुकी है और इस पर किसी प्रकार की चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं है।’’ लेकिन यह बहस यहाँ समाप्त नहीं होती, क्योंकि दलित साहित्य को लेकर कुछ मुद्दे अनुत्तरित हैं, जिनका सामना दलित साहित्यकारों को करना पड़ता है। पहला विवाद ‘दलित’ शब्द के दायरे को लेकर उठता है। दलित साहित्यकार 'दलित' शब्द को जातिगत दलन के दायरे में रखने पर ज़ोर देते हैं, जबकि ग़ैर-दलित इसकी परिधि को तोड़, समाज के अन्य कमजोर वर्गों तक इसे घसीटते हैं। दूसरा विवाद कौन दलित साहित्यकार हो सकता है? या यूँ कह सकते हैं कि क्या दलित साहित्य का सृजन दलित ही कर सकता है, ग़ैर-दलित नहीं? इस मुद्दे पर दलित साहित्यकारों में भी आपसी मतभेद साफ नज़र आते हैं। इसको स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ दलित साहित्यकारों की टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा, ताकि इन पर गंभीर विचार होकर किसी तर्कयुक्त निर्णय पर पहुँचा जा सके। डाॅ. विमल कीर्ति- ‘‘जरूरी नहीं है कोई दलित जाति में जन्म लेने से ही किसी व्यक्ति की अभिव्यक्ति दलित हो। यह उसकी अनुभूतियों पर निर्भर करती है। दलित साहित्य के जो प्रतिमान हैं, उनसे हटकर कोई अभिव्यक्ति दलित नहीं हो सकती।’’ यानी डाॅ. विमल कीर्ति अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण मानते हैं, जन्म को नहीं। ओमप्रकाश वाल्मीकि- ’‘कोई आवश्यक नहीं दलित जाति में पैदा होकर कोई दलित लेखक हो जाता है। दलित लेखक के लिए जरूरी है कि आंबेडकर, फुले के जीवन दर्शन को समझना और दलित ने उसी के अनुरूप एक सोच और एक दृष्टिकोण का विकास किया है। केवल जन्म के आधार पर किसी की भी पहचान स्थापित करना ब्राह्मणवादी सोच है।" कंवल भारती भी कुछ 'इफ एण्ड बट' के साथ मान लेते हैं कि ग़ैर-दलित भी दलित साहित्य लिख सकते हैं। मोहनदास नैमिशराय मानते हैं, ‘‘ग़ैर-दलित साहित्य में घुसपैठ करते हैं और आगे चलकर दिक्कत करते हैं। दिक्कत तब बढ़ जाती है, जब ये दलित साहित्य की परिभाषा करने लग जाते हैं और आगे बढ़कर यह भी दुस्साहस करते हैं- दलितों ! ऐसे लिखो, वैसे लिखो।’‘ यानी नैमिशराय ग़ैर-दलित लेखकों को दलित लेखक के रूप में स्वीकार नहीं करते। श्यामसिंह ‘शशि’- ’‘हिन्दी में एक मत से दलित साहित्य के वे सभी सृजक दलित साहित्यकार कहलाने के अधिकारी हैं, जिन्होंने दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों पर लिखा हो, भले ही वे किसी जाति अथवा वर्ग के हों। किंतु मराठी में केवल दलित समुदायों के रचनाकार ही दलित साहित्यकार कहलाते हैं।’‘ डाॅ. तेजसिंह और डाॅ. जयप्रकाश कर्दम जातिगत दलन के दायरे में आने वालों को ही दलित साहित्यकार के रूप में स्वीकार करते हैं, अन्य किसी को बिल्कुल नहीं। 

दोनों ही पक्षों के तर्कों, व्यवहारिकता और दलित साहित्य के भविष्य को केंद्र में रखकर आंकना होगा, तभी हम किसी ठोस आधार पर दलित साहित्य को खड़ा कर सकते हैं। यदि हम ग़ैर-दलितों को भी दलित साहित्य के रचनाकार के रूप में स्वीकार करते हैं तो पुनः साहित्य का परंपरागत रूप सामने आएगा क्योंकि ग़ैर-दलित साहित्यकारों की निष्ठा संदेह से मुक्त नहीं है। इसको स्पष्ट करने के लिए मैं कुछ उदाहरणोें का सहारा लेना चाहूंगा। सबसे पहले मैं मैनेजर पांडे की टिप्पणी व्यक्त करना चाहूँगा, जो उन्होंने दलित साहित्य के समर्थन में वाह-वाही लूटने के लिए की। मैनेजर पांडे ‘‘मैं चाहता हूँ कि दलित साहित्य दुनिया की चर्चाओं में ही नहीें विश्वविद्यालयोें और काॅलेजोें के साहित्य, खासकर हिन्दी साहित्य के अध्ययन और पाठ्यक्रम में भी दलित साहित्य को विशेष स्थान मिले। रिफरेशर कोर्स चल रहा है, देश भर से अध्यापक आते हैं, इसलिए विष्णु खरे को बुलाया, क्योंकि वे आजकल दलितों की अपेक्षा अच्छा लिख रहे हैं।’‘ इस टिप्पणी से मैनेजर पांडे के दोहरे चरित्र का पर्दाफ़ाश होता है। एक ओर तो वह दलित साहित्य और दलित साहित्यकारों के हमदर्दी के पात्र बनना चाहते हैं, दूसरी ओर दलित साहित्य दलित आंदोलन पर छुरी चलाकर इसे बर्बाद करना चाहते हैं। यही वह मानसिकता है, जिसके झाँसे में दलित सदियों से आता रहा है और अपनी दुर्दशा को प्राप्त होता रहा है। क्या वे दलित लेखक जो 20-30 वर्ष से निरंतर लिख रहे हैं, उनमें भी कोई इतना समर्थ नहीं कि वह दलित साहित्य पर अपने विचार व्यक्त कर सके। क्या विश्वविद्यालयों के सारे दलित शिक्षक उनकी नज़र में अयोग्य हैं और विष्णु खरे को वे योग्यता का सर्टिफिकेट दे देते हैं। शायद उनकी नज़र में साहित्य चाहे परंपरागत साहित्य हो या दलित साहित्य, सवर्ण ही योग्यता की कसौटियों पर खरा उतरता है। मैनेजर पांडे की सोच मुझे उस षड्यंत्र की याद दिलाती है, जिसके कारण ब्राह्मणों ने बौद्ध धम्म में घुसपैठ की, उसे तबाह कर दिया और ऐसे ही मार्क्सवाद में घुसपैठ की, उसे भी दोहरे चरित्र से बर्बाद किया। ऐसी सोच भरोसे के काबिल हो सकती है, क्या? दूसरे सभी ग़ैर-दलित साहित्यकार प्रेमचंद को दलित चेतना का संवाहक सिद्ध करने में एक से बढ़कर एक तर्क दिए जा रहे हैं और ‘क़फ़न’ कहानी को सबसे श्रेष्ठ कहानी मानते हैं। इस संबंध में मैं सीताराम खोड़ावाल, जो प्रेमचंद साहित्य के विशेषज्ञ माने जाते हैं, की प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहूँगा। खोड़ावाल के अनुसार- " ‘क़फ़न’ प्रेमचंद की प्रतिनिधि दलित कहानी है। यहाँ बेटा-बाप को और बाप बेटे को धोखा देकर आलू खाना चाहता है। यही दलितों का यथार्थ है। ‘‘बहू की लाश के कफन का जो चंदा बख्शीश में इन्हें पैसे मिलते हैं, वे उन पैसोें का दुरुपयोग करते हैं, जैसा कि कुछ दलितों ने सरकार से मिली आर्थिक सहायता का दुरुपयोग किया है। ये सरकारी सहायता को शराब में डुबोते हैं। ये पढ़ते-लिखते हैं, तो नौकरी के लिए; किसी स्वतंत्र व्यवस्था के लिए नहीं।’‘ सीताराम खोड़ावाल ने प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ को लेकर एक राय स्थापित करने की कोशिश की है कि भूख के कारण दलित कितना गिर जाता है। साथ में सिद्ध करने की कोशिश की है कि दलितों को जो आर्थिक सहायता मिलती है, उसका ये दुरुपयोग करते हैं और पढ़ाई भी सिर्फ़ नौकरी के लिए करते हैं, स्वतंत्र व्यवस्था के लिए नहीं। ऐसी सोच सीताराम खोड़ावाल की पूर्वाग्रह व दुर्भावना से प्रेरित लगती है। जहाँ तक भूख का प्रश्न है, भूख में किसी भी व्यक्ति का असामान्य व्यवहार हो सकता है, सिर्फ़ दलितों का ही ऐसा हो, यह शरारत पूर्ण बात है। जहाँ तक सरकारी आर्थिक सहायता का प्रश्न है, वह राजीव गांधी के इस कथन से स्पष्ट है कि " सरकार की तरफ़ से 100 रुपए की आर्थिक सहायता उपयुक्त पात्र तक पहुँचते-पहुँचते 10 रुपए रह जाती है । " इससे पता चल जाता है कि 90 प्रतिशत राशि कहाँ जाती है। सीताराम खोड़ावाल को चाहिए कि एक सर्वेक्षण करे कि चोरी, डकैती, घोटाले, रिश्वतखोरी, दलाली में कौन लोग शामिल होते हैं? देश की गुलामी के पीछे कौन-कौन जिम्मेदार रहे हैं और फिर राय बनाए, दलितों का यथार्थवाद क्या है और ग़ैर-दलितों का यथार्थ क्या है? 

जहाँ तक प्रेमचंद का प्रश्न है, निःसंदेह प्रेमचंद ने दलित जीवन का चित्रण किया है। प्रेेमचंंद ने सिलिया के ऐपीसोड में ब्राह्मण के मुँह में हड्डी ठूँसने का साहसिक कार्य भी कराया है, लेकिन निःसंदेह प्रेमचंद दलितों के दिलों की अंधेरी कोठरी में पूरी तरह झाँकने में सफल नहीं हो पाये। फिर भी जो कुछ प्रेमचंद ने समय और परिस्थितियों के दबाव के बावजूद किया, वह सराहनीय है, लेकिन खोड़ावाल जैसे प्रेमचंद के खैरख्वाह बनकर उनकी छवि को अपनी संकीर्णता से दा़ग़दार कर रहे हैं, यह ठीक नहीं है। अन्य ग़ैर-दलित रचनाकारों ने भी दलित जीवन का वर्णन किया है, लेकिन उनकी दीन-हीनता, रोने-पीटने के अतिरिक्त वे दलित पात्रों में न सामाजिक चेतना जगाने के प्रेरणा स्रोत ही बन सके और न ही समाज में ग़ैर-दलितों को ही मानवता का पाठ पढ़ा सके। ऐसे लिखना, न लिखना दलित साहित्य के लिए कोई खास मायने नहीं रखता। यहाँ राजेन्द्र यादव की टिप्पणी ज्यादा ईमानदारी पूर्ण लगती है और वह एक तरह से इस विवाद को विराम देने में भी सक्षम हैं। यादव ‘हंस’ के संदर्भ में कहते हैं- ’‘हंस साहित्य हवाई हमला करती है, क़ब्ज़ा करने वाली फ़ौज़ें क़ब्ज़ा करती हैं, जो ज़मीन पर लड़ती हैं। साहित्य में ज़मीन की फ़ौज़ ही वह सब करेगी और इस ज़मीनी फ़ौज़ का नायक आप दलित लेखक होंगे, ग़ैर-दलित लेखक नहीं।’‘ यदि ग़ैर-दलित रचनाकारों की रचनाएँ दलित साहित्य में स्वीकार कर ली जाएँ, तो दलित साहित्य आंदोलन के प्रबल होने की अपेक्षा क्षीण होने की संभावनाएं अधिक है। मान लो पाठ्यक्रम में दलित रचना के रूप मेें किसी रचना को शामिल करने की बात होती है तो फिर खोड़ावाल व मैनेजर पांडे जैसे न जाने कितने सवर्ण लेखकों की रचनाओं को दलित साहित्यकारों की रचना की तुलना में श्रेष्ठ बताकर दलित विषय में घुसपैठ करा लेंगे और दलित साहित्य में फिर दलितों के चरित्र, उनके व्यवहार, उनकी संस्कृति, उनकेे मानवीय मूल्य के संदर्भ में अनेक भ्रांतिपूर्ण व घिनौने कृत्यों को स्थापित कर देंगे जिससे दलितों को फिर से अस्पृश्य जैसी स्थिति में पहुंचा दिया जाएगा। ऐसी स्थिति में दलित साहित्य की सारी लड़ाई ही समाप्त हो जाएगी और पुनः उत्पीड़न, दलन और शोषण का बाज़ार गर्म हो जाएगा। ग़ैर-दलित असाधारण व्यक्ति की सोच भी ईमानदारी पूर्ण होगी इस पर दुविधा की स्थिति होना स्वाभाविक है । इसको स्पष्ट करने के लिए मैं भारत के प्रथम प्रधानमंत्राी पं. जवाहरलाल नेहरू की वसीयत -जो उन्होंने 21 जून 1954 को अपनी मृत्यु के लगभग 10 वर्ष पहले की थी- का ज़िक्र करना चाहूँगा। इसमें वे प्राचीन परंपराओं और रीति-रिवाजों के संदर्भ में कहते हैं, ‘‘यद्यपि मैंने अतीत की परंपराओं और रीति-रिवाजों की उपेक्षा की है, और मैं चिंतित हूँ कि भारत को स्वयं उन बेड़ियों को तोड़ देना चाहिए, जो उसे बाँधती हैं, बंदी बनाती हैं और देशवासियों को विभाजित करती हैैं और विशाल जनसमूह का दलन करती हैं और उनके शरीर और आत्मा के स्वतंत्र विकास को रोकती हैं, यद्यपि मैं यह सब जानता हूँँ, फिर भी मेरी इच्छा नहीं कि मैं स्वयं को अतीत से पूर्णरूप से अलग कर लूँ। मुझे गर्व है कि उस महान विरासत पर जो सदा से रही है और आज भी हमारी है और मैं उत्सुक हूँ कि मैं भी, दूसरोें की तरह एक कड़ी हूँ उस शृंखला (जंजीर) की, जो पीछे इतिहास के उदय से दूर अतीत तक जाती है। यह जंजीर मैं नहीं तोड़ूँगा, मैं इसे एक खजाने की तरह रखूँगा और इससे प्रेरणा प्राप्त करूँगा।’‘ इससे स्पष्ट कि देश के सर्वशक्तिशाली पद पर बैठकर भी कोई व्यक्ति सामाजिक न्याय के मुद्दे पर स्वयं को विवश महसूस करता है और व्यवस्था को बदलने का साहस नहीं जुटा पाता। कारण साफ है कि वह स्वयं को पोषण करने वाले संस्कारों से बग़ावत नहीं कर सकता और कमोबेश वह परंपरागत प्रवाह में ही बह जाता है। 

इस स्थिति को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैं ग़ैर-दलित साहित्यकार देवेन्द्र दीपक की टिप्पणी का ज़िक्र करना चाहूँगा, जो दलित व ग़ैर-दलित साहित्यकार का अंतर स्पष्ट करने के लिए उन्होंने की है। देवेन्द्र के अनुसार, ‘‘अस्पृश्यता एक अंधा कुँआ है। कुएँ में गिरे व्यक्ति को लेकर चिंता के दो स्तर हैं । एक चिंता उस व्यक्ति की चिंता है, जो कुएँ में गिरा हुआ है और कुएँ के बाहर निकलने की कोशिश में हलकान और लहूलुहान हो रहा है। दूसरी चिंता उस व्यक्ति की है जो कुंए की जगत पर खड़ा होकर कुएँ में गिरे व्यक्ति को बचाने की गुहार मचा रहा है। कुएँ में गिरा व्यक्ति अछूत है और कुएँ की जगत पर खड़ा व्यक्ति सवर्ण है। अछूत की चिंता आहत की चिंता है, सवर्ण की चिंता सदाशयी की चिंता है। यक़ीनन दोनों चिंताओं के आयाम भिन्न हैं।’‘ देवेन्द्र दीपक यह टिप्पणी ‘अछूत और सवर्ण के संदर्भ में’ ग़ौर करने लायक हैं। यहाँ देवेन्द्र दीपक यह बताने का साहस नहीं करते कि अछूत को कुएँ में गिराने वाले व्यक्ति सवर्ण हैं और सवर्णों की उस भीड़ में सवर्ण साहित्यकार भी शामिल हैं और बराबर के दोषी हैं। वह कुएँ की जगत पर अछूत को बचाने का नाटक कर रहा है, निर्दोष होने का और नाटक कर रहा है संवेदना का, ताकि वह अपने आपको समाज का हितैषी व न्याय का पक्षधर सिद्ध कर सके। यदि ऐसा होता तो वह सामंती क़िले को ढहाने की बात करने में, ब्राह्मणवादी सोच को बेनक़ाब करने में और अपने लेखन मेें मानवीय मूल्यों को स्थापित करने में अग्रणी होता। लेकिन यहां निष्ठा कलम की नोक पर कुछ और, मंच पर कुछ और, सामंती व ब्राह्मणवादी गोद में कुछ और होती है। यही वज़ह है दलित साहित्यकारों को सामूहिक रूप से गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है, ताकि किसी ठोस निर्णय पर पहुंचा जा सके, और जो आने वाली पीढ़ी को ठोस आधार प्रदान कर सके। एक पक्ष के रूप में कहा जा सकता है कि जातिगत दलन से पीड़ित व्यक्ति दलित समाज का पोस्टमार्टम ज्यादा गंभीरता व सफलतापूर्वक कर सकता है। वह दलितों की कही-अनकही दोनों प्रकार की पीड़ा को अनुभव कर, ठीक से उपचार का माध्यम तलाश कर सकता है। इसलिए यदि दलित साहित्य के लिए जातिगत दलन अनिवार्य शर्त होगी तो शायद बेहतर होगा। लेकिन यहां ग़ौरतलब है जातिगत दलन की अनिवार्य शर्त के साथ लेखन, डाॅ. आंबेडकर व फुले के चिंतन के अनुरूप और दलित चेतना का संवाहक होना भी अनिवार्य है। इस कसौटी पर यदि जाने माने दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय की कहानी ‘गर्वनर के कोट का बटन’ खरी नहीं उतरती, तो दलित साहित्यकारों और स्वयं नैमिशराय को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। 

दलित साहित्य का अगला बिंदु इसकी भाषा और इसमें प्रयोग होने वाली विषय वस्तु को लेकर है, जो गंभीर चिंतन की माँग करता है। दलित साहित्य की भाषा को लेकर डाॅ. श्यामसिंह शशि चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं- ’‘आत्म रुदन, अस्मत की चीर-फाड़, गाली-गलौच की भाषाशैली और अध्ययन के बिना लिखेंगे, तो दलित साहित्य जरूर चूक जाएगा।’‘ अंशुमाली रस्तोगी के विचार भी इस संदर्भ में विचारणीय है । वह कहते हैं, ‘‘दलितों ने सदियों से वर्णव्यवस्था के दंश को झेला है। वह अपना गुस्सा व दर्द आक्रोश के तहत ही प्रकट करेगा परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या आक्रोश, प्रतिशोध या गाली-गलौच से उचित समाधान निकल आएगा? हमारा यह तीक्ष्ण आक्रोश अप्रत्यक्ष रूप से तथाकथित सवर्ण साहित्यकारों को ही, जो चाहते हैं कि दलित साहित्यकार क्रोधित हों और वे साहित्य से भी उन्हें दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंके।’‘ भाषा को लेकर जाने माने दलित साहित्यकार गंगाधर पानतावणे क़ाफी आहत दिखाई देते हैं। इस संदर्भ में वे ‘आंबेडकर इन इंडिया’ नामक पत्रिका में ‘दलित साहित्य : दशा और दिशा’ शीर्षक से अपने लेख में एक जगह कहते हैं- ’‘मैने कुछ कविताएँ देखी हैं, जिनमें हिन्दू धर्म को प्रारंभ से अंत तक गालियाँ दी जाती हैं। यह दलित कविता नहीं है, यह गाली कविता है। अन्याय, जुल्म के प्रति चिढ़ व्यक्त करना कवि का विषय हो सकता है, लेकिन गाली-गलौच नहीं।’‘ निःसंदेह यह चिंता का विषय है, लेकिन साहित्य में यदि आक्रोश है, प्रतिशोध है, तो मुझे ऐसा लगता है कि वह सच्ची अभिव्यक्ति करने में सक्षम नहीं होता, क्योंकि गुस्से या आक्रोश में सोचने की क्षमता क्षीण हो जाती है । परिणामस्वरूप कोई तर्कयुक्त रचनात्मक साहित्य सृजन संभव नहीं होता। दलित साहित्य में जहाँ गाली-गलौच है, वह इसी का परिणाम है, जो समाज-कल्याण में सहायक नहीं हो सकता, उल्टे असमानता की खाई को और अधिक गहरा व चैड़ा अवश्य बना देगा। इस माहौल में मुझे संत कबीर और रैदास याद आते हैं, जिन्होंने बिना गाली-गलौच का प्रयोग किये समाज की कुव्यवस्था, ब्राह्मणवाद, धार्मिक पाखंड और शोषण को केंद्र में रखकर ऐसे प्रहार किये, जिनका माकूल उत्तर आज तक उपलब्ध नहीं हो सका। आज भी उनके प्रहारों की टीस समाज के परंपरावादी सोच वाले चेहरों पर साफ पढ़ी जा सकती है। इसलिए आवश्यकता भाषा को धारदार बनाने की है, न कि फूहड़पन की। इस भाषा को दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है, जैसे आज दलित साहित्यकार अनेक मंचों से, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से, बड़ी कड़वी शब्दावली तथाकथित सवर्ण साहित्यकारों के लिए प्रयोग करता है और ये अपराधी से सुनने को विवश होते हैं। इतिहास गवाह है कि इनकी तरफ़ से भयंकर गलतियाँ हुई हैं। यदि दलित साहित्यकार अपनी भाषा को अनावश्यक रूप से गाली-गलौच और कड़वाहट भरने से बाज नहीं आएँगें। परिष्कृत नहीं करेंगे, तो आने वाली दलितों की पीढ़ी भी इनकी तरह कटघरे में खड़ी होगी और उन्हें भी झेलने पड़ेेंगे अपने पूर्वजों की करनी के फल। इसलिए जरूरी नहीं कि किसी बुराई को दूर करने के लिए बुरा बनना। अगर बुरा बनकर ही बुराई दूर करनी है तो क्या फ़र्क है उनमें और हम में, जिन्हें हम गुनहगार समझते हैं। इस संदर्भ में मुझे बशीर बदर का शेर याद आता है।

दुश्मनी जम कर करो मगर ये गुंजाइश रहे,
जब कभी हम दोस्त हों, तो शर्मिन्दा न हो। 

ऐसी प्रकृतियाँ समाज तोड़ने की होती हैं, समाज के पुनर्निर्माण की नहीं। और दलित साहित्यकार तोड़-फोड़ करता है, वहाँ पुनर्निर्माण भी सुनिश्चित होना चाहिए। कहना जरूरी है कि हमें वैचारिक स्तर पर भी सतर्क रहने की आवश्यकता है, वरना हम अनावश्यक रूप से विवाद मोल लेंगे और हमारा स्वतंत्र चिंतन और विकास दोनों ही बाधित होंगे, जैसे-वरिष्ठ साहित्यकार बुद्धशरण हंस जो ‘आंबेडकर मिशन’ पत्रिका के संपादन में अहम भूमिका निभाते हैं, वे आंबेडकर जयंती के अवसर पर पर्चे बँटवाए, जिन पर लिखा था- ’‘वेद, पुराण, रामायण, महाभारत, स्मृतियां और गीता आदि ब्राह्मणवादी सभी पुस्तकें शास्त्र नहीं, बल्कि जाल ग्रंथ हैं- इन गंदी पुस्तकों को फाड़कर जलाओ, उसकी राख को जूते से रगड़कर अपनी नफरत को उज़ागर करो अथवा इन गंदी पुस्तकोें को फाड़कर टट्टी के टीन में डाल दो।’‘ यह टिप्पणी आदरणीय हंस जी के आक्रोश को ज़ाहिर करती है, लेकिन आक्रोश में महत्वपूर्ण मुद्दा रचनात्मकता है, वह नज़रअंदाज नहीं होना चाहिए, तभी कुछ भलाई संभव है। ऐसा ही एक उदाहरण मराठी लेखक राजा ढाले का है। वे अपने लेख में लिखते हैं- ’‘राष्ट्रीय तिरंगे से कहीं अधिक महत्व एक दलित स्‍त्री की साड़ी का है।’‘ इसके समर्थन में मोहनदास नैमिशराय टिप्पणी करते हैं- ’‘इस तरह की टिप्पणी से दलित साहित्य संर्कीण नहीं हो जाता।’‘ यानी इस टिप्पणी पर नैमिशराय भी अपनी सहमति जताते हैं।

लेकिन इस विषय पर मेरा मत कुछ अलग है, पहली बात तो यह स्टेटमेंट दलित नारी और अन्य नारी की अस्मिता में भेद करता है। दूसरे किसी भी स्थिति में दलित साहित्यकारों के अपने हित राष्ट्रीय हित से ऊँचे नहीं हो सकते। किसी भी देश के नागरिकों केे लिए राष्ट्र सर्वोपरि होना चाहिए, जाति, धर्म, प्रदेश सब बाद की चीजें हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो ऐसी सोच हमें फासीवाद ताकतों की श्रेणी में खड़ा कर देगी, जिससे मानवता की रक्षा संभव नहीें है। जरूरी है, ऐसे विवाद पूर्ण मुद्दों पर गंभीरतापूर्वक विचार कर ही कोई सम्मानजनक हल ढूँढना चाहिए। यह साहित्य को सकारात्मक दिशा देने में सहायक होगा। यहाँ मैं माताप्रसाद जी की एक टिप्पणी उद्धृत करना चाहूँगा, जिसके अनुसार- ’‘दलितों में जातिभेद बाहरी जातिभेद की ही नकल है। अगर ग़ैर-दलित जातिभेद बाहरी जातिभेद से मुक्त होंगे, तो इनके अंदर का जातिभेद स्वयं समाप्त हो जाएगा।’‘ ऐसे विचार हमें अज़ीब तरह की दुविधा में डालते हैं कि हमें क्या स्वयं कोई प्रयास नहीं करना चाहिए। क्या हमारा कोई दायित्व नहीं, जबकि जातिवाद से सबसे अधिक हम ही पीड़ित हैं। इसमें संदेह नहीं कि कोई वज़ह नहीं है कि उन्होंने ही हमारे घर जातिवाद की आग लगाई है, ताकि दूर बैठे इसकी ताप का आनंद उठा सकें। वे क्यूँ चाहेंगे इस आनंद से वंचित होना। जरूरी है हमारे लिए, इस आग को स्वयं बुझाएँ और अपने घर की सुरक्षा करें। वैचारिक पक्ष के संदर्भ में ही मैं चन्द्रभान प्रसाद से राष्ट्रीय सहारा 29 जुलाई 2002 को सहारा सलाह ‘समस्याएँ दलितों की’ शीर्षक से पूछे गए प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा। प्रश्न पूछा गया-‘आपने हिन्दू देवी-देवताओें की पूजा न करने की सलाह दी है। मैं किसी दलित ईश्वर का नाम जानना चाहता हूँ? उत्तर में चन्द्रभान जी कहते हैं-प्रिय आज़ाद ! बाबासाहब से बड़ा ईश्वर कौन हो सकता और उनका नाम अब कौन नहीं जानता ?" यह चन्द्रभान जी का उत्तर एक ओर तो डाॅ. आंबेडकर के दर्शन अनुरूप देवी-देवताओं की उपस्थिति को नकारता है, इनके अस्तित्व का खंडन करता है, दूसरी ओर डाॅ. आंबेडकर को ईश्वर रूप में स्थापित करता है । ऐसा भ्रमित करने वाला उत्तर समाज को सही दिशा प्रदान करने में सक्षम नहीं है। अतः आवश्यकता है डाॅ. आंबेडकर के दर्शन को सही अर्थों में अपनाने की, न कि अंधभक्ति में उसके मूल स्वरूप की अनदेखी करने की।

यहाँ विनम्रतापूर्वक हिन्दी दलित साहित्य के आधार-स्तंभों में एक कँवल भारती, जिनकी अभी प्रकाशित नई कृति ‘दलित-विमर्श की भूमिका’ का हवाला देना जरूरी महसूस हो रहा है, जिसमें उन्होंने-सवर्णों का जन्म कैसे हुआ, मनु ने दलितों के संदर्भ में शोषण, असमानता और उत्पीड़न के लिए मनुस्मृति में क्या लिखा, सुधारवादी आंदोलन दलितों के नहीं, सवर्ण समस्याओं तक सीमित थे व आंबेडकर फुले व अन्य दलित सुधारकों ने क्या-क्या किया, राजनीति में दलितों के साथ-साथ कैसा-कैसा षड्यंत्र रचा गया था, साहित्यिक विकास में ग़ैर-दलित व दलित दृष्टिकोण आदि में ऐतिहासिक वर्णन को प्रधानता दी गई है और अंतिम अध्याय जो विस्तृत होना चाहिए था, सिर्फ़ उत्तर प्रदेश के राजनीतिक घटनाक्रम को केंद्र में रखकर फटकार लगाने तक सिमट गया। इनसे कँवल भारती की किताबों की लिस्ट में एक खूबसूरत-सा नाम अवश्य बढ़ गया है, लेकिन ऐसा लगता है, इससे सामाजिक आंदोलन को गति देने में सहायता नहीं मिल पाएगी, क्योंकि डाॅ. आंबेडकर व फुले के दर्शन ने यह सिद्ध कर दिया है कि ये सब परंपरावादी ग्रंथ, पुराण, स्मृतियाँ हमारे शोषण का प्रमुख आधार रही है और भविष्य में इनसे हमारा कुछ भला होने वाला नहीं है। दूसरे, इनमें वर्णित किसी भी बात को संविधानिक मान्यता प्राप्त नहीें है। ये सिर्फ़ आस्था पर निर्भर करती है और हम इसके लिए बाध्य नहीं हैं। इसलिए हमारे लिए आवश्यक हो जाता है कि हम अपने विकास, कल्याण, प्रगति और खुशहाली के लिए अपनी मान्यताएँ, परंपराएँ और संस्कृति का विकास करें, जिससे हमारा शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक व बौद्धिक विकास हो और हम स्वतंत्र और सम्मानजनक जीवन निर्वाह कर सकें। 

हमारी चिंता का एक विषय यह भी है कि वर्तमान परिस्थितियों में दलित साहित्य की एक अच्छी पत्रिका हो। इस विषय पर सभी दलित साहित्यकार अक्सर कहते रहते हैं कि संख्या की दृष्टि से पत्रिकाएँ क़ाफी हैं, लेकिन दलितों की कोई स्तरीय पत्रिका नहीं है, जो ग़ैर-दलित पत्रिकाओं की ऊँचाइयों को छू सके। इसकी वज़ह साफ है कि दलित पत्रिकाएँ सामूहिक आंदोलन का रूप नहीं ले पाई। इसके पीछे व्यक्तिगत लेखन सबसे बड़ी बाधा है और व्यक्तिगत तुष्टीकरण के कारण पत्रिकाओं की संख्या बढ़ती है, लेकिन उनका गुणात्मक विकास नहीं हो पाता। क्योंकि जल्दबाजी, अध्ययन की अपर्याप्तता और वैचारिक समझ का अभाव रहता है। यही वज़ह है, एकाध पत्रिका को छोड़कर शेष सिर्फ़ नाम की पत्रिकाएँ बनकर रह गई हैं। दलित साहित्यकार, ग़ैर-दलित संपादकों के कार्यालयों में दस्तक देते हैं और किस स्तर तक समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं, यह हैरत की बात है। 
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि दलितों के पास ग़ैर-दलितों की तुलना मेें बेहतर जीवन-दर्शन (जो हमें डाॅ. आंबेडकर व फुले के गहन अध्ययन द्वारा प्राप्त हो सकता है) और व्यापक कार्यक्रम होना चाहिए जिसके आधार पर हम शोषण को समाप्त कर शोषणकर्ता को भी सही दिशा देे सकते हैं और समाजवाद को सही अर्थों में स्थापित कर सकते हैं। अंत में एक बात और जोड़ना अनिवार्य महसूस हो रहा है, वह है- अंधभक्ति से मुक्ति। यह बात हमें डाॅ. आंबेडकर, फुले और बुद्ध धम्म के संदर्भ में भी अपनानी होगी और इनके दर्शन में जहाँ कहीं अनिवार्य हो, नए और स्फूर्तिदायक प्रतिमानों को जोड़ने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए, तभी इनका दर्शन भविष्य के हर सवाल को हल करने में सहायक होगा। यही दलित साहित्य और दलित आंदोलन की ऊर्जा बनेगा और इसी के आधार पर डाॅ. आंबेडकर के सामाजिक न्याय का सपना साकार होना संभव हो सकेगा।


✍️ लेखक -  ईश कुमार गंगानिया

'अंबेडकरवादी साहित्य विमर्श' पुस्तक से

✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴✴

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने