आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा


आंबेडकरवाद का अर्थ एवं परिभाषा

शब्दकोश के अनुसार 'वाद' का अर्थ है, " वह दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार संसार की सत्ता उसी रूप में मानी जाती है, जैसी वह सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर है । " [1] 'वाद' शब्द संस्कृत के 'वाक्' शब्द से बना है । 'वाक्' का अर्थ है - 'वाणी'; तथा 'वाद' का अर्थ है - कथन, सिद्धांत, विचारधारा । इस प्रकार 'आंबेडकरवाद का' अर्थ है - आंबेडकर का कथन, आंबेडकर का सिद्धांत, आंबेडकर की विचारधारा । डॉ० जयश्री शिंदे जी ने 'आंबेडकरवाद' को बहुत ही सटीक शब्दों में परिभाषित किया है । उनके अनुसार, " अपमानित, अमानवीय, वैज्ञानिक, अन्याय एवं असमानता, सामाजिक संरचना से पीड़ित मनुष्य की इसी जन्म में क्रांतिकारी आंदोलन से मुक्ति करके समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व एवं न्याय के आदर्श समाज में मानव और मानव (स्त्री-पुरुष समानता) के बीच सही संबंध स्थापित करने वाली नई क्रांतिकारी मानवतावादी विचारधारा को आंबेडकरवाद कहा जाता है । " [2] इस परिभाषा में ध्यान देने की बात यह है कि इसमें इसी जन्म में मुक्ति की बात कही गई है । आंबेडकरवाद के अंतर्गत पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार नहीं किया जाता है । ईश कुमार गंगानिया जी के शब्दों में, " आंबेडकरवाद के विषय में कहा जा सकता है - यह समाज में व्याप्त सभी प्रकार की जातिवादी, वर्णवादी, वर्गवादी, विषमतामूलक व शोषणकारी प्रवृत्तियों का वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण कर समाज को इनसे होने वाले दुष्प्रभावों से अवगत कराता है एवं समाजवादी, लोकतांत्रिक व विश्वबंधुता जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना करने के लिए निरंतर संघर्षरत रहकर समाज का पुनर्निर्माण की जद्दोजहद करता है, ताकि समाज समग्र रूप में प्रगतिशील व खुशहाल बन सके और व्यक्तिगत, सामाजिक व राष्ट्रीय अस्मिताओं के मामले में भारत किसी भी तथाकथित विकसित देश के प्रतिनिधियों व नागरिकों की आँखों में आँखें डालकर समता के स्तर पर बात करने का नैसर्गिक गौरव हासिल कर सके । " [3] ध्यातव्य है कि गंगानिया जी की दृष्टि में आंबेडकरवाद की भावात्मक और विचारात्मक परिधि बहुत ही व्यापक है, जिसमें वर्गीय चेतना, सामाजिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना आदि सभी समाहित हैं । डॉ० एन० सिंह जी ने एक साक्षात्कार के दौरान आंबेडकरवाद की परिभाषा देते हुए कहा है, " बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के सिद्धांतों को मानना और उनका अनुसरण करना ही आंबेडकरवाद है । " [4] जो लोग आंबेडकरवादी विचारधारा से जुड़े हैं, वे तो इस परिभाषा को समझ लेंगे, लेकिन किसी नये व्यक्ति के मन में भ्रम उत्पन्न होगा और उसे यह परिभाषा अस्पष्ट लगेगी । उसके मन में प्रश्न आएगा कि आंबेडकर के सिद्धांत कितने हैं ? और उनके किन-किन सिद्धांतों का अनुसरण करना आंबेडकरवाद है ? ध्यातव्य है कि डॉ० आंबेडकर ने कभी भी अपने अनुयायियों से अंधानुकरण करने के लिए नहीं कहा है । उन्होंने तर्क की कसौटी पर कसकर किसी बात को सत्य मानने के लिए कहा है । ऐसा भी हो सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में डॉ० आंबेडकर के कुछ सिद्धांत पूरी तरह ज्यों के त्यों लागू न किये जा सकें, लेकिन समय के सापेक्ष उनकी समीक्षा करके उन्हें नये और संशोधित रूप में स्वीकार किया जा सकता है । डॉ० आंबेडकर ने शिक्षा, समाज, राजनीति और धम्म संबंधी सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं । वे 'शिक्षित' होने का तात्पर्य केवल 'डिग्रियाँ लेना' नहीं समझते थे, बल्कि व्यक्ति के 'चारित्रिक विकास' को भी अनिवार्य समझते थे । वे ऐसे समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसमें सबको समान रूप से सम्मान और स्वतंत्रता मिले । वे सामाजिक न्याय के पक्षधर थे । वे राजनीति का उद्देश्य स्वार्थरहित होकर 'समाज व देश का हित करना' मानते थे । अपने जीवन के अंतिम समय में उन्होंने बौद्ध धम्म को स्वीकार किया तथा बुद्ध की शरण में जाने के लिए लोगों का आह्वान किया । बुद्ध की शरण में जाने का परोक्ष आशय है - अनात्मवाद और अनित्यवाद को स्वीकार करना । अतः स्पष्ट है कि आंबेडकरवाद के अंतर्गत समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय, प्रेम और लोकहित की भावना के साथ सदाचार से युक्त होना तथा अनात्मवाद व अनित्यवाद को स्वीकार करना आदि समाहित हैं ।


आंबेडकरवादी कौन ?

यदि यह प्रश्न किया जाए कि आंबेडकरवादी कौन है ? तो इसका उत्तर यह नहीं होगा कि 'आंबेडकर को मानने वाला', बल्कि इसका उत्तर होगा - 'आंबेडकरवाद का पालन करने वाला' । 'आंबेडकर को मानना' अलग बात है और 'आंबेडकर की मानना' अलग बात है । जो आंबेडकर की नहीं मानता है, उसे आंबेडकरवादी नहीं कहा जा सकता है । कुछ लोग आंबेडकर की केवल एक बात 'शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो' को मानकर ही आंबेडकरवादी होने का दावा करते हैं । इस तरह की प्रवृत्ति तो उनमें भी है, जो गांधीवादी हैं । अर्थात् गांधीवादी भी शिक्षित बनने, संगठित होने और संघर्ष करने की बात करते हैं तथा उसका अनुपालन भी करते हैं । तो फिर, केवल इस एक प्रवृत्ति के होने से कोई आंबेडकरवादी कैसे कहा जा सकता है ? यदि यही आंबेडकरवादी होने का लक्षण है, तो गांधीवादी और आंबेडकरवादी में अंतर ही क्या है ? वास्तव में, इस तरह की धारणा रखने वाले लोग आंबेडकरवाद को लेकर भ्रमित हैं । सच्चा आंबेडकरवादी होने के लिए बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के द्वारा 14 अक्टूबर 1956 को धम्मदीक्षा के समय ली गई बाईस प्रतिज्ञाओं को धारण करना अनिवार्य है । वे बाईस प्रतिज्ञाएँ इस प्रकार हैं - (1) मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को ईश्वर नहीं मानूँगा और न ही मैं उनकी उपासना करूँगा । (2) मैं राम और कृष्ण में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी उपासना करूँगा । (3) मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी उपासना करूँगा । (4) मैं ईश्वर के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ । (5) मैं यह नहीं मानता और न ही कभी मानूँगा कि गौतम बुद्ध विष्णु के अवतार थे । मैं इसे बुद्धिहीनता और मिथ्या प्रचार-प्रसार मानता हूँ । (6) मैं श्राद्ध-कर्म नहीं करूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा । (7) मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों के विरूद्ध कोई कार्य नहीं करूँगा । (8) मैं ब्राह्मणों द्वारा कोई क्रिया-कर्म नहीं कराऊँगा । (9) मैं सभी मनुष्यों को एक-समान मानता हूँ । (10) मैं समता स्थापित करने का प्रयत्न करूँगा । (11) मैं बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करूँगा । (12) मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित दस पारमिताओं का पालन करूँगा । (13) मैं सभी प्राणियों के प्रति दया-भाव रखूँगा । (14) मैं चौर्य-कर्म से विरत रहूँगा । (15) मैं अकारण असत्य नहीं बोलूँगा । (16) मैं काम-व्यभिचार से विरत रहूँगा । (17) मैं मदिरा आदि मादक पदार्थों का सेवन करने से विरत रहूँगा । (18) मैं प्रज्ञा, शील और करुणा में समन्वय स्थापित करके अपने जीवन में चरितार्थ करूँगा । (19) मैं हिंदू धर्म का परित्याग करता हूँ और समतावादी बौद्ध धम्म को स्वीकार करता हूँ । (20) मैं दृढ़ता के साथ यह मानता हूँ कि बुद्ध का धम्म ही 'सद्धम्म' है । (21) मैं मानता हूँ कि आज मुझे नया जीवन मिला है । (22) मैं बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार आचरण करने की प्रतिज्ञा लेता हूँ । [5] 

एक आंबेडकरवादी व्यक्ति ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है । वह यह मानता है कि इस संसार में कुछ भी नित्य (स्थिर) नहीं है, सब कुछ अनित्य है । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति 'आत्मा' और 'पुनर्जन्म' में विश्वास नहीं करता है । कुछ लोग यह कहते हैं कि बुद्ध तो 'पुनर्जन्म' में विश्वास करते थे । वास्तव में, वे लोग बुद्ध के विषय में भ्रमित हैं । बुद्ध ने 'वस्तु का पुनर्जन्म' और 'व्यक्ति का पुनर्जन्म' आदि दो बातों का उल्लेख करके अपनी बात का स्पष्टीकरण किया है । उनका मानना था कि वस्तु का पुनर्जन्म (पुनः निर्माण) होता है, किसी व्यक्ति का नहीं । इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध पुनर्जन्म को नहीं मानते थे । जब आत्मा ही नहीं होती है, तो पुनर्जन्म कैसे हो सकता है ? किसी भी प्राणी के जन्म और मृत्यु का कारण पदार्थों (महाभूतों) के संगठन और विघटन की प्रक्रिया है । बुद्ध ने चार महाभूतों से मानव-शरीर की संरचना माना है । वे महाभूत हैं - पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि । हिंदू लोग पाँच तत्वों से मानव-शरीर की रचना बताते हैं, जबकि यह अवैज्ञानिक और अतार्किक है । 'आकाश' नामक कोई तत्व नहीं होता है, बल्कि आकाश में कई तत्वों का मिश्रण है । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति इन बातों को अच्छी तरह से समझता है और भ्रांतियों से सावधान रहता है । वह हिंदू देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखता है । वह हिंदुओं द्वारा प्रचारित मिथ्या बातों पर विश्वास नहीं करता है । वह बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करता है । बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग के अंतर्गत 'सम्यक दृष्टि', 'सम्यक संकल्प', 'सम्यक वाणी', 'सम्यक कर्मांत', 'सम्यक आजीविका', 'सम्यक व्यायाम', 'सम्यक् स्मृति' और 'सम्यक समाधि' आदि सन्निहित हैं । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति को दस सद्गुणों का अभ्यास करना होता है, जिन्हें 'दस पारमिता' के नाम से जाना जाता है । दस पारमिताओं के नाम हैं - शील, ज्ञान, उपेक्षा (अनासक्ति), नैष्क्रम्य (काम-भोगों का त्याग), वीर्य, शांति, सत्य, अधिष्ठान (दृढ़ निश्चय), करुणा और मैत्री । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति को पंचशील का भी पालन करना अनिवार्य है । पंचशील हैं - (1) प्राणी-हिंसा से विरत रहना । (2) चौर्य-कर्म से विरत रहना । (3) मिथ्या वचन कहने से विरत रहना । (4) व्यभिचार-कर्म से विरत रहना । (5) मादक पदार्थों के सेवन से विरत रहना । किसी सज्जन व्यक्ति के लिए बुद्ध की शिक्षाओं का अनुपालन करना कठिन कार्य नहीं है; किंतु दुर्जन व्यक्ति के लिए बुद्ध का मध्यम मार्ग कठिन ही नहीं, असंभव-सा लगता है । यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि आंबेडकरवादी होने के लिए बुद्ध की शिक्षाओं का अनुपालन करना अनिवार्य है । उनके धम्म को स्वीकार करना अनिवार्य है । सामान्यतः लोग बुद्ध के 'धम्म' को 'धर्म' समझ लेते हैं । वे 'धम्म' को धारण करने का तात्पर्य 'धर्म ग्रहण करना' समझते हैं । इसीलिए वे ऐसा समझते हैं कि आंबेडकरवादी कहलाने के लिए उन्हें 'बौद्ध धर्म' का प्रमाण-पत्र बनवाना होगा, जबकि इस प्रकार की भावना सर्वथा असत्य है । बुद्ध का 'धम्म' सदाचरण युक्त एक 'जीवन शैली' का नाम है । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति को बुद्ध और उनके धम्म से लगाव रखना अनिवार्य है । बुद्ध और उनके धम्म को नकारने वाला व्यक्ति 'आंबेडकरवादी' नहीं कहा जा सकता है ।


आंबेडकरवादी और दलित

'दलित' का शाब्दिक अर्थ है - दला हुआ, खंडित । " [6] ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " दलित शब्द का अर्थ है - जिसका दलन और दमन हुआ है, दबाया गया है, उत्पीड़ित, शोषित, सताया हुआ, गिराया हुआ, उपेक्षित, घृणित, रौंदा हुआ, मसला हुआ, कुचला हुआ, विनष्ट, मर्दित, पस्त-हिम्मत हतोत्साहित, वंचित आदि । " [7] डॉ० शरण कुमार जी लिंबाले ने लिखा है, " गाँव की सीमा के बाहर रहने वाली सभी अछूत जातियाँ, आदिवासी, भूमिहीन, खेत मजदूर, श्रमिक, कष्टकारी जनता और यायावर जातियाँ सभी की सभी 'दलित' शब्द की परिभाषा में आती हैं । " [8] प्रोफेसर चमनलाल जी के अनुसार, " 'दलित' की जातिगत परिभाषा से भी बढ़कर है इसकी व्यापक परिभाषा - समाज के वे हिस्से, जिनमें उपरोक्त जातियाँ (अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति) तो शामिल हैं ही, अन्य उत्पीड़ित हिस्से जैसे - आदिवासी, विमुक्त जातियाँ, स्त्रियाँ, गरीब किसान व मजदूर आदि शामिल हैं, को भी 'दलित' शब्द की परिभाषा में शामिल किया गया है । " [9] 'दलित' एक स्थिति का नाम है, जबकि 'आंबेडकरवादी' 'आंबेडकर की विचारधारा को स्वीकार करने वाला' प्राणी है । उत्पीड़ित व्यक्ति ही 'दलित' कहा जाता है, जबकि आंबेडकरवादी कोई भी हो सकता है । वह 'उत्पीड़ित' भी हो सकता है और 'उत्पीड़न से मुक्त' भी हो सकता है । 'दलित' के व्यापक अर्थ और परिभाषा के आधार पर यह स्पष्ट है कि 'दलित' कोई जाति अथवा वर्ग नहीं है, क्योंकि सभी स्त्रियों को 'दलित' कहा जाता है, चाहे वे किसी भी वर्ग की हों । फिर भी दलित चिंतकों ने 'दलित' शब्द को एक जाति और वर्ग तक सीमित कर दिया है । 'दलित' एक ऐसा शब्द है, जिसकी परिधि में अछूत और सछूत दोनों समाहित हो जाते हैं । एक प्रश्न यह भी है कि जब 'दलित' एक स्थिति का नाम है, तो स्थिति-परिवर्तन होने के बाद भी लोग स्वयं को 'दलित' क्यों कहते हैं ? क्या एक जिलाधिकारी, प्राध्यापक, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति भी दलित होता है ? सच तो यह है कि वह दलित नहीं होता है, लेकिन उसके साथ छुआछूत और भेदभाव का बर्ताव होता है । ऐसा क्यों होता है ? उसे तथाकथित सवर्णों द्वारा 'अछूत' क्यों समझा जाता है ? बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने अपनी पुस्तक 'अछूत कौन और कैसे ?' में ऐतिहासिक शोध के आधार पर यह सिद्ध किया है कि अछूत लोग मूलतः बौद्ध हैं । जब अछूतों के पूर्वज बौद्ध रहे हैं, तो फिर उन्हें बौद्ध बनने में आपत्ति क्यों है ? वर्तमान में, ऐसी स्थिति है कि आंबेडकरवादियों द्वारा खूब प्रचार-प्रसार करने के बावजूद भी दलित (अछूत व सछूत) कहे जाने वाले लोग हिंदू धर्म से चिपके हुये हैं । वे हिंदू धर्म के सारे कर्मकांड, ढोंग और पाखंड सदैव करते रहते हैं । वे अंधविश्वास में इतने लिप्त हैं कि नदी, पहाड़, पशु और वृक्ष आदि सभी की पूजा-अर्चना करते हुए दिखाई देते हैं । अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक दलित व्यक्ति आंबेडकरवादी नहीं है । जो लोग आंबेडकरवादी हैं, वे वैचारिक रूप से बौद्ध हैं । अधिकांश आंबेडकरवादी लोग तो बौद्ध धम्म में दीक्षित होकर धार्मिक प्रमाण-पत्र भी बनवा चुके हैं । एक आंबेडकरवादी व्यक्ति सदैव हिंदू धर्म को त्यागने की बात करता है । वह हिंदू बनकर रहने की बात नहीं करता है, जबकि एक दलित व्यक्ति स्वयं को हिंदू समझता है और वह आजीवन हिंदू रहना स्वीकार करता है । 'दलित' और 'आंबेडकरवादी' में यह एक मुख्य अंतर है ।


आंबेडकरवादी चेतना और दलित चेतना

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के शब्दों में, " दलित चेतना का सीधा संबंध दृष्टि से है । दलित यानी हजारों साल से शोषित, प्रताड़ित, सामाजिक और धार्मिक विद्वेष से नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य किया गया, मानवीय अधिकारों से वंचित, वर्ण-व्यवस्था में सबसे नीची पायदान पर खड़ा, अस्पृश्य, अंत्यज, पंचम कहे जाने वाले व्यक्ति की चेतना यानी दलित चेतना । यही दलित चेतना दलित साहित्य की अंतःऊर्जा में नदी के तेज बहाव की तरह समाविष्ट है, जो उसे पारंपरिक साहित्य से अलग करती है । दलित चेतना पर विमर्श करने से पूर्व भारतीय समाज-व्यवस्था पर ध्यान देना आवश्यक है । भारतीय समाज-व्यवस्था को समझे बगैर दलित चेतना की तीव्रता का एहसास कठिन है । हजारों वर्ष की प्रताड़ना, शोषण, द्वेष, वैमनस्य और भेदभाव से दलित अपनी अस्मिता की खोज के लिए जागरूक दिखाई पड़ता है । इस चेतना का उद्भव डॉ० आंबेडकर के मुक्ति-संघर्ष से विकसित हुआ है । विशेष रूप से धर्म-परिवर्तन के समय डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गईं बाईस प्रतिज्ञाएँ ही दलित चेतना की भूमि तैयार कर उसे सुदृढ़ करती हैं । " [10] दलित चेतना को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है, " दलित चेतना के प्रमुख बिंदु हैं - (क) मुक्ति और स्वतंत्रता के सवालों पर डॉ० आंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना । (ख) बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टिबोध, पाखंड-कर्मवाद विरोध । (ग) वर्ण-व्यवस्था विरोध, जातिभेद विरोध, सांप्रदायिकता विरोध । (घ) अलगाव का नहीं, भाईचारे का समर्थन । (ड़) स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय की पक्षधरता । (च) सामाजिक बदलाव के लिए प्रतिबद्धता । (छ) आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद का विरोध । (ज) सामंतवाद, ब्राह्मणवाद का विरोध । (झ) अधिनायकवाद का विरोध । (ञ) महाकाव्य की रामचंद्र शुक्लीय परिभाषा से असहमति । (ट) पारंपरिक सौंदर्यशास्त्र का विरोध । (ठ) वर्ण विहीन, वर्ग विहीन समाज की पक्षधरता । (ड) भाषावाद, लिंगवाद का विरोध । " [11] ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने दलित चेतना के जिन बिंदुओं का उल्लेख किया है, वास्तव में वे आंबेडकरवादी चेतना के ही बिंदु हैं । फिर भी उन बिंदुओं में संशोधन और परिवर्तन की आवश्यकता है । वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए तथा सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए सच्चे आंबेडकरवादी विचारकों की जो चेतना है, मैंने उन्हें दस बिंदुओं में सीमित किया है । व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (1) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (2) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (4) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (5) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (6) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (7) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (8) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (9) " शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो " की प्रेरणा देना । (10) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना ।

वर्तमान में दलितों की सामाजिक और साहित्यिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए दलित चेतना और आंबेडकरवादी चेतना के अंतर को स्पष्ट करना अनिवार्य है, जो इस प्रकार है - (क) दलित चेतना के केंद्र में केवल दलित है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के केंद्र में बहुजन है । दलित चेतना गैर-दलितों को अपनी परिधि में सम्मिलित नहीं करती, जबकि आंबेडकरवादी चेतना संपूर्ण बहुजन समाज को अपनी परिधि में आमंत्रित करती है । (ख) दलित चेतना ब्राह्मणवाद को अपना लक्ष्य बनाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना आंबेडकरवाद को अपना लक्ष्य बनाती है । आंबेडकरवादी चेतना ब्राह्मणवाद का विरोध करने में कम ऊर्जा खर्च करती है और आंबेडकरवाद को समृद्ध करने में अधिक ऊर्जा खर्च करती है । (ग) दलित चेतना के अंतर्गत मार्क्सवाद को भी सम्मिलित किया गया है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में केवल आंबेडकरवाद को ही सम्मिलित किया गया है । आंबेडकरवाद में मार्क्सवाद के लिए कोई स्थान नहीं, क्योंकि आंबेडकरवाद स्वयं में एक पूर्ण अवधारणा है । (घ) दलित चेतना में 'नारीवाद' की चर्चा की जाती है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में 'नारी विमर्श' की चर्चा की जाती है । भारतीय समाज में पुरुष-सत्तात्मक और स्त्री-सत्तात्मक दोनों प्रकार के परिवार पाए जाते हैं, इसलिए नारीवाद के नाम पर स्त्री-सत्ता पर बल देना अनुचित है । नारी विमर्श के अंतर्गत स्त्री-मुक्ति की बात की जाती है, स्त्री-स्वतंत्रता की बात की जाती है, स्त्री-स्वछंदता की नहीं । (ड़) दलित चेतना में जाति विशेष का संबोधन किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में बहुजन बोधक संबोधन किया जाता है । आंबेडकरवादी चेतना में किसी जाति-विशेष को संबोधित करना स्वीकार्य नहीं है । किसी जाति-विशेष पर आधारित साहित्य आंबेडकरवादी चेतना का साहित्य नहीं कहा जा सकता । (च) दलित चेतना में व्यक्तिवाद को सम्मिलित किया जाता है, जबकि आंबेडकरवादी चेतना में समाजवाद को सम्मिलित किया जाता है । दलित चेतना से युक्त साहित्यकार अपनी निजी बातें साहित्य में लिखते हैं और समाज की बातें कम लिखते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार समाज की बातें अधिक लिखते हैं, अपनी बातें कम लिखते हैं । (छ) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार पुराणों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना से युक्त साहित्यकार विज्ञानों का उल्लेख करते हुए साहित्य-सृजन करते हैं । (ज) दलित चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को स्वीकार नहीं करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार बुद्ध-दर्शन को हृदयंगम करते हैं । (झ) दलित चेतना से युक्त साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में गर्व का अनुभव करते हैं, जबकि आंबेडकरवादी चेतना के साहित्यकार स्वयं को 'दलित' कहने में हीनता का अनुभव करते हैं । (ञ) 'दलित चेतना' हिंदू धर्म का विरोध करती है, लेकिन हिंदू धर्म को छोड़ने की पक्षधर नहीं है, जबकि 'आंबेडकरवादी चेतना' हिंदू धर्म का त्याग करके बौद्ध धम्म को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है ।


आंबेडकरवादी साहित्य और दलित साहित्य

दलित साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए प्रख्यात दलित आलोचक कँवल भारती जी ने लिखा है, " दलित साहित्य की इस धारा को जिन साहित्यकारों ने आगे बढ़ाया, उनमें चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु का योगदान मुख्य है । उन्होंने आंबेडकर साहित्य को हिंदी में प्रकाशित कर प्रचारित करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य किया, जिसने हिंदी में आंबेडकर मिशन के साथ-साथ आधुनिक दलित साहित्य की आधारशिला भी रखी । यहीं से हिंदी दलित साहित्य डॉ० आंबेडकर की दलित मुक्ति की चेतना और विचारधारा से जुड़ा । इस विचारधारा से जुड़ने के बाद न सिर्फ दलित साहित्य को नया अर्थ मिला, अपितु सामाजिक परिवर्तन की संपूर्ण विद्रोही चेतना ही उसकी अवधारणा बन गयी । इस आधार पर मैं परिभाषित करना चाहूँगा कि आधुनिक हिंदी दलित साहित्य वह है, जो दलित मुक्ति के सवालों पर पूरी तरह आंबेडकरवादी है । " [12] दलित साहित्य मूलतः आंबेडकरवादी साहित्य है । डॉ० विमल कीर्ति जी के शब्दों में, " आज दलित साहित्य को 'आंबेडकरवादी साहित्य' के नाम से भी जाना जाता है । उसी प्रकार दलित साहित्य को 'आंबेडकरवादी प्रेरणा का साहित्य' भी कहा जाता है । " [13] इस संदर्भ में डॉ० भरत सगरे जी ने लिखा है, " आज 'दलित साहित्य सर्वश्रेष्ठ साहित्य है' से लेकर 'यह साहित्य ही नहीं' कहने वाले आलोचक हैं । आज इसे 'समानांतर साहित्य', 'विद्रोही साहित्य', 'क्रांतिकारी साहित्य', 'आंबेडकरवादी साहित्य' आदि नाम दिये गये हैं । " [14] दलित साहित्य का प्रारंभ आंबेडकरवादियों द्वारा ही किया गया है । डॉ० शरण कुमार लिंबाले जी ने लिखा है, " बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने दलित समाज के लड़कों की उच्च शिक्षा के लिए 1946 में मुंबई में 'सिद्धार्थ महाविद्यालय' और 1947 में औरंगाबाद में 'मिलिंद महाविद्यालय' शुरू किया । इस महाविद्यालय में शिक्षा लेने वाले दलितों की पहली शिक्षित पीढ़ी बाबा साहेब की सोच से प्रभावित हुई थी । इस पीढ़ी का दलित तरुण अपनी भावना शब्दों में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर रहा था । इसका प्रमाण इस काल में प्रकाशित हुए मिलिंद महाविद्यालय की वार्षिकी में दिखाई देता है । " [15] दलित साहित्य तथागत बुद्ध की शिक्षाओं और डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के जीवन-दर्शन से प्रेरित है । डॉ० हरिमोहन धावन जी के शब्दों में, " दलित साहित्य बुद्ध के संदेश 'अप्प दीपो भव' तथा डॉ० आंबेडकर के आह्वान 'शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो' में निहित विचारों का समर्थक एवं प्रचारक साहित्य है । दलित साहित्य महज एक साहित्यिक क्रियाकलाप ही नहीं, बल्कि समग्र सामाजिक सुधारों से अभिप्रेरित एक बहुउद्देशीय-बहुआयामी रचनाधर्मी आंदोलन है । " [16] इस संदर्भ में डॉ० शरण कुमार लिंबाले जी ने लिखा है, " दलित साहित्य की प्रेरणा आंबेडकरवादी विचार हैं, क्योंकि बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों और आंदोलन से दलित समाज को स्वाभिमान मिला है । यदि बाबा साहेब न होते, तो हम न होते । दलित समाज में प्रत्येक व्यक्ति का एक-दूसरे को अभिवादन करते हुए 'जय भीम' का उच्चारण करना भी इस बात का द्योतक है कि बाबा साहेब आंबेडकर ही हमारी सच्ची प्रेरणा हैं । " [17] डॉ० दामोदर मोरे जी ने लिखा है, " दलित साहित्य की प्रेरणा हिंदूवाद, गांधीवाद और मार्क्सवाद नहीं है । दलित साहित्य की प्रेरणा केवल आंबेडकरवाद है । बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर ने हिंदुत्व का त्याग करके बुद्ध धम्म को स्वीकार किया था । इसी का परिणाम यह रहा है कि दलितों ने भगवान, भाग्य, आत्मा आदि की अवधारणाओं का त्याग करके विज्ञानवादी सोच अपनाया है । दलितों में हुये मानसिक परिवर्तन के कारण उनके मन सृजनशील बने । सबसे पहले बौद्ध धम्म को अपनाये हुये लेखकों ने दलित साहित्य का निर्माण किया । " [18] डॉ० प्रेमशंकर जी ने अपनी पुस्तक 'नयी कविता : नया मूल्यांकन' में दलित चेतना की कविताओं का मूल्यांकन करते हुए उन्हें आंबेडकरीय कविता कहा है । उनके शब्दों में, " अब केवल आंबेडकरीय कविता या प्रजातांत्रिक मूल्यों से सिंचित कविता ही आज की कविता के रूप में विद्यमान है और भविष्य में यही कविता अपने अस्तित्व का वर्चस्व स्थापित करके मानवीय अवधारणाओं को नूतन मार्ग देगी । " [19] स्पष्ट है कि 'दलित साहित्य' और 'आंबेडकरवादी साहित्य' दोनों में केवल शब्द का ही अंतर है, जबकि मूल वैचारिकी और आधारभूत उद्देश्य में कोई अंतर नहीं है । दलित साहित्य में मार्क्सवादी विचारधारा का समावेश डॉ० आंबेडकर के परिनिर्वाण के पश्चात ही होने लगा । डॉ० शरण कुमार लिंबाले ने लिखा है, " डॉ० बाबा साहेब आंबेडकर के मरणोत्तर काल में 'मार्क्स या आंबेडकर' विवाद बहुचर्चित सिद्ध हुआ । आंबेडकर अनुयायियों ने 3 अक्टूबर, 1957 को बाबा साहेब आंबेडकर की संकल्पना पर आधारित 'रिपब्लिकन पार्टी' की स्थापना की । इस पक्ष के नेताओं में 'मार्क्सवाद' को लेकर फूट पड़ी । दादा साहेब गायकवाड ने यह प्रस्तावना रखी कि रिपब्लिकन पक्ष सर्वहारा, पददलित और शोषितों का है, तो बी०सी० कांबले ने यह कहकर उनकी आलोचना की कि वे मार्क्सवादी हैं । इस कारण रिपब्लिकन पार्टी के दो गुट हो गये । रिपब्लिकन नेताओं में 'मार्क्सवाद' को लेकर काफी वाद-विवाद हुआ है । रिपब्लिकन पार्टी की राजनीतिक असफलता से 9 जुलाई, 1972 को 'दलित पैंथर' नामक दलित युवकों के संगठन का उदय हुआ, जो दलित युवाओं के गरम संगठन के रूप में दलितों के प्रश्नों को लेकर काम करने लगा । दलित पैंथर के युवक नेताओं में भी 'मार्क्सवाद' विवाद का विषय बना । नामदेव ढसाल ने 'दलित पैंथर' का जो घोषणा-पत्र जारी किया, राजा ढाले ने उसे 'मार्क्सवादी' कहकर उसकी आलोचना की । नामदेव ढसाल ने व्यापक भूमिका लेकर 'दलित पैंथर' का घोषणा-पत्र तैयार किया था । उन्होंने दलितों की व्याख्या में सर्वहारा, शोषित, पीड़ितों को सम्मिलित कर लिया, यह राजा ढाले को पसंद नहीं आया । ढाले ने ढसाल को कम्युनिस्ट कहकर 'दलित पैंथर' को बर्खास्त कर दिया और नये 'मास मूवमेंट' नामक संगठन की स्थापना की । इस कारण 'दलित पैंथर' विभाजित हो गया । ... इस मतभेद का पहला स्वरूप मार्क्स-विरोधी बौद्धवाद था । भाऊसाहेब आडसूल, विजय सोनवणे और राजा ढाले ने बौद्ध विचार प्रणाली को स्वीकार कर बाबूराव बागूल, नामदेव ढसाल, दया पवार आदि दलित लेखकों को साम्यवादी कहकर उनके लेखन की आलोचना की है । अर्जुन डांगले, दया पवार और यशवंत मनोहर ने दलित लेखकों की साम्यवादी भूमिका का समर्थन किया । आगे चलकर इस मतभेद का केंद्र बदला । मार्क्सवाद और आंबेडकरवाद को लेकर चर्चा शुरू हुई । बाबूराव बागूल और यशवंत मनोहर को मार्क्सवादी ठहराकर गंगाधर पानतावडे़ ने आंबेडकरवाद का समर्थन किया । इसी काल में रावसाहेब कसबे की 'आंबेडकर और मार्क्स' नामक पुस्तक प्रकाशित हुई । इस पुस्तक के कारण आलोचना का लक्ष्य बागूल की बजाय कसबे हो गये । रावसाहेब कसबे का 'आंबेडकर और मार्क्स' (1985), वि० स० जोग का 'मार्क्सवाद और दलित साहित्य' (1985), शरद पाटील का 'अब्राह्मणी साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' (1988) और सदा कव्हाड़े का 'मार्क्सवाद बुद्धवाद और आंबेडकरवाद' (1992) आदि पुस्तकों में समन्वयवादी विचार दृढ़ता से रखा गया है । परंतु आंबेडकरवादियों की ओर से ऐसा प्रयत्न नहीं हुआ । मार्क्सवादी धारा द्वारा प्रस्तुत अर्थविचार के समक्ष विकल्प के रूप में आंबेडकरवादी अर्थविचार आंबेडकरवादियों ने प्रस्तुत नहीं किया । " [20] आंबेडकरवादी साहित्यकारों की साहित्यिक दुर्बलता के कारण ही दलित साहित्य की मूल वैचारिकी पर मार्क्सवादी विचारधारा का आरोपण हुआ । जबकि भारतीय परिवेश में मार्क्सवाद को अधिकांश आंबेडकरवादी विद्वानों ने अस्वीकार कर दिया है । ईश कुमार गंगानिया जी ने लिखा है, " कोई विचारधारा या प्रवृति कितनी ही आधुनिक व सार्वभौमिक क्यों न हो, लेकिन इच्छाशक्ति के अभाव, दिशाहीनता व गलत निष्कर्षों के कारण इसे पारिवेशिक होने से कोई नहीं रोक सकता । भारतीय संदर्भ में पारिवेशिकता की यह स्थिति मार्क्सवाद की है, क्योंकि मार्क्सवादियों ने समाज के विकास के अंर्तद्वंद्वों व वर्ग-विभाजन का आधार आर्थिक/भौतिक माना और समाज के विकास या पतन के संदर्भ में जाति की उपेक्षा की । परिणामस्वरूप ब्राह्मणवादी उपनिवेश निरंतरता फलता-फूलता रहा । इसी का महिमंडन साहित्य, मीडिया, टी०वी० व फिल्मों में बदस्तूर आज भी जारी है । मार्क्सवादी पारिवेशिकता यह विश्लेषण करने व निष्कर्ष निकालने में नाकामयाब रही कि भारत में जाति ही व्यक्ति व समूह के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक संबंधों का निर्धारण करती है, वर्गों का निर्माण करती है और जाति के आधार पर ही आपसी सामाजिक व्यवहार निर्धारित होते हैं । इनसे टकराये बगैर मार्क्सवादी विचारधारा (भारतीय परिवेश में) सार्वभौमिक नहीं हो सकती । " [21] इस संदर्भ में डाॅ० जयप्रकाश कर्दम, डाॅ० एन० सिंह और डॉ० गंगाधर पंतावडे़ आदि विद्वान एकमत हैं । कालांतर में कुछ साहित्यकारों ने दलितवाद का पक्ष लेना आरंभ कर दिया और बुद्ध को नकारकर संत साहित्य व संत विचारधारा को अपना प्रेरणास्रोत माना । इस कारण से दलित साहित्य में दलितपन का प्रभाव तीव्र हुआ । दलितवादी साहित्यकारों ने अपने वैचारिक भटकाव का परिचय देते हुए अनेक अवसरों पर आंबेडकरी सिद्धांत से समझौता भी किया । इस संदर्भ में हरिराम मीणा जी ने लिखा है, " कम समय में चर्चा में आने की महत्वाकांक्षा खतरनाक होती है । व्यक्तिवादी मानसिकता वाला आदमी कई तरह के समझौते कर बैठता है । स्वार्थ केन्द्रित होने के कारण ऐसा आदमी अपने और पराए के भेद को नजरअंदाज करने लगता है । हिंदी के दलित साहित्यकारों में यह जगजाहिर खेमाबंदी क्यों पैदा हो गई ? दलित साहित्यकारों में भी ब्राह्मणवादी मानसिकता का सवाल क्यों खड़ा हुआ या किया गया ? जो दलित है, वह दलित है फिर दलितों में जातिवाद का जहर कहाँ से आया ? वह कौन सा प्रजातांत्रिक दलित विमर्श रहा, जिसकी दुहाई देकर 'हंस' व 'वर्तमान साहित्य' जैसी पत्रिकाओं ने एक के बाद एक दलित लेखकों को परस्पर विरोध में खड़ा होने को मजबूर किया । दलित लेखकों को छापकर निसंदेह ऐसी पत्रिकाओं ने अपनी दलित पक्षधरता सिद्ध की, लेकिन क्या वजह रही, जो इन्हीं पत्रिकाओं ने दलित लेखकों में फूट पैदा करने का गुनाह भी किया । जब अधिकांश साहित्यकार यह मानते हैं कि 'जाके पैर न फटी बिवाई, सो का जाने पीर परायी' अर्थात् जिसने भुगता है, वही आधिकारिक रूप से अपनी और अपने वर्ग की बात कह सकता है । फिर ऐसे लोगों (साहित्यकारों) की पंचायत में अन्य सिद्धांतकार पंच कैसे आ बैठे ? " [22] नवंबर, सन् 2002 ई० में मराठी के प्रमुख दलित साहित्यकार डॉ० शरण कुमार लिंबाले एक साहित्यिक कार्यक्रम में गुड़गाँव (दिल्ली) आये हुये थे । इस अवसर पर प्रसिद्ध दलित साहित्यकार सूरजपाल चौहान ने साक्षात्कार के पूछा कि डॉ० साहब ! आपका पूरा जोर इस बात पर है कि दलित साहित्य का मूल आधार आंबेडकरी विचारधारा हो । हिंदी के प्रमुख दलित साहित्यकारों ओमप्रकाश वाल्मीकि व मोहनदास नैमिशराय का भी यही मानना है । लेकिन दूसरी ओर डॉ० धर्मवीर जैसे दलित लेखकों ने बुद्ध के साथ-साथ आंबेडकर को लेकर भी प्रश्न खड़े करने शुरू किये हैं । ऐसा लगने लगा है कि दलित साहित्य का आधार खिसकने लगा है । इसका उत्तर देते हुए डॉ० लिंबाले ने कहा, " बौद्ध धम्म तो अंतर्राष्ट्रीय धम्म है । दुनिया के न जाने कितने देशों में यह फैला हुआ है । सबसे बड़ी समस्या यह रही कि भारत के पूरे दलितों ने बौद्ध धम्म स्वीकार नहीं किया है । यदि देश के सारे दलित बौद्ध धम्म स्वीकार कर लें, तो इस समस्या का रूप बदल सकता है । कुछ लोग बाबा साहेब के धर्म-परिवर्तन को लेकर भ्रम पैदा कर रहे हैं । उन्हें यह समझ लेना चाहिए कि पूरा दलित लेखन बुद्ध के दर्शन और बाबा साहेब की चेतना पर ही आधारित है । किसी भी बड़े-छोटे लेखक को कुछ बोलने या लिखने से पहले सोच-समझकर अपने विचार व्यक्त करने चाहिए । " [23]

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भले ही दलित साहित्य में मार्क्सवाद और दलितवाद का समावेश हो गया है, किंतु अभी भी उसकी मूल वैचारिकी आंबेडकरवाद पर ही आधारित है । दलित साहित्य के संदर्भ में दलित साहित्यकार कौन ? और दलित साहित्य का विषय क्या ? आदि को लेकर विवाद उत्पन्न होते रहे हैं । उन विवादों के उत्पन्न होने का मुख्य कारण है - 'दलित' शब्द । 'दलित' शब्द के भावार्थ की एक सीमा है । एक विडंबना यह भी है कि जिन आदिवासियों को 'दलित' की परिभाषा में शामिल किया गया है, उनके नाम से एक अलग ही साहित्य हो गया अर्थात् 'आदिवासी साहित्य' ।  बुद्ध और आंबेडकर की 'बहुजन हिताय' संबंधी संकल्पना को असफल करने में भी 'दलित' शब्द की संकुचित वैचारिक परिधि की महत्वपूर्ण भूमिका है । इस 'दलित' शब्द का अर्थबोध कराने वाली हीनभावना ने ही गैर-दलितों से दुराव उत्पन्न किया है, जिसके फलस्वरूप वर्तमान में 'ओ०बी०सी० साहित्य' अस्तित्व में आ गया है । ऐसी स्थिति में 'आंबेडकरवादी साहित्य' की प्रासंगिकता अत्यंत महत्वपूर्ण है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' की परिधि में हर जाति, हर वर्ग समाहित हो जाता है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' से केवल आंबेडकरवादी विचारधारा का अर्थबोध होता है - न ही किसी जाति का, न ही किसी वर्ग का । इस नाम की सार्थकता इसलिए भी है कि इसका प्रयोग करते ही मार्क्सवाद और दलितवाद स्वतः अलग हो जाएँगे । 'दलित साहित्य' एक भ्रामक नाम है, जबकि 'आंबेडकरवादी साहित्य' बिल्कुल स्पष्ट नाम है ।


'आंबेडकरवादी साहित्य' क्यों ?

आंबेडकरवादी साहित्य विमर्श का आरंभ डॉ० तेज सिंह द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका 'अपेक्षा' के दसवें अंक (जनवरी-मार्च, 2005) से हुआ । उसी समय से उस पत्रिका का उपशीर्षक बदलकर 'आंबेडकरवादी साहित्य का मुखपत्र' कर दिया गया । उस पत्रिका के उप-संपादक ईश कुमार गंगानिया और डाॅ० तेजपाल सिंह 'तेज' थे । संपादकीय सहयोग प्रदान करने वालों में प्रोफेसर चमनलाल, डॉ० विवेक कुमार, मुकेश मानस, अनिता भारती, डॉ० टेकचंद, डाॅ० रजनी दिसोदिया, मीना आनंद, डाॅ० अश्विनी कुमार, रजनी अनुरागी और शीलबोधि आदि विद्वानों व साहित्यकारों के नाम शामिल थे । आंबेडकरवादी साहित्य विमर्श के माध्यम से आंबेडकरवादी विचारधारा को शुद्धता प्रदान करने में गंगानिया जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । 'अपेक्षा' पत्रिका के कुल उनचास अंक प्रकाशित हुये थे । वर्ष 2012 में कँवल भारती जी की पुस्तक 'दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म' प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने लिखा है, " बौद्ध धर्म से दलितों का रिश्ता सिर्फ इस कारण नहीं हो सकता कि उसे डॉ० आंबेडकर ने स्वीकार किया था । डॉ० आंबेडकर का बुद्धानुराग भी सिर्फ एक धर्म की तलाश के रूप में नहीं हो सकता था । यदि ऐसा होता, तो ईसाई, इस्लाम या सिक्ख धर्म भी दलित मानस से अपना रिश्ता बना सकते थे । पर ऐसा नहीं हुआ । ईसाई, इस्लाम और सिक्ख धर्मों में दलितों का सामूहिक धर्मांतरण भी इन धर्मों से दलितों का रिश्ता नहीं बना सका । इसके विपरीत बौद्ध धर्म के प्रति वे दलित भी अनुराग रखते हैं या उदारवादी दिखाई देते हैं और उसका समर्थन भी करते हैं, जो बौद्ध धर्म के अनुयायी नहीं हैं । एक प्रश्न यह भी विचारणीय है कि दलित जातियों में ईसाई और इस्लाम धर्मों का व्यापक मिशनरी प्रचार भी उनके प्रति अपनत्व क्यों नहीं पैदा कर सका, जबकि यही अपनत्व बौद्ध धर्म के प्रति पागलपन की हद तक दलितों में पैदा हो गया ? यह एक ऐसा सवाल है, जिस पर गंभीर विचार करने की जरूरत है, क्योंकि इसी सवाल पर दलित धर्म की मौलिक अवधारणा निर्भर करती है । " [24] भारती जी के इस कथन में तर्क और तथ्य का समावेश कम है, जबकि भावावेश अधिक है । यदि दलितों में बौद्ध धर्म के प्रति अपनत्व पागलपन की हद तक होता, तो आज भारत में बौद्धों की संख्या करोड़ों में होती । भारत के वही दलित बौद्ध बनते हैं अथवा बन रहे हैं, जिनमें बुद्धि और तर्क की क्षमता है । अन्यथा आज भी आंबेडकर-मिशनरी लोग प्रचार-प्रसार के दौरान अपने ही समाज के लोगों (दलितों) के मुख से अपशब्द सुनते रहते हैं । भारती जी के कथन की प्रतिक्रिया में ईश कुमार गंगानिया जी ने लिखा है, " डॉ० धर्मवीर पहले कबीर धर्म और अब अजीवक धर्म के अवशेषों को जुटाने के लिए इतिहास की खुदाई में दिन-रात जुटे हैं । उनकी चपेट में वरिष्ठ दलित साहित्यकार कँवल भारती भी आ गये हैं । परिणामस्वरूप 'दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म' नामक पुस्तक अस्तित्व में आई, जिसमें कँवल भारती हिंदू धर्म को रौंदने के आवेश में कबीर और रैदास को भी आहत करने से नहीं चूकते और अंततः अपनी निर्धारित मंजिल लोकायत पर ही जाकर चैन की साँस लेते हैं । यद्यपि यह यात्रा काफी लंबी होनी चाहिए थी, लेकिन यह पुस्तक के लगभग एक सौ सात पेजों में सिमट गई । इस यात्रा में किसको कितने जख्म मिले और किसके जख्म सहलाये गये, इसका हिसाब-किताब भी होना चाहिए । इसके साथ-साथ यह भी देखने की आवश्यकता है कि यह यात्रा कितनी सार्थक रही और इससे समाज को कितनी राहत व स्फूर्ति मिलेगी ? कँवल भारती धर्म के मद्य में निर्गुण धारा को 'निर्गुण धर्म' बौद्ध धम्म को 'बौद्ध धर्म' और 'दलित धर्म' जैसे शब्दों का जमकर प्रयोग करते हैं । 'दलित धर्म' अपने आप में कोई ज्यादा सुरक्षित शब्द नहीं है । 'दलित' अपने आप में एक विस्तृत पृष्ठभूमि का शब्द है और इसका कोई एक ठोस सांस्कृतिक आधार अभी स्थापित नहीं हो पाया है । इसलिए अनेक सांस्कृतिक विरासत वाले विशाल जन-समुदाय के लिए 'दलित धर्म'  की संज्ञा देना ही अपने आप में विवादास्पद मुद्दा है । " [25] इस संदर्भ में डॉ० विमल कीर्ति जी ने टिप्पणी की है, " आज 'दलित धर्म' के संदर्भ में कँवल भारती, डॉ० धर्मवीर, डॉ० श्योराज सिंह 'बेचैन' जैसे दलित साहित्यकार और कुछ अन्य ब्राह्मणवादी लोग दलितों में ईश्वरवाद, दैववाद को बरकरार रखना चाहते हैं । वे दलितों को 'नियतिवाद' का गुलाम बनाना चाहते हैं । वे बौद्ध धम्म संबंधी डॉ० आंबेडकर की मूल प्रेरणा को समझ नहीं पा रहे हैं । भारत के मध्यकालीन संतों की, चाहे वे दलित और बहुजन समाज के ही संत क्यों न हों, उनमें सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से, सामाजिक क्रांति की दृष्टि से, जातिभेद उच्छेद, अछूतपन का विनाश करने की दृष्टि से कई सीमाएँ थीं । मध्यकाल का कोई भी संत ब्राह्मणवाद से, हिंदूवाद से पूरी तरह मुक्त नहीं था । उनके विचारों की, चिंतन की ढेरों सीमाएँ थीं । आज हम किसी भी रूप में डॉ० आंबेडकर की तुलना मध्यकालीन संतों से नहीं कर सकते । " [26] इस प्रकार यह स्पष्ट है कि प्रारंभ से लेकर अब तक दलित साहित्य में आंबेडकरवादी चेतना का प्रभाव बना हुआ है । सामाजिक रुप से आंबेडकरवादी विचारधारा के लोगों की अत्यधिक संख्या होने के उपरांत भी साहित्यिक रूप से 'दलित' शब्द को इसलिए स्वीकार किया जाता रहा है, क्योंकि 'आंबेडकरवादी साहित्य' का पक्ष मजबूती के साथ नहीं रखा गया । इस संदर्भ में ईश कुमार गंगानिया जी ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण टिप्पणी की है । वे 'हिंदू' और 'हरिजन' शब्दों के प्रयोग का उदाहरण देते हुए कहते हैं, " इससे भी खराब स्थिति ‘हिन्दू’ शब्द को लेकर उपस्थित होती है जिसे कभी धर्म की संज्ञा दी जाती है, कभी जीवन शैली की, तो कभी ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की, जबकि यह शब्द बेहद अपमानजनक है और इसे विदेशियों यानी पारसियों या मुसलमानों ने दिया था, जिसका अर्थ विभिन्न शब्दकोशों के माध्यम से अपमानजनक है । इसके लिए प्रयोग किये जाने वाले शब्द चोर, डाकू, आज्ञाकारी गुलाम, शनि, आसमान का कलंक और न जाने क्या-क्या कहा जाता है । ... जो प्रवृत्ति समाज के वर्चस्ववादी व संप्रभु समाज में मौजूद होती है, वह स्वतः ही समाज के अन्य तबकों की विचारधारा व चरित्र का हिस्सा बन जाती है और व्यक्ति व समाज सायास या अनायास ही इन प्रवृत्तियों का आदी हो जाता है । ठीक ऐसी ही स्थिति मौजूदा दलित समाज में देखने को मिलती है । ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपनी आरोपित अस्मिता नहीं बदली । गांधी द्वारा दिये गये शब्द ‘हरिजन’ को तिलांजलि देकर उन्होंने सिद्ध कर दिया कि उन्हें सार्वभौमिक अस्मिता की तलाश है । इस सारी भूमिका के पीछे मेरा उद्देश्य शापित अस्मिता ‘दलित’ को लेकर है । घटनाक्रम कुछ इस प्रकार है कि दिल्ली से प्रकाशित होने वाली त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका ‘अपेक्षा’ के माध्यम से अपेक्षा परिवार ने यह प्रचार-प्रसार व आग्रह किया कि ‘दलित साहित्य’ के स्थान पर इसके लिए ‘आंबेडकरवादी साहित्य’ शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए, क्योंकि यह ज्यादा अस्मितापरक तो है ही और आंबेडकरवादी विचारधारा पर केन्द्रित होने के कारण तार्किक दृष्टि से भी अपने नाम की कसौटी पर खरा उतरता है । यही नहीं, इस विचारधारा को वैचारिक व बौद्धिक आधार प्रदान करने के लिए ‘अपेक्षा’ के अंक-आठ यानी जुलाई-सितम्बर 2004 को ‘आंबेडकरवादी साहित्य आन्दोलन विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित किया । लेकिन बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि विशेष रूप से हिन्दी साहित्यकारों की तरफ से न तो कोई प्रतिक्रिया ही आई, न ही किसी प्रकार की डिबेट हुई और न ही किसी प्रकार के सम्मेलन के माध्यम से विचार-मंथन ही हुआ । कुछ जाने-माने साहित्यकारों से जब व्यक्तिगत रूप में प्रतिक्रिया माँगी गई, तो वे किसी न किसी बहाने इस महत्चपूर्ण विषय को टाल गये । परिणामस्वरूप, ‘दलित’ शब्द के प्रचार-प्रसार के लिए इधर-उधर कुतर्को का बाज़ार अवश्य गर्म नजर आया । " [27]

वर्तमान में, नई पीढ़ी के आंबेडकरवादी युवा स्वयं को 'दलित' कहना उचित नहीं समझते हैं । वे 'दलित' शब्द को असंवैधानिक कहते हैं तथा 'दलित' शब्द के प्रयोग पर आपत्ति व्यक्त करते हैं । अधिकांश लोगों का यह भी मानना है कि 'दलित' शब्द तथाकथित सवर्णों द्वारा थोपा गया शब्द है, इसलिए यह शब्द वंचित लोगों के लिए गरिमापूर्ण नहीं है । प्रोफेसर दामोदर मोरे जी ने अपनी पुस्तक 'नीले शब्दों की छाया में' की प्रस्तावना में लिखा है, " दलितत्व का पुराना पहना हुआ वस्त्र मैंने उतारकर फेंक दिया है । अब मैं अपने साहित्य में 'बोधि' की ध्वजा फहरा रहा हूँ, क्योंकि अब मैं दलित नहीं 'बौद्ध' हूँ । दलितों के लिए मेरे दिल में प्रेम है, मगर दलितत्व से मैं नफरत करता हूँ । दलितत्व से ऊपर उठाकर उनको मनुष्यत्व के पद पर ससम्मान प्रस्थापित करना मेरा उद्देश्य है । " [28] जो आंबेडकरवादी लोग बौद्ध धम्म की दीक्षा ले चुके हैं, वे स्वयं को बौद्ध कहते हैं । इसलिए उन्हें अपने लिए 'दलित साहित्यकार' नाम का संबोधन अप्रिय लगता है । वे 'दलित साहित्यकार' की बजाय 'बौद्ध साहित्यकार' अथवा 'आंबेडकरवादी साहित्यकार' कहलाना पसंद करते हैं । लगभग चार दर्जन वरिष्ठ और कनिष्ठ साहित्यकारों के समर्थन के साथ पुनः आंबेडकरवादी साहित्य का विमर्श आरंभ हो चुका है । इस विमर्श के समर्थन में डॉ० विमल कीर्ति, प्रोफेसर दामोदर मोरे, डॉ० प्रेरणा उबाले, डॉ० जगदीश, डॉ० जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, सुदेश कुमार 'तनवर', प्रमोद वाल्के, डाॅ० युवराज सोनटक्के, डाॅ० धर्मपाल पीहल, कांता बौद्ध, पुष्पा विवेक, डॉ० कुसुम वियोगी, एल० एन० सुधाकर, डाॅॅ० एन० सिंह, डाॅ० सूरजमल सितम, डाॅॅ० बृजेश कुमार भारतीय, हरपाल सिंह 'अरुष', आर० जी० कुरील, श्यामलाल राही, जी० सी० लाल 'व्यथित', नंदलाल कौशल, एस० एन० प्रसाद, सूरजभान आजाद, आनंद कुमार 'सुमन', डाॅ० मुसाफिर बैठा, राजेश कुमार बौद्ध, ज्योति पासवान, राधेश विकास, अरविंद भारती, सूरजपाल सूर्यवंशी, उमेश राज, वचन मेघ आदि विद्वानों, शोधार्थियों व साहित्यकारों के नाम शामिल हैं । डाॅ० सिद्धार्थ रामू और बुद्धशरण हंस तथा कुछ अन्य विद्वान 'बहुजन साहित्य' की अवधारणा प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं । वे 'दलित साहित्य' की बजाय 'बहुजन साहित्य' की संकल्पना कर रहे हैं । लेकिन अंत में उनकी विचार-सीमा भी जाति और वर्ग तक ही सीमित रह जाती है । 'बहुजन साहित्य' के संदर्भ में भी वही समस्या उत्पन्न होगी, जो 'दलित साहित्य' को लेकर उत्पन्न होती है । अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग आदि सभी श्रेणी के लोग अपने लिखे साहित्य को 'बहुजन सहित्य' घोषित करेंगे । जबकि यह ज्ञात है कि अन्य पिछड़ा वर्ग द्वारा लिखा गया अधिकांश साहित्य हिंदू मानसिकता से परिपूर्ण है । उनके साहित्य में ईश्वरवाद, भाग्यवाद, दैववाद आदि का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है । ऐसी स्थिति में आंबेडकरवाद की बहुत क्षति होगी । इसलिए विचारधारा का स्पष्टीकरण अपरिहार्य है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' आंबेडकरवादी विचारधारा पर आधारित साहित्य है, जिसके अंतर्गत डाॅ० आंबेडकर के सिद्धांतों से सरोकार रखने वाला साहित्य ही सम्मिलित होने योग्य है । किसी भी समाज का कोई भी साहित्यकार यदि आंबेडकरवादी विचारधारा से सरोकार रखने वाला साहित्य-सृजन किया है, तो उसके उस साहित्य को आंबेडकरवादी साहित्य कहा जा सकता है तथा उसके अन्य साहित्य को अन्य किसी श्रेणी में रखा जा सकता है । 

आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के सपनों का भारत बनाना है । सामाजिक और आर्थिक विषमता की बजाय समतामूलक समाज की स्थापना करना तथा वंचित वर्ग को सामाजिक न्याय और मानवाधिकार उपलब्ध कराने हेतु क्रांतिकारी आंदोलन करना ही आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य है । आंबेडकरवादी साहित्य का विषय-क्षेत्र अत्यंत व्यापक है, जिसकी सीमा में श्रृंगार भाव, हास्य भाव, वीर भाव आदि सभी प्रकार का साहित्य-सृजन सम्मिलित किया जा सकता है । यह ध्यान रहे कि सृजन का भाव चाहे जैसा भी हो, लेकिन सृजन की वैचारिकता आंबेडकरवादी दृष्टिकोण पर आधारित होनी चाहिए । आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत कोरी भावुकता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, बल्कि तार्किकता और वैज्ञानिकता की अपेक्षा की जाती है । साहित्य-सृजन को सम्यक स्वरूप प्रदान करने की दृष्टि से आंबेडकरवादी साहित्य की आवश्यकता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है ।

आंबेडकरवादी साहित्यकार कौन ?

आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा के संदर्भ में लोग यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि क्या आंबेडकरवादी साहित्यकार होने के लिए आंबेडकरवादी होना भी अनिवार्य है ? जिस प्रकार दलित साहित्य-सृजन के लिए दलित होना अनिवार्य माना जाता है, उस प्रकार आंबेडकरवादी साहित्य का सृजन करने के लिए आंबेडकरवादी होने की अनिवार्यता नहीं है । फिर भी एक बात ध्यान रखने योग्य है कि यदि कोई साहित्यकार आंबेडकरवादी नहीं है और वह आंबेडकरवादी विचारधारा से सरोकार रखने वाला साहित्य-सृजन करता है, तो उसके उस साहित्य पर आंबेडकरवादी विचारधारा का प्रभाव दिखाया जा सकता है, लेकिन उसे पूर्णरूपेण आंबेडकरवादी साहित्यकार नहीं कहा जा सकता है । आंबेडकरवादी कोई भी हो सकता है, इसलिए आंबेडकरवादी साहित्यकार के लिए जाति अथवा वर्ग का कोई बंधन नहीं है । यदि किसी साहित्यकार का साहित्य आंबेडकरवादी विचारधारा से परिपूर्ण नहीं है, तो वह भले ही अनुसूचित जाति का है, लेकिन उसके साहित्य को आंबेडकरवादी साहित्य नहीं कहा जा सकता है ।

दलित साहित्य के संदर्भ में यह विवाद कई वर्षों तक चला कि दलित साहित्यकार कौन है ? दलित और गैर-दलित लेखकों द्वारा लिखे गये दलित साहित्य में किसका 'दलित साहित्य' सच्चा है ? इस विषय पर साहित्यकार राजेन्द्र यादव जी ने लिखा है, " दलित विमर्श में एक प्रश्न बार-बार पूछा जाता है कि क्या दलित साहित्य केवल दलित ही लिख सकते हैं ? मुझे लगता है कि दलित लेखकों को इस विवाद में नहीं पड़ना चाहिए । सवर्ण साहित्यकारों का एक दल आग्रह पूर्वक बताता है कि उनका लेखन भी दलित साहित्य है, जबकि दलित लेखकों की बड़ी ऊर्जा इस बात के खंडन में खर्च हो जाती है । मुझे लगता है कि दलित साहित्यकार तर्कों से कभी इस बात को नहीं सिद्ध कर पाएँगे कि किसका लेखन सच्चा दलित साहित्य है ? इसका जवाब ज्यादा अच्छी, सशक्त और जिंदा रचनाएँ लिखकर दे सकते हैं, जैसा कि स्त्री लेखन कर रहा है । वैसे भी साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है, जहाँ हर एक को अपनी बात कहने और लिखने की आजादी है । जो गैर-दलित लेखक दलित साहित्य लिख रहे हैं, उन्हें दलित न तो रोक पाएँगे, न ही रोकना चाहिए । उन्हें वर्णवाद के कटघरे में खड़ा करने से कुछ नहीं होगा, क्योंकि अंततः बात इस पर आ जाएगी कि आपकी अपनी उपलब्धियाँ क्या हैं ? " [29] लगभग सभी दलित साहित्यकारों ने दलित साहित्यकार और गैर-दलित साहित्यकार के बीच में स्वानुभूति और सहानुभूति को आधार बनाकर सीमा-रेखा खींचने का प्रयास किया है । इस बात पर अपना ध्यान केंद्रित करके 'सहानुभूति' और 'स्वानुभूति की पुनर्रचना' आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए प्रो० मैनेजर पांडेय जी ने लिखा है, " भारतीय समाज, संस्कृति और इतिहास जिस रूप में चलता रहा है, उसमें जब दलितों को पढ़ने-लिखने की ही सुविधा नहीं थी, तो वे अपने बारे में साहित्य कहाँ से लिखते ? इसलिए दलित साहित्य के रूप में अधिकांशतः वही साहित्य मिलता है, जो दलितों के बारे में गैर-दलितों ने लिखा है । इस साहित्य में बहुत कुछ ऐसा भी है, जो काफी हद तक दलित जीवन की वास्तविकताओं और अनुभवों को गहरी सहानुभूति के साथ व्यक्त करता है । उदाहरण के लिए प्रेमचंद और निराला की दलित जीवन से जुड़ी रचनाओं को देखा जा सकता है । लेकिन सारी सहानुभूति, करुणा, सहृदयता और परकाया प्रवेश की कला के बावजूद गैर-दलितों द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य में कला चाहे जितनी हो, परंतु अनुभव की वह प्रामाणिकता नहीं होती, जो किसी दलित द्वारा अपने समुदाय के बारे में स्वानुभूति की पुनर्रचना से उपजे साहित्य में होती है । " [30] गैर-दलितों द्वारा दलित साहित्य लिखने की स्थिति पर संदेह करते हुए डॉ० तेज सिंह जी उन्हें घुसपैठिए की नजर से देखते हैं । उन्होंने अपने लेख 'हिंदी उपन्यास दलित विमर्श का पुराख्यान' में लिखा है, " इधर जब से हिंदी क्षेत्र में दलित साहित्य पर चर्चा हुई है, तभी से हिंदी साहित्य में दलित चेतना या दलित विमर्श के नाम पर गैर-दलितों द्वारा शोध कार्य के साथ-साथ काफी संख्या में आलोचनात्मक लेखन होने लगा है । ज्यादातर ऐसा शोध-लेखन दलित साहित्य को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जा रहा है । गैर-दलित इसी इरादे से हिंदी साहित्य में दलित चेतना के नाम पर दलित विमर्श कर रहे हैं, ताकि दलित साहित्य में उनकी चोर दरवाजे से घुसपैठ हो जाए । यह इस हठधर्मिता का ही परिणाम है कि बलात् हिंदी साहित्य में दलित चेतना खोजी जाने लगी है । एक समय ऐसा भी आएगा, जब उन्हें वेद-उपनिषदों में भी दलित चेतना दिखाई देने लगेगी । दलितों को यह अप्रत्याशित नहीं लगना चाहिए, क्योंकि जब-जब ब्राह्मणवाद के खिलाफ दलित पिछड़ी जातियों ने विद्रोह की चेष्टा की है या विद्रोह किया है, तब-तब यह प्रक्रिया देखने में आई है । " [31] इस विषय पर दलित साहित्यकार डाॅ० जयप्रकाश कर्दम जी कुछ रियायत बरतते हैं । उनके अनुसार, " दलित विमर्श पर जितनी बातें हो रही हैं, उनमें यह बताने की कोशिश की जा रही है कि दलित खुद को ठीक से अभिव्यक्त नहीं कर सकते और उनके सोचने का स्तर सवर्णों से कम है । दलितों की प्रगति चाहने वाले उनके साथ सही भावनाओं के साथ जुड़ें तो कोई आपत्ति नहीं, लेकिन जब तक उनके गले में जनेऊ है यानी मन में संस्कार बैठे हैं, तब तक मानवीय समता की बात करना बेमानी है । " [32] डाॅ० अजय नावरिया जी एक वैचारिक लकीर खींचते हुए 'सच्चा दलित साहित्य' का स्पष्टीकरण कुछ इस प्रकार करते हैं, " मुझे लगता है कि जब तक अपने बारे में लिखे हुए दलितों के साहित्य का पर्याप्त विकास नहीं होता, तब तक गैर-दलितों द्वारा दलितों के बारे में लिखे गये साहित्य को भी भले ही दलित साहित्य कहा जाए, लेकिन सच्चा दलित साहित्य वही होगा, जो दलितों के बारे में स्वयं दलित लिखेंगे । "  [33] साहित्यिक कौशल पर अपना विचार व्यक्त करते हुए वे आगेे लिखते हैं, " जहाँ तक गैर-दलित लेखकों का यह कहना है कि वे (दलित) स्वयं को ठीक से व्यक्त कर पाने में पूर्ण सक्षम नहीं हैं, तब उनका तात्पर्य संवेदना से नहीं अपितु शिल्प से होता है । दलित लेखकों को यह तो मानना ही चाहिए । शिल्प एक कुशलता है, जो समय के साथ-साथ अर्जित की जाती है । निःसंदेह सपाटबयानी भी एक ढंग है, किंतु उसमें भी संवेदना की अतिसूक्ष्मता की दरकार होती है । यह कुशलता अभी दलित साहित्यकारों को अर्जित करनी है । " [34]

वर्तमान में अधिकांश दलित कवि भी सहानुभूति की ही कविताएँ लिख रहे हैं । कारण यह है कि जितने भी प्राध्यापक अथवा उच्च प्रशासनिक अधिकारी दलित साहित्यकार हैं, उनकी स्थिति सही मायने में दलित स्थिति नहीं है । ऐसी स्थिति में दलितों पर लिखा गया उनका साहित्य स्वानुभूति का साहित्य कैसे कहा जा सकता है ? कुछ प्रश्नों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जैसे - (1) क्या बलात्कार संबंधी विषय पर लिखने वाले लेखक अथवा लेखिका खुद बलात्कार के शिकार हुये हैं ? यदि नहीं हुये हैं, तो यह उनकी स्वानुभूति कैसे हुई ? (2) कोरोना काल में जितनी भी कविताएँ प्रवासी मजदूरों पर केंद्रित हैं, क्या उन्हें लिखने वाला कोई भी कवि अथवा कवयित्री प्रवासी मजदूर है ? यदि नहीं, तो यह उनकी स्वानुभूति कैसे हुई ? जब आज दलित ही 'स्वानुभूति का साहित्य' नहीं लिख रहे हैं, तो फिर स्वानुभूति का बहाना करके गैर-दलितों को 'दलित साहित्य' लिखने से और उन्हें 'दलित साहित्यकार' कहने से क्यों इनकार कर रहे हैं ? अब तो यही उचित है कि या तो गैर-दलितों को भी दलित साहित्य में शामिल किया जाए अथवा दलित साहित्य की अवधारणा में परिवर्तन किया जाए । अफसोस, ऐसा करने के लिए न तो दलित साहित्यकार अभी सहमत हैं और न ही भविष्य में कभी सहमत हो सकते हैं । उनकी इस वैचारिक कुंठा को ध्यान में रखते हुए आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा की आवश्यकता और भी अधिक बढ़ जाती है । आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा इतनी स्पष्ट है कि इसमें जाति के आधार पर साहित्यकारों का बँटवारा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है । स्वानुभूति और सहानुभूति का तर्क बिल्कुल तथ्यहीन और निराधार है, क्योंकि साहित्य का सृजन स्वानुभूति और सहानुभूति दोनों के सहयोग से होता है । आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा के अंतर्गत स्वानुभूति और सहानुभूति संबंधी शब्दजाल बुनने की बजाय सीधे तौर पर साहित्यिक शर्त रखी जाती है, जिसे 'शक्ति का साहित्य' और 'ज्ञान का साहित्य' आदि के रूप में जाना जाता है । ईश कुमार गंगानिया जी के शब्दों में, " आंबेडकरवादी आलोचना समता, स्वतंत्रता, भाईचारे व सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने वाली आंबेडकरवादी चेतना को साहित्य की सार्वभौमिकता, आधुनिकता व प्रगतिशीलता के लिए अनिवार्य मानती है, क्योंकि इन्हीं के आधार पर सामाजिक व नैतिक मूल्यों का विकास होता है और प्रचलित साहित्य की इनसे जुड़ी पारिवेशिकता टूटती है । इसलिए आंबेडकरवादी आलोचना आंबेडकरवादी साहित्य की सार्वभौमिकता के लिए ‘ज्ञान के साहित्य’ जिसमें दर्शन, राजनीति, प्रचार, ज्ञान आदि सम्मिलित है, में समाज के सभी वर्गों की बराबरी की भागीदारी की पक्षधर है और ‘शक्ति के साहित्य’ जिसमें कविता, कहानी, उपन्यास, आत्मवृत, नाटक आदि आते हैं को इस प्रारंभिक अवस्था में शोषित-उत्पीड़ित व कमजोर वर्ग तक सीमित रखने की पक्षधर है, क्योंकि सामाजिक स्थितियों के अनुरूप ही व्यक्ति की अनुभूति और चेतना का विकास होता है । यदि ‘शक्ति के साहित्य’ में गैर-दलित की भागीदारी की जाती है, तो इसके पारिवेशिक होने का खतरा प्रबल होता है । उदाहरण के लिए प्रेमचंद को दलितों का हितैषी साहित्यकार माना जाता है, लेकिन उनके साहित्य में भी ब्राह्मण और दलित का संबोधन व व्यवहार के तरीके असमान व वर्चस्व व स्तरीकरण को पोषित करने वाले होते हैं । " [35]

निष्कर्ष के रूप में स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा समय की माँग है । समय के साथ चलना ही बुद्धिजीवी होने की पहचान है । नाम-परिवर्तन को लेकर आज का सभ्य समाज इतना सजग हो चुका है कि लोग अपने बच्चों का नामकरण करते समय पारंपरिक नामों की बजाय आधुनिक नामों का चयन करने लगे हैं । अनुसूचित वर्ग के लोग अपने उपनाम में 'राम' और 'प्रसाद' की बजाय चौधरी, गौतम, भारती और सिंह आदि लिखने लगे हैं । कुछ लोग तो ऐसा भी उपनाम रखते हैं, जिसका अर्थ ही नहीं समझ में आता है । उनके उपनाम का अर्थ समझने के लिए हिंदी के एक विशेषज्ञ को भी शब्दकोश का सहारा लेना पड़ जाता है । इतना सब कुछ केवल अस्मिता की पहचान बनाने के लिए ही किया जाता है । साहित्य के क्षेत्र में सम्यक अस्मिता की पहचान बनाने के लिए ही 'दलित साहित्य' की बजाय 'आंबेडकरवादी साहित्य' का विमर्श आरंभ किया गया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' शब्द का प्रयोग करने से कई प्रकार का अर्थबोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे - आंबेडकरवादी विचारधारा की प्रतिबद्धता, साहित्य-सृजन हेतु विषय-क्षेत्र की व्यापकता, साहित्य-सिद्धांत की विश्वसनीयता, सौंदर्यबोध की भिन्नता और दार्शनिक मान्यता आदि । हिंदी साहित्य में जिस प्रकार छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का उद्भव हुआ, उसी प्रकार आंबेडकरवाद का भी उद्भव हुआ है । हिंदी साहित्य में मार्क्सवादी आलोचना और मार्क्सवादी आलोचकों की काफी चर्चा रही है । 'मार्क्सवादी साहित्य' के समानांतर 'आंबेडकरवादी साहित्य' की संकल्पना सर्वथा सार्थक है ।


संदर्भ :-

[1] भार्गव आदर्श हिंदी शब्दकोश, पृष्ठ 703, संपादक - पंडित रामचंद पाठक, प्रकाशक - भार्गव बुक डिपो, चौक (वाराणसी)
[2] आंबेडकरवादी चिंतन और हिंदी साहित्य : डॉ० जयश्री शिंदे, पृष्ठ 17, सारंग प्रकाशन, वाराणसी
[3] अपेक्षा (त्रैमासिक पत्रिका) : संपादक - डाॅ० तेज सिंह, विशेषांक 7, जुलाई-सितम्बर 2004
[4] सम्यक भारत (मासिक पत्रिका) : संपादिका - मंजू मौर्य, पृष्ठ 52, अंक - सितंबर 2020
[5] प्रबुद्ध महिमा (त्रैमासिक पत्रिका) : संपादक - ज्ञानेंद्र प्रसाद, पृष्ठ 1, अंक - मार्च 2009
[6] भार्गव आदर्श हिंदी शब्दकोश : संपादक - पंडित रामचंद पाठक, पृष्ठ 348, प्रकाशक - भार्गव बुक डिपो वाराणसी
[7] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 13, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, तीसरा संस्करण 2019
[8] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र :  डॉ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 42, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[9] दलित साहित्य - एक मूल्यांकन : प्रोफेसर चमनलाल, पृष्ठ 34
[10] दलित साहित्य - अनुभव संघर्ष एवं यथार्थ : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 59, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, तीसरा संस्करण 2020
[11] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृष्ठ 31, राधाकृष्ण प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[12] दलित साहित्य की अवधारणा : कँवल भारती, पृष्ठ 17, प्रकाशक - बोधिसत्व प्रकाशन रामपुर (उत्तर प्रदेश), प्रथम संस्करण 2006
[13] दलित साहित्य में बौद्ध धम्मदर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 19, नवभारत प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[14] दामोदर मोरे की कविताओं में आंबेडकरवादी दृष्टि : संपादक - प्रोफेसर कालीचरण स्नेही, पृष्ठ 64, प्रकाशक - आशा प्रकाशन कानपुर, प्रथम संस्करण 2020
[15] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डाॅ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 38, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[16] सामाजिक न्याय और दलित साहित्य : संपादक - डॉ० श्योराज सिंह 'बेचैन', पृष्ठ 354, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014
[17] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डॉ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 56, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[18] दलित विमर्श की राजनीति : संपादक - सर्वेश कुमार मौर्य, शिवदत्ता वावलकर, पृष्ठ 66-67, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[19] नई कविता नया मूल्यांकन : डॉ० प्रेमशंकर, पृष्ठ 115, प्रकाशक - अयन प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 1998
[20] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डॉ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 71, 72, 75, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[21] आंबेडकरवादी आलोचना के प्रतिमान : ईश कुमार गंगानिया, पृष्ठ 12-13, प्रकाशक - किताब घर नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006 
[22] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य : संपादक - पुन्नी सिंह, कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा, पृष्ठ 291, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2017
[23] दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र : डॉ० शरण कुमार लिंबाले, पृष्ठ 159, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[24] दलित धर्म की अवधारणा और बौद्ध धर्म : कँवल भारती, पृष्ठ 13, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[25] आंबेडकरवादी आलोचना के प्रतिमान : ईश कुमार गंगानिया, पृष्ठ 52-53, प्रकाशक - किताब घर नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006 
[26] दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 150, प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[27] अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज : ईश कुमार गंगानिया, पृष्ठ 99-100, प्रकाशक - अकादमिक प्रतिभा दिल्ली, संस्करण 2009
[28] नीले शब्दों की छाया में : डॉ० दामोदर मोरे, प्रस्तावना, प्रकाशक - सौरभ प्रकाशन गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), प्रथम संस्करण 2007
[29] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 283-84, संपादक - पुन्नी सिंह कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[30] दलित चेतना साहित्य : सं० रमणिका गुप्ता, पृष्ठ 4, प्रकाशक - नवलेखन प्रकाशन
[31] हिंदी उपन्यास : दलित विमर्श का पुराख्यान, हंस - जनवरी 2001, पृष्ठ 28
[32] दलित चेतना साहित्य : सं० रमणिका गुप्ता, पृष्ठ 100, प्रकाशक - नवलेखन प्रकाशन
[33] भारतीय दलित साहित्य परिप्रेक्ष्य, पृष्ठ 297, संपादक - पुन्नी सिंह कमला प्रसाद, राजेंद्र शर्मा
[34] वही, पृष्ठ 303
[35] आंबेडकरवादी आलोचना के प्रतिमान : ईश कुमार गंगानिया, पृष्ठ 13, प्रकाशक - किताब घर नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2006

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