आंबेडकरवादी चेतना और बौद्ध साहित्य


आंबेडकरवादी चेतना से बौद्ध साहित्य का कितना संबंध है ? यह स्पष्ट करने के लिए संपूर्ण बौद्ध साहित्य का यहाँ विवरण देना संभव नहीं है । बौद्ध साहित्य विश्व के समस्त धर्मग्रंथों की अपेक्षा विपुल मात्रा में है । डॉ० भदंत आनंद कौसल्यायन के शब्दों में, " त्रिपिटक का मतलब है - सुत्त पिटक, विनय पिटक तथा अभिधम्म पिटक । सुत्त पिटक में पाँच निकाय हैं - दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय तथा खुद्दक निकाय । अकेले खुद्दक निकाय में ही धम्मपद, सुत्तनिपात जैसी पंद्रह पुस्तकें हैं । विनय पिटक में भी महावग्ग, चुल्लवग्ग आदि पाँच ग्रंथों से कम नहीं है और अभिधम्म पिटक में तो पूरे साथ ग्रंथ हैं । इन सभी ग्रंथों में पृथक-पृथक अर्थ कथाएँ हैं, जो अपने-अपने मूलग्रंथ से प्रायः कई गुना हैं । " [1] 'मिलिंदपन्हो' और 'बुद्धचरित' (अश्वघोष) को भी बौद्ध साहित्य के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने संपूर्ण बौद्ध साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन करके मात्र एक ग्रंथ 'बुद्ध और उनका धम्म' लिखा । बौद्ध-आंबेडकरवादी लोगों की दृष्टि में यह एक ही ग्रंथ बुद्ध और उनके धम्म को समझने के लिए पर्याप्त है । साथ ही यह ग्रंथ आंबेडकरवादी चेतना को विकसित करने में भी सहायक है । आजकल तो यह भी कहा जाता है कि जिसने बाबा साहेब द्वारा लिखित 'बुद्ध और उनका धम्म' नामक ग्रंथ का अध्ययन नहीं किया, वह भली प्रकार आंबेडकरवाद को समझ नहीं सकता है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर ने तथागत बुद्ध के उपदेशों को मूल रूप में और युग सापेक्ष तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है । बुद्ध ने कौशल जनपद में स्थित केस पुत्तिय नगर के कालाम नामक क्षत्रियों से कहा था कि " किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह तुम्हारे सुनने में आई है । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह परंपरा से प्राप्त हुई है । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि बहुत से लोग उसके समर्थक हैं । किसी बात को केवल इसलिए मत मानो कि वह (धर्म) ग्रंथों में लिखी है । " [2] बुद्ध का धम्म 'सर्वजन हिताय' का दावा नहीं करता है, क्योंकि कोई भी सिद्धांत सभी मनुष्यों के लिए हितकर नहीं हो सकता है, लेकिन अधिक से अधिक मनुष्य उससे अवश्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं । डॉ० विमल कीर्ति जी ने लिखा है कि तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को आदेश देते हुए कहा था, " चरथ भिक्खवे चारिकं, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय अत्थाय हिताय सुखाय देव मनुस्सानं, देसेथ भिक्खवे धम्म आदि कल्याणं, मज्झं कल्याणं परियोसान कल्याणं...। " [3] अर्थात् " हे भिक्खुओं ! बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए, लोक पर करुणा करने के लिए, देवताओं (श्रेष्ठ मनुष्यों) और सामान्य मनुष्यों के लिए विचरण करो ! भिक्खुओं ! यह धम्म आरंभ में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है और अंत में भी कल्याणकारी है । " डॉ० भीमराव आंबेडकर जी पूर्णरूपेण बुद्ध के धम्म और दर्शन से प्रभावित थे । उन्होंने बुद्ध के उपदेशों को चित्त में ग्रहण किया था । अपने जीवन के अंतिम समय में 14 अक्टूबर सन् 1956 को बौद्ध धम्म की दीक्षा लेकर उन्होंने बौद्ध धम्म के प्रति अपनी निष्ठा को प्रमाणित किया था । डॉ० विमल कीर्ति जी ने लिखा है, " डॉ० आंबेडकर का जीवन और विचार बौद्ध धम्म और दर्शन से बहुत ही प्रभावित था, ऐसा यदि कहा जाए, तो गलत नहीं होगा । उनके साहित्य के अध्ययन से इस बात का पता चलता है कि डॉ० आंबेडकर को भगवान बुद्ध के जीवन में उनके धम्म और दर्शन ने, उनके सामाजिक विचारों ने जितना प्रेरित किया है, उतना अन्य किसी धर्म, दर्शन, विचार और व्यक्ति ने उनको प्रेरित नहीं किया है । " [4] 


बौद्ध साहित्य 

बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जी के द्वारा लिखित 'बुद्ध और उनका धम्म' नामक ग्रंथ से कुछ महत्वपूर्ण उद्धरण यहाँ अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं ।

परा-प्राकृतिक में विश्वास अधम्म है, इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने लिखा है : 

" जब भी कोई घटना घटती है, आदमी हमेशा यह जानना चाहता है कि यह घटना कैसे घटी ? इसका क्या कारण है ? कभी-कभी कारण और उससे फलित होने वाला कार्य एक-दूसरे के इतने समीप होते हैं कि कार्य के कारण का पता लगाना कठिन नहीं होता । लेकिन कभी-कभी कारण से कार्य इतना दूर होता है कि कार्य के कारण का पता लगाना कठिन हो जाता है । सरसरी दृष्टि से देखने से उस कार्य का कोई कारण प्रतीत ही नहीं होता । तब प्रश्न पैदा होता है कि अमुक घटना कैसे घटी ? बड़ा सरल सीधा-साधा उत्तर है कि घटना किसी परा-प्राकृतिक कारण से घटी, जिसे बहुधा 'करिश्मा' या 'प्रातिहार्य' भी कहा जाता है । बुद्ध के कुछ पूर्वजों ने इस प्रश्न के विविध उत्तर दिये हैं । पकुद कच्चान यह मानता ही नहीं था कि हर कार्य का कारण होता है । उसका मत था कि घटनाएँ बिना किसी कारण के ही घटती हैं । मक्खली गोशाल मानता था कि हर घटना का कारण होना चाहिए । लेकिन वह प्रचार करता था कि कारण आदमी की शक्ति से बाहर किसी 'प्रकृति', किसी 'अनिवार्य आवश्यकता', किसी 'अनुत्पन्न नियम' अथवा किसी 'भाग्य' में ही खोजना चाहिए । बुद्ध ने इस प्रकार के सिद्धांतों का खंडन किया । उनका कहना था कि इतना ही नहीं कि हर घटना का कोई न कोई कारण होता है, बल्कि वह कारण या तो कोई न कोई मानवी कारण होता है या प्राकृतिक होता है । काल (समय), प्रकृति, आवश्यकता आदि को किसी घटना का कारण मानने के खिलाफ उनका यही विरोध था । यही काल (समय), प्रकृति, आवश्यकता आदि ही किसी घटना के एकमात्र कारण हैं, तो हमारी अपनी स्थिति क्या रह जाती है ? तो क्या आदमी काल (समय), प्रकृति, अकस्मात-पन, ईश्वर, भाग्य, आवश्यकता आदि के हाथ की कठपुतली है ? यदि आदमी स्वतंत्र नहीं है, तो उसके अस्तित्व का ही क्या प्रयोजन है ? यदि आदमी परा-प्राकृतिक में विश्वास रखता है, तो उसकी बुद्धि का ही क्या प्रयोजन है ? यदि आदमी स्वतंत्र है, तो हर घटना का या तो कोई मानवी कारण होना चाहिए या प्राकृतिक कारण । कोई घटना ऐसी हो ही नहीं सकती, जिसका प्राकृतिक कारण हो । यह संभव है कि आदमी किसी घटना के वास्तविक कारण का पता न लगा सके, लेकिन यदि वह बुद्धिमान है, तो किसी न किसी दिन पता लगा ही लेगा । परा-प्राकृतिक-वाद का खंडन करने में भगवान बुद्ध के तीन हेतु थे । उनका पहला हेतु था कि आदमी बुद्धिवादी बने । उनका दूसरा हेतु था कि आदमी स्वतंत्रतापूर्वक सत्य की खोज कर सके । उनका तीसरा उद्देश्य था कि मिथ्या विश्वास के प्रधान कारण की जड़ काट दी जाए, क्योंकि इसी के परिणामस्वरूप आदमी की खोज करने की प्रवृति की हत्या हो जाती है । यही बुद्ध धम्म का 'हेतु-वाद' है । यह 'हेतु-वाद' बुद्ध धम्म का मुख्य सिद्धांत है । " [5]

हेतुवाद को 'कार्य-कारण सिद्धांत' और 'प्रतीत्यसमुत्पाद' भी कहते हैं । 'प्रतीत्यसमुत्पाद' तथागत बुद्ध के धम्म और दर्शन का आधारभूत सिद्धांत है । प्रतीत्यसमुत्पाद को पालि में 'पटिच्चसमुप्पादो' कहते हैं । विनयपिटक के महावग्ग के महाक्खन्धक की बोधिकथा के अनुसार, तथागत बुद्ध ने उरुवेला में निरंजरा नदी के तट पर बोधिवृक्ष के नीचे संबोधि प्राप्त किया और उन्होंने 'प्रतीत्यसमुत्पाद' को जाना । उन्होंने प्रतीत्यसमुत्पाद को अनुलोम और प्रतिलोम मनन किया । डॉ० विमल कीर्ति जी के शब्दों में, " उन्होंने यह मनन किया कि अविद्या के कारण संस्कार होता है, संस्कार के कारण विज्ञान होता है, विज्ञान के कारण नामरूप होता है । नामरूप के कारण सड़ायतन होता है, सड़ायतन के कारण स्पर्श होता है, स्पर्श के कारण वेदना होती है, वेदना के कारण तन्हा होती है, तन्हा के कारण भव होता है, भव के कारण जाति (जन्म) होती है, जाति (जन्म) के कारण जरा (बुढ़ापा) होता है, जरा के कारण मरण होता है, मरण के कारण शोक होता है और शोक के कारण चित्त विकार होता है । चित्त विकार के कारण चित्त खेद उत्पन्न होता है । इसी तरह इन दुखों की उत्पत्ति होती है और अविद्या के पूरी तरह नष्ट होने से संस्कार नष्ट होते हैं । संस्कारों के नष्ट होने से विज्ञान का नाश होता है, विज्ञान के नष्ट होने से नामरूप का नाश होता है । नामरूप के नष्ट होने से छः आयतनों का नाश होता है । छः आयतनों का नाश होने से स्पर्श का नाश होता है । स्पर्श का नाश होने से वेदना का नाश होता है, वेदना के नाश होने से तृष्णा का नाश होता है, तृष्णा के नष्ट होने से उपादान का नाश होता है, उपादान का नाश होने से भव का नाश होता है । भव का नाश होने से जाति का नाश होता है । जाति (जन्म) का नाश होने से जरा का नाश होता है, मरण का नाश होता है, शोक का नाश होता है, रोना-पीटना नष्ट होता है, दुःख का नाश होता है, चित्त विकार का नाश होता है और चित्त-खेद का नाश होता है । इस तरह संपूर्ण दुःख का नाश होता है । इस तरह भगवान बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद को अनुलोम और प्रतिलोम से जाना है । " [6]

ईश्वर में विश्वास अधम्म है, इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने लिखा है : 

" इस संसार को किसने पैदा किया ? यह एक सामान्य प्रश्न है । इस दुनिया को ईश्वर ने बनाया । यह इस प्रश्न का वैसा ही सामान्य उत्तर है । ब्राह्मण-योजना में इस सृष्टि-रचयिता के कई नाम हैं - प्रजापति, ईश्वर, ब्रह्मा या महाब्रह्मा । यदि यह पूछा जाए कि यह ईश्वर कौन है और यह कैसे अस्तित्व में आया, तो इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं । जो लोग ईश्वर में विश्वास रखते हैं, वे उसे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा सर्व-अंतर्यामी कहते हैं । ईश्वर में कुछ नैतिक गुण भी बताए जाते हैं । ईश्वर को शिव (भला) कहा जाता है । ईश्वर को न्यायी कहा जाता है और इश्वर को दयालु कहा जाता है । प्रश्न पैदा होता है कि क्या तथागत ने ईश्वर को सृष्टिकर्ता स्वीकार किया है ? उत्तर है, 'नहीं' । उन्होंने स्वीकार नहीं किया । इसके अनेक कारण हैं कि तथागत ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया । किसी ने कभी ईश्वर को नहीं देखा । लोग खाली उसकी चर्चा करते हैं । ईश्वर अज्ञात है, अदृश्य है । कोई यह सिद्ध नहीं कर सकता कि इस संसार को ईश्वर ने बनाया है । संसार का विकास हुआ है, निर्माण नहीं हुआ । इसलिए ईश्वर में विश्वास करने से कौन सा लाभ हो सकता है ? इससे कोई लाभ नहीं । बुद्ध ने कहा, ईश्वराश्रित धर्म कल्पनाश्रित है । इसलिए ईश्वराश्रित धर्म रखने का कोई उपयोग नहीं । इससे केवल मिथ्या विश्वास उत्पन्न होता है । बुद्ध ने इस प्रश्न को यहीं और यूँ ही नहीं छोड़ दिया । उन्होंने इस प्रश्न के नाना पहलुओं पर विचार किया है । जिन कारणों से भगवान बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व के सिद्धांत को अस्वीकार किया, वे अनेक हैं । गौतम का तर्क था कि जिससे हम सब की उत्पत्ति हुई है, ऐसा जो यह ब्रह्म है, यह स्थायी है, सतत रहने वाला है, नित्य है, अपरिवर्तन-शील है और वह अनंत काल तक ऐसा ही रहेगा । तो हम जिन्हें ब्रह्मा ने उत्पन्न किया है, जो ब्रह्म के यहाँ से यहाँ आये हैं, सभी अनित्य क्यों है ? परिवर्तनशील क्यों है ? अस्थिर क्यों है ? अल्पजीवी क्यों है ? मरणधर्मी क्यों हैं ? उनका अगला तर्क था, यदि ईश्वर सर्वशक्तिमान है और सृष्टि का पर्याप्त कारण है, तो फिर आदमी के दिल में कुछ करने की आवश्यकता भी नहीं रह सकती, न उसके मन में कुछ करने का कोई संकल्प ही पैदा हो सकता है । यदि यह ऐसा ही है, तो ब्रह्मा ने आदमी को पैदा ही क्यों किया ? उनका अगला तर्क था, यदि ईश्वर 'शिव' है, कल्याण स्वरूप है, तो आदमी हत्यारे, चोर, व्यभिचारी, झूठे, चुगलखोर, बकवासी, लोभी, द्वेषी और कुमार्गी क्यों हो जाते हैं ? क्या किसी अच्छे, भले, शिव स्वरूप ईश्वर के रहते हैं संभव है ? उनका अगला तर्क था यदि कोई ऐसा महान सृष्टि कर्ता है, जो न्यायी भी है और दयालु भी है, तो संसार में इतना अन्याय क्यों हो रहा है ? उनके इन प्रश्नों का उत्तर भारद्वाज और वासेट्ठ दोनों ब्राह्मण विद्वानों में से कोई नहीं दे सका । " [7]

आगे चलकर इसी 'अनित्यता' के सिद्धांत ने 'शून्यवाद' का रूप ग्रहण कर लिया । 'शून्यवाद' के संबंध में अधिकांश लोगों को भ्रम है । उस भ्रम का निवारण करते हुए डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने लिखा है, " बौद्ध 'शून्यता' का मतलब सोलह आने निषेध नहीं है । इसका मतलब इतना ही है कि संसार में जो कुछ है, वह प्रतिक्षण बदल रहा है । बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि 'शून्यता' के ही कारण सभी कुछ संभव है । इसके बिना संसार में कुछ भी संभव नहीं रहेगा । सभी दूसरी बातें चीजों की अनित्यता के स्वभाव पर ही निर्भर करती हैं । यदि चीजें परिवर्तनशील न हों, बल्कि स्थायी और अपरिवर्तनशील हों, तब एक रूप से किसी दूसरे रूप में जीवन का सारा विकास ही रुक जाएगा । किसी में कुछ भी परिवर्तन न हो सकेगा । किसी की कुछ भी उन्नति न हो सकेगी । यदि आदमी मर जाते या उनमें परिवर्तन आ जाता और फिर वे सब उसी अवस्था में अपरिवर्तित स्थिति में रहते, तो क्या हालत होती ? मानव-जाति की प्रगति सर्वथा रुक जाती । यदि 'शून्य' का मतलब 'अभाव' माना जाए, तो कई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं । 'शून्य' उस बिंदु के समान है, जो कि एक पदार्थ है, किंतु जिसकी कोई लंबाई-चौड़ाई नहीं । भगवान बुद्ध का यह उपदेश था कि सभी चीजें अनित्य हैं । ... इस सिद्धांत से हमें जो शिक्षा मिलती है वह सरल है । किसी वस्तु के प्रति आसक्त न होओ । यह अनासक्ति - संपत्ति के प्रति अनासक्ति, संबंधियों, मित्रों तथा परिचितों के प्रति अनासक्ति का ही अभ्यास करने के लिए यह कहा गया है कि सभी चीजें अनित्य हैं । " [8] अतः स्पष्ट है कि 'शून्यवाद' का तात्पर्य भावशून्य होने की अवस्था से है । भावशून्य होना अर्थात् अनासक्त होना ।

आत्मा में विश्वास अधम्म है, इस बात का स्पष्टीकरण करते हुए डॉ० भीमराव आंबेडकर जी ने लिखा है : 

" क्या भगवान बुद्ध 'आत्मा' में विश्वास रखते थे ? नहीं, एकदम नहीं । 'आत्मा' के संबंध में उनका मत 'अनात्मवाद' कहलाता है । यदि एक अशरीरी 'आत्मा' को स्वीकार कर लिया जाए, तो उसके संबंध में बहुत से प्रश्न पैदा होते हैं । 'आत्मा' क्या है ? 'आत्मा' का आगमन कहाँ से हुआ ? शरीर के मरने पर उसका क्या होता है ? यह कहाँ जाती है ? शरीर के न रहने पर यह 'परलोक' में कैसे रहती है ? वहाँ यह कब तक रहती है ? जो लोग 'आत्मा' के अस्तित्व के सिद्धांत के समर्थक थे, भगवान बुद्ध ने उनसे ऐसे प्रश्नों का उत्तर चाहा था । पहले तो उन्होंने अपने जिरह करने के सामान्य क्रम से यह दिखाना चाहा कि 'आत्मा' का विचार कितना गोल-मटोल है । जो 'आत्मा' के अस्तित्व में विश्वास रखते थे, उनसे भगवान बुद्ध ने जानना चाहा कि 'आत्मा' का आकार कितना बड़ा या छोटा है ? 'आत्मा' की शक्ल कैसी है ? ... कहा जाता है कि भगवान बुद्ध ने 'आत्मा' के बारे में अपना कोई निश्चित मत व्यक्त नहीं किया । कुछ दूसरे लोगों का कहना है कि उन्होंने 'आत्मा' के सिद्धांत का खंडन नहीं किया । कुछ औरों ने कहा है कि भगवान बुद्ध हमेशा इस प्रश्न को बचा जाते थे । ये सभी मत एकदम गलत हैं, क्योंकि महाली को भगवान बुद्ध ने स्पष्ट रूप से निश्चित शब्दों में यह कहा था कि 'आत्मा' नाम का कोई पदार्थ नहीं है । इसीलिए आत्मा के संबंध में तथागत का मत 'अनात्मवाद' कहलाता है । " [9]


उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि तथागत बुद्ध, बौद्ध धम्म और बौद्ध साहित्य के रूप में डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा लिखित 'बुद्ध और उनका धम्म' से आंबेडकरवादी चेतना का घनिष्ठ संबंध है ।


सिद्ध साहित्य 

हिंदी साहित्य के इतिहास में 'बौद्ध साहित्य' का नहीं, बल्कि 'सिद्ध साहित्य' का उल्लेख किया जाता है । सिद्ध कौन थे ? इसके संदर्भ में डॉ० लाल साहब सिंह जी ने लिखा है, " बौद्ध धर्म अपने अंतिम दिनों में मंत्र-तंत्र साधना की चपेट में आ गया था । वह वज्रयान और महायान दो संप्रदायों में विभक्त हो गया । वज्रयान में सिद्धांत पक्ष की प्रधानता रही और महायान केवल व्यावहारिक पक्ष को ही लेकर चलता रहा । वज्र शून्यता का भौतिक प्रतीक है । ये तांत्रिक योगी सिद्ध कहे जाते थे । " [2] इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है, " बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भागों में बहुत दिनों से चला आ रहा था । इन बौद्ध तांत्रिकों के बीच वामाचार अपनी चरम सीमा को पहुँचा । ये बिहार से लेकर आसाम तक फैले थे और सिद्ध कहलाते थे । 'चौरासी सिद्ध' इन्हीं में हुये हैं, जिनका परंपरागत स्मरण जनता को अब तक है । इन तांत्रिक योगियों को लोग अलौकिक शक्तिसंपन्न समझते थे । ये अपनी सिद्धियों और विभूतियों के लिए प्रसिद्ध थे । " [3] डॉ० धर्मवीर भारती के शब्दों में, " ये चौरासी सिद्ध जिस वज्रयान संप्रदाय के अनुयायी थे, वह कोई अलग संप्रदाय न होकर बौद्ध धर्म की महायान शाखा का ही विकसित रूप था । इसके कई प्रमाण मिलते हैं । सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि सर्वमान्य वज्रयानी सिद्धांत ग्रंथों में कई स्थानों पर महायान का उल्लेख है । " [4]
चौरासी सिद्धों के नाम हैं - लूहिपा, लीलापा, विरूपा, डोंभिपा, शवरीपा, सरहपा, कंकालीपा, मीनपा, गोरक्षपा, चौरंगीपा, वीणापा, शांतिपा, तंतिपा, चमरिपा, खड्गपा, नागार्जुन, कण्हपा, कर्णरिपा, थगनपा, नारोपा, शीलपा, तिलोपा, छत्रपा, भद्रपा, दोखंधिपा, अजागिपा, कालपा, धोंभीपा, कंकणपा, कमरिपा, डेंगिपा, भदेपा, तंधेपा, कुक्कुरिपा, कुचपा, धर्मपा, महीपा, अचिंतिपा, भल्लहपा, नलिनपा, भूसुकुपा, इंद्रभूति, मेकोपा, कुठालिपा, कमरिपा, जालंधरपा, राहुलपा, धर्वरिपा, धोकरिपा, मेदिनीपा, पंकजपा, घंटापा, जोगीपा, चेलुकपा, गुंडरिपा, निर्गुणपा, जयानंत, चपंकपा, भिखनपा, भलिपा, कुमारिपा, चँवरिपा, मणिभद्रपा, कनखलापा, कनकलपा, कंतालीपा, धहुरिपा, उधरिपा, कपालपा, किलपा सागरपा, सर्वभक्षपा, नागबोधिपा, दारिकपा, पुतलिपा, पनहपा, कोकालिपा, अनंगपा, लक्ष्मीकरा, समुदपा, भलिपा । [5] महायान के अंतर्गत किस प्रकार सहजयान का उद्भव और विकास हुआ ? इसके संदर्भ में डॉ० धर्मवीर भारती जी ने लिखा है, " जहाँ तक आचार का प्रश्न है, महायान स्वतः हीनयान से अधिक उदार है और उतने कठोर 'विनय' और 'संयम' को स्वीकार नहीं करता । इसलिए महायान के विभिन्न नामों में से चीनी बौद्ध धर्म में एक नाम 'सहजयान' और हीनयान के लिए कठिनयान भी प्रचलित है । इसमें भी कोई संदेह नहीं कि इनका झुकाव सहज स्वाभाविक की ओर भी था, इसीलिए इन्होंने वज्रकाया को सहजकाया अथवा स्वभावकाया कहा, किंतु चूँकि प्रज्ञोपाय साधना ही इनकी प्रमुख साधना थी, अतः इन्होंने 'सहज' का अर्थ लिया था 'जो सहगमन से उद्भूत हो' और चूँकि बिना उपाय के प्रज्ञा और बिना प्रज्ञा के उपाय बंधन का कारण है, अतः जो इन दोनों के अद्वय अनुत्तर को सिद्ध कर सामरस्य का अनुभव करता है और 'महासुख' की प्राप्ति करता है, वही 'सहज सिद्ध' है । इस विषय में एक विचारणीय प्रश्न यह है कि इस मत को सहजयान नाम कब और कैसे दिया गया ? जहाँ तक मैंने सामग्री देखी है, वज्रयान, मंत्रयान, तंत्रयान आदि नामों का तो बौद्ध तांत्रिक ग्रंथों में प्रचुर प्रयोग है, किंतु एक विशेष संप्रदाय के रूप में 'सहजयान' नाम का प्रयोग नहीं मिलता । यदि हम चीनी साक्ष्य पर विचार करें, तो वहाँ भी यह नाम महायान के लिए हीनयान की साधना पद्धति  की कठोरता का विरोध दिखाने के लिए प्रयुक्त हुआ है, वज्रयान के बाद किसी नवविकसित साधना पद्धति के लिए नहीं । प्रतीत यह होता है कि विद्वानों ने सिद्धों के साहित्य में सहज का इतना अधिक प्रयोग देखकर उसे अन्य 'यानों' की तुलना में 'सहजयान' कहना उचित समझा । " [6] पंडित राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है, " आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौद्ध-संप्रदाय वज्रयान गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे । बुद्ध की सीधी-साधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़ंत हजारों लोकोत्तर कथाओं पर विश्वास करते थे । बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी भीतर से गुह्यसमाजी थे । बड़े-बड़े विद्वान और प्रतिभाशाली कवि आधे पागल हो, चौरासी सिद्धों में दाखिल हो, संध्या भाषा में निर्गुण-गान करते थे । आठवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इंद्रभूति और उसके गुरु सिद्ध अनंगवज्र तथा दूसरे पंडित-सिद्ध स्त्रियों को ही मुक्तिदात्री 'प्रज्ञा' और पुरुषों को ही मुक्ति का 'उपाय' और शराब को ही अमृत सिद्ध करने में अपनी पंडिताई और सिद्धाई खर्च कर रहे थे । आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक का बौद्ध धर्म वस्तुतः वज्रयान या भैरवीचक्र का धर्म था । महायान ने ही धारणियों और पूजाओं से 'निर्वाण' को सुगम कर दिया था, वज्रयान ने तो उसे एकदम सहज कर दिया; इसीलिए आगे चलकर वज्रयान 'सहजयान' भी कहा जाने लगा । " [7] ध्यातव्य है कि तथागत बुद्ध ने श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवनाराम में सारिपुत्र को बताया था कि 'अष्टांगिक मार्ग' का ही दूसरा नाम 'निर्वाण' है, जिसे 'मध्यम मार्ग' के नाम से भी जाना जाता है । उन्होंने कहा था कि निर्वाण का मतलब है, " राग-द्वेष से मुक्ति । " राध स्थविर ने जब उनसे पूछा था कि निर्वाण का उद्देश्य क्या है ?, तो उन्होंने कहा था कि " श्रेष्ठ जीवन निर्वाणाश्रित है । निर्वाण ही लक्ष्य है । निर्वाण ही उद्देश्य है । "

सिद्ध कवियों में सर्वप्रथम सरहपा (सरहपाद) माने जाते हैं, जिनका समय आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर नवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक माना जाता है । भोटिया भाषा में सिद्धाचार्य सरहपा के बत्तीस ग्रंथों का अनुवाद खोज में मिला है । वियोगी हरि जी के कथनानुसार, " वज्रयान के परवर्ती सिद्धों की बानी में जो प्रायः अति स्वच्छंदाचार दिखाई देता है, वह सरहपा की बानी में लगभग नहीं के जैसा है । " उदाहरण :

जइ णग्गा विअ होइ मुक्ति ता सुणह सियालह ।
लोमु पाड़णें अत्थि सिद्धि ता जुवइ णिअम्वह ।। [7]

अर्थात् ' यदि नग्न हो जाने से मुक्ति मिलती हो, तो सियार और कुत्तों को पहले ही मुक्त हो जाना चाहिए तथा केश-लुंचन से मुक्ति होती हो, तो नितंबों को मुक्ति मिलनी चाहिए, जिनका लोमोत्पाटन होता रहता है । '

आइ ण अन्त ण मज्झ णउ णउ भव णउ णिब्वाण ।
एहु सो परम महासुह णउ पर णउ अप्पाण ।। [8]

अर्थात् ' सहज शून्यावस्था का न तो आदि है, न अंत और न मध्य । न वहाँ जन्म है, न निर्वाण । यह परम महासुख है । न इसमें पराये का मान रहता है, न अपना । '

रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, " सिद्ध कण्हपा कहते हैं कि 'जब तक अपनी गृहिणी का उपभोग न करेगा, तब तक पंचवर्ण की स्त्रियों के साथ विहार क्या करेगा ? वज्रयान में महासुह (महासुख) वह दशा बतलाई गई है, जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है कि जिस प्रकार नमक पानी में । इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिए 'युगनद्ध' (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई । कन्या का यह वचन कि 'जिमि लोण बिलिज्जइ पाणि एहि तिमि घरणी लइ चित्त' इसी सिद्धांत का द्योतक है । कहने की आवश्यकता नहीं कि कौल, कापालिक आदि इन्हीं वज्रयानियों से निकले । कैसा ही शुद्ध और सात्विक धर्म हो, 'गुह्य' और 'रहस्य' के प्रवेश से वह किस प्रकार विकृत और पाखंडपूर्ण हो जाता है, वज्रयान इसका प्रमाण है । " [9] डॉ० धर्मवीर भारती जी ने लिखा है, " श्रृंगार के संभोग तथा विप्रलंभ दोनों पक्षों का चित्रण चर्यापदों में मिलता है । संभोग श्रृंगार के अधिकतर स्थल नायिकारब्ध हैं और नायक ही प्रणयप्रार्थी के रूप में चित्रित किया गया है । केवल एक स्थल (चर्यापद 2) में नायक का कोई उल्लेख नहीं है । नायिका कामपीड़ित होकर जागती है और अभिसार के लिए जाती है । अन्य पदों में नायक ही नायिका के प्रति आसक्त है और उससे प्रणयदान माँगता है । चौथे चर्यापद में गुण्डरीपा योगिनी से आलिंगन की भिक्षा माँगते हुए उसके मुख का चुंबन कर कमल-रस पीने की आकांक्षा प्रकट करते हैं । इसी प्रकार दसवें चर्यापद में कपाली के रूप में काण्हपा डोम्बी से समागम करने की कामना करते हैं और उसके मन में कामना जाग्रत करने की इच्छा से अस्थिमालाएँ धारण करते हैं । इसी प्रकार काण्हपा ही वर रूप में डोम्बी को वरण करने के लिए प्रस्थान करते हैं । शबर भी अपने को प्रेमोन्मत्त नायक के रूप में चित्रित करते हैं और शबरी के मिलन के लिए पर्वतारोहण करते हैं । अंत में पूर्ण संभोग का चित्रण करते हुए शबरपा शून्य बालिका या नैरात्मा बालिका को कण्ठ से लगाकर सुहाग-शयन का वर्णन करते हैं । " [10]


नाथ साहित्य 

डाॅ० एन० सिंह ने लिखा है, " अधिकांश सिद्ध और नाथ मूलतः बौद्ध थे । इनका विरोध हिंदू वर्चस्ववादियों से मूलतः साधना पद्धति और उनके विचार-आचार की अतिरेक वाली उस पद्धति से था, जिसने मनुष्यों को अस्पृश्य बना दिया था और अपने मंदिरों में प्रवेश तथा धर्मग्रंथों के पठन-पाठन से भी वंचित कर दिया था । " [1]

डाॅ० लाल साहब सिंह ने लिखा है, " महायान से वज्रयान, वज्रयान से सहजयान और सहजयान से नाथ-संप्रदाय का विकास हुआ । जीवन को कर्मकांड के जाल से मुक्त कर सहज रूप की ओर ले जाने का श्रेय नाथों को ही जाता है । इस प्रकार यह संप्रदाय सिद्ध संप्रदाय का विकसित एवं पल्लवित रूप है । सिद्धों की विचारधारा को लेकर इस संप्रदाय ने उसमें नवीन विचारों की प्राण-प्रतिष्ठा की । " [2]

रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, " गोरखनाथ के नाथपंथ का मूल भी बौद्धों की यही वज्रयान शाखा है । चौरासी सिद्धों में गोरखनाथ (गोरक्षपा) भी गिन लिये गये हैं । पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया । योगियों की इस हिंदू शाखा ने वज्रयानियों के अश्लील और वीभत्स विधानों से अपने को अलग रखा, यद्यपि शिव शक्ति की भावना के कारण कुछ श्रृंगारमयी वाणी भी नाथपंथ के किसी-किसी ग्रंथ (जैसे शक्ति संगम के तंत्र) में मिलती है । गोरख ने पतंजलि के उच्च लक्ष्य, ईश्वर प्राप्ति को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया । वज्रयानी सिद्धों का लीला क्षेत्र भारत का पूर्वी भाग था । गोरख ने अपने ग्रंथ का प्रचार देश के पश्चिमी भागों में - राजपूताने और पंजाब में - किया । " [3]


संदर्भ :-

[1] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, प्राक्कथन, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
[2] वही, पृष्ठ 169
[3] दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 82, प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[4] वही, पृष्ठ 109
[5] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 152-153, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया, नागपुर, संस्करण 2011
[6] दलित साहित्य में बौद्ध धम्म दर्शन और चिंतन का प्रभाव : डॉ० विमल कीर्ति, पृष्ठ 88, प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[7] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 153-154-155, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसायटी आफ इंडिया, नागपुर, संस्करण 2011
[8] वही, पृष्ठ 149
[9] वही, पृष्ठ 158-159-160
[10] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ० लाल साहब सिंह, पृष्ठ 13, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पंचम संस्करण 2011
[11] हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 5, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 2010
[12] सिद्ध साहित्य : डॉ० धर्मवीर भारती, पृष्ठ 99, प्रकाशक - किताब घर इलाहाबाद, संस्करण 1955
[13] हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 6, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 2010
[14] सिद्ध साहित्य : डॉ० धर्मवीर भारती, पृष्ठ 149, प्रकाशक - किताब घर इलाहाबाद, संस्करण 1955
[15] बुद्ध-चर्य्या : पं० राहुल सांकृत्यायन, पृष्ठ 10, प्रकाशक - महाबोधि सभा वाराणसी (उत्तर प्रदेश), संस्करण 1952
[16] संत सुधा सार : संपादक - वियोगी हरि, पृष्ठ 24, प्रकाशक - सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2004
[17] वही 
[18] हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 8, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 2010
[19] सिद्ध साहित्य : डॉ० धर्मवीर भारती, पृष्ठ 249, प्रकाशक - किताब घर इलाहाबाद, संस्करण 1955

[1] दलित साहित्य के प्रतिमान : डॉ० एन० सिंह, पृष्ठ 83, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012
[2] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ० लाल साहब सिंह, पृष्ठ 14-15, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पंचम संस्करण 2011
[3] हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 8, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, पंचम संस्करण 2010



एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने