नारी विमर्श और सुशीला टाॅकभौरे की कविता

भारत में नारी-विमर्श कब आरंभ हुआ ? इसका सीधा और सरल उत्तर है - उन्नीसवीं सदी में । लेकिन यदि यह पूछा जाए कि नारी-विमर्श क्यों आरंभ हुआ ? तो इसका उत्तर टेढ़ा है और कठिन भी है । क्योंकि इस प्रश्न के साथ यह भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि उन्नीसवीं सदी से पहले नारी-विमर्श क्यों नहीं आरंभ हुआ ? क्या उससे पहले की नारियाँ शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल थीं, जिसके कारण वे अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष नहीं कर सकीं ? अथवा उससे पहले नारियों के साथ अन्याय और अत्याचार होता ही नहीं था ? इसका स्पष्ट उत्तर नकारात्मक है । यहाँ भारतीय समाज के इतिहास का वर्णन करना प्रासंगिक नहीं है, इसलिए केवल इतना ही कहना पर्याप्त है कि उससे पहले भी नारियों के साथ अन्याय और अत्याचार होते रहते थे । उन्नीसवीं सदी से पहले भी नारियाँ मानसिक और शारीरिक रूप से सबल थीं, लेकिन उन्होंने पुरुष प्रधानता के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई, क्योंकि राजनैतिक व्यवस्था उनके अनुकूल नहीं थी । उस समय की राजनीति पर धर्म का प्रभाव था । कोई भी राजा धर्म के विरुद्ध कोई राज-नियम बनाने का साहस नहीं करता था । लेकिन जब भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन प्रभावी हुआ, तब समाज-सुधार के अनेक कार्यों में समाज सुधारकों को सफलता प्राप्त हुई । 



नारी विमर्श : संक्षिप्त इतिहास

राममोहन राय (22 मई 1772 - 27 सितंबर 1833) ने सती प्रथा, बाल विवाह और बहु विवाह का खुलकर विरोध किया था । उन्होंने 20 अगस्त, 1828 ई० को 'ब्रह्म समाज' नामक संस्था की स्थापना की । उनके प्रयास से और विलियम बैंटिंक के आदेशानुसार सन् 1829 ई० में वैधानिक रूप से सती प्रथा पर रोक लगाई गई । इतिहासकार विपिनचंद्र ने लिखा है, " विलियम बैंटिंक ने घोषित किया कि पति की चिता पर विधवा के जल मरने की कार्रवाई में जो भी सहयोगी होंगे, उन्हें अपराधी माना जाएगा । इससे पहले ब्रिटिश शासकों ने सती प्रथा को रोकने के प्रश्न पर उदासीन रुख अपनाया था । उन्हें डर था कि सती प्रथा के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यवाही करने से रूढ़िवादी भारतीय नाराज हो जाएँगे । जब राममोहन राय और अन्य प्रबुद्ध भारतीयों तथा धर्मप्रचारकों ने इस अमानवीय प्रथा को खत्म करने के लगातार आंदोलन किये, तब जाकर सरकार सती प्रथा को रोकने के लोकोपकारी कदम उठाने के लिए सहमत हुई । भूतकाल में अकबर और औरंगजेब, पेशवा और जयपुर के राजा जयसिंह ने इस कुप्रथा को दबाने के लिए प्रयास किये, लेकिन वे असफल रहे । कुछ भी हो, इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित करने के लिए बैंटिंक प्रशंसा का पात्र है । इस कुप्रथा के कारण 1815 और 1818 के बीच केवल बंगाल में ही 800 महिलाओं ने अपनी जान गँवाई थी । बैंटिंक इसलिए भी प्रशंसा का पात्र है कि उसने सती प्रथा के रूढ़िवादी समर्थकों के विरोध के सामने झुकने से इनकार कर दिया । " [1] राममोहन राय के सामाजिक आंदोलन की आलोचना करते हुए कँवल भारती ने लिखा है, " राममोहन राय के बारे में शायद यह जानकारी कम लोगों को हो कि उन पर ईसाई और इस्लाम धर्मों का काफी प्रभाव था । इन दोनों धर्मों के मिशनरी धर्मांतरण आंदोलन चला रहे थे । राममोहन राय हिंदू समाज में इसलिए सुधार चाहते थे, ताकि इस्लाम और ईसाई धर्मांतरण आंदोलन हिंदू धर्म के अस्तित्व के लिए संकट न बन जाए । इसलिए वास्तविकता यह है कि राय का आंदोलन हिंदू धर्म की सुरक्षा का आंदोलन था, किसी नये राष्ट्र के निर्माण का आंदोलन नहीं था । " [2] भारती जी के इस कथन से और भारत के इतिहास का अध्ययन करने से इतना तो स्पष्ट है कि राममोहन राय के आंदोलन से हिंदू धर्म की सुरक्षा हुई थी, क्योंकि सती प्रथा हिंदुओं के एक विशेष वर्ग में ही प्रचलित थी । इसलिए यह कहा जा सकता है कि उनका नारी-मुक्ति-आंदोलन संपूर्ण भारतीय समाज की महिलाओं के लिए नहीं था, बल्कि केवल उनके ही वर्ग की महिलाओं के लिए था । भारत में नारी-मुक्ति का वास्तविक राष्ट्रीय आंदोलन महामना जोतिराव फुले (11 अप्रैल 1827 - 28 नवम्बर 1890) ने किया था । वे एक समाज सुधारक, विचारक, लेखक, दार्शनिक और क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे । उन्होंने अपनी जीवनसंगिनी सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 - 10 मार्च 1897) को स्वयं पढ़ाया, जो भारत की प्रथम महिला शिक्षिका के रूप में जानी जाती हैं । फुले दंपति ने स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए 15 मई सन् 1848 ई० को एक स्कूल खोला । उनका आंदोलन हर वर्ग की महिलाओं के लिए था, जिसका किसी जाति अथवा धर्म से कोई संबंध नहीं था । दुर्गाप्रसाद शुक्ल ने लिखा है, " ज्योतिराव फुले के नारी-शिक्षा-आंदोलन का सभी पर प्रभाव पड़ा था । अनेक अंग्रेज अधिकारी उनके प्रशंसक भी हो गये थे । उनमें एक थे, पूना संस्कृत कॉलेज के मेजर कैंडी । उन दिनों बंबई प्रांत में बोर्ड आफ एजुकेशन के प्रेसिडेंट थे - एटस्किन पैरी । वे भी ज्योतिराव से प्रभावित थे । उनके कार्यों से प्रसन्न थे । सर पैरी कहते थे - जो कार्य सरकार को करना था, जिसे करने के लिए सरकार संकोच कर रही थी, उसे ज्योतिराव ने पूरा कर दिखाया । बंबई के जुडिशियल कमिश्नर तो स्थान-स्थान पर ज्योतिराव की सराहना करते हुए नहीं थकते थे । सर पैरी ने बंबई प्रांत की सरकार को एक सुझाव दिया । ज्योतिराव ने शिक्षा, विशेषकर स्त्री-शिक्षा की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है । उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया जाना चाहिए । " [3] ताराबाई शिंदे (1850 -1910) ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले के सामाजिक आंदोलन में उनकी सक्रिय सहयोगी थीं । वे ज्योतिराव फुले द्वारा स्थापित ' सत्य शोधक समाज ' (1873) नामक संगठन की संस्थापक सदस्य थीं । कुछ लोग ताराबाई शिंदे को भारतीय परिप्रेक्ष्य में नारीवाद की जननी कहते हैं, जबकि यह कहना सर्वथा अनुचित है, क्योंकि ताराबाई शिंदे का नारी-चिंतन केवल विधवा नारियों के शारीरिक व मानसिक सुख पर केंद्रित था । इसका कारण यह था कि ताराबाई का विवाह कम उम्र में ही हो गया था । कुछ ही दिनों बाद उनके पति का देहांत हो गया । वह एक निःसंतान विधवा थीं । उनका दूसरा विवाह नहीं हो पाया, क्योंकि ब्राह्मणों के प्रभाव से मराठों में भी विधवा विवाह का प्रचलन नहीं था । ताराबाई शिंदे ने सन् 1882 ई० में ' स्त्री पुरुष तुलना ' शीर्षक से मराठी में एक आलेख लिखा । उनका पश्न था कि " पत्नी के मरते ही दूसरा विवाह करने की आज़ादी यदि पुरुषों को है, तो फिर कौन सी ताकत है, जो विधवाओं को पुनर्विवाह करने से रोकती है ? " ताराबाई शिंदे का कहना था कि विधवाओं का पुनर्विवाह न होने के कारण वे व्यभिचार की ओर अग्रसर होती हैं । इस संदर्भ में अपनी पुस्तक 'गुलामगिरी' में ज्योतिराव फुले ने लिखा है, " ब्राह्मणों की अनाथ, निराधार विधवा स्त्रियों को दूसरा विवाह करने की मनाही होने की वजह से उन ब्राह्मण स्त्रियों को व्यभिचार करने के लिए मजबूर होना पड़ता है । इसका परिणाम कभी-कभी यह भी होता है कि गर्भपात और भ्रूणहत्या (बालहत्या) भी करने के लिए मजबूर होना पड़ता है । " [4] स्पष्ट है कि ज्योतिराव फुले का नारी विषयक चिंतन राममोहन राय और ताराबाई शिंदे सहित उनके समकालीन अन्य समाज सुधारकों की अपेक्षा अधिक व्यापक था । सम्यक रूप से नारी-विमर्श का आरंभ करने वाले व्यक्ति ज्योतिराव फुले थे । उन्हें ही नारी-विमर्श का जनक माना जा सकता है ।

बीसवीं सदी में नारी विमर्श धीरे-धीरे नारी-आंदोलन का रूप लेने लगा । परिणामस्वरूप जगह-जगह महिला सम्मेलन भी आयोजित होने लगे । अखिल भारतीय दलित वर्ग महिला सम्मेलन का दूसरा सत्र 20 जुलाई 1942 को मोहन पार्क, नागपुर में विशेष रूप से तैयार किए गये पंडाल में पचहत्तर हजार से अधिक श्रोताओं की उपस्थिति में संपन्न हुआ था । मंच पर बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर सहित प्रतिष्ठित नेतागण विराजमान थे । सम्मेलन में सुलोचनाबाई डोंगरे, प्रभावती रामटैक, राधाबाई कांबले, मंजुला कानफाडे आदि ने बारी-बारी से कुल आठ संकल्प प्रस्तुत किया, जिनमें शामिल संकल्प इस प्रकार थे - महिलाओं द्वारा पति को तलाक दिए जाने के अधिकार को कानून द्वारा मान्यता प्रदान करना, बहुविवाह की कुरीति को रोकने के लिए कानून में संशोधन करना, मिलों, बीड़ी फैक्ट्रियों, नगरपालिकाओं और रेलवे में महिला कामगारों को एक वर्ष में इक्कीस दिनों का आकस्मिक अवकाश प्रदान करना, प्रत्येक प्रांत में सरकारी खर्च से कम से कम पचास दलित वर्ग की छात्राओं का छात्रावास चलाना, मिलों में महिला पर्यवेक्षकों को नियुक्त करना, केंद्रीय एवं प्रांतीय विधायिकाओं में महिलाओं के लिए स्थान आरक्षित करना आदि । संकल्पों का अनुमोदन जयबाई चौधरी, लतिका गजभिए, इंदिराबाई पाटिल, सुलोचना नाइक, चंद्रभागा पाटिल, कौशल्या नंदेश्वर आदि ने किया । महिलाओं के इस सम्मेलन को संबोधित करते हुए डॉ० आंबेडकर ने कहा, " मैं महिलाओं के संगठन में विश्वास रखता हूँ । मैं जानता हूँ कि यदि उनकी समझ में आ जाए, तो वे समाज की स्थिति को सुधारने के लिए बहुत कुछ कर सकती हैं । सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए उन्होंने महान सेवाएँ प्रस्तुत की हैं । मैं इसको अपने अनुभवों के आधार पर परखता हूँ । जबसे मैंने दलित वर्गों के बीच में कार्य करना प्रारंभ किया है, मैंने इसको हमेशा एक मुद्दा बनाया है कि पुरुषों के साथ महिलाएँ भी कार्य करें । इसीलिए आप देखते होंगे कि हमारे सम्मेलन हमेशा से मिश्रित सम्मेलन होते हैं । मैं किसी समुदाय की प्रगति का मूल्यांकन महिलाओं द्वारा की गई प्रगति से करता हूँ, और जब मैं ऐसी सभा को देखता हूँ, तो मुझे विश्वास और प्रसन्नता दोनों ही होती है कि हमने प्रगति की है । " [5] 26 दिसंबर 1950 को डॉ० भीमराव आंबेडकर ने अनुसूचित जाति फेडरेशन की बेलगाम जिला शाखा के तत्वाधान में पचास हजार लोगों की एक सभा को संबोधित करते हुए हिंदू कोड बिल के संदर्भ में कहा था, " मैंने इस बिल का प्रारूप स्मृतियों के निर्देशों के अनुसार तैयार किया था । स्मृतियाँ स्त्रियों को अनेक अधिकार प्रदान करती हैं । इस बिल का एकमात्र उद्देश्य स्त्रियों की सामाजिक प्रगति में कानून की बाधा को दूर करना था । स्वाधीनता धन पर निर्भर है और स्त्री को अपनी आजादी को कायम रखने के लिए अपने धन और अधिकारों को विशेष रूप से सुरक्षित रखना चाहिए । " [6] 

नारी-विमर्श के संपूर्ण इतिहास का अध्ययन करने से जो निष्कर्ष प्राप्त होते हैं, उसके आधार पर नारी-विमर्श को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है : (1) नारी-मुक्ति (2) नारी-जागृति (3) नारी-प्रगति । नारी-मुक्ति के अंतर्गत शोषण और कुप्रथा से नारियों की मुक्ति का विमर्श समाहित है । नारी जागृति के अंतर्गत उन्हें शिक्षित करना तथा वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण करना सम्मिलित है । नारी प्रगति के अंतर्गत नारियों का नौकरी करना तथा संपत्ति रखने का अधिकार प्राप्त करना समाविष्ट है । नारी विमर्श का आधार नारी-स्वतंत्रता का भाव है, जो स्त्री-पुरुष-समानता की चेतना का पूरक है । जो लोग नारी-विमर्श की बजाय 'नारीवाद' शब्द का प्रयोग करके नारी-सत्ता की बात करते हैं, वे समाज को गलत दिशा प्रदान कर रहे हैं । साथ ही, वे पुरुषों के साथ अन्याय करने हेतु स्त्रियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं । इस प्रकार की मानसिकता से पुरुष वर्ग का अहित तो होगा ही, स्त्री वर्ग का भी हित नहीं हो सकता, क्योंकि इससे स्त्री और पुरुष के बीच मानसिक दुराव उत्पन्न होगा । वर्चस्व किसी का भी ठीक नहीं है - चाहे वह पुरुष हो अथवा स्त्री । स्त्री-सत्ता की बात करना तो हद दर्जे की नासमझी है । यदि पुरुषवाद बुरा है, तो नारीवाद कैसे अच्छा हो सकता है ? आंबेडकरवादी विचारधारा स्त्री-पुरुष-समानता के आधार पर स्त्री-स्वतंत्रता की पक्षधर है, जिसके अंतर्गत 'नारीवाद' शब्द की बजाय 'नारी विमर्श' शब्द का प्रयोग किया जाता है ।


सुशीला टाॅकभौरे की कविता में नारी विमर्श

प्रख्यात आंबेडकरवादी कवयित्री डॉ० सुशीला टाॅकभौरे का तीसरा काव्य-संग्रह 'तुमने उसे कब पहचाना' वर्ष 1995 में शरद प्रकाशन, नागपुर से प्रकाशित हुआ था । इससे पहले उनके दो काव्य-संग्रह 'स्वांति बूँद और खारे मोती' (1993) और 'यह तुम भी जानो' (1994) प्रकाशित हो चुके थे । टाॅकभौरे जी के इस तीसरे काव्य-संग्रह में नारी विषयक कविताएँ संग्रहीत हैं । इस संग्रह की शीर्षक कविता 'तुमने उसे कब पहचाना' में कवयित्री सुशीला जी ने जीवनसाथी कहे जाने वाले पति से एक पत्नी के पक्ष में प्रश्न किया है । वर्तमान में भले ही जागरूकता बढ़ने के कारण समाज में कुछ परिवर्तन हुआ है, लेकिन अभी भी अनेक ऐसे पुरुष हैं, जो अपनी स्त्रियों की योग्यता को उचित सम्मान नहीं देते हैं और उन्हें आगे बढ़ने हेतु प्रोत्साहित नहीं करते हैं । चंदन के जैसी विशिष्ट गुणों से युक्त स्त्रियाँ घर के चूल्हे की आग में जलती रहती हैं । एक ऐसी ही उपेक्षित पत्नी की व्यथा को कवयित्री ने अपनी कविता में अभिव्यक्त किया है । सुशीला जी की दृष्टि में एक विशिष्ट स्त्री हीरा की भाँति मूल्यवान होती है । अवलोकनार्थ :

साथी का दम भरने वाले 
स्वामी !
तुमने उसे कब पहचाना ?
क्यों कहते हो नारी को 
मानव समाज का गहना ?
चंदन वन की साख 
मटियारे चूल्हे में जलती रही
नारी होने की परीक्षा 
वह हर पल देती रही 
कोयला खदानों में 
हीरा ढूँढा जाता है
मगर घर का हीरा 
कोयला जैसा 
जलाया जाता है । [7]

कवयित्री सुशीला टाॅकभौरे ने स्त्री की मानसिक वेदना को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है । जब कोई स्त्री अपने मन की बात अपने जीवनसाथी से कहती है और प्रत्युत्तर में उसे संतोषजनक बात सुनने को नहीं मिलती है, तो उसका हृदय पीड़ित होता है । चूँकि सुशीला जी स्वयं एक स्त्री हैं, इसलिए वे स्त्री के मनोभाव से भलीभाँति परिचित हैं । अपनी कविता 'अनुत्तरित प्रश्न' में वे कुआँ अथवा गुफा में की गई ध्वनि की लौटने वाली प्रतिध्वनि का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि यह प्रकृति का नियम है, जिसके कारण क्रिया की प्रतिक्रिया अवश्य प्राप्त होती है । सुशीला जी का मानना है कि यदि पति अपनी पत्नी के प्रश्नों का उत्तर नहीं देता है, तो निश्चित रूप से वह उसे नगण्य समझता है अथवा वह चाहता है कि पुरुष स्वामित्व की परंपरा निरंतर बनी रहे । डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे ने स्वयं अपने पति से उपेक्षित होने का अनुभव किया था । उन्होंने अपनी आत्मकथा 'शिकंजे का दर्द' में लिखा है, " खाना परोसने में देरी होने पर या किसी बात से नाराज होने पर वे खाना नहीं खाते थे । तब उन्हें घंटों मनाना पड़ता था । कभी-कभी वे स्पष्ट शब्दों में कहते थे, ' मेरे पैरों पर अपना सिर रखकर माफी माँग तब मैं तेरी बात मानूँगा । ' पता नहीं वे मेरे साथ ऐसा क्यों करते थे ? सिर्फ हाथों से पैर छूकर माफी माँगना पर्याप्त नहीं होता था । वे मेरा सिर अपने कदमों पर रखवाने के बाद मुझे माफ करते थे । यह बात मुझे अजीब लगती थी, मगर मैं इनकी इतनी परवाह करती ही क्यों थी ? इनसे इतना डरती क्यों थी ? इसका जवाब था - भयंकर मारपीट से बचना, महीनों के मानसिक तनाव से छुटकारा पाना । इसके बदले मैं अपना सिर इनके कदमों में झुका देती थी । " [8] स्वयं की भोगी हुई वेदना को आधार बनाकर सुशीला जी ने काव्य-सृजन किया है । कवयित्री के शब्दों में :

अनुगुंजित होती है आवाज 
यदि किसी गहरे कुएँ से
अंधेरी गुफा से कुछ कहा जाए -
प्रत्युत्तर में ध्वनि गूँजती है 
मगर तुम 
कभी जवाब नहीं देते
मुझे नगण्य मानते हो 
या चाहते हो 
परंपरा चलती रहे । [9]

इसी कविता में कवयित्री आगे की पंक्तियों में स्त्री की उस पीड़ा को व्यक्त करती है, जो पति के मौन रहने से उत्पन्न होती है । सुशीला जी को ऐसा लगता है कि पुरुष का मौन उसके स्वामित्वपूर्ण बड़प्पन के भाव को छुपाने वाला एक आवरण है, जिससे स्त्री स्वयं को उपेक्षित अनुभव करती है । सुशीला जी कहती हैं :

तुम्हारा मौन, चिंतन 
स्वामित्वपूर्ण बड़प्पन का भाव 
एक आड़ है 
मुझे कचोटने लगे हैं 
अपने विचार
यह जानकर कि 
मैं उपेक्षित हूँ । [10]

स्त्री जब अपनी उपेक्षा से तंग आ जाती है, तो वह आक्रोशित होती है । वह पुरुष-वर्चस्व के विरुद्ध तनकर खड़ी हो जाती है । वह समता का अधिकार प्राप्त करने हेतु पुरुष के स्वामित्वपूर्ण चिंतन पर प्रहार करती है । लेकिन ऐसा साहस वही स्त्री करती है, जो स्वयं की शक्ति को पहचान लेती है और जिसे शिखर पर पहुँचने की चेष्टा होती है । कवयित्री सुशीला टॉकभौरे ने अपनी कविता 'अनुत्तरित प्रश्न' की अंतिम पंक्तियों में सनातन परंपरा को तोड़ने हेतु तत्पर स्त्री के क्रोधभाव को अभिव्यक्त किया है ।

अगर बन जाऊँ मैं 
सनातन परंपरा को तोड़ने हेतु 
तुम्हारे लिए अभिशाप 
गहरे कुएँ तक पहुँचा दूँ
तुम्हारे चिंतन के आधार ग्रंथ
टूटेगा मौनव्रत तुम्हारा 
भविष्य की अंधेरी गुफा में
तब मेरे प्रश्नों के उत्तर 
तुम अवश्य दोगे 
केवल इतना ही नहीं 
उन्हें बार-बार दोहराते रहोगे । [11]

मासूम और भोली लड़कियाँ प्रायः अपने मन की बात कहने में संकोच करती हैं । वे स्वभाव से विनम्र होती हैं, लेकिन उन्हें दब्बू नहीं कहा जा सकता है । ऐसा भी नहीं है कि मासूम और भोली लड़कियाँ स्वाभिमानी नहीं होती हैं, वे स्वाभिमानी भी होती हैं । स्वाभिमानी लड़कियाँ अपने सम्मान की रक्षा करने हेतु सजग होती हैं । वे संभ्रान्त लोगों का लिहाज करती हैं, तो इसका तात्पर्य नहीं कि वे डरपोक होती हैं । जब उन्हें अनुभव होता है कि उनकी विनम्रता उनकी सफलता में अवरोध उत्पन्न कर रही है, तो वे कठोरता का भी प्रदर्शन करती हैं । सुशीला टाॅकभौरे ने अपनी कविता 'मासूम भोली लड़की' में एक मासूम और भोली लड़की का जिस रूप में चित्रण किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी दृष्टि में जो मासूम और भोली लड़की है, वह दुनियादारी से अनजान भी है । इसीलिए वह हर बात पर आश्चर्य से टुकुर-टुकुर देखती है । 'टुकुर-टुकुर' शब्द में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है । कवयित्री सुशीला जी अपने स्वाभिमान की सुरक्षा हेतु मासूमियत और भोलेपन का त्याग करने के पक्ष में हैं । वे कहती हैं :

उस छोटी - सी लड़की को 
रख दिया है मैंने 
ताक पर
मासूम भोली 
टुकुर-टुकुर देखा करती थी
हर बात, अचरज से भौचक रहकर । [12]

इस कविता की अंतिम पंक्तियों में सुशीला जी अपने भीतर की मासूम और भोली लड़की को अपने से अलग करते हुए उसे कठोरतापूर्वक आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा प्रदान करती हैं । वे उसे उसकी पूर्णता का अनुभव कराती हैं । वास्तव में, इस कविता में कवयित्री ने अत्यधिक भावुकता के कारण वैचारिक क्रमबद्धता की त्रुटि कर दी है । एक तरफ वे मासूम लड़की को ताक पर रखने की बात करती हैं, तो दूसरी तरफ वे उसे शिक्षा भी देती हैं । इन दोनों बातों की संगति नहीं बन पा रही है । एक तो वे उस मासूम और भोली लड़की को अपने ही प्रतिरूप के रूप में दर्शाती हैं, दूसरे वे उसे स्वयं से भी आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं । इस कविता का सूक्ष्म अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि कवयित्री भावात्मक और विचारात्मक दोनों प्रकार से विचलित होकर उसी प्रकार चक्कर खाती हुई प्रतीत होती है, जिस प्रकार कोई गाड़ी पहिए की हवा निकल जाने पर सड़क पर डगमग-डगमग करती रहती है । अवलोकनार्थ :

कठोर बनकर 
सिखाना चाहती हूँ कि -
लड़की ! तुम किसी पर निर्भर नहीं 
स्वयं पूर्ण हो !
तुम मुझसे अलग नहीं 
फिर भी तुम्हारा अपना 
एक अलग अस्तित्व है 
तुम्हारी राह, तुम्हारी मंजिल 
मुझसे बहुत आगे है । [13]

सुशीला जी ने अपनी कविता 'औरत नहीं मजबूर' के माध्यम से औरत को मजबूर करने वाली रीतियों की ओर संकेत किया है । उनका मानना है कि औरत मजबूर नहीं होती है, बल्कि वह सामाजिक रीतियों के आगे मजबूर हो जाती है । कवयित्री की दृष्टि में सामाजिक कुरीतियाँ औरत के लिए गले में लटकी जंजीर (सलीब) की तरह हैं, जिसे ढोते हुए वह थक चुकी है । उदाहरण :

औरत नहीं है मजबूर 
मजबूरियाँ है रीतियाँ
ढोते हुए अपना सलीब 
अब वह थक गई है । [14]

इस कविता की अगली पंक्तियों में सुशीला जी इस रहस्य को उद्घाटित करती हैं कि एक स्त्री के हृदय में अनेक कामनाओं की चिंगारियाँ दबी होती हैं । वे उन चिंगारियों को हवा देने की माँग करती हैं । उन्हें विश्वास है कि हवा देने से दबी चिंगारियाँ स्वयं ईंधन बन जाएँगी और शोला बनकर सारी मजबूरियों को भस्म कर देंगीं । कवयित्री सुशीला टाॅकभौरे जी पुरुष वर्ग से नारी मुक्ति हेतु सहयोग चाहती हैं । वे सामाजिक कुरीतियों की जंजीर तोड़ने हेतु एक पत्नी के समक्ष पुरुष को एक सच्चे जीवनसाथी के रूप में प्रस्तुत होने की आशा करती हैं । दबी चिंगारी को हवा देने से उनका तात्पर्य यही है कि स्त्री की प्रतिभा को पुरुष का प्रोत्साहन प्राप्त हो ।

तनिक इनको हवा दे दो 
इंधन स्वयं बन जाएँगी
बनकर ये शोला करेंगी 
भस्म सब मजबूरियाँ । [15]

सुशीला टॉकभौरे ने अपनी कविता 'आज की खुद्दार औरत' में स्त्री के स्वाभिमान को जिस रूप में प्रस्तुत किया है, वह स्वरूप किसी सच्चरित्र स्त्री का नहीं हो सकता है । उस प्रकार के स्वाभिमान को निर्लज्जता का नाम दिया जाता है, जो सामान्यतः वेश्याओं की प्रवृत्ति है । एक सच्चरित्र स्त्री किसी भी स्थिति में स्वयं को निर्वस्त्र नहीं कर सकती है । पर-पुरुष के सामने किसी स्त्री के निर्वस्त्र होने पर कैसा सम्मान ? और बिना सम्मान के कैसा स्वाभिमान ? स्त्रियों के साथ बलात्कार प्रायः वही पुरुष करते हैं, जो दुष्ट होते हैं । दुष्ट पुरुषों के मन में यदि स्वाभिमान होता, तो वे इस प्रकार का पापाचार करते ही क्यों ? जिन पुरुषों में स्वाभिमान ही नहीं है, उनके सामने निर्वस्त्र होकर उनके पौरुष को चुनौती देना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । कवयित्री सुशीला टाॅकभौरे को ऐसा लगता है कि किसी स्त्री द्वारा ऐसा कृत्य करने से वे दुराचारी पुरुष लज्जित हो जाएँगे और उसे नहीं छूएँगे, तो यह कवयित्री का भ्रम है । इस कविता में यथार्थ से विमुख, तर्कहीन भावाभिव्यक्ति है, जो सभ्य समाज के लिए किसी भी प्रकार से उपयोगी नहीं है । अतः इस कविता को अच्छी कविता कहना 'कविता' के साथ अन्याय करना होगा । यदि काव्य सिद्धांतों पर ध्यान दिया जाए, तो इस कविता में अश्लीलत्व दोष है । अवलोकनार्थ :

तुमने उघाड़ा है 
मर्दों !
हर बार औरत को 
क्या हर्ज है 
इस बार स्वयं वह 
फेंक दे परिधानों को 
और ललकारने लगे
तुम्हारी मर्दानगी को 
किसमें हिम्मत है 
जो उसे छू सकेगा ? [16]

सुशीला टाॅकभौरे का मानना है कि औरत अगर अपनी कोमलता, कमनीयता, लचक, मेहंदी की मधुरता, घुँघरू की रुनझुन और चूड़ियों की खनक को त्याग देगी, तो वह तनकर चल सकेगी और दुनिया में मर्द की तरह जी सकेगी । अपनी इसी भावना को उन्होंने अपनी कविता 'वह मर्द की तरह जी सकेगी' में व्यक्त किया है । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब औरत, औरत के सारे गुणों को त्याग देगी, तो वह औरत ही नहीं रहेगी । जब वह औरत ही नहीं रहेगी, तो फिर वह औरत क्यों कहलाएगी ? अगर वह मर्द की तरह जीने लगेगी, तो फिर मर्द तथा औरत में फर्क ही नहीं रहेगा । जब औरत और मर्द में फर्क ही नहीं रहेगा, तो फिर नारी विमर्श करने की जरूरत ही क्यों पड़ेगी ? चिंता की बात यह है कि क्या सुशीला टाॅकभौरे का चिंतन भटकाव की स्थिति में हैं ? जी, हाँ । इस प्रकार का चिंतन निश्चित रूप से समाज को विखंडित करने में सहयोगी होगा, जिसके कारण सामाजिक परिवर्तन भी होगा, किंतु नवीन समाज की संरचना कैसी होगी ? इसकी भी कल्पना कर लेनी चाहिए । सुशीला जी ने अपनी इसी कविता में एक पंक्ति लिखा है - " शालीनता की बात ने गूँगा बनाया है " । तो क्या मुखर होने के लिए शालीनता को त्यागना जरूरी है ? क्या शालीन रहकर अभी तक किसी स्त्री ने अपना अधिकार प्राप्त नहीं किया है ? ऐसे अनेक उदाहरण हैं कि स्त्रियों ने अपनी मर्यादा में रहकर अपने उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त किया है । सुशीला जी घूँघट की ओट को स्त्री के लिए संसार-दर्शन का सबसे बड़ा अवरोध मानती हैं । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या संसार-दर्शन करना जरूरी है ? क्या घूँघट हटा देने से स्त्री संसार का दर्शन कर लेगी ? क्या यह बात संसार की हर स्त्री पर लागू हो सकती है ? जो धनवान स्त्रियाँ हैं, वे तो वैसे भी घूँघट नहीं करती हैं, लेकिन जो निर्धन स्त्रियाँ हैं, क्या वे घूँघट हटाकर सारे संसार का दर्शन कर सकती हैं ? निसंदेह इसका उत्तर नकारात्मक है । इसलिए कवयित्री सुशीला टाॅकभौरे को निर्धन और सुविधाहीन महिलाओं को भी अपने चिंतन में समाहित करना चाहिए था । उन्हें अपनी दृष्टि को व्यापक करने की आवश्यकता थी । यह गलती लगभग सभी नारीवादी महिलाएँ करती हैं । उनके चिंतन की सीमा में केवल मध्यम और उच्च वर्ग की महिलाएँ ही रहती हैं । इसलिए वे महिलाओं को निरंकुश बनने की प्रेरणा देती हैं । ध्यातव्य है कि वर्तमान में अधिकांश शिक्षित युवाओं के साथ-साथ अशिक्षित युवा भी अपनी जीवनसंगिनी सहित अपने घर की सभी स्त्रियों को पर्याप्त महत्व देते हैं । नारीवादियों को इस सामाजिक परिवर्तन पर ध्यान देने की आवश्यकता है । नारीवादी कवयित्रियाँ इस प्रकार की गलती सदैव करती हैं कि अपनी कविता में देशकाल और वातावरण को इंगित नहीं करती हैं, जिसके कारण स्त्री की सामाजिक और पारिवारिक स्थिति तथा उसके आर्थिक और मानसिक स्तर का पता नहीं चल पाता है । ऐसी स्थिति में उनका नारी विषयक चिंतन अपूर्ण सिद्ध होता है, क्योंकि कोई भी तर्क और तथ्य सभी स्त्रियों पर लागू नहीं हो सकता है । सुशीला टाॅकभौरे की इस कविता की निम्न पंक्तियाँ विचारणीय हैं :

कुएँ की मेढकी की तरह 
जीना भी क्या जीना है
दाना - पानी से बड़ी 
बहुत बड़ी दुनिया है
मान - सम्मान में 
ज्ञान और विज्ञान में 
पीछे नहीं है औरत
पूरे विश्व को मुट्ठी में रखकर समझेगी 
तभी वह मर्द की तरह जी सकेगी । [17]

विद्रोह करना कितना उचित है ? यह एक गंभीर अध्ययन का विषय है । सामान्य बुद्धि स्तर के लोग तो केवल 'विद्रोह' शब्द सुनकर ही विद्रोही व्यक्ति के पक्ष में 'धन्य-धन्य' शब्द का जाप करने लगते हैं । जब कोई व्यक्ति अपने परिवार में विद्रोह करता है, तो पारिवारिक विघटन की स्थिति उत्पन्न होती है । जब वह समाज में अकेला विद्रोह करता है, तो उसे शायद ही कुछ लोग पसंद करते हैं, अन्यथा शेष लोग उसके शत्रु बन जाते हैं और वह बिल्कुल अकेला पड़ जाता है । अकेला चना कभी भाड़ नहीं फोड़ता है । अंततः वह थक-हारकर शांत पड़ जाता है । विद्रोह तभी उपयोगी होता है, जब वह एक संगठन के रूप में होता है । तभी उसे सफलता भी प्राप्त होती है । सुशीला टाॅकभौरे ने अपनी कविता 'विद्रोहिणी' में एक ऐसी महिला के विचारों को अभिव्यक्त किया है, जो पूरी तरह से स्वच्छंद रहने की इच्छुक है । कवयित्री के अनुसार, वह विद्रोहिणी महिला प्रचलित परिपाटी से हटकर सब ओर भागती है । 'सब ओर' भागने से तो यही प्रतीत होता है कि कभी-कभी वह प्रचलित परिपाटी की ओर भी भागती है । वह विद्रोहिणी चीखती है, उसकी आवाज सभी दिशाओं में गूँजती है । उसकी स्थिति से ऐसा लगता है, जैसे वह विक्षिप्त हो चुकी है । उसे अनंत असीम दिगंत चाहिए । वह छत का खुला आसमान नहीं, बल्कि आसमान की खुली छत चाहती है । वह विद्रोहिणी तो इस प्रकार पूरे आसमान की माँग कर रही है, जैसे 'पूरा आसमान' उसके पिता की संपत्ति है । इतनी स्वतंत्रता तो पुरुषों को भी नहीं है । आसमान की क्या बात की जाए, जमीन पर ही पुरुष हर जगह आवागमन नहीं कर सकता है, क्योंकि यत्र-तत्र उसे 'नो एंट्री' का बोर्ड भी दिखाई देता है । कवयित्री सुशीला टाॅकभौरे की भावाभिव्यक्ति निसंदेह प्रशंसनीय है, किंतु उनकी अभिव्यंजना शैली चिंताजनक है । उदाहरण :

प्रचलित परिपाटी से हटकर 
मैं भागती हूँ - सब ओर, एक साथ
विद्रोहिणी बन चीखती हूँ
गूँजती है आवाज सब दिशाओं में -
मुझे अनंत असीम दिगंत चाहिए
छत का खुला आसमान नहीं
आसमान की खुली छत चाहिए 
मुझे अनंत आसमान चाहिए । [18]

पति-पत्नी का रिश्ता विश्वास की डोर से बँधा होता है । संदेह का चाकू उनके रिश्ते की डोर को काट देता है । पति-पत्नी के रिश्ते में माधुर्य तभी बना रह सकता है, जब वे एक-दूसरे की पसंद और नापसंद का ध्यान रखें तथा एक-दूसरे की परवाह करें । पति और पत्नी एक-दूसरे के जीवनसाथी होते हैं, इसलिए दोनों एक-दूसरे के साथ-साथ चलें, यही सर्वथा उचित है । सुशीला टाॅकभौरे ने अपनी कविता 'लौटा दो मेरा विश्वास' में एक ऐसी पत्नी की भावनाओं को अभिव्यक्त किया है, जो अपने पति का हर कदम पर साथ चाहती है । वह अपने पति को ज्योतिराव फूले की तरह व्यवहार करते हुए देखना चाहती है । ज्योतिराव फूले और सावित्रीबाई फुले वास्तव में भारतीयों के लिए एक आदर्श दंपति हैं । भारत में ऐसे अनेक पति हैं, जो ज्योतिराव फूले की तरह विशेषता रखते हैं, लेकिन उनकी पत्नियाँ सावित्रीबाई फूले की तरह नहीं हैं । खैर, सुशीला टाॅकभौरे की कविता में जो स्त्री है, वह अपने पति के प्रति पूरी तरह समर्पित होने की अभिलाषा रखती है ।

करती हूँ तुमसे आशा 
लौटा दो मेरा विश्वास 
सहृदय मित्र बनकर मेरे 
चलने दो मुझको भी साथ
बन जाओ ज्योतिराव फूले
मैं सावित्री - सी बनकर 
अर्पित कर दूँगी जीवन
पीड़ाओं के उन्मूलन में । [19]

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि सुशीला टाॅकभौरे का नारी विषयक चिंतन विशेष रूप से पति-पत्नी के आपसी रिश्ते तक सीमित है । उनके नारी विषयक चिंतन को पारिवारिक नारी चिंतन कहना उचित होगा । सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनका नारी विषयक चिंतन संकुचित प्रतीत होता है । समाज में केवल एक ही प्रकार की सोच वाली महिलाएँ नहीं हैं । कहा भी जाता है, " मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना " । सभी महिलाओं की सामाजिक स्थिति और आर्थिक स्थिति एक जैसी नहीं है । इसलिए नारी विमर्श करने वाले साहित्यकारों को सार्वभौमिक चिंतन करने की आवश्यकता है । इस संदर्भ में सुशीला जी का एक कथन ध्यातव्य है । उन्होंने कोलकाता में दिये गये अपने एक साक्षात्कार में कहा था, " दलित विमर्श और नारी विमर्श विशेष रूप से दलितों और स्त्रियों की समस्याओं का अध्ययन सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक दृष्टिकोण से करता है । यहाँ धर्म भी एक विशेष मुद्दा है, जो दलित और स्त्रियों की स्थिति को निम्नतर बनाने में सहायक है । हिंदू धर्म और हिंदूवादी नीति परंपराओं ने दलितों और स्त्रियों के साथ जो अन्याय किया है, दलित विमर्श और स्त्री विमर्श अब उन्हें उजागर कर रहे हैं । साथ ही उन समस्याओं के निदान के उपाय खोजे जा रहे हैं । " [20] चूँकि सुशीला टाॅकभौरे का कविता-संग्रह 'तुमने उसे कब पहचाना' बीसवीं सदी के अंतिम समय में सृजित हुआ है, इसलिए इक्कीसवीं सदी में हुये परिवर्तन की झलक इसमें नहीं है । इस संग्रह की कविताओं का विगत युग के सापेक्ष अपना महत्त्व है, लेकिन वर्तमान युग में सुशीला जी की कविताओं की प्रसंगिकता पूरी तरह से उपयोगी नहीं है । इसलिए भावी कवयित्रियों को अपनी नारी विषयक दृष्टि को व्यापक करके ही काव्य-सृजन करना चाहिए । 


संदर्भ :

[1] आधुनिक भारत का इतिहास : विपिन चंद्र, पृष्ठ 108, प्रकाशक - ओरियंट ब्लैकस्वान हैदराबाद (आंध्र प्रदेश), संस्करण 2008
[2] दलित विमर्श की भूमिका : कंवल भारती, पृष्ठ 45, प्रकाशक - अमन प्रकाशन कानपुर, संस्करण 2013
[3] ज्योतिबा फुले : दुर्गा प्रसाद शुक्ल, पृष्ठ 31, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, संस्करण 1991
[4] गुलामगिरी : ज्योतिराव फूले, पृष्ठ 61, हिंदी अनुवादक - आकाश सूर्यवंशी (पीडीएफ बुक)
[5] बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय - खंड 37, पृष्ठ 271-272, प्रकाशक - डॉ० आंबेडकर प्रतिष्ठान नई दिल्ली, नौवां संस्करण 2019
[6] बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय - खंड 37, पृष्ठ 390, प्रकाशक - डॉ० आंबेडकर प्रतिष्ठान नई दिल्ली, नौवां संस्करण 2019
[7] तुमने उसे कब पहचाना : डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे, पृष्ठ 59-60, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2013
[8] शिकंजे का दर्द : डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे, पृष्ठ 140, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2009
[9] तुमने उसे कब पहचाना : डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे, पृष्ठ 61, प्रकाशक - स्वराज प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2013
[10] वही, पृष्ठ 61
[11] वही, पृष्ठ 62
[12] वही, पृष्ठ 74
[13] वही, पृष्ठ 74-75
[14] वही, पृष्ठ 78
[15] वही, पृष्ठ 78
[16] वही, पृष्ठ 81
[17] वही, पृष्ठ 84
[18] वही, पृष्ठ 86
[19] वही, पृष्ठ 95
[20] साक्षी है संवाद : सुशीला टाॅकभौरे, पृष्ठ 146, प्रकाशक - अमन प्रकाशन कानपुर, प्रथम संस्करण 2020

✍️  देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय चंदौली (उत्तर प्रदेश) 
मोबाइल नंबर : 9454199538


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