शिल्प अपने आप में एक कलात्मक कर्म है। वह हुनर या कारीगरी का दूसरा नाम है। उसमें कला कर्म निहित होता है और कौशल भी। काव्य-कला तो प्रमुख कलाओं में से एक गण्य-मान्य है। उसके बारे में सदियों से विभिन्न मान्यताएँ स्थापित मिलती हैं, जैसे – ‘कलाकार जन्मना होता है’, ‘कलाकार बनाया नहीं जाता, उसे पैदा होना पड़ता है’, ‘कला अर्जित होती है’, ‘कला ईश्वरीय देन होती है’ और ‘कला प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का समन्वय है’ आदि आदि। दामोदर मोरे जी की काव्य कला का अध्ययन करने से यह कहने में कोई हिचक या संकोच नहीं कि उनकी काव्य-कला में अनुभव और अभ्यास का ‘रसायन’ है जो व्युत्पत्ति के योग से ‘कविता रूपी केमिकल’ बनाकर अवतीर्ण होती है।
दामोदर मोरे जी की कविता के प्रधान दो पहलू मिलते हैं – एक है संवेदना जो विचार केन्द्रित है और दूसरा है शिल्प जो कला केन्द्रित है। उनकी कविता एक ओर विचार केन्द्रित है तो दूसरी ओर कलात्मक। उनके काव्य-शिल्प के प्रधान पक्ष/बिन्दु हैं – बिंब, प्रतीक, अलंकारिकता, शब्द-योजना, व्यंग्यात्मकता, संवादात्मकता आदि। इन्हीं आधारों पर दामोदर मोरे जी की काव्य-कला का मूल्यांकन करना इस शोधपत्र का प्रधान प्रयोजन है।
बिंबों-प्रतीकों का प्रयोग :
कवि मोरे जी की कविता में बिंबों या प्रतीकों का मार्मिक प्रयोग दिखाई देता है। इसके मूल में कवि की गहरी सोच और तीव्र जीवन-अनुभूति आधारभूत माननी पड़ेगी। सामाजिक तथा राजनीतिक अंतर्विरोधों, विसंगतियों एवं विषम व्यवस्थाओं पर करारी चोट करने के लिए कवि ने प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत कुशलता के साथ किया है। ‘ये डरे हुए पेड़’ कविता की निम्नांकित पंक्तियाँ देखिए –
“इस भूमि पर
राज कर रहे हैं
बेर और बाबूल के काँटें
फूलों पर
और आम का पेड़
खड़ा है नंगा, सत्ता के आँगन में” [1]
उक्त प्रतीकों से यह स्पष्ट होने में देर नहीं लगती कि खूँखार, भ्रष्ट,गंदें और गलत लोग सत्ता अर्थात राजनीति में हैं और सीधे-साधे, सभ्य, सज्जन सत्ता से वंचित। चरित्रहीनों की ताजपोशी कवि की घृणा और नफरत को निम्नांकित प्रतीकों के जरिए प्रस्तुत करती है –
“मुझे बर्दाश्त नहीं होता
कच्ची कलियों का
उनके हाथों शिलभ्रष्ट होना...
मुझे बर्दाश्त नहीं होता
राजसिंहासन पर
गिद्ध का बैठ जाना।” [2]
हमारे समाज में स्थित धार्मिक पाखंड की प्रस्तुति कवि ने मार्मिक प्रतीकों के साथ की है। इससे कवि का काव्य-शिल्प भावों तथा विचारों को संप्रेषणीय बनाने में प्रभावकारी प्रतीत होता है। ‘पहरा’ कविता की निम्नांकित प्रतीक-योजना धार्मिक क्षेत्र के पाखंड को इन शब्दों में उजागर करती है –
“भगवी चोंच वाला एक बगुला
आँखें बंद किए, ऊपर करके एक पाँव
खड़ा रहता था ध्यानस्थ,
तालाबवासी कहते थे,
महाराज कितने हैं व्रतस्थ...?” [3]
सामाजिक राजनीतिक तथा धार्मिक क्षेत्र का ही नहीं बल्कि दलितों की निजी जिंदगी का कटु यथार्थ भी कवि प्रतीकों के माध्यम से अत्यंत सरलता एवं सहजता से प्रस्तुत करता है। ‘भारतीय संस्कृति का दर्शन’ कविता की निम्नांकित पंक्तियों में इस तथ्य की अनुभूति होगी –
“घने सनातन अंधेरे में उलझती हुई
कोमलता में ही झुलसती हुई
उजाला ढूँढती पगडंडी
मेरे जीवन की...”
“पर स्त्री माँ समान”
“एक बूढ़े ने कहकर भी
बंजर और बेजुबां जमीन की
कच्ची कलियों पर अंधेरा
कर रहा है बलात्कार...” [4]
यह अंधेरा कोई नहीं बल्कि गाँव के बाहर अभाव में मौन मूक जिंदगी जीनेवाले पिछड़े समाज का प्रतीक है। कहना होगा कि दामोदर मोरे जी के काव्य-शिल्प में बिंबों तथा प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत सार्थक, गरिमा और मार्मिकता के साथ हुआ है।
अलंकार-योजना :
अलंकार कविता को खूबसूरती प्रदान करता है, इसमें दो राय नहीं। इसीलिए भामह ने कहा था कि जैसे सुंदर होने पर आभूषण रहित नारी का मुख शोभाहीन होता है, वैसे अलंकार रहित काव्य भी शोभाहीन होता है। हिन्दी काव्य की दुनिया में प्रारंभ से लेकर छायावादी काव्य तक अलंकारों का प्रयोग खूब होता रहा। मगर प्रगतिवादी काव्य में इसका प्रयोग गौण और कथ्य का प्रयोग प्रधान माना गया। तभी से अलंकार कविता के लिए ऐच्छिक बनाता गया। दामोदर मोरे जी की कविता भी इसके लिए अपवाद नहीं। उनकी कविता मूलतः भाव, विचार तथा संवेदना केंद्रित है, शिल्प केंद्रित नहीं। मगर भावों तथा विचारों के साथ-साथ शिल्प भी उसका अनुगामी बना हुआ दिखाई देता है। अलंकार का प्रयोग उसी का अनुगमन करता दिखाई देता है जो अनायास ही है – प्रयासपूर्वक नहीं। मोरे जी का काव्य सहजता और सरलता के परिणाम स्वरूप अधिक प्रभावकारी बन गया। ऐसा लगता है कि कवि अलंकार की खोज में नहीं, अलंकार उसकी कविता की खोज में बीच-बीच में आ जाता है, फिर चाहे उपमा हो, उत्प्रेक्षा हो, अनुप्रास हो या रूपक। यही वह कारण है, जिससे उनका काव्य-शिल्प साधारण विषय को असाधारण बना देता है। जैसे –
“मेरे चारों ओर महक रही है
मेरे शील की खुशबू
मेरे मानस-सरोवर में
खिल रहा है करुणा का कमल।” [5]
अपने व्यक्तित्व का परिचय कवि ‘जीने की कला’ कविता में प्रस्तुत करता है, तो आलंकारिक भाषा में ही। मगर इससे साधारण-सी बात असाधारण बन जाती है, जैसे-
“मेरे पास मोह के मच्छर भटकते नहीं
क्रोध का काला नाग ठहरता नहीं।” [6]
सुखी जीवन की कुंजी बताते हुए कवि आलंकारिक भाषा का प्रयोग कर अपनी बात को रोचक, अनुपम तथा अनूठी बनाता है, जैसे –
“प्रज्ञा के प्रदीपक को प्रज्वलित करो...
छेड़ो अपने जीवन का सितार
फिर देखो...
बहने लगेगी सुख की संगीत सरिता।” [7]
रूपक अलंकार के प्रयोग से कहीं-कहीं वर्तमान भारतीय विषम समाज व्यवस्था पर प्रहार करने की शैली भी बड़ी सहज किन्तु मर्मभेदी बन गई है, जैसे –
“मेरा देश
मेरे अंदर का देशभक्ति का झरना बोला –
‘भारत मेरा देश है ...’
राह में स्पीड ब्रेकर बनी परंपरा बोली –
‘गाँव के बाहर तेरा प्रदेश है।” [8]
स्पष्ट है कि कवि मोरे जी के काव्य-शिल्प में अलंकारों का अनूठा, अद्भुत और औचित्यपूर्ण प्रयोग काव्य रचनाओं को अधिक मार्मिक, रोचक और संप्रेरक बना देता है। उनकी कृतियों में वह अनायास, सहज देखने को मिलता है जिसे अनोखा और अद्वितीय कहना होगा।
शब्द-योजना :
काव्य-रथ के प्रमुख दो पहिए हैं, जिनमें से एक है ‘अर्थ’ और दूसरा ‘शब्द’। वस्तुतः महत्त्व की दृष्टि से दोनों समान तथा समानांतर मानने होंगे। न कोई अगला और न कोई पिछला। दामोदर मोरे जी का काव्य इसकी गवाही देगा। हालाकि उनका कला अथवा काव्य विषयक दृष्टिकोण जीवनवादी है कलावादी नहीं। लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने जीवन की अनुशंसा करते समय कला की उपेक्षा की। उनके काव्य की शब्द-योजना को देखने से भ्रम पैदा हो सकता है कि वे कलावादी ही हैं। क्योंकि अधिकांश काव्य कृतियों में कवि शब्दों का साथी/सहचर लगता है। शब्दों का चयन, चिंतन, संबोधन, विवेचन-विश्लेषण और अनुसरण कवि के शब्द प्रेम तथा शाब्दाधिकार को दर्शाता है। ‘सदियों के बहते जख्म’ काव्य संग्रह में निहित ‘आईना’, ‘जीवन संगीत’, ‘सफर’, ‘शब्दरंग’, ‘प्रज्ञा की कलम से’, ‘दिलवाले’, ‘कलम और कलाम’, ‘आर्ट गॅलरी’, ‘मुस्कान’, ‘बूढ़े नहीं बनोगे’, ‘पलकें सुलग रही हैं’ काव्य संग्रह में निहित ‘शब्दों!’, ‘पत्थरों का देश’, ‘तुम्हारा साथ न होने पर’, ‘मोर्चा’, और ‘पिछला चक्का’ में निहित ‘फूलन देवी’ तथा ‘तुलसीदास आदि कविताएँ कवि के शब्द-ज्ञान, शब्द-चिंतन, शब्द-नियोजन, शब्द-चयन और उसके औचित्यपूर्ण प्रयोग-प्रयोजन को क्षमता तथा गरिमा के साथ प्रस्तुत करती हैं।
दामोदर जी की कविता शब्दों की गुणवत्ता, अर्थवत्ता एवं महत्ता को बार-बार रेखांकित करती है। ‘मानवता का रक्षक’ में कवि ने शब्दों को शेर और समशेर बताते हुए लिखा है -
“शब्द शेर है, शब्द समशेर है
शब्द युद्ध का अंग है
शब्द जीवन की जंग है।” [9]
कवि ने शब्द के सामर्थ्य और सीमा को भी दर्शाया है। ‘कलम और कलाम’ कविता में कवि ने शब्द के बारे में सलाह दी है कि -
“शब्द के गुलाम मत बनो
कलम और कलाम की स्वतंत्रता को
सलाम करो वरना
आँखें होते हुए भी अंधे बन जाओगे।” [10]
व्यंग्य-शिल्प :
वस्तुतः दामोदर मोरे जी की कविता शिल्प दृष्टि से वैविध्यपूर्ण है। उसमें एक ओर छायावादी कविता की प्रवृत्तियाँ जैसे – प्रतीक, बिंब, अलंकार आदि का प्रयोग है तो दूसरी ओर प्रगतिवादी कविता की मुक्त छंदात्मकता, ठेठ, सीधी, सपाट-बयानी तथा जनभाषा भी। लेकिन इन सब के बावजूद उसमें व्यंग्य के तेवर भी कहीं-कहीं लक्षित होते हैं जो अंतर्विरोधी तथा जातिवादी मानसिकता पर चोट करते हैं। नारीवादी विविध संगठनों में भी नारी आधारित नहीं बल्कि जाति आधारित मदद पहुँचाई जाती है। कवि ‘परायी’ के जरिए इसी मानसिकता पर व्यंग्य प्रहार करता है, जैसे-
“कल के दंगों ने किया एक नारी को नंगा
गली की गली चुपचाप थी
किसी के पास नहीं थे वस्त्र देनेवाले हाथ
वह नारी परायी थी” [11]
जहाँ नारी के बचाव में भी जातिवाद है, वहाँ अन्य क्षेत्रों में उसकी कल्पना करना बेकार है। कवि व्यंग्य शैली को तब-तब अपनाता है, जब-जब वह महसूस करता है कि समाज में जाति और धर्म के आधार पर दंगे-फसाद होते हैं। ‘दंगे में जले हुए’ रचना में कवि की मान्यता है कि यहाँ दंगे भड़काने का काम करनेवाले दंगे मिटाने का नाटक तक नहीं करते। कवि ने यहाँ की मानव संस्कृति से ज्यादा प्रकृति अधिक मानवता की रक्षा करती हुई दर्शायी है, व्यंग्यात्मक प्रस्तुति के रूप में, जैसे –
“बारिश से मैंने पूछा –
तू क्यों इतना तेज बरस रही है...?
वह बोली – दंगों में जले हुए मकानों को
मैं बुझा रही हूँ...।” [12]
इस प्रकार दामोदर मोरे जी के काव्य में व्यंग्य को शिल्प, शैली, भाषा और प्रवृत्ति के रूप में भी प्रस्तुति मिली है। उनके काव्य में व्यंग्य कभी तीखा, तेज, करुण तो कभी दारुण रूप में अवतीर्ण है। वह कभी प्रहार करता है तो कभी संहार भी। उनके काव्य का व्यंग्य-शिल्प उनकी कविता को प्रभावशाली तथा गरिमामयी बना देता है इसमें संदेह नहीं।
संवाद-शिल्प :
संवाद मूलतः नाट्य-विधा की जान है। संवादों के जरिए नाटक की कथा आगे बढ़ती है। उससे पत्रों की मनोदशा का उद्घाटन होता है और पात्रों या चरित्रों का चित्रण भी। लेकिन ऐसा नहीं कि काव्य में संवादों की कोई गुंजाइश नहीं होती। हिन्दी में ऐसे अनेक श्रेष्ठ कवि मिलेंगे जिनकी अनेक काव्य-कृतियों में संवादों का अत्यंत सार्थक एवं सफल प्रयोग मिलता है। धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, कुँवर नारायण, नागार्जुन जैसे अनेक कवियों ने सफल संवाद-योजना से अपनी कविता को समृद्ध बना दिया। दामोदर मोरे जी के काव्य का अध्ययन करने से यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि उनकी कविता संवाद-शिल्प की दृष्टि से भी मर्मभेदी बन गई है। कविता में कथोप-कथन, वार्तालाप तथा आपसी संवाद का ऐसा सृजन किया है कि उससे कविता दृश्यात्मक रूप में साकार होती है। उससे ऐसा लगता है कि जैसे कोई फिल्म, नाटक या दृश्य का प्रत्यक्ष माहौल प्रस्तुत है। इससे काव्य नाटकीय रूप में अपना प्रभाव अधिक छोड़ देता है। ‘सदियों के बहते जख्म’, में संकलित ‘सृष्टि की देन’, ‘जीवन का मतलब’, ‘शब्दरंग’, ‘अंधेरा जल जाने तक’, ‘अस्पृश्यता का डंक’, ‘युगधर्म’, ‘पशु’, ‘रोशनी’, ‘तुम चाहे तो’, ‘कोयल’, ‘झरना’, ‘विजय गीत’ और ‘सावित्री से सावित्री तक’ जैसी कविताएँ संवाद-शिल्प के उत्तम उदाहरण माननी पड़ेंगी। ‘पलकें सुलग रही हैं’ में दामोदर मोरे जी की कुल 52 कविताएँ संकलित हैं जिनमें से अधिकांश कविताओं में संवाद-शिल्प का सफल प्रयोग दिखाई देता है, जैसे – ‘व्यवस्था’, ‘रास्ते’, ‘मेरा दुख’, ‘मोर्चा’ और ‘काव्य पाठ’ आदि। ‘पिछला चक्का’ में संकलित ‘फूलन देवी’, ‘तू गूँगा’ और ‘तुलसीदास’ आदि कविताएँ संवाद-शिल्प के सुंदर उदाहरण मानने पड़ेंगे।
दामोदर मोरे जी के काव्य का संवाद-शिल्प देखने से यह अनायास लगाने लगता है कि कवि दामोदर मोरे जी के भीतर एक नाटककार छीपा है जो कविता के जरिए अपने होने का एहसास दिला रहा है। ‘सृष्टि की देन’ कविता में इसका प्रमाण देखने को मिलेगा, जैसे –
“पौधे ने पूछा : कवि! आप क्या कर रहे हैं?
मैंने कहा : मैं सृष्टि को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ।” [13]
कवि ‘जीवन का मतलब’ कविता में भी संवादों के जरिए अपने प्रयोजन की पूर्ति करता है। कवि और पेड़ दोनों के बीच जो संवाद या वार्तालाप होता है उससे कवि के भीतर स्थित सफल संवाद-शिल्पी का पता चलता है, जैसे –
“पेड़ों से मैंने पूछा : तुम इतना ऊंचे-ऊंचे क्यों बढ़ रहे हो...?
वे बोले : हम नीले आसमान से जीवन का मतलब जानना चाहते हैं।” [14]
सामाजिक भेदभाव, विषमता, जातिवाद और अस्पृश्यता आदि विषय कवि के काव्य में आक्रोश के साथ अंकित हैं, जिन्हें मिटाने का आवाहन कवि बार-बार करता है। ‘अस्पृश्यता का डंक’ कविता के माध्यम से कवि ने जो सामाजिक भेदभाव प्रस्तुत किया है उसका प्रभाव कुशल संवाद-शिल्प के कारण बढ़ जाता है, जैसे –
“पेड़ ने नागिन से पूछा : तुमसे भी जहरीला कौन है?
नागिन बोली : अस्पृश्यता मुझसे भी जहरीली है
पेड़ ने पूछा : वह कैसे...?
वह बोली : क्योंकि अस्पृश्यता एक ही बार हजारों को डँसती है।” [15]
सामाजिक विषमता का चित्रण भी कवि ने संवादों के सफल- संयोजन से अत्यंत मार्मिकता से किया है। सूरज और कवि के बीच का निम्नांकित संवाद सामाजिक वैषम्य तथा संवाद-कौशल-दोनों का परिचय देता है –
“सूरज से मैंने कहा : इस अंधेरी बस्ती को तुम रोशनी दे दो...
कड़ी धूप फैलाते हुए वह बोला : उस बस्ती की रोशनी तो ऊंचे-ऊंचे पेड़ों ने छीन ली है, इन बड़े-बड़े आसमानों को छू रहे महलों ने चुरा ली है
मैं उन्हें बाहर की रोशनी दूँगा
तुम इतना ही करो, उनके अंदर के डर को भगा दो।” [16]
संवाद-शिल्प का सर्वोत्तम प्रयोग कवि के ‘फूलन देवी’ कविता में देखने को मिलता है। इसमें काव्य-विचार जितना सक्षम है उतना ही काव्य-शिल्प। फूलन देवी से संवाद करनेवाले कवि के हर सवाल का जवाब फूलन जी ने जो दिया, उसे अत्यंत प्रासंगिक कहना होगा। स्वयं को ही अंगार बना देना, युद्ध के बदले बुद्ध को अपनाने की और शब्द रूपी अस्त्र का प्रयोग करने की सलाह देने तथा काल बाह्य बनी संस्कृति की उन बातों को फटे-पुराने कपड़े की तरह उतार कर फेंक देने की संवाद-शैली निश्चय ही काबिले तारीफ कहानी होगी। स्वयं कवि के शब्दों में –
“फूलन देवी से मैंने कहा : आपकी आँखों का अंगार दे।
वह बोली : बेटा अंगार किसी से माँगो मत, स्वयं को ही अंगार बना दे।
फूलन देवी से मैंने कहा : आपकी नीचे रखी बंदूक मुझे दे दे।
वह बोली : बेटा यह युद्ध युग नहीं, बुद्ध युग है, अल्फाज को ही प्रक्षेपात्र बना दे।
फूलन देवी से मैंने कहा : इस संस्कृति के बारे में आपकी क्या राय है?
लब्ज को खिले जैसा
ठोकते हुए वह बोली : फटे लिबास का हम करते हैं क्या?” [17]
कहना सही होगा कि दामोदर जी के काव्य का संवाद-शिल्प वैविध्यपूर्ण, सशक्त, प्रभावकारी एवं काव्य सौंदर्य वर्धक लगता है। इससे उनके काव्य में संप्रेषणीयता एवं नाटकीयता आ जाती है और जीवंतता भी।
निष्कर्ष :
काव्य-शिल्प के परिप्रेक्ष्य में दामोदर मोरे जी की कविता का मूल्यांकन करने के पश्चात यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं होता कि यदि वे कवि न होते तो समाज सुधारक, समाजसेवक या सामाजिक कार्यकर्ता बन जाते। उनकी शैल्पिक संवेदना भी उनकी काव्य संवेदना का अनुगमन करती है। लेकिन उनका काव्य-शिल्प कला को जीवनवादी धरातल प्रदान करता है। उसमें सहजता, सरलता एवं संप्रेषणीयता है, कृत्रिमता नहीं। शब्दों का चयन तथा संदर्भानुरूप उसका प्रयोगिक नियोजन मर्मभेदी कहना पड़ेगा। बिम्ब-प्रतीक, अलंकार, शब्द, संबोधन, शीर्षक, आत्मनिवेदन, संवाद या कथोपकथन उनके काव्य-शिल्प के प्रधान पहलू कहने होंगे। इनके कारण साधारण विषय भी असाधारण, असामान्य और मार्मिक बन जाते हैं। कथ्यानुरूप शिल्प का प्रयोग कवि के काव्य को ऊँचाई प्रदान कर देता है लेकिन उनके काव्य-शिल्प को छायावादी काव्य-शिल्प की तरह न व्याख्याता की जरूरत पड़ती है और न शब्दकोश देखने की। ...और हाँ, उनकी कुछ काव्य कृतियों में सपाट बयानी भी मिलेगी लेकिन उनकी मात्रा कम है। ठीक वैसे, जैसे असाधारण छत्रों की कक्षा में कुछ साधारण या अवसत दर्जे के छात्रों का होना भी महसूस नहीं होता। क्योंकि अनेक प्रतिभावान, कुशाग्र, बुद्धिमान छात्रों के कारण वह कक्षा ध्यानाकर्षण का कारण बन ही जाती है। कुलमिलाकर कहना उचित होगा कि काव्य-शिल्प के आलोक में दामोदर मोरे जी प्रयोगधर्मी, प्रतिभावान एवं प्रशंसा के पात्र कवि हैं।
संदर्भ ग्रंथ सूची :
[1] दामोदर मोरे – सदियों के बहते जख्म, पृष्ठ – 96, अखिल भारतीय साहित्य परिषद प्रकाशन, मुंबई, प्र. सं. 2001
[2] वही, पृष्ठ – 97
[3] वही, पृष्ठ – 62
[4] वही, पृष्ठ – 136
[5] वही, पृष्ठ – 64
[6] वही, पृष्ठ – 65
[7] वही, पृष्ठ – 68
[8] वही, पृष्ठ – 150
[9] वही, पृष्ठ – 57
[10] वही, पृष्ठ – 86
[11] वही, पृष्ठ – 151
[12] वही, पृष्ठ - 152
[13] वही, पृष्ठ – 61
[14] वही, पृष्ठ – 63
[15] वही, पृष्ठ – 87
[16] वही, पृष्ठ – 104
[17] दामोदर मोरे – पिछला चक्का, पृष्ठ – 13, सौरभ प्रकाशन, गाजियाबाद, प्र. सं. 2007
✍️ प्रो. (डॉ.) अर्जुन चव्हाण
प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर (महाराष्ट्र)
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कविता