प्रस्तुत लेख एक संपादकीय लेख है, जो 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के अंक-1 से साभार लिया गया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका है, जो वाराणसी (उत्तर प्रदेश) से प्रकाशित होती है । इस पत्रिका का प्रकाशन सन् 2021 में आरंभ हुआ था । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं समालोचक देवचंद्र भारती 'प्रखर' हैं ।
आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा-पत्र
दलित साहित्य को 'आंबेडकरवादी साहित्य' के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि दलित साहित्य की प्रेरणा आंबेडकरवादी विचारधारा है । दलित साहित्य को अस्तित्व में लाने का श्रेय डॉ० आंबेडकर के अनुयायियों को ही है । इस बात के पक्ष में डॉ० विमल कीर्ति, डॉ० दामोदर मोरे, बुद्धशरण हंस, डॉ० जयश्री शिंदे, डॉ० शरण कुमार लिंबाले, डॉ जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, हरपाल सिंह 'अरुष', डॉ० प्रेमशंकर, डॉ० एन० सिंह, डॉ० धर्मपाल पीहल, डाॅ० बी०आर० बुद्धप्रिय, कांता बौद्ध, पुष्पा विवेक सहित महाराष्ट्र और हिंदी प्रदेश के लगभग पचास विद्वान साहित्यकार एकमत हैं । वर्तमान पीढ़ी के युवाओं को भी स्वयं को 'दलित साहित्यकार' कहना उचित नहीं लगता है । उनका तर्क है कि स्वयं को 'दलित' कहना संविधान की अवमानना करना है । युवा साहित्यकारों के तर्क पर विचार करने और आंबेडकरवादी साहित्य पर पुनः विमर्श करने की आवश्यकता है । इस कविता विशेषांक में कविताओं का संकलन करते हुए आंबेडकरवादी विचारधारा और आंबेडकरवादी दृष्टिकोण का पूर्णतः पालन किया गया है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर बुद्ध को अपना गुरु मानते थे । उनका जीवन दर्शन बुद्ध-दर्शन से पूरी तरह प्रभावित है । उन्होंने बुद्ध के अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्म सिद्धांत, हेतुवाद आदि को हृदयंगम किया था । उनकी बुद्धवादी विचारधारा उनकी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' स्पष्ट परिलक्षित होती है । कुछ मार्क्सवादी दलित साहित्यकार एवं आजीवक धर्म के समर्थक साहित्यकार आजकल आंबेडकर को बुद्ध से अलग करने का असफल प्रयास कर रहे हैं । यही नहीं, वे तो आंबेडकर की विचारधारा सहित उनकी कई पुस्तकों को भी व्यर्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं । वास्तव में, वे बाल की खाल निकाल रहे हैं ।
कुछ लोगों को आंबेडकरवादी विचारधारा में क्रांति नहीं दिखाई देती है, क्योंकि उन्होंने अपनी आँखों पर मार्क्सवाद का चश्मा चढ़ा रखा है । ऐसे लोग आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद आदि दोनों विचारधाराओं की खिचड़ी बनाकर एक नये वैचारिक स्वाद का साहित्य निरंतर परोस रहे हैं । जो पाठक मानसिक रूप से रोगी हैं, उन्हें इस खिचड़ी का स्वाद बहुत ही पसंद आ रहा है । वे निरंतर इस प्रकार के साहित्य को पढ़कर और सुनकर वाह-वाह करते दिखाई दे रहे हैं । ऐसी स्थिति में कुछ लोग बहुजन साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत करने में अपनी उर्जा खर्च कर रहे हैं, जबकि उनकी अवधारणा की परिधि दलित साहित्य की अवधारणा की तरह ही बहुजन और अभिजन की सीमा में गोल-गोल घूमकर रह जाती है । सच तो यह है कि उनका दृष्टिकोण पूरी तरह राजनैतिक है । वे साहित्य की दृष्टि से कम, लेकिन राजनीति की दृष्टि से अधिक सोचते हैं । यही कारण है कि वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मूलनिवासी मानते हुए एकत्रित करने का प्रयास साहित्यिक रूप से करना चाहते हैं । उनके द्वारा प्रस्तावित अवधारणा निश्चित रूप से भ्रामक है । मजे की बात तो यह है कि बहुजन साहित्य की अवधारणा केवल मौखिक रूप से प्रस्तुत की जा रही है । अभी तक इस विषय में कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है । समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आंबेडकरवादी कविताओं के नये प्रतिमान की जानकारी के लिए पाठक मेरी आलोचना की पुस्तक 'आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान' का अध्ययन अवश्य करें । मेरे द्वारा संपादित काव्य-संकलन की पुस्तक का नाम भले ही समकालीन हिंदी दलित कविता है, लेकिन उसमें कविताओं का संकलन आंबेडकरवादी दृष्टिकोण से ही किया गया है । भविष्य में उसके अगले संस्करण का नाम परिवर्तित करने की योजना है ।
'आंबेडकरवादी साहित्य' नामक इस पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन करने का उद्देश्य यही है कि आंबेडकरवादी वैचारिकी शुद्ध और स्पष्ट रुप में साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत हो ।
'दलित साहित्य' के अंतर्गत हर उस व्यक्ति को दलित साहित्यकार माना जाता है, जो जन्म से दलित है; भले ही उसकी विचारधारा हिंदूवादी, मार्क्सवादी आदि किसी भी प्रकार की हो । लेकिन 'आंबेडकरवादी साहित्य' के अंतर्गत केवल उसी व्यक्ति को आंबेडकरवादी साहित्यकार माना जाता है, जो 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण करते समय ली गई 22 प्रतिज्ञाओं का अनुपालन करता है । उन बाईस प्रतिज्ञाओं के प्रतिकूल साहित्य-सृजन करने वाला व्यक्ति भले ही अनुसूचित जाति/जनजाति/ पिछड़ा वर्ग से हो, वह आंबेडकरवादी साहित्यकार नहीं कहा जा सकता है ।
आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा-पत्र :
1. आंबेडकरवादी साहित्य, दलित साहित्य का ही दूसरा नाम है । फिर भी दोनों की अवधारणा में अंतर यह है कि दलित साहित्य में जाति को पहले रखा जाता है, जबकि आंबेडकरवादी साहित्य में विचारधारा को पहले रखा जाता है । यदि कोई दलित होकर भी डाॅ० आंबेडकर की बाईस प्रतिज्ञाओं का अनुपालन नहीं करता है, तो वह आंबेडकरवादी साहित्यकार नहीं कहा जा सकता है ।
2. आंबेडकरवादी साहित्य की वैचारिकी अनीश्वरवाद, अनात्मवाद और पंचशील आदि पर आधारित है । आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करना है । आंबेडकरवादी साहित्य समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की भावना पर आधारित साहित्य है ।
3. आंबेडकरवादी साहित्य में यथार्थ चित्रण स्वीकार्य है, लेकिन अतियथार्थ चित्रण बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को काम-क्रीड़ा और बलात्कार का घिनौना चित्रण करना पसंद नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य में निहित यथार्थ आदर्शोन्मुख है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को अपने महापुरुषों के जीवन-चरित्र पर भी प्रेरणादायक साहित्य-सृजन करना अपरिहार्य है ।
4. दलित साहित्य को 'आह' का साहित्य कहा जाता है, लेकिन आंबेडकरवादी साहित्य के लिए इस कथन का प्रयोग नहीं किया जा सकता है । आंबेडकरवादी साहित्य में रुदन-क्रंदन, निराशा, दीनता, हीनता और विवशता का भाव स्वीकृत नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य क्रांति का साहित्य, जिसमें करुणा, शील, व्यंग्य, उत्साह, प्रेम, अन्योक्ति, चेतावनी, प्रेरणा आदि भावों का समावेश करना अनिवार्य है । शिक्षा के प्रति नवयुवकों और युवकों को प्रेरित करना, संघर्ष करने के लिए उत्साहित करना, सदाचरण का संदेश देना, सम्मान और स्वाभिमान से जीने की सीख देना आदि कार्य आंबेडकरवादी साहित्य के माध्यम से होने चाहिए ।
5. आंबेडकरवादी साहित्यकारों की शब्दावली में विज्ञान और बौद्ध धम्म से प्रभावित शब्दों का सम्मिश्रण होता है । हिंदूवादी शब्दों आत्मा, परमात्मा, भाग्य आदि का प्रयोग विरोध और नकार के भाव में ही किया जाता है ।
6. आंबेडकरवादी साहित्यकार ब्राह्मणवाद और जातिवाद का विरोध करते हैं, लेकिन वैज्ञानिक तर्कों के साथ; पौराणिक पात्रों का उल्लेख किये बिना और पौराणिक कहानियों की चर्चा किये बिना । मिथकों को नकारने वाले आंबेडकरवादी साहित्यकार मिथक पात्रों का वर्णन करके मिथकों के अस्तित्व को बनाये रखना नहीं चाहते हैं ।
7. आंबेडकरवादी साहित्यकार वंचित समाज के समकालीन यथार्थ से परिचित होते हैं । वे समाज में हो रहे परिवर्तनों पर विचार करते हैं । सामाजिक परिवर्तन के साथ जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उन पर ध्यान देते हुए वे साहित्य-सृजन करते हैं ।
8. आंबेडकरवादी साहित्यकार किसी भी विषय पर साहित्य-सृजन करने के लिए स्वतंत्र हैं । शर्त यही है कि उनकी दृष्टि आंबेडकरवादी और वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित होनी चाहिए । आंबेडकरवादी साहित्य का विषय पूरे बहुजन समाज पर आधारित होता है, केवल दलित वर्गों यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि आदिवासी समाज पर ही आधारित नहीं होता है ।
9. आंबेडकरवादी साहित्यकार प्रेम-विवाह और अंतर्जातीय-विवाह का समर्थन करते हैं । आंबेडकरवादी साहित्यकार जाति-धर्म से मुक्त उस वासना रहित सामाजिक प्रेम के पक्षधर हैं, जिसका उद्देश्य विवाह हो ।
10. आंबेडकरवादी साहित्यकार दहेज-प्रथा पर साहित्य-सृजन करते समय दहेज के झूठे केस लगाने वालों पर भी विचार करते हैं । दहेज-प्रथा को बढ़ाने में कन्या-पक्ष के लोगों का भी बहुत बड़ा योगदान होता है, इस बात पर भी वे ध्यान देते हैं ।
11. भ्रूणहत्या के कई पहलू हैं । जो लोग परिवार-नियोजन के उद्देश्य से भ्रूणहत्या करते हैं और जो लोग मजबूरी में भ्रूणहत्या करते हैं, उन समस्याओं के अंतर को भी आंबेडकरवादी साहित्यकार समझते हैं । इसी के साथ आजकल मित्रता और प्रेम के नाम पर भी अवैध संबंध स्थापित किये जाते हैं और गर्भपात कराये जाते हैं, इस पर भी आंबेडकरवादी साहित्यकार विचार करते हैं । इन समस्याओं का गहन अध्ययन और चिंतन करने के पश्चात ही वे भ्रूणहत्या के बारे में साहित्य-सृजन करते हैं ।
12. आंबेडकरवादी साहित्यकार नारी-स्वतंत्रता की बात करते हैं, नारी-स्वछंदता की नहीं । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को नारीवाद का समर्थन बिल्कुल भी पसंद नहीं है, लेकिन वे नारी-विमर्श की चर्चा अवश्य करते हैं ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
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