आंबेडकरवादी आत्मकथा के प्रतिमान और श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' की आत्मकथा


आंबेडकरवादी आत्मकथा के प्रतिमान

स्वयं को आंबेडकरवादी कहने वाले तथाकथित दलित लेखकों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं में ऐसी कई घटनाओं का वर्णन किया गया है, जो बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर द्वारा कल्पित 'समतामूलक समाज' के निर्माण में बाधक हैं । फिर भी तथाकथित दलित आत्मकथाओं का लेखन निरंतर हो रहा है । आजकल तथाकथित सवर्ण प्रकाशक बहुत ही तेजी से दलित आत्मकथाओं को प्रकाशित कर रहे हैं । कुछ प्रकाशक तो दलित आत्मकथाकारों को रॉयल्टी देने का अग्रिम वचन भी दे देते हैं । जब प्रश्न पूछा जाता है कि तथाकथित दलित लेखकों द्वारा आत्मकथाएँ क्यों लिखी जा रही हैं ? तो उत्तर दिया जाता है कि " अपने भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए " । जब प्रश्न पूछा जाता है कि इन आत्मकथाओं के प्रतिमान क्या हैं ? तो तथाकथित दलित-चिंतक प्राध्यापक कहते हैं, " ईमानदारी और पारदर्शिता " । प्रश्न खड़ा होता है कि कैसी ईमानदारी और कैसी पारदर्शिता ? इस संदर्भ में प्रोफेसर कालीचरण स्नेही का कथन द्रष्टव्य है । उन्होंने लिखा है, " हिंदी के सवर्ण लेखकों को मेरी यह चुनौती है कि वे आत्मकथा लिखकर दिखाएँ । हाँ, वे आत्मकथा के नाम पर 'आत्मप्रशस्ति' अवश्य लिख देंगे । पहले भी ऐसी आत्मप्रशस्ति आत्मकथा के नाम से लिखी गई है और अब लिखी जा रही हैं तथा आगे भी लिखी जाती रहेंगी । पर दलितों की तरह 'अक्करमाशी', 'उचक्का', 'तिरस्कृत' तथा 'मेरी पत्नी और भेड़िया' जैसी आत्मकथाएँ नहीं लिख पाएँगे । हो सकता है, भविष्य में कोई सवर्ण लेखक इस तरह का साहस करे भी, पर उसके लिए एक नहीं, सैकड़ों खतरे और जोखिम रहेंगे । वैसे, मैं प्रतीक्षा करूँगा कि कोई सवर्ण लेखक अपने खुद के और अपने सगे-संबंधियों के ऐबों तथा अत्याचारों का खुलासा करे । यदि वह नहीं करेगा, तो उनके बाप-दादाओं की अत्याचारी और अन्यायी छवि दलितों की आत्मकथाओं में तो लगातार आ रही है । " [1] स्नेही जी तथाकथित सवर्णों द्वारा लिखी गई आत्मकथाओं को 'आत्मप्रशस्ति' कहते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि तथाकथित दलित आत्मकथाकार 'आत्मप्रशस्ति' की बजाय 'आत्मनिंदा' लिखते हैं । स्पष्ट है कि स्नेही जी की दृष्टि में अपनी और अपने घर की गोपनीय बातों को सार्वजनिक करना ही ईमानदारी और पारदर्शिता है । जब तथाकथित दलित लेखक इतने ही ईमानदार और पारदर्शी हैं, तो फिर वे अपनी चापलूसी और चमचागिरी के कारनामों को अपनी आत्मकथा में क्यों नहीं उजागर करते हैं ? अधिकांश तथाकथित दलित लेखक तथाकथित सवर्ण संपादकों की जी-हुजूरी करके प्रसिद्धि प्राप्त किये हैं । इस श्रेणी में स्वयं कालीचरण स्नेही भी सम्मिलित हैं । हमें आशा है कि वे अपनी आत्मकथा में इस सच्चाई को अवश्य उजागर करेंगे । 

आंबेडकरवादी आत्मकथा के प्रतिमान तथाकथित दलित आत्मकथा के प्रतिमान से भिन्न हैं । आंबेडकरवादी आत्मकथा के प्रतिमान को मुख्य रूप से पाँच भागों में विभाजित किया जा सकता है - (1) संघर्ष की प्रेरणा (2) पारिवारिक संगठन (3) सामाजिक संदेश (4) समता की शिक्षा (5) वैज्ञानिक चेतना ।

(1) संघर्ष की प्रेरणा :- आंबेडकरवादी आत्मकथाएँ पाठक को आजीवन संघर्ष करने के लिए प्रेरित करती हैं । संघर्ष के भी कई रूप होते हैं । तथाकथित दलित लेखक चापलूसी करके उन्नति प्राप्त करने को भी संघर्ष कहते हैं, लेकिन आंबेडकरवादी लेखक इस प्रकार के कृत्य को संघर्ष के रूप में नहीं स्वीकार करते हैं । संघर्ष वही है, जो स्वाभिमान के साथ अपने सिद्धांतों पर अडिग रहकर किया जाता है । रोटी, कपड़ा, मकान के लिए संघर्ष तो सभी करते हैं । इनको प्राप्त करने के लिए अधिकांश महिलाएँ वेश्यावृत्ति में लिप्त हो जाती हैं और अधिकांश पुरुष चोरी, हत्या, अपहरण आदि दुष्कर्म करने लगते हैं । ध्यातव्य है कि आंबेडकरवादी आत्मकथाएँ सम्यक संघर्ष करने की प्रेरणा देती हैं । जो लेखक स्वयं दुष्कर्मी हो, वह भला आंबेडकरवादी आत्मकथा कैसे लिख सकता है ? उसे तो आंबेडकरवादी भी नहीं कहा जा सकता है । हाँ, यदि वह पहले दुष्कर्मी रहा हो, लेकिन बाद में अपने व्यवहार और विचार में सुधार कर लिया हो तथा पूरी तरह से सज्जन बन गया हो, तब तो उसे आंबेडकरवादी लेखक कहा जा सकता है और उसकी आत्मकथा को आंबेडकरवादी आत्मकथा की श्रेणी में रखा जा सकता है ।

(2) पारिवारिक संगठन :- आंबेडकरवादी आत्मकथा के द्वारा पारिवारिक संगठन स्थापित हो, न कि पारिवारिक विघटन की स्थिति उत्पन्न हो, जैसा कि तथाकथित दलित आत्मकथाओं 'अक्करमाशी' (शरण कुमार लिंबाले) तथा 'मेरी पत्नी और भेड़िया' (धर्मवीर) के द्वारा हुआ है । संत कबीर ने कहा है, " सार-सार को गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय " । आंबेडकरवादी आत्मकथाकारों को अपने जीवन की महत्वहीन घटनाओं का अपनी आत्मकथा में उल्लेख नहीं करना चाहिए, क्योंकि आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य लोगों को संगठित करना है । यदि किसी प्रकार के साहित्य से स्वजन का उपहास और पारिवारिक विघटन हो, तो उसे आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया जा सकता है । आत्मकथा ऐसी हो जिसे लेखक के परिवार के सभी सदस्य पढ़कर प्रसन्नता और आनंद का अनुभव करें, किसी को भी लज्जा और अपमान की अनुभूति न हो ।

(3) सामाजिक संदेश :- साहित्य वही है, जो देश और समाज के हित में हो । समाज का अहित करने वाले सृजन को 'साहित्य' नहीं कहा जा सकता है । जो लेखक सामाजिक नहीं है, उसे अपनी आत्मकथा लिखने की कोई आवश्यकता नहीं है । गैर-सामाजिक लेखक की आत्मकथा कोई क्यों पढ़े ? उसकी आत्मकथा से लोगों को क्या सीख मिलेगी ? अरस्तू के शब्दों में, " मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है " । जो सामाजिक नहीं है, उसे मनुष्य कहलाने का कोई अधिकार नहीं है । साहित्य मनुष्य का कल्याण करने के लिए है, मनुष्य का विनाश करने के लिए नहीं । अतः आंबेडकरवादी साहित्यकार अपनी आत्मकथा के माध्यम से कल्याणकारी और सामाजिक संदेश प्रदान करते हैं ।

(4) समता की शिक्षा :- बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते थे । आंबेडकरवादी साहित्य का भी यही उद्देश्य है । यदि किसी प्रकार के साहित्य से विषमता की परिस्थिति उत्पन्न हो, तो उसे आंबेडकरवादी साहित्य नहीं कहा जा सकता है । आंबेडकरवादी साहित्य की वैचारिकी के अंतर्गत धनी-निर्धन, युवा-वृद्ध, स्त्री-पुरुष आदि सभी को एक समान समझा जाता है । यदि किसी आत्मकथा के द्वारा स्त्री-वर्चस्व अथवा पुरुष-वर्चस्व का भाव प्रकट हो, तो उसे आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत सम्मिलित नहीं किया जा सकता है । जाति-गौरव, कुल-महिमा और राजकीय पद की प्रशंसा से परिपूर्ण आत्मकथा को आंबेडकरवादी आत्मकथा नहीं कहा जा सकता है ।

(5) वैज्ञानिक चेतना :- आंबेडकरवादी साहित्यकार अंधविश्वास, पाखंड, ढोंग, कुरीतियों आदि का विरोध करते हैं और लोगों में वैज्ञानिक चेतना का संचार करते हैं । यदि किसी लेखक की आत्मकथा अंधविश्वास और कुरीतियों की वृद्धि करने में सहायक हो, तो उसे आंबेडकरवादी साहित्य में स्थान नहीं दिया जा सकता है । आंबेडकरवादी लेखकों को आत्मकथा लिखते समय सावधानीपूर्वक हिंदूवादी शब्दों का प्रयोग करना चाहिए । यदि कोई लेखक अधिक से अधिक आंबेडकरवादी शब्दावली का प्रयोग करे, तो वह सर्वोत्तम है ।


श्यामलाल राही की आत्मकथा

श्यामलाल राही जी की आत्मकथा वर्ष 2016 में नवभारत प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई । अपनी आत्मकथा के बारे में राही जी ने लिखा है, " मेरी आत्मकथा मेरा भोगा हुआ यथार्थ है । मेरे बच्चे, जो शहर में पले-बढ़े, जिन्हें सामाजिक भेदभाव का शिकार बहुत कम होना पड़ा, भला उस स्थिति को कैसे जान सकते हैं ? जहाँ से मैंने अपना जीवन प्रारंभ किया । " [2] कोई भी लेखक आत्मकथा क्यों लिखता है ? क्योंकि वह अपने पाठकों के सामने अपनी आपबीती सुनाकर अपना दुख-सुख साझा करना चाहता है । लेकिन कोई पाठक किसी लेखक की आत्मकथा क्यों पढ़ना चाहेगा ? क्योंकि वह अपने प्रिय लेखक के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने की इच्छा रखता है । यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह जिसके प्रति लगाव रखता है, उसकी विशेषताओं एवं उसकी कमियों दोनों से परिचित होना चाहता है । पाठकों की इसी प्रकार की इच्छा ने लेखकों को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया । वर्तमान में आत्मकथा लेखन में पर्याप्त वृद्धि हुई है । अब तो लगभग सभी लेखक आत्मकथा लिखने लगे हैं । लेकिन क्या सभी आत्मकथाएँ समाज, देश और मानव-कल्याण के हित में हैं ? बिल्कुल नहीं । क्योंकि हर आत्मकथाकार सामाजिक, देशप्रेमी और लोककल्याणकारी भावना से परिपूर्ण नहीं है । जो केवल अपने शौक के लिए, अपनी संतुष्टि के लिए अथवा अपने मनोरंजन के लिए लेखनकार्य करता हो, वह समाज, देश और मानव-कल्याण  हेतु क्या लिख सकता है ? इस प्रकार का लेखन करने वाले लेखकों की कमी तो नहीं है, फिर भी सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना से युक्त लेखक भी साहित्य जगत में उपस्थित हैं । श्यामलाल राही जी भी उन्हीं में से एक है । उनकी आत्मकथा समाज और देश को एक नई दिशा प्रदान करती है । उन्होंने केवल अपना भोगा हुआ यथार्थ ही नहीं अभिव्यक्त किया है, बल्कि सामाजिक कुरीतियों, शैक्षिक विसंगतियों एवं राजनैतिक कुनीतियों पर प्रहार भी किया है । राही जी की आत्मकथा में निहित उनकी जीवनकथा को कई भागों में विभाजित करके देखा जा सकता है ।

(क) छात्र जीवन :-

मनुष्य का छात्र-जीवन उसकी बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था के साथ-साथ कभी-कभी प्रौढ़ावस्था तक होता है । लेकिन जो स्थितियाँ बाल्यावस्था और किशोरावस्था में होती हैं, वे युवावस्था और प्रौढ़ावस्था में नहीं होतीं, क्योंकि ज्ञान और अनुभव में वृद्धि होने से मनुष्य अपने परिवेश और परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बनाने में सक्षम हो जाता है । श्यामलाल राही जी ने अपने छात्र-जीवन के अंतर्गत अपनी बाल्यावस्था की कई महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख किया है । उनके बचपन की घटनाएँ उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनके समाज की पीड़ा और संघर्ष को रेखांकित करती हैं । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " हमारे दादा की मान्यता थी कि पराँठा कच्चा रह जाता है । उनका जोर था कि छोटी-छोटी सुंदर रोटी बनाकर घी लगाकर दोपहर के लिए बाँध दिया जाए । हम भाइयों को यह पसंद न था । और बच्चे पराँठा लाते, हमें रोटी उनके सामने खाते अच्छा न लगता । हम अम्मा पर जोर देते कि हमारे लिए पूड़ी या पराँठा बनाओ, पर वे दादा का कहा मानती । उसका नतीजा यह निकलता कि हम कभी-कभी खाना बंगलिया (घर के दरवाजे पर एक कमरा, जो बैठक भी था तथा वहीं दर्जीगिरी का काम होता था) में रखकर भाग जाते । कभी-कभी हम खाना कुत्तों को खिला देते और खुद भूखे रहते । अंततोगत्वा अम्मा हमारे लिए पराँठा बनाने लगी । " [3] वंचित वर्ग के लोगों का सामाजिक जीवन अनेक दुष्प्रवृत्तियों से भरा पड़ा है । यह कटु यथार्थ है कि वंचित वर्ग के अधिकांश लोग मादक पदार्थों का सेवन करते हैं । कुछ तो दिन भर नशे में डूबे रहते हैं । श्यामलाल राही जी ने अपने बचपन के दिनों में की गई अपनी शरारतों का वर्णन करते हुए लिखा है, " मुझे तो ऐसा लगता, जैसे पूरा गाँव ही शराबी हो गया था । हमारे घर की भुसौरी, जिसमें अनाज रखा जाता था, भूसे में प्रायः शराब की बोतलें गड़ी रहतीं । हम बच्चे लोग कभी-कभी स्वाद जानने के लिए बोतल से थोड़ी शराब पी लेते, तो मुँह कड़वा हो जाता और थू-थू करते । " [4] राही जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा का वर्णन बहुत ही सटीक और स्पष्ट शब्दों में किया है, जिससे उनके समय की शिक्षा-व्यवस्था की जानकारी मिलती है । उनके समय की प्रारंभिक कक्षा का पाठ्यक्रम कैसा था ? उसके बारे में भी पाठक परिचित हो जाते हैं । राही जी ने लिखा है, " स्कूल में मुंशी जी का ज्यादातर ध्यान कक्षा 5 पर रहता, बाकी कक्षाओं को भी पढ़ाते । हमारी पढ़ाई में बेसिक रीडर नामक हिंदी की किताब थी । नकल, इमला, जिन्हें सुलेख और श्रुतलेख भी कहते थे, हमसे प्रायः कराया जाता । हिंदी में दूसरा महत्वपूर्ण काम शब्दार्थ याद करना था । गणित में गिनती-पहाड़े कम से कम 20 तक के, साथ में गुणा-भाग जोड़-घटाना कराया जाता । हमें पहाड़े, पव्वा, अद्धा, सवैया, डेढ़ा, ढैया रटने पड़ते । कृषि तथा कला, इतिहास, भूगोल में कुछ खास नहीं पढ़ाया जाता । इसके लिए हमारे पास रंग ही न होते । " [5] श्यामलाल राही जी शरीर से हृष्ट-पुष्ट हैं । बचपन में भी वे शारीरिक रूप से स्वस्थ थे, लेकिन मानसिक रूप से अत्यंत डरपोक थे । उन्होंने अपने बचपन की एक घटना के बारे में लिखा है, " मैं जब पाँचवी में था तो बहुत ही अधिक डरपोक था । आँधी, पानी, लड़ाई, बाढ़ से मुझे बड़ा डर लगता । एक बार हमारे गाँव के एक ठाकुर को विक्रमपुर वालों ने पकड़ लिया । अफवाह फैली कि उन्हें मार डालेंगे तथा गाँव पर हमला कर देंगे । डर के कारण मुझे बुखार आ गया । देर रात्रि अम्मा ने हमें आश्वस्त किया कि ठाकुर छूटकर घर आ गये हैं और गाँव पर कोई हमला नहीं होगा, तभी मेरा बुखार उतरा । " [6]

(ख) वैवाहिक जीवन :-

श्यामलाल राही जी ने अपने विवाह का विवरण प्रस्तुत करते हुए हास-परिहास को भी मिश्रित किया है । उन्होंने कुछ गोपनीय बातों को भी खुलकर स्पष्ट लिखा है । उनके इस प्रकार की लेखनशैली से स्पष्ट होता है कि वे स्पष्टवादी व्यक्ति हैं । लेकिन उन्होंने ऐसी किसी गोपनीय बात का उल्लेख नहीं किया है, जिससे किसी के सम्मान की हानि हो । राही जी ने लिखा है, " 5 जून, रविवार 1966 को हमारी बारात में दो लहडू से नौ व्यक्ति गये, जिनमें मैं भी शामिल था, बाराती थे । पिताजी कल्याण सिंह, भाई रामचरण लाल, ताऊ जोरावर सिंह, मेरे बहनोई किशोरचंद्र, मेरा मित्र रामेश्वर दयाल, भाई साहब के ससुर लाखन सिंह, उनके पुत्र रामकिशोर तथा शीतल सिंह के पुत्र रामनाथ सिंह, जो कि फौज में थे तथा कभी मेरी पत्नी से विवाह की इच्छा रखते थे । मुझसे मेरी पत्नी के विवाह के बाद रिश्ते में उनकी बहन हो गई थी । " [7] राही जी ने अपने विवाह से पूर्व होने वाले पारंपरिक क्रियाकलापों का महत्वपूर्ण वर्णन किया है । उन्होंने विवाह-संस्कार के समय संचालित किये जाने वाले विधि-विधानों का उल्लेख करते हुए सांस्कृतिक यथार्थ का चित्रण किया है । उनके द्वारा किये गये सांस्कृतिक चित्रण से उनके क्षेत्रीय रीति-रिवाजों के विषय में जानकारी प्राप्त होती है । उनके विवाह से पूर्व जिन परंपराओं का पालन किया गया, थोड़ी बहुत हेर-फेर के साथ लगभग उसी प्रकार की परंपरा भारत के अधिकांश राज्यों में प्रचलित है । इस संदर्भ में राही जी का कथन द्रष्टव्य है । उन्होंने लिखा है, " हमारे यहाँ प्रायः विवाह का आरंभ घान से होता । 'घान' का अर्थ था - विवाह के लिए अन्न, चावल-दालों की सफाई, कुटाई, पिसाई का आरंभ । उसके बाद प्रायः ताई होती । उसमें महिलाएँ एक दीये को सात सीकों के साथ घर की दीवार फर आटे से चिपका देतीं । उसमें वे अशांत वायु, जल तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं को विवाह के पूर्ण होने तक बंद कर देतीं । फिर तेल उबटन, जो प्रायः दूल्हा-दुल्हन को सुंदर व स्वस्थ बनाने के लिए किया जाता, फिर मंडप और अंत में विवाह । " [8] श्यामलाल राही जी विवाह होने के बाद अपनी दुल्हन को साथ लेकर आना नहीं चाहते थे, क्योंकि उन्हें भय था कि उनकी शिक्षा में बाधा उत्पन्न होगी । जबकि उनके ससुराल वाले लड़की की विदाई करके ससुराल भेजना चाहते थे, ताकि वह ससुराल वालों से परिचित हो जाए । उस समय राही जी और उनकी सलहज के बीच होने वाले संवाद को राही जी ने बिल्कुल सटीक शब्दों में प्रस्तुत किया है, जिसमें उनकी अभिव्यंजना शैली के साथ-साथ उनकी मनोविश्लेषणात्मक प्रतिभा का स्पष्ट दर्शन होता है । राही जी ने लिखा है, " ससुराल पक्ष चाहता था कि उनकी लड़की ससुराल देख आए । मेरे बार-बार मना करने पर हमारी सलहज गुस्सा हो गयी और कहने लगीं - हमारे यहाँ लड़की को खिलाने की कमी नहीं है । जब तुम्हारी इच्छा हो, तो बुला ले जाना । " [9]
राही जी के साथ उनकी दुल्हन के न आने से गाँव की कुछ परंपराओं का निर्वहन होने में असुविधा हो रही थी, इसलिए उनकी दुल्हन की जगह उनकी भाभी के साथ उन परंपराओं को संपन्न किया गया । राही जी के द्वारा किया गया उस परंपरा के निर्वहन का वर्णन सरस और सुग्राह्य है । राही जी ने लिखा है, " गाँव में मेहमानों को बड़ी निराशा हुई । विवाह की कुछ परंपराएँ, जिनमें मंडप का विधिवत समापन तथा देवी पूजन दूल्हा-दुल्हन के साथ ही संपन्न होता था । चूँकि मेरी पत्नी आयी नहीं थी, अतः अस्थायी दुल्हन की तलाश हुई, जो कि हमारी भाभी पर जाकर रुकी । गाँव की परंपरा अनुसार यदि किसी कारण दुल्हन उपस्थित नहीं होती, तो भाभी (सगी या मोहल्ले की, जिसे आपत्ति न हो) अथवा कभी-कभी बुआ के साथ गाँठ जोड़कर ये वैवाहिक रीति-रिवाज संपन्न कराये जाते । यद्यपि बाद में जीवनभर यह मजाक चलता कि वो आधी पत्नी है । " [10]

श्यामलाल राही जी के दादा जी की मृत्यु ने उनके पिताजी को एक जिम्मेदार अभिभावक बना दिया । परिवार की आर्थिक दशा तो पहले से ही खराब थी, उनके दादाजी के दसवें आदि पर किये गये खर्च से और भी शोचनीय हो गयी थी । ऐसे समय में उनकी अम्मा के एक-दो शेष बचे चाँदी के गहने या तो गिरवी रखे गये या बेच दिये गये । जिसे रेहन रखा गया, वे कभी छूट नहीं पाये । चैत्र में जब खेत कट रहा था, तो पिताजी ने पूछा, " तुम्हारी छुट्टियाँ कब तक है ? " चूँकि उन दिनों बी.ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा चल रही थी, इसलिए राही जी ने पूछा, " ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ? " तो उन्होंने कहा, " तुम्हारा गौना कराना है । " तब राही जी ने विरोध स्वरूप कहा, " आपने तो तीन साल बाद गौना कराने की बात कही थी । " तब वे बोले" बेटा ! जमाना खराब है । शादी के बाद लड़की की जिम्मेदारी ससुराल पक्ष की होती है । गौना कराना ही ठीक रहेगा । " जब गौना कराने के लिए राही जी घर से निकले, तो साइकिल चलाते हुए घर से और ससुराल के बीच का सफर तय करना उनके लिए बहुत ही कष्टकर था । वास्तव में, उन्होंने दुल्हन लाने के लिए कठिन संघर्ष किया था । राही जी के शब्दों में, " उस दिन पछुआ हवा चल रही थी, नतीजतन साइकिल से फर्रुखाबाद बीस किलोमीटर आने में मुझे कुछ समय लगा । मेरे पास लगभग पंद्रह रूपये थे । फर्रुखाबाद पहुँचकर मुझे याद आया कि मेरे मोजा व बनियान की हालत ठीक नहीं है । अतः मैंने एक जोड़ी मोजा, एक बनियान व छोटा तौलिया खरीदा, जिसमें लगभग दस रूपये व्यय हो गये । गंगा और रामगंगा पर उस समय पुल नहीं था । हमारी ससुराल मैकपुर फर्रुखाबाद से लगभग पचास किलोमीटर थी । मैं बारह बजे जब फर्रुखाबाद से निकला, तो मुझे समय से पहुँचने की चिंता हुई । दो-दो नदियों के कारण वह क्षेत्र अब भी पिछड़ा है तथा असामाजिक तत्व वहाँ ज्यादा सक्रिय रहते हैं । नदियों में उस समय नावों या पीपों का पुल (पोनटोन ब्रिज) बनाया जाता था । रेत में बस आदि के निकालने के लिए उचित दूरी पर लोहे अथवा लकड़ी के पटरे रेत में डाले जाते । फर्रुखाबाद से जलालाबाद मार्ग उत्तर में है । हवा का रुख भी कुछ उत्तर पश्चिम था, नतीजा यह था कि साइकिल यात्री के लिए हवा का रुख विपरीत था । मैं सिर पर तौलिया बाँधे पूरी शक्ति से साइकिल खींचता चला । नदियों में कभी साइकिल पर, कभी पैदल चला । लगभग पाँच बजे चौरसिया ग्राम पहुँचा । उसी समय मेरी साइकिल का फ्रीबेल खुल गया । उसके दाने सड़क पर बिखर गये । यहीं से कच्चा मार्ग मैकपुर को था । जो लगभग आठ किलोमीटर था । " [11] राही जी जब बी.ए. प्रथम वर्ष में थे, तब परीक्षा से पहले तैयारी के अवकाश में वे ससुराल चले गये । वहाँ वे मौज में आकर पढ़ना-लिखना भूल गये । दिन भर गप्पे मारते, खाते-पीते मौज करते । इस तरह आधा समय व्यतीत हो गया । एक दिन उन्हें सद्बुद्धि आयी, तब उन्होंने अपने आपको धिक्कारा । राही जी के शब्दों में, " मैंने अपने आपसे पूछा - तू क्या समझता है अपने आपको ? लोग थोड़ा-बहुत जो तेरा आदर-सम्मान करते हैं, तो उसका कारण है कि वे समझते हैं कि तू कुछ बन जाएगा । पर इस तरह तो कुछ भी नहीं कर पाएगा । " [12]


(ग) व्यावसायिक जीवन :-

श्यामलाल राही जी ने नौकरी के दौरान होने वाली रिश्वतखोरी का वर्णन करके नौकरी दिलवाने के लिए रिश्वत लेने वाले अधिकारियों एवं दलालों पर कटाक्ष किया है । फिर भी इस बात से संतुष्ट होते हैं कि उन्हें अपनी नौकरी के लिए रिश्वत नहीं देनी पड़ी । वस्तुतः इस घटना का उल्लेख करके उन्होंने यह प्रकट किया है कि रिश्वतखोरी के इस बुरे समय में भी बिना रिश्वत के नौकरियाँ मिल जाती हैं । राही जी ने लिखा है, " मैंने वाजपेयी जी से प्रार्थना की थी कि मेरी नौकरी का कुछ जुगाड़ करने का कष्ट करें, तो उन्होंने बताया था कि जब परीक्षाफल निकले, तो पूरे विवरण के साथ उप-शिक्षा-निदेशक तथा शिक्षा-निदेशक को नौकरी का प्रार्थना-पत्र भेज देना तथा दो सौ रूपये की व्यवस्था कर लेना । निदेशालय में उन दिनों प्रति उप-विद्यालय-निरीक्षक, स्नातक व प्रवक्ता वेतनक्रम के अस्थायी शिक्षकों के लिए रिश्वत की यही दर थी । ऐसा नहीं कि बिना रिश्वत के नियुक्तियाँ नहीं होती थी, पर प्रायः दलाल किस्म के लोग ऐसा करते थे । स्वयं मेरी नियुक्ति बिना पैसे की हुई । " [13]
जब श्यामलाल राही जी की नियुक्ति अध्यापक पद पर गेबला में हुई और वे वहाँ पहुँच, तो उन्होंने वहाँ पर जो जातिगत भेदभाव का अनुभव किया, उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है । जब वे गेबला पहुँचे, तो शाम के चार बज रहे थे । यात्रा के दौरान बस में ही उनसे एक सज्जन मिले थे । उन्होंने गेबला के वरिष्ठ अध्यापक जगत सिंह पडियार से राही जी का परिचय कराया । जगत सिंह पड़ियार टिहरी जनपद के रहने वाले थे । पड़ियार ने राही जी का परिचय पूछा । जब उन्हें यह पता चला कि राही जी मैदानी क्षेत्र के रहने वाले हैं, तो उन्होंने तुरंत एक छात्र को बुलाकर यह कहते हुए उन्हें उसके हवाले कर दिया कि वह उन्हें प्रभारी प्रधानाध्यापक सी.एस. दूबे के पास पहुँचा दें । वह बच्चा उन्हें दूबे जी के पास ले गया । राही जी के शब्दों में, " दूबे जी पहली मंजिल पर रह रहे थे । उन्हें जब छात्र ने मेरे विषय में बताया, तो वे बरामदे में आये और वहीं से मेरा परिचय पूछा । यह जानने पर कि मैं मैदानी क्षेत्र का हूँ, सीढ़ियाँ उतरकर नीचे आये और मुझे बाहों में भर लिया । उनका पहला वाक्य आज तक मेरे कानों में गूँजता है - ' तुम्हें भी मरने को और जगह नहीं मिली ? ' फिर भी मुझे सांत्वना देते हुए बोले - ' कोई बात नहीं, अब आ गये हो, तो सब ठीक हो जाएगा । ' तदोपरांत उन्होंने मेरा नियुक्ति-पत्र देखा । जब उन्हें पता चला कि मैं अनुसूचित जाति का हूँ, तो उनका उत्साह ठंडा पड़ गया । " [14] जनवरी सन् 1975 ई० में प्रति उपविद्यालय निरीक्षक पद के लिए श्यामलाल राही जी का साक्षात्कार होना था । वे अपने विद्यालय में अकेले थे, जिसने लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की थी । वे इलाहाबाद गये । श्यामलाल राही जी का साक्षात्कार लेने वाले सदस्य का नाम था - सत्येंद्र शुक्ल, जो अवकाश प्राप्त जज थे । दूसरे सज्जन इलाहाबाद विश्वविद्यालय से थे । जब राही जी साक्षात्कार में प्रवेश किये, तो नमस्कार आदि की औपचारिकता पूर्ण करके  साक्षात्कार प्रारंभ हुआ । दोनों सज्जनों ने पहले राही जी का पूरा बायोडाटा पूछा । फिर प्रश्न पूछना आरंभ किये । राही जी के शब्दों में -
" क्या प्रोफेसर जे. के. मेहता का नाम आपने सुना है ? "
" जी, हाँ । " मेरा संक्षिप्त उत्तर था ।
" उनकी थ्योरी क्या थी है ? "
" माफ कीजिए - मेहता साहब इतने बड़े अर्थशास्त्री नहीं हैं कि उनका सिद्धांत पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाए । मैंने उन्हें नहीं पढ़ा । वे मेरे पाठ्यक्रम में नहीं थे । "
" तो फिर किन भारतीय अर्थशास्त्रियों को आपने पढ़ा ? "
" गांधीजी, रानाडे, गोखले और डॉ. बी. आर. आंबेडकर । " मेरा उत्तर था ।
" गांधी जी की थ्योरी क्या है ? "
" वांटलेसनेस सिद्धांत है । "
" यही तो मेहता का सिद्धांत है । "
मैंने उसका कोई उत्तर नहीं दिया । " [15]
श्यामलाल राही जी जब एसडीआई के पद पर नियुक्त हो गये, तो उन्होंने बहुत ही गर्व का अनुभव किया । राही जी के शब्दों में, " अब मैं डिप्टी साहब था । यह शब्द हमारे लिए नया था, पर जब कोई हमें डिप्टी साहब कहकर संबोधित करता, तो हमें कुछ गर्व अनुभव होता । " [16] राही जी अपने पद के गर्व में अपनी गरिमा बढ़ाने हेतु अपने रहन-सहन के स्तर में भी परिवर्तन किये । उन्हें द्वितीय श्रेणी की यात्रा करना पसंद नहीं था । उसे वे अपने पद का अपमान समझते थे । उन्होंने लिखा है, " हम सरकारी नियम से बस में द्वितीय श्रेणी की यात्रा हेतु अधिकृत थे । पर यात्रा हमेशा प्रथम श्रेणी में करते । मान के लिए हर यात्रा में कुछ पैसा हमें जेब से देना पड़ता । " [17]

श्यामलाल राही जी नौकरी के दौरान कर्तव्यनिष्ठ, परिश्रमी और अपने कार्य में अत्यंत रुचि लेने वाले अधिकारी रहे । वे कठिन श्रम करने में कभी आलस्य नहीं करते थे । उन्होंने बीटीसी का चयन करते समय अपने द्वारा किये गये कठिन श्रम का उल्लेख किया है । राही जी के शब्दों में, " बी.टी.सी. का चयन उन दिनों अंकों के आधार पर होता था । इस काम के लिए बहुत परिश्रम, लगन, ईमानदारी की आवश्यकता थी । मैं और सागर विभाग के वे बैल थे, जिन्हें जैसा भी चारा डाल दो और चाहे जितना जोतो । हरिनंदन सक्सेना ने हम दोनों को यह काम सौंपा । साथ ही यह छूट दी कि इस काम को हम घर पर रहकर ही करें । औसतन उस समय दो हजार फार्म भरे जाते थे । उन्हें जाँचना, उनका अंकन करना, वरीयता बनाना फिर बरेली उप-शिक्षा-निदेशक के मंडल कार्यालय में जाकर एक-एक एंट्री की जाँच करा अनुमोदन कराना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य था । उस समय सारा काम हाथ से होता था तथा सूचियाँ चार प्रति में कार्बन काॅपी से तैयार होती थीं । बड़े-बड़े कागजों पर लाइनें खींचना, लिखना सब हाथ से था । इस काम में हमारे तीन महीने लग जाते - मई, जून व जुलाई । " [18] राही जी ने तथाकथित सवर्णों के मुख से कथित निम्न जातियों के प्रति ईर्ष्या भाव से परिपूर्ण कटु शब्दों को अपने कानों से सुना था । भारत में फैली जातिवाद की गहरी जड़ों का उन्हें अनुमान हो चुका था । इसलिए उन्होंने कभी किसी जातिवादी व्यक्ति से उलझना उचित नहीं समझा ।  फिर भी उनके मन में जातिगत भेदभाव की पीड़ा अवश्य रही । राही जी ने लिखा है, " मैंने कई ऐसे लोगों से सुना, वे कहते हैं - हमारा कॉलेज हमारे बाप-दादाओं ने इसलिए नहीं खोला कि वहाँ चमार, चूहड़ा आकर हमारी बराबरी करें । हमें पद रिक्त रखना स्वीकार है । यह स्वीकार नहीं कि कोई दलित आकर हमारी संस्था को दूषित करे । " [19] जातिवाद के शिकार वंचित वर्ग के लोगों में भी जातिवादी भावना उपस्थित रहती है । जाति का दंश झेलने वाले भी जातिवाद से मुक्त नहीं हैं । श्यामलाल राही जी ने अपनी नौकरी के दौरान इस बात का भी अनुभव किया । उन्होंने अपने साथ हुई एक दुर्घटना का उल्लेख किया है । राही जी के शब्दों में, " मैं मित्रलाल जी से मिलने शिष्टाचारवश एक मिठाई का डिब्बा लेता गया । यह मिठाई बरेली की मशहूर मिठाई की दुकान किप्स की थी । जब मैं उनके यहाँ पहुँचा, तो कई प्रति उप-विद्यालय-निरीक्षक वहाँ बैठे थे । उनमें सतीश कुमार वर्मा भी थे । मैंने मिठाई का डिब्बा उनकी बैठक की एक खुली अलमारी में संकोचवश जाकर रख दिया । उनके हाथ में डिब्बा देना उचित न समझा । कुछ समय बाद जब मैं चलने लगा, तो वे बोले - मिठाई वापस लेते जाओ । यह मेरे लिए अच्छा न था, अप्रत्यक्ष रूप से मेरा अपमान था । मैंने कहा - रहने दीजिए साहब ! बच्चों के लिए है । तब वे बोले - हमारे घर में मिठाई कोई नहीं खाता । मैंने फिर कहा - रहने दीजिए साहब ! कोई और खा लेगा । तब उन्होंने नकली ईमानदारी की पराकाष्ठा दिखाते हुए कहा - नहीं ले जाना चाहते हो, तो न ले जाओ । हमारे चपरासी को दे दो, वह खा लेगा । अब मेरा धैर्य चूक गया । मैं कोई कड़ी बात तो कहने की स्थिति में नहीं था, फिर भी आक्रोशित होकर मैंने मिठाई का डिब्बा उठाते हुए कहा - साहब ! मैं इतना धनाढ्य नहीं और न मेरी इतनी आमदनी है, जो मैं किप्स की मिठाई चपरासियों में बाँट दूँ । मैं मिठाई घर ले जाता हूँ । मेरे बच्चे भी आपकी बदौलत किप्स की मिठाई खा लेंगे । फिर मैं चला आया । " [20]

(घ) सामाजिक जीवन :-

एक बार होली की छुट्टी पर श्यामलाल राही जी अपने ससुराल गये थे । वहाँ उन्होंने एक दिन देखा कि उनके बड़े साले साहब पूसे लाल जी शाम के समय नहा रहे थे, जबकि उनकी तबीयत ठीक नहीं थी । राही जी सामने बैठक में बैठे थे । वहीं पर एक सज्जन भी बैठे हुये थे । राही जी ने उस सज्जन से कहा, " देखो, पूसे लाल को क्या हो गया है ? जो खराब तबीयत होने पर भी शाम के समय नहा रहे हैं । " तो उस सज्जन ने कहा, " किसी ठाकुर का कोई पशु मर गया था । ये उसी मृत पशु को खींचकर बाहर डाल आये हैं । इसलिए नहा रहे हैं । " यह सुनकर राही जी को बहुत दुःख हुआ, क्योंकि उनके यहाँ के लोगों ने बड़े संघर्ष के बाद उस काम से मुक्ति पायी थी । उन्होंने अपने ससुराल के लोगों को उस काम से मुक्ति दिलाने के लिए पहल करने का निश्चय किया । राही जी के शब्दों में, " मैंने अपने ढंग से काम करने के लिए पहला कदम यह उठाया कि उस शाम मैंने खाना खाने से मना कर दिया । मुझसे पूछा गया, क्या बात है ? तबीयत ठीक नहीं है ? तब मैंने कहा, तबीयत ठीक है, पर मुझे पता नहीं था कि तुम लोग अब भी चमार हो । " [21] इस प्रकार राही जी ने अपने ससुराल के लोगों को मृत पशु ढोने के काम से मुक्त किया । श्यामलाल राही जी भले ही पूर्णरूपेण आंबेडकरवादी नहीं हैं, लेकिन वे बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के प्रति श्रद्धालु अवश्य हैं । उन्होंने जब अपने मकान का निर्माण करवाया, तो गृह-प्रवेश की तिथि आंबेडकर-जयंती को ही निश्चित किया । राही जी ने लिखा है, " जनवरी 1980 में मैंने मकान बनवाना प्रारंभ किया । उस समय प्रति-उपविद्यालय निरीक्षक के पद रिक्त चल रहे थे । फलतः दहगवाँ के साथ उसावा ब्लाक का प्रभार भी मुझे दे दिया गया । पिताजी के मौसेरे भाई, जो लक्ष्मणपुर निवासी थे, उनका नाम मुन्नालाल था । मैं कलान रहकर मकान बनवाने लगा । चाचा मुन्नालाल राजमिस्त्री थे । यह छोटा सा मकान हमारे विकास की प्रथम मंजिल का साक्षी बन रहा था । उस समय तक लगभग शत-प्रतिशत रिश्तेदारों के मकान मिट्टी के बने थे । केवल बड़ी बुआ सुरजा देवी व बुधपाल सिंह अस्तौली के मकान आंशिक पक्के थे । कलान में मकान बनना अपने आप में एक उपलब्धि थी । किसी तरह अप्रैल 1980 के प्रथम सप्ताह में मकान बना, पर उस पर न प्लास्टर हो पाया था और न ही फर्श । 14 अप्रैल 1980 को बाबा साहेब के जन्मदिन पर अधूरे घर में गृह-प्रवेश किया । " [22] श्यामलाल राही जी में अनेक गुणों के साथ एक महत्वपूर्ण गुण दृढ़संकल्प भी समाहित है । अपनी छोटी बेटी के कहने पर उन्होंने लंबे समय से सिगरेट पीने की अपनी बुरी आदत को छोड़कर अपने दृढ़संकल्पी व्यक्तित्व का परिचय दिया । राही जी ने लिखा है, " मैं 1967 से ही सिगरेट पीता था । पहाड़ पर दो बार उसे छोड़ने का प्रयास किया । एक बार तो छः माह सिगरेट नहीं पी, फिर पीने लगा । मुझे यह अच्छा नहीं लगता । बरेली में हमारी छोटी बेटी कुसुम को मेरा सिगरेट पीना अच्छा न लगता । वो मुझसे कहती कि आपके मुँह से दुर्गंध आती है । मैंने निश्चय कर रखा था कि जब मैं राजपत्रित अधिकारी हो जाऊँगा, तो फिर सिगरेट नहीं पिऊँगा । उसकी घोषणा मैंने कर रखी थी । 16 जनवरी 1988 को मुझे यह सूचना मिली कि मैं पदोन्नत हो गया हूँ । मैं और ललई राम यादव सहायक शिक्षा निदेशक के कार्यालय गये । वहाँ से आदेश की फोटो प्रति ली । उस दिन शनिवार था । हम कार्यालय आये । सभी बधाइयाँ दे रहे थे । सबको मिठाई खिलाई । उपविद्यालय निरीक्षक चंद्रलाल तिवारी से कहकर मैं उसी दिन कार्यमुक्त हो गया । 18 जनवरी, 1988 सोमवार को हम (मैं और यादव) बस से मुरादाबाद गये । जब हम बस से उतरकर रिक्शे से कार्यालय की ओर चले, तो रिक्शे पर मैंने अपने जीवन की अंतिम सिगरेट पी । संयोग से डिब्बी में दो ही सिगरेट थे । " [23]


(ड़) साहित्यिक जीवन :-

श्यामलाल राही जी के प्रकाशित साहित्यिक जीवन का आरंभ उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक में हुआ । उनकी पहली प्रकाशित कृति गजल-संग्रह 'दबे पाँव' थी । राही जी के शब्दों में, " वर्ष 1994 में पहला गजल-संग्रह 'दबे पाँव' प्रकाशित हुआ । जिनके हाथों से वह संग्रह गुजरा, उन्होंने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की । संग्रह की पहली ही ग़ज़ल बड़ी पसंद की गयी - दबे पाँव आके जिंदगी चुपचाप यूँ ही निकल गई/जैसे तनहा शम्मए हो वज्म में धीरे-धीरे जल के पिघल गई । " [24] न्यूरिया हाईस्कूल के उनके सहकर्मी मुहम्मद सफी कादरी जी श्यामलाल राही जी की कविताओं से बेहद प्रभावित हुये । वे एक दिन राही जी के पास आये और बोले, " साहब ! न्यूरिया में तो मैंने इसलिए नहीं कहा, क्योंकि तब आप हमारे अधिकारी थे । अब चूँकि मैं आपका मातहत नहीं हूँ, पर आपका फैन हूँ, आप कृपा करके अपनी रचनाएँ दीजिए । मैं उन्हें पुस्तक के रूप में छपवाकर आपको भेंट करना चाहता हूँ । " राही जी के शब्दों में, " उनके अनुरोध को मैं टाल न सका और अपनी चालीस छंदहीन कविताएँ उन्हें दी । उन्होंने उसे ' सिर्फ काँटे नहीं ' नामक पुस्तक के रूप में छपवाकर मुझे भेंट किया । वे कलाकार थे । किताब का मुखपृष्ठ उन्होंने स्वयं डिजाइन किया । " [25] राही जी ने अपना उपन्यास 'कमलकांत आईएएस' लिखते समय अत्यंत श्रम किया । उन्होंने उस उपन्यास के लेखन में अत्यधिक अध्ययन किया । साथ ही उन्होंने ब्रिटिश काल के अपने अनुभव का भी उपयोग किया ।  उस उपन्यास की पृष्ठभूमि और प्रकाशन के बारे राही जी ने लिखा है, " मैंने अपने समस्त अनुभव व ज्ञान, ब्रिटिश भारत के सामाजिक जन-जीवन के आधार पर उपन्यास कमलकांत लिखना प्रारंभ किया । मैं जब राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय गेबला, ब्रह्मखाल, उत्तरकाशी में प्रथम नियुक्ति में गया, तो वहाँ उन दिनों कमलकांत जायसवाल जिलाधिकारी थे । डी.एम. कमलकांत बड़े ही फैशनेबल व्यक्ति थे । उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली था । उनके नाम से प्रेरित हो मैंने अपने नायक का नाम 'कमलकांत' रखा । नायक को आई.ए.एस. बनाने का विचार वहीं बना । बाद में जब मैं मुरादाबाद में था, तो वहाँ डॉ. राजाराम एम.ए., पीएच.डी., डी. लिट., एल.एल.एम. आयुक्त थे । कथानक में मुरादाबाद का प्रसंग उन्हीं के कारण जुड़ा । जब कई साल बाद उपन्यास 'नीलाभ प्रकाशन' इलाहाबाद से छपा, तो प्रकाशक प्रसिद्ध साहित्यकार नीलाभ 'अश्क' जो कि उपेंद्रनाथ अश्क के पुत्र हैं, के सुझाव पर उपन्यास का नाम कमलकांत आई.ए.एस. किया । मैंने उपन्यास कमलकांत के नाम से लिखा । अप्रैल 1996 में मैं उपन्यास जब लिखना प्रारंभ किया, तो मुझे उपन्यास-लेखन का कोई अनुभव न था । उपन्यास केवल अस्सी दिन में मैंने पूर्ण किया । उसको जब मैंने पाठक की दृष्टि से पढ़ा, तो मैं स्वयं पर अभिभूत हो गया । " [26] श्यामलाल राही जी को तथागत गौतम बुद्ध से भी लगाव है । उन्होंने बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर एक उपन्यास लिखने की तैयारी की थी, जो अब तक पूरा हो चुका है । राही जी के शब्दों में, " भगवान बुद्ध पर एक उपन्यास लिखने की तैयारी वर्षों से चल रही थी । बुढ़नपुर जब आया, तो उस व्यस्तता के बावजूद अपने लिखने के जुनून को पूरा करने के लिए रात-रात भर जागा । उस उपन्यास को पूरा किया । " [27]

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि श्यामलाल राही जी की आत्मकथा आंबेडकरवादी आत्मकथा के प्रतिमान के अनुकूल है । उनकी आत्मकथा में संघर्ष की प्रेरणा है । उन्होंने अपने परिवार को संगठित करने हेतु निरंतर प्रयास किया । इसलिए उनकी आत्मकथा में पारिवारिक संगठन को भी बल प्रदान किया गया है । राही जी ने सामाजिक परिवर्तन हेतु भी कार्य किया है । इसलिए उनकी आत्मकथा सामाजिक संदेश भी प्रदान करती है । उन्होंने जातिगत भेदभाव और विषमता के विरुद्ध कटाक्ष किया तथा आवश्यकतानुसार विरोध भी किया । अतः उनकी आत्मकथा से समता की शिक्षा भी मिलती है । श्यामलाल राही जी ने अंधविश्वास का विरोध करके कहीं-कहीं अपनी वैज्ञानिक चेतना का भी परिचय दिया है । इस प्रकार स्पष्ट है कि श्यामलाल राही जी की आत्मकथा आंबेडकरवादी आत्मकथाओं की श्रेणी में स्थान पाने योग्य है ।


संदर्भ :-

[1] जिंदगी की सिलवटें : आर.जी. कुरील, पृष्ठ 13, प्रकाशक - विजया बुक्स नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2020
[2] मेरी आत्मकथा : श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', पृष्ठ 7, प्रकाशक - नवभारत प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[3] वही, पृष्ठ 33
[4] वही, पृष्ठ 36
[5] वही, पृष्ठ 37
[6] वही, पृष्ठ 38-39
[7] वही, पृष्ठ 60
[8] वही, पृष्ठ 61
[9] वही, पृष्ठ 62
[10] वही, पृष्ठ 62
[11] वही, पृष्ठ 69
[12] वही, पृष्ठ 79
[13] वही, पृष्ठ 100
[14] वही, पृष्ठ 106
[15] वही, पृष्ठ 115
[16] वही, पृष्ठ 119
[17] वही, पृष्ठ 119
[18] वही, पृष्ठ 131
[19] वही, पृष्ठ 138
[20] वही, पृष्ठ 141-142
[21] वही, पृष्ठ 86
[22] वही, पृष्ठ 134
[23] वही, पृष्ठ 143-144
[24] वही, पृष्ठ 153
[25] वही, पृष्ठ 157
[26] वही, पृष्ठ 160
[27] वही, पृष्ठ 190

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