मुगल वंश का आख्यान 'ताजमहल'

श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी का उपन्यास 'ताजमहल' वर्ष 2019 में रवीना प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ । यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है । इस उपन्यास का नाम भले ही 'ताजमहल' है, लेकिन इसकी कथावस्तु केवल ताजमहल के निर्माण-कार्य और ताजमहल के निर्माता की पृष्ठभूमि तक ही सीमित नहीं है । उपन्यास की कथा का आरंभ राही जी ने ताजमहल का निर्माण करवाने वाले बादशाह शाहजहाँ की दो पीढ़ी आगे यानी कि अकबर के समय से किया है । इतिहास का ऐसा कौन अध्येता होगा, जो मुगल बादशाह अकबर के नाम से अपरिचित होगा ? भारतीय इतिहास में बादशाह अकबर इकलौता सम्राट था, जिसके दरबार में 'नवरत्न' उपस्थित थे । अकबर के नवरत्नों में राजा बीरबल, मियां तानसेन, अबुल फजल, फैजी, राजा मान सिंह, राजा टोडरमल, अब्दुल रहीम खानखाना, मुल्ला दो पिअजा, फकीर अजियोद्दीन आदि विद्वानों के नाम शामिल थे । मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर ने सन् 1569 ई० में सीकरी नगर को बसाया था । सीकरी मुस्लिम वास्तुकला का सबसे अच्‍छा उदाहरण है । सीकरी मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि वह मक्‍का की मस्जिद की नकल है और उसके डिजाइन (प्रारूप) हिंदू और पारसी वास्‍तुशिल्‍प से लिये गये हैं । मस्जिद का प्रवेश द्वार 54 मीटर ऊँचा बुलंद दरवाजा है, जिसका निर्माण सन् 1573 ई० में किया गया था । मस्जिद के उत्तर में शेख सलीम चिश्‍ती की दरगाह है, जहाँ नि:संतान महिलाएँ दुआ माँगने आती हैं । अपने इस उपन्यास के आरंभ में सीकरी शहर की स्थापना के संबंध में श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " सीकरी नगर बादशाह अकबर ने शेख सलीम चिश्ती की रूहानी ताकत से प्रभावित होकर बसाया था । अकबर को विश्वास था कि उसकी संतानें शेख साहब की दुआ का फल थीं । शहजादे सुल्तान सलीम मिर्जा की पैदाइश के वक्त ही शहर का संगे बुनियाद रख दिया गया था । 30 अगस्त, 1569 को जब शहजादे सलीम ने दुनिया का मुँह देखा, तो अकबर की खुशी का ठिकाना न रहा । अब तक जन्मे तीनों बच्चे जिंदगी की जंग जल्दी ही हार गये थे । " [1] शेख सलीम के नाम पर ही अकबर ने अपने पुत्र का नाम 'सलीम' रखा था, जो बाद में जहाँगीर के नाम से जाना गया । जहाँगीर अकबर का जेष्ठ पुत्र था । मुराद और दानियाल उसके छोटे भाई थे, जो मर चुके थे । 

अकबर एक साहसी सैनिक, महान सेनानायक और बुद्धिमान शासक था । उसने अपने साम्राज्य में एकता बनाये रखने के लिए धार्मिक सहिष्णुता की नीति को अपनाया था । इसके अतिरिक्त वह राजनीति में भी कुशल था । उसने अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाने के लिए अनेक राजपूत राजाओं के साथ संबंध स्थापित किया था । इस प्रकार उसने बहुत ही सरलतापूर्वक  अपने साम्राज्य का विस्तार भी किया था । सलीम जब जवान हो गया, तो अकबर ने उसका पहला निकाह शाह बेगम मानबाई से किया था । शाह बेगम मानबाई आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री व मान सिंह की बहन थी । शाह बेगम मानबाई से शहजादा सलीम का निकाह 3 फरवरी सन् 1585 को हुआ था । सलीम का दूसरी बार निकाह मानमती जगत गुसाई से हुआ । राही जी ने लिखा है, " मारवाड़ नरेश राजा उदय सिंह राठौर की पुत्री से शहजादा सलीम का निकाह आज होने जा रहा था । अकबर की उस हिकमते अमली का नतीजा था, जिसमें अकबर राजपूताने के खास-खास राजपूत परिवार वालों के साथ अपना करीबी रिश्ता बनाना चाहता था । शुरुआत उसने आमेर के राजा बिहारीमल की पुत्री हरखाबाई से अपना विवाह कर की थी । उसके बाद तो मानो राजपूतों ने अपनी-अपनी लड़कियों के रिश्ते बादशाह के साथ करने की होड़ लग गई थी । बादशाह के हरम में करीब पाँच हजार औरतें थीं । खास-खास बेगमों में सत्रह राजपूत रानियाँ थीं । " [2] अनेक गुणों के साथ-साथ अकबर में कुछ अवगुण भी थे, जिनमें प्रमुख अवगुण था - 'हरम' की स्थापना करके व्यभिचार करना । उसके व्यभिचार का असर उसके पुत्र शहजादा सलीम पर भी पड़ा था । सलीम का भी दिल किसी एक हसीनाा के लिए समर्पित नहीं था । वह भी अपने अब्बा की तरह कई हसीनों के हुस्न का जायका लेने का आदती हो चुका था । उसके इसी आदत का परिणाम था - उसका दूसरा निकाह । सलीम का दूसरा निकाह राजा उदय सिंह की पुुुत्री जगत गुसाई के साथ हो रहा था । उदय सिंह को जगत गुसाई सहित कुल 20 संताने थीं । जगत गुसाई उर्फ मानमती उर्फ वेदकुमारी का जन्म 13 मई सन् 1573 को जोधपुर में हुआ था । शहजादा सलीम ने जगत गुसाई को कुछ दिनों पहले मीना बाजार में देखा था । तेरह साल की अल्हड़ कुमारी पर सत्रह साल का शहजादा तुरंत आशिक हो गया । शहजादा ने अपने मन की बात अपनी दादी मरियम मकानी हमीदा बेगम से कह दी । मरियम मकानी ने मलका-ए-हिंद व शाह बेगम को हुक्म दिया कि शहजादे की आरजू पूरी की जाए । मलका-ए-हिंद और शाह बेगम ने राजा उदय सिंह से यह बात कही । राजा उदय सिंह राजी हो गये । शाह बेगम मानबाई को यह रिश्ता दिल से मंजूर नहीं था । बादशाह बेगम रुकैय्या से यह छुपा न रहा । उसने शाह बेगम को अपने महल में बुलवाया और समझाया । उसने कहा, " बादशाह शहजादों, अमीरों के हरम में कितनी ही बेगमों का रहना आम बात है । मुकद्दस कुरान शरीफ भले ही चार निकाहों तक महदूद रहने की हिदायत देता है, पर शहंशाह, अमीरों, खुदगर्ज इंसानो ने कभी इसकी परवाह नहीं की । शहंशाह अकबर के हरम में करीब-करीब पाँच हजार औरतें हैं, जिनमें तीस के करीब तो बड़े घरानों की लड़कियाँ हैं । आठ सौ के करीब रिश्ता भी अच्छे खानदान से है, बाकी कनीजें वगैरह हैं । शहंशाह आज भी हर रात नई लड़कियों के साथ अपनी रात गुजारा करते हैं । " [3] 

श्यामलाल राही जी ने अपने उपन्यास 'ताजमहल' में सलीम उर्फ जहाँगीर और जगत गुसाई के निकाह के कार्यक्रम को बहुत ही रुचिपूर्वक विस्तार से प्रस्तुत किया है । उन्होंने उनके निकाह के दौरान बनने वाले पकवान का परिचय देते हुए लिखा है, " चूँकि मौसम जाड़े का था, इस वजह से केवल वही भोजन सामग्री तैयार की जा रही थी, जो मौसम के अनुकूल हो । मौसम को देखते हुए शरबतों में केसर, बादाम, संतरा, अनार, सेब, गुलाब, चंदन के शरबत तैयार कराए जा रहे थे । सूफियाना खाने में तरह-तरह के हलवे बनाए जा रहे थे । जिनमें मूंग की दाल का हलवा, बादाम का हलवा खास थे । तरकारियों में राजस्थानी गट्टे, बेसन चक्की चूरमा, दालों में दाल महारानी, दाल मखनी, दाल नवाबी, मसाला दाल, मसूर दाल, पंचमेल दाल, सूखी दाल, खट्टी-मीठी दाल, अरहर, चना, मूँग, उड़द की दालें पकाई जा रही थीं । उसके साथ ही मौसमी सब्जियों में बैगन, बथुआ, घिया, केला, अरबी और कई तरह की सब्जियाँ बन रही थीं । सरसों का साग, पालक, मेथी, सोया के सागों की अलग खुशबू आ रही थी । सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली चीज पुलाव बिरयानी थी । शाकाहारी में बैगन भात, गाजर भात, नारियल भात, लहसुन प्याजी भात, जीरा पुलाव, कश्मीरी केसर पुलाव, मटर पुलाव, मटर पनीर पुलाव थे । माँसाहारी में मुर्गी बिरयानी, बटेर बिरयानी, गोश्त में तरह-तरह के गोश्त पक रहे थे । मसलन मुर्ग अचारी, तंदूरी मुर्ग, मुर्ग मुसल्लम, लाल माँस, कलिया, कलिया दम पुख्त, निहारी, पाया, कचरी कीमा, हलीम खिचड़ा, कीमा मटर, कीमा मुर्ग मसालन, नवरतन कोरमा, मुर्गा जमींदोज, रोगन जोश, मुर्ग कोरमा, मुर्ग चाप, मुर्ग नूर जेहानी, गोश्त के कोफ्ते, नर्गिसी कोफ्ते, रजाला, मुर्ग काजू । " [4] जब निकाह का समय हुआ, तो वहाँ उपस्थित शहर के काजी व दो इमामों ने बादशाह से इजाजत के बाद दूल्हे की रजामंदी ली । काजी ने दूल्हे से पूछा - 
" शहजादा सुल्तान सनी मिर्जा क्या आपको राजकुमारी मानवती जगत गुसाई जोधाबाई उर्फ हयातुनिशा, जो राजा उदय सिंह की दुख्तर है, के साथ निकाह कबूल है । " 
" कबूल है । " शहजादे ने उत्तर दिया । " [5]
उसके बाद शहर के काजी दोनों मालवियों के साथ जनाने में गये । वहाँ राजकुमारी एक पर्दे के पीछे सजी-धजी दुल्हन की वेशभूषा में बैठी थी । उसके साथ राजा उदय सिंह की रानियाँ और उनकी अन्य लड़कियाँ इर्द-गिर्द बैठी थीं । निकाह कराने वाले काजी ने राजकुमारी से पूछा -
" राजकुमारी मानवती जगत गुसाई जोधाबाई, जो इस्लाम कबूल कर लेने के बाद अब शहजादी हयातुनिशा के नाम से जानी जाती हैं, क्या शहजादी को सुल्तान सलीम मिर्जा वल्द बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर शहजादे हिंदुस्तान के साथ मेहर एक करोड़ रूपया सिक्का-ए-राय जुल वक्त निकाह कबूल है ? "
" कबूल है । " राजकुमारी ने उत्तर दिया, जिसे सबने सुना । " [6]

जगत गुसाई से निकाह होने के बाद शहजादा सलीम उसके साथ समय न बिताकर हरम में मौजूद अन्य युवतियों के साथ कामक्रीड़ा में मग्न रहता था । उसके रसिक चरित्र का चित्रण करते हुए राही जी ने लिखा है,
" शहजादा सलीम इन दिनों अय्याशियों में गर्क था । उसके हरम में रोज कोई न कोई औरत आ रही थी । संजय हजारी की लड़की, दोस्त मुहम्मद काबुली की लड़की और तिब्बत के राजा की लड़की इन दिनों हरम में दाखिल हुयीं । सलीम की हर रात सुहागरात में तब्दील हो रही थी । " [7] इसलिए जगत गुसाई की तरफ शहजादा की कोई खास दिलचस्पी न थी । जगत गुसाई को समय ही नहीं मिल पा रहा था कि वह शहजादे से नजदीकियाँ बढ़ाए । एक दिन वह अपने हुजूरी में बैठी हुई थी कि पहरेदार ने आकर बताया कि शहजादा दानियल की माता आपकी सहेली स्वरूप बाई आपसे मिलना चाहती हैं । जगत गुसाई की आज्ञा पाकर स्वरूप बाई ने प्रवेश किया । दोनों में बातें होने लगीं । यथा - 
" क्या शहजादे सलीम आपके हुजूरे में तशरीफ नहीं लाते ? " स्वरूप बाई ने पूछा ।
" आपको ऐसा क्यों लगा ? "
" आपका चेहरा देखकर । "
" चेहरे को क्या हुआ ? " 
" जाकर आईना देख आइए । इस उम्र में चेहरे पर ऐसी उदासी सुंदरता पर अच्छी नहीं लगती । "
" हम बेगमात की यहाँ अहमियत ही क्या है ? सालों हो गये । शहजादा इधर तशरीफ नहीं लाये । "
" आपने कुछ प्रयास नहीं किया ? "
" क्या क्या प्रयास करती ? "
" जगत गुसाई साहिबा ! मर्द को ऐसी औरतें अच्छी लगती हैं, जो सेज पर वेश्या की तरह पेश आएँ । शराफत मर्दों को अच्छी नहीं लगती । "
" ऐसा ? "
" हाँ । और नहीं तो क्या ? मैं आज एक शहजादे की माँ ऐसे ही थोड़ी हूँ । फिर मैं तो दासी हूँ, आप तो रानी हैं । "
" मुझे क्या करना चाहिए ? "
" शहजादे को अपने हुजरे में दावत दो, उसके आसपास रहो, अपनी सुंदरता से मोहित करो । जवान हो, सुंदर हो, एक मर्द को जीतना मुश्किल नहीं होना चाहिए  । "
" मैं कोशिश करती हूँ । "
" जरूर करो । बिना कोशिश यहाँ कुछ नहीं होता । " [8]
जगत गुसाई ने उसके बाद स्वरूप बाई के बताये रास्ते पर चलना आरंभ किया । वह अपनी वेशभूषा, जीवनशैली, वार्ता और व्यवहार से शहजादा को रिझाने लगी । अच्छा परिणाम प्राप्त हुआ । शहजादा उसके साथ अभिसार करने लगा । वह गर्भवती हो गयी । जगत गुसाई ने 5 जनवरी सन् 1592 ई. को लाहौर में एक लड़के को जन्म दिया, जिसका नाम खुर्रम रखा गया । वही खुर्रम इतिहास में शाहजहाँ के नाम से प्रसिद्ध है । 

शहजा़दा सलीम और अनारकली के बीच प्रेम-संबंध की कहानी के बारे में इतिहासकारों ने तो कुछ और ही लिखा है, लेकिन भारतीय समाज में उनके प्रेमकथा की कुछ और ही कहानी कही जाती है । सन् 1960 ई० में बनी फ़िल्म 'मुगले आजम' में अकबर के बेटे शहज़ादा सलीम (दिलीप कुमार) और उसके दरबार की एक कनीज़ नादिरा (मधुबाला) के बीच में प्रेम की कहानी दिखाई गई है । नादिरा को अकबर (पृथ्वीराज कपूर) द्वारा 'अनारकली' का ख़िताब दिया जाता है । फ़िल्म में दिखाया गया है कि सलीम और अनारकली में धीरे-धीरे प्रेम हो जाता है और अकबर इससे अप्रसन्न होता है । अनारकली को कैदखाने में बंद कर दिया जाता है । सलीम अनारकली को छुड़ाने का असफल प्रयास करता है । अकबर अनारकली को कुछ समय बाद रिहा कर देता है । सलीम अनारकली से निकाह करना चाहता है, किंतु अकबर इसकी अनुमति नहीं देता है । सलीम बगावत की घोषणा करता है । अकबर और सलीम की सेनाओं में युद्ध होता है और सलीम पकड़ा जाता है । सलीम को बगावत के लिए मृत्युदण्ड की घोषणा की जाती है, परंतु अंतिम समय में अकबर का एक मुलाज़िम अनारकली को आता देख तोप का मुँह मोड़ देता है । उसके बाद अकबर अनारकली को एक अचेत कर देने वाला पंख देता है, जिससे अनारकली को अपने हिजाब में लगाकर सलीम को अचेत करना होता है । अनारकली वैसा ही करती है । सलीम को यह बताया जाता है कि अनारकली को दीवार में चिनवा दिया गया है । परंतु वास्तव में उसी रात अनारकली और उसकी माँ को राज्य से बाहर भेज दिया जाता है । उपन्यासकार श्यामलाल राही जी ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर सलीम और अनारकली की प्रेमकथा का वर्णन किया है । उनके उपन्यास 'ताजमहल' में वर्णित कथानुसार अकबर अनारकली से प्रेम करता था । उसने अनारकली को अपने हरम में रखा था । जब अनारकली और सलीम एक दूसरे का दीदार किये, तो उनके मन में एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न हुआ । अनारकली छुप-छुपकर सलीम से मिलने लगी । इस बात की जानकारी अकबर के मुखबिरों को हुई । अकबर के आदेश पर अनारकली को दरबार में प्रस्तुत किया गया । ऐतमाद खान ने अनारकली से मुखातिब होकर कहा, " अनारकली तुमने बादशाह से बेवफाई की है । तुम्हें शहजादा सलीम के साथ इश्क फरमाते कई बार देखा गया है । मेरे जासूसों की तुम पर बहुत दिनों से नजर थी । बादशाह से बेवफाई तथा शहजादा सलीम को बरगलाना तुम्हारा गुनाह है । बादशाह सलामत ने खुद आईने में तुम दोनों को इश्क फरमाते देखा है । " अनारकली सन्न रह गयी । वह समझती थी कि उसने अब तक जो किया है, उसे कोई नहीं जानता है । वह कुछ बोल न सकी । बादशाह ने उससे कहा, " अपने हुस्न पर बाप और बेटे दोनों को आशिक कराकर तूने गुनाह-ए-अजीम किया है । हम तैमूरी नस्ल के बाप-बेटों से तूने जो दगा की है, उसकी सजा इस दुनिया में कोई नहीं है । तू बड़ी खुशी हो रही होगी । सोचती होगी कि मैं भी क्या बोला हूँ, जो दोनों बाप-बेटों को अपने चंगुल में फँसाये हूँ । तेरी सजा सिर्फ मौत है - मौत । तुझ जैसी नागिन का जिंदा रहना तैमूरी नस्ल के लिए बहुत खतरनाक हो सकता है । फिर बादशाह ऐतमाद खान से बोला, " अनारकली को किले की दीवार में जिंदा चिनवा दिया जाए । शहर कोतवाल से कहो कि यह काम आज ही नहीं, अभी हो जाना चाहिए । " [9] सलीम और अनारकली के प्रेम-संबंध से भी स्पष्ट होता है कि सलीम अत्यंत रसिक व्यक्ति था । 

सलीम और जगत गुसाई के सहवास से उत्पन्न शहजादा खुर्रम उर्फ शाहजहाँ धीरे-धीरे बड़ा होने लगा । जब वह बाल्यावस्था में था, तो वह गोर्की भाषा का अध्ययन करने के साथ-साथ कुरान शरीफ को पढ़ने में भी अत्यंत रुचि लेता था । बादशाह बेगम शहजादे खुर्रम से अपने को अम्मी जान ही कहलवाना पसंद करती थी, जबकि रिश्ते में वह उसकी सौतेली दादी थी । लेखक श्यामलाल राही जी ने शाहजहाँ की जीवन संबंधी अनेक घटनाओं का  गंभीरतापूर्वक उल्लेख किया है । उन्होंने लिखा है कि एक दिन बादशाह बेगम ने शहजादा खुर्रम से पूछा -
" तुम्हारी गोर्की की पढ़ाई कैसी चल रही है ? "
" अच्छी चल रही है, अम्मी जान ! "
" और मजहबी तालीम का क्या हाल है ? "
" मैं कुरान शरीफ को समझने की कोशिश कर रहा हूँ । "
कोशिश जारी रखने, यों कुरान शरीफ को समझने में जिंदगियाँ लग जाती हैं । "
" मैं जाऊँ, अम्मी जान ? "
" हाँ, जाओ । " [10]
उधर शहजादा खुर्रम किशोरावस्था की दहलीज पार कर चुका था, इधर बादशाह अकबर शहजादा सलीम को तख्त सौंपने का निश्चय मन ही मन में कर चुका था । अकबर के मन में एक डर था कि उसके बाद जब सलीम हुकूमत संभालेगा, तो उसके द्वारा तरजीह दिये गये राजपूतों को कैसे संभाल पाएगा ? क्योंकि राजपूतों की उम्मीदें कहीं अधिक थीं । अकबर को चिंता थी कि कहीं राजपूत उसके बाद मुगल हुकूमत पर काबिज न हो जाएँ । अगर ऐसा हो गया, तो मुगलों का नामोनिशान मिट जाएगा । उसे मालूम था कि उस समय राजा मानसिंह सबसे ताकतवर था । इसलिए बादशाह अकबर ने मानसिंह को जान से मारने की योजना बनायी । उसने जहर की दो गोलियाँ तैयार करायीं और सफरची से कहा कि वह उन गोलियों को उस समय पेश करे, जब मानसिंह अकबर के सामने हो । जब सारा बंदोबस्त हो गया, तब अकबर ने मानसिंह को तलब किया । मानसिंह हुक्म मिलते ही बादशाह के सामने उपस्थित हुआ । दोनों बैठकर बातचीत करने लगे । जब बादशाह का कथन समाप्त हुआ, तो सफरची एक सोने की तस्करी में चाँदी के बरक में लिपटी दो गोलियों के साथ उपस्थित हुआ । उसने कहा कि हकीम हैदर साहब ने हाजमे के लिए ये गोलियाँ भेजी हैं । बादशाह अकबर को पिछले काफी दिनों से दस्त हो रहे थे, इसलिए मानसिंह ने सोचा शायद इसी कारण हकीम ने दवा भेजी हो । अकबर ने सफरची से पूछा कि क्या इस गोली को अच्छा आदमी भी खा सकता है ? तो उसने सकारात्मक उत्तर दिया । सफरची ने योजना के मुताबिक तश्तरी राजा मानसिंह के सामने कर दी । बादशाह का मान रखने के लिए मान सिंह ने एक गोली खा ली । परिणाम योजना के ठीक विपरीत प्राप्त हुआ । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " दरअसल, बातचीत में मशगूल बादशाह वह जहर की गोली खुद खा गया, जो उसने मानसिंह को खिलाकर मारने के लिए बनवाई थी । गोली मुँह में रखते ही बादशाह को कुछ अजीब लगा, पर हो वह उसे निगल गया । शिकारी खुद शिकार हो गया । पेट में जाते ही गोली ने अपना असर दिखाना शुरू किया । अकबर सब माजरा समझ गया । वह समझ गया कि जहर की गोली वह खुद खा गया है । " [11] अकबर ने मानसिंह से कहा कि वह हकीमों को भेजें । कुछ ही समय में हकीम हाजिर हुये । मानसिंह को सारा माजरा समझ में आ गया था । हकीमों ने बादशाह का इलाज किया । उसकी तबीयत कुछ सुधरी, लेकिन फिर बिगड़ने लगी । अकबर समझ चुका था कि अब उसकी जान नहीं बचेगी । उसने अपने आखिरी वक्त में शहजादा सलीम को बुलाकर कहा, " शेखू बाबा ! अब मेरा आखिरी वक्त है । मुझे विदा करो । मेरे बाद तुम्हारे कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी आने वाली है । सावधान रहना बादशाह का ताज काँटो का होता है । " बादशाह अकबर के हुक्म पर जामा मस्जिद के इमाम ने बादशाह की पगड़ी और कटार उतारकर शहजादा सलीम को पहना दिया । इस प्रकार शहजादा सलीम बादशाह जहाँगीर के रूप में मुगल शासन का कार्यभार संभाला ।

सन् 1607 ई० में जब बादशाह जहाँगीर लाहौर पहुँचा, तो वहाँ जगत गुसाई और शहजादा खुर्रम से उसकी नजदीकियाँ बढ़ीं । उस समय शहजादा खुर्रम पंद्रह साल का था । सुंदर कन्याओं के प्रति उसका आकर्षित होना स्वाभाविक था । उस समय रात के वक्त बादशाह ने शाहदरा बाग में मीना बाजार लगवाया था । मीना बाजार में बादशाह जहाँगीर और बादशाह बेगम के साथ तमाम बेगमों ने शिरकत किया था । शहजादा खुर्रम भी मीना बाजार देखने के लिए गया । शहजादा खुर्रम की वालिदा बादशाह बेगम मीना बाजार दिखाने के लिए एक खास कनीज को उसकी खिदमत में लगा रखी थी । शहजादा घूमता हुआ जब अबुल हसन की बेटी अर्जुमंद बानो की दुकान पर पहुँचा, तो वहाँ ठहर गया । शहजादे ने कुछ चीजों को उलट-पलटकर देखा । अभी वह दुकान का सामान देख रहा था कि अर्जुमंद ने एक हीरों का हार उठाकर अपनी मधुर आवाज में कहा, " इसे भी देखिए शहजादे ! " शहजादे के कानों में जब रसभरी आवाज पड़ी, तो उसने सिर उठाकर अर्जुमंद को देखा । जब उसने अर्जुमंद पर निगाह डाली, तो बस देखता ही रह गया । जब अर्जुमंद ने शहजादे से पूछा, " क्या हार पसंद आया शहजादे ? " तब शहजादे की तंद्रा टूटी, वह हड़बड़ा कर बोला, " हाँ-हाँ, पसंद आया । " कोर्ची ने फौरन हजार मोहरों से भरी मखमल की थैली अर्जुमंद की ओर बढ़ा दी । अर्जुमंद ने अदब से झुकाकर थैली पकड़ ली । शहजादे ने पूछा -
" अब यह हार हमारा हुआ ? "
" आप तो सारी दुकान के मालिक हैं । इस हार की तो खुशकिस्मती है कि यह आपको पसंद भी आया और कीमत भी पाई । "
" बातें अच्छी बनाती हैं । "
" मेरी खुशकिस्मती, जो आपको मेरा लहजा-ए-गुफ्तगू अच्छा लगा । "
" मैं एक गुस्ताखी करना चाहता हूँ, क्या इजाजत है ? "
" गुस्ताखी का रिश्ता कहीं मेरी कत्ल से तो नहीं ? "
" हो भी सकता है मोहतरमा ! गोकि आप तो खुद कातिल हैं । कत्ल करती हैं और बेखबर भी हैं । "
" क्या यह मुझ पर इल्जाम है । "
" यकीनन मुझे आपसे जवाब चाहिए । "
" किसी भी लड़की का आपके हाथों कत्ल होना उसके लिए तो किसी ऐजाज से कम नहीं है । अगर आप की गुस्ताखी का रिश्ता मेरे कत्ल से है, तो भी आपको गुस्ताखी की इजाजत है । "
" बल्लाह क्या अदा है ! " कहकर शहजादा दुकान के अंदर चला गया और वह खरीदा हुआ हार अर्जुमंद के गले में पहनाता हुआ बोला, " हार अपनी सही मंजिल पा चुका है । मुझे हार से रश्क हो रहा है । " [12] शहजादा खुर्रम को अर्जुमंद बानो से प्रेम हो गया था । बादशाह बेगम जगत गुसाई को जब इस बात का पता चला, तो उसने बादशाह जहाँगीर के सामने खुलासा किया । बादशाह को सारा किस्सा पहले ही बता दिया गया था । वह मन ही मन प्रसन्न था, क्योंकि अबुल हसन की वफादारी उसे पसंद थी और उसने अर्जुमंद को भी देखा था । बातचीत के दौरान बादशाह बेगम ने बादशाह जहाँगीर से शाहजहाँ और अर्जुमंद के निकाह की बात कही । बादशाह जहाँगीर ने हालात अनुकूल न होने के कारण फिलहाल अंगूठी की रस्म अदा करने के लिए सहमति प्रदान की । बादशाह जहाँगीर, बादशाह बेगम और कुछ बेगमात को साथ लेकर मिर्जा गयास बेग की नातिन और अर्जुमंद (अबुुुल हसन की पुत्री) का रिश्ता माँगने के लिए उसके खेमे में पहुँचा । स्वागत और जलपान के बाद जब बादशाह बेगम ने अस्मत बेगम से अर्जुमंद बानो का रिश्ता अपने बेटे शहजादा खुर्रम के लिए माँगा, जिसे अस्मत बेगम सहित उसकी पुत्रवधू पलोन दरेगी बेगम ने भी प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया ।

बादशाह जहाँगीर की कई बेगमों में एक बेगम नूरजहाँ भी थी । नूरजहाँ का वास्तविक नाम मेहरून्निसा था । जहाँगीर और मेहरून्निसा के प्रेम से लेकर निकाह तक की कहानी बड़ी लंबी है । सत्रह वर्ष की आयु में मेहरुन्निसा का निकाह 'अली कुली' नामक एक साहसी ईरानी नवयुवक से हुआ था । इस संदर्भ में श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " मेहरून्निसा का निकाह बादशाह अकबर ने 1594 में अली कुली इस्ताजालू से करा दिया था । वह निकाह बादशाह ने सलीम को सबक सिखाने की खातिर कराया था । उस वक्त शहजादा सलीम मेहरून्निसा पर दिलोंजान से आशिक था । बादशाह अकबर को एक नौकर की लड़की के साथ अपने शहजादे का रिश्ता कबूल न था । " [13] जहाँगीर जब बादशाह बन गया, तो उसने अली कुली को 'शेरे अफ़ग़ान' की उपाधि दी और मेहरून्निसा को कुली सहित बर्धमान (बंगाल) भिजवा दिया । जहाँगीर ने अली कुली को वर्धमान की जागीर सौंप दी । उसने अली कुली की हत्या करने का योजना बना रखा था । जब उसने उसे बंगाल भेजा था, तो उसी समय कुतुबुद्दीन कोका को उस पर हमला करने के लिए आदेश चुका था । सन् 1607 ई. में जहाँगीर के दूतों ने अली कुली उर्फ़ शेरे अफ़ग़ान को एक युद्ध में मार डाला । मेहरून्निसा मुकर्रम अली के साथ आगरा पहुँची । 22 मार्च 1608 ई० को जब शाही अमला आगरा पहुँचा, तब तक मेहरून्निसा को आगरा पहुँचे आठ महीने का समय बीत चुका था । मेहरून्निसा को उम्मीद थी कि उसका पुराना आशिक जहाँगीर आगरा पहुँचकर उससे मिलने आएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ । बल्कि 23 मार्च 1608 ई० को उसका अपना पूरा परिवार उससे प्रेमपूर्वक मिला । बादशाह जहाँगीर को आगरा पहुँचे हुए पंद्रह दिन हो गये थे । एक दिन महावत खाँ ने आकर बादशाह को बताया कि मेहरून्निसा आगरा आ गयी है । बादशाह जहाँगीर अच्छी तरह से जानता था कि मेहरुन्निसा एक बच्चे की माँ थी । जहाँगीर ने ही उसे विधवा बनाया था, क्योंकि उसके पति अली कुली ने उसके अजीज दोस्त और दूधभाई कुतुबुद्दीन कोका को बेदर्दी से मार डाला था । जहाँगीर के दिल में मेहरुन्निसा के प्रति अब भी मोहब्बत थी, लेकिन उसे डर था कि मेहरून्निसा उसे अपने पति का कातिल समझती है । जबकि महावत खाँ इस बात का स्पष्टीकरण करता है कि बादशाह जहाँगीर के आदेश पर कुतुबुद्दीन कोका ने अली कुली को मेहरून्निसा से तलाक लेने के लिए कहा था । कोका की उस बात पर अली कुली गुस्से में आकर बदतमीजी कर बैठा था और उसने कोका के पेट में तलवार घुसेड़ दी थी । एक दिन बादशाह ने बेगम जगत गुसाई के लिए एक कनीज के रूप में मेहरून्निसा को रखने की बात कही, तो बेगम जगत गुसाई ने उसे पुरानी बादशाह बेगम, बेगम रुकैय्या की कनीज बनाने का आग्रह किया । अगले दिन बादशाह जहाँगीर ने मेहरून्निसा को बादशाह अकबर की सबसे बड़ी बेगम की कनीज मुकर्रर करने का फरमान जारी कर दिया । मेहरून्निसा अपनी बेटी लाडली बेगम के साथ पालकी में बैठकर बादशाह के हरम में हाजिर हुई । वहाँ रुकैय्या बेगम के साथ वह काफी घुलमिल गयी । जहाँगीर और मेहरून्निसा दोनों के दिल में प्रेम था, फिर भी उनका रिश्ता आगे नहीं बढ़ पा रहा था । जहाँगीर ने मेहरुन्निसा को दबाने के लिए खुर्रम का निकाह अर्जुमंद (मेहरून्निसा की भतीजी) से टाल दिया और सफवी बेगम से 29 अक्टूबर 1610 ई० को खुर्रम के निकाह का दिन निश्चित कर दिया । जब यह खबर मिर्जा गयास बेगम को मिली, तो वह इस निकाह को सियासी नजरिए से देखने लगी । खुर्रम की अर्जुमंद के साथ निकाह से पहले की रस्म अंगूठी हो चुकी थी । 21 मार्च सन् 1607 ई० से लेकर अक्टूबर 1610 ई० के बीच में साढ़े तीन साल का समय बीत चुका था । शहजादा खुर्रम का पहला निकाह एक राजनैतिक निकाह था । फिर भी बादशाह जहाँगीर ने उसे धूमधाम से किया । शहजादा खुर्रम का प्रेम तो अर्जुमंद थी, जिसके साथ उसकी सगाई की रस्म भी हो चुकी थी । लेकिन सियासी कारणों से उसका निकाह नहीं हो पा रहा था । 

उधर हरम में रहते हुए मेहरून्निसा ने अपने खाली समय में कई काम शुरू किये थे, जिनमें कपड़े पर चिकन का काम सबसे ऊपर था । मेहरुन्निसा के पास जो कनीजें थी, उन्हें उसने कपड़े पर बारीक काम करना सिखाया । वह बारीक काम मेहरुन्निसा ने अपनी माँ से सीखा था । मलमल, शुद्ध रेशम, मशहरी, कपूरीनूर, तनसुख, खासा, मारकीन, गंजी, लट्ठा आदि सूती कपड़ों पर मेहरून्निसा की कनीजें कमाल का काम करती थीं । मेहरून्निसा ने उस काम से बहुत अच्छा पैसा कमा लिया । बादशाह जहाँगीर की कोशिश से मेहरुन्निसा के बनाये कपड़े बड़े मशहूर हुये । बादशाह के लोग उसका सब बनाया समान मुँह माँगी कीमत पर खरीदने लगे थे । मेहरून्निसा का कपड़ा इतना मशहूर हो गया कि उसकी नकल होने लगी थी । बादशाह और मेहरून्निसा के दिलों में स्पष्ट हो गया कि अब भी वे दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे । मेहरून्निसा को अपने शौहर को बादशाह द्वारा मरवाने का जो संदेह था, वह दूर हो गया था । 24 मई सन् 1611 ई० को आगरा में नौरोज का जश्न मनाया जा रहा था । आगरा के किले में मीना बाजार लगा हुआ था । उस दिन हरम में मेहरून्निसा के सौंदर्य को देखकर और उसकी प्यारी  बातें सुनकर बादशाह जहाँगीर ने उसे बाहें फैलाकर आमंत्रित किया । मेहरून्निसा सहर्ष उसकी बाँहों में समा गयी । बादशाह ने उसी समय मेहरून्निसा से निकाह करने की घोषणा कर दी । जहाँगीर ने मई, 1611 ई. में उससे विवाह कर लिया । विवाह के पश्चात् जहाँगीर ने उसे ‘नूरमहल’ एवं ‘नूरजहाँ’ की उपाधि प्रदान की । 1613 ई. में नूरजहाँ को ‘पट्टमहिषी’ या ‘बादशाह बेगम’ बनाया गया । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " सायं को बादशाह दीवान-ए-खास में आ बैठे । खास-खास अमीर, सभी बड़े हाकिम, हुक्काम, ओहदेदार तथा मिर्जा गयास बेग अपने तीनों लड़कों के साथ दरबार में हाजिर थे । बादशाह ने ऐलान किया - बेगम मेहरुन्निसा को आज से 'नूरमहल' का खिताब अदा किया जाता है । इस खिताब के साथ उनका ओहदा मलका-ए-हिंद का होगा । " [14] बादशाह जहाँगीर और मेहरून्निसा के निकाह से सबसे अधिक निराशा महावत खाँ को हुई, क्योंकि वह मेहरून्निसा से एक-तरफा प्रेम करता था । बादशाह जहाँगीर के निकाह के बाद खुर्रम की बेगम सफवी बेगम, जिसे कंधारी बेगम भी कहा जाता था, उसने दूसरी लड़की को जन्म दिया । उससे पहले भी शहजादा के घर एक लड़की पैदा हुई थी, जिसका नाम हमजा बानो रखा गया था । दूसरी लड़की के जन्म की सूचना खुर्रम ने खुद जाकर नूरमहल और बादशाह जहाँगीर को दी । दूसरी लड़की का नाम परहिज बानो रखा गया । समय बीतता गया । नूरमहल ने जहाँगीर को अच्छी तरह समझ लिया था । वह जान चुकी थी कि शहंशाह जहाँगीर शराबी, अय्याश, आलसी और राज-काज में ज्यादा समय न देने वाला शख्स था । नूरमहल ने पहले हरम में अपना एकाधिकार कायम किया । उसके बाद राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने जाल बिछाना शुरू कर दिया । मेहरून्निसा को बादशाह पर बहुत क्रोध था । वह उसे अपने शौहर का कातिल मानती थी, परंतु उसके खानदान की ऊँची राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने अली कुली की मौत को मामूली घटना बना दिया था । क्योंकि वास्तव में अली कुली उसकी पसंद भी नहीं था । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " आज की तारीख में बादशाह धीरे-धीरे नूर के हाथ की कठपुतली बनता जा रहा था । नूरमहल का अगला सियासती दाव था - शहजादा खुर्रम के रुके हुये निकाह को कराना । " [15] एक रात जब बादशाह जहाँगीर और नूरजहाँ एकांत में थे, तो नूरजहाँ ने बादशाह के सामने शाहजहाँ और अर्जुमंद के रुके हुये निकाह को संपन्न कराने का प्रस्ताव रखा । नूरजहाँ के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए जहाँगीर ने कहा, " आप जल्दी ही नजूमियों से खुर्रम के निकाह की तारीख निकलवाइए । हम जल्द से जल्द खुर्रम के सिर पर फिर से सेहरा देखना चाहते हैं । " फिर क्या देर थी ? शाहजहाँ और अर्जुमंद के निकाह की तैयारी शुरू होने लगी । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " नजूमियों और ज्योतिषी पंडित जगन्नाथ से ग्रह नक्षत्रों की दशा, दिशा व चाल के आधार पर निकाह का दिन 10 मई 1612 ई० निर्धारित किया गया । " [16] शहजादा खुर्रम राज-काज में रुचि लेने लगा था । खुर्रम ने 6 मार्च 1617 ई० को बुरहानपुर में प्रवेश किया । उसने सबसे सलाह मशविरा करके बीजापुर के शासक आदिल शाह से बात करने के लिए अफजल खाँ और राजा विक्रमादित्य को भेजा । आदिल शाह ने समझौता कर लिया । उसने दक्कन के राज्यों से पंद्रह लाख रुपये एकत्र करके शहजादा को दिया । जब सुलह हो गयी, तो शहजादा ने सैयद अब्दुल्ला को इस अच्छी खबर के साथ मांडू में बादशाह के पास भेजा । कुछ दिनों बाद शहजादा खुर्रम जब मांडू पहुँचा, तो बादशाह जहाँगीर के पास गया । जब शहजादा बादशाह के पास पहुँचा, तो बादशाह ने उसे चूमा और हुक्म दिया, " आइंदा शाह खुर्रम मेरे पास बैठेंगे । इन्हें शाह की जगह शाहजहाँ का खिताब अदा किया जाता है तथा मंसब तीस हजार, जात तीस हजार सवार किया जाता है । दरबार में ये तख्त के पास सोने की कुर्सी पर तशरीफ़ फरमा होंगे । " [17] बादशाह ने उसके बाद दरबार में शाहजहाँ को एक खास पोशाक इनाम में दी, जिस पर पचास हजार मूल्य के जवाहरात लगे थे । शहजादा खुर्रम उर्फ शाहजहाँ ने दरबार में बादशाह को 'नूर बक्श' नाम का खास हाथी भेंट किया । मांडू के प्रस्थान करने के बाद बादशाह जहाँगीर अहमदाबाद से होते हुए जब दोहाद पहुँचा, तो नूरजहाँ ने बादशाह को बताया कि उसकी भतीजी को प्रसव पीड़ा हो रही है । अतः कुछ दिन यहाँ रुकना चाहिए । अगले दिन जब बादशाह आराम कर रहा था, तो शाहजहाँ हुजूर में पेश हुआ और बोला, " बादशाह सलामत को एक और पोता मुबारक हो । " फिर उसने नूरमहल को भी वह खबर सुनाया । बादशाह जहाँगीर और बेगम नूरजहाँ दोनों प्रसन्न हुये । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " अर्जुमंद ने 24 अक्टूबर 1618 को दोहाद में जिस बच्चे को जन्म दिया, वह आगे चलकर बादशाह औरंगजेब के नाम से जाना गया । शहजादा शाहजहाँ सलाम के लिए बादशाह के पास लाये, तो नाम दिया गया 'औरंगजेब' यानी राज सिंहासन पर सुंदर दिखने वाला । " [18]

उपन्यासकार श्यामलाल राही जी ने अपने उपन्यास 'ताजमहल' में जहाँगीर के शासनकाल में उसके राज्य की प्रजा की आर्थिक और सामाजिक स्थिति का भी मार्मिक चित्रण किया है । बादशाह जहाँगीर का काफिला दोहाद से होते हुए समसा, तमसा, बाखुर, रामगढ़, सीताखेड़ा, मदनपुर, नविरिया, नुलाई होकर चंबल नदी पर पहुँचा । वहाँ से चलकर कहनार नदी पार की और उज्जैन पहुँचा । उज्जैन में तीन दिन रुककर शहजादा औरंगजेब के जन्म का जश्न हुआ । उज्जैन से चलकर काफिला रणथंभौर पहुँचा । रणथंभौर से बयाना, बंधा, दयारमान होकर काफिला फतेहपुर सीकरी पहुँचा । रास्ते में बादशाह ने अपनी प्रजा की दयनीय स्थिति देखी । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " बादशाह ने रास्ते में रैयत की दुर्दशा देखी, जगह-जगह मुगल इंतजामियाँ का अत्याचार देखा । रैयत काफी गरीब, नंगी व भूखी थी । कारिंदे रैयत को चूस रहे थे । क्या किसान, क्या कारीगर, सब बेहाल थे । बादशाह को आश्चर्य हुआ कि जो कर उसने समाप्त कर दिये थे, वो अब भी रैयत से वसूले जा रहे थे । गरीब रैयत के न तो तन पर कपड़ा था, न पेट को अनाज । मामूली घास-फूस की झोपड़ियों में मौसम की मार से किसी तरह जान बचा रहे थे । स्थानीय प्रशासन मजे में था । गाँव के खोत/मुकादमों की हवेलियाँ थीं । पटवारी, कानूनगो मजे कर रहे थे । शिफा व तालीम के जो इंतजामात बादशाह ने कराये थे, वो कहीं दिख नहीं रहे थे । कुछ मस्जिदों में तथा मंदिरों के पास कुछ बच्चे पढ़ रहे थे, जिनका भी पुरसा हाल न था । अंधविश्वास, झाड़-फूँक, ओझागिरी तथा नीम-हकीम रैयत की सेहत से खिलवाड़ कर रहे थे । गाँव में साहूकार रैयत को चूस रहे थे । गरीबों की लड़कियाँ उठा ली जाती थीं । उनकी इज्जत की कोई कीमत नहीं थी । रास्ते में कहीं बादशाह ने कुछ लोगों को दंड दिया । बादशाह खुद भी जानता था कि रैयत वैसे ही रहती है । रैयत की खुशहाली बादशाह की चाहत नहीं थी, वह तो अपनी हुकूमत व ऐश बनाए रखना चाहता था । फिर भी दिखाने को कुछ जगह कुछ गरीबों को लंगर लगाये तथा छुटपुट इलाज भी करवाया । " [19]

शहजादा शाहजहाँ ने 24 मार्च 1622 ई० को बुरहानपुर से कूच कर दिया । शाहजहाँ जब बुरहानपुर और मांडू के बीच था, तभी जैनुल आब्दीन बादशाह जहाँगीर का हुक्म लेकर आ गया । शहजादा ने फौरन एक खत के साथ जैनुल आब्दीन को दोबारा दरबार के लिए रवाना किया । उस खत में उसने कुछ महत्वपूर्ण शर्ते रखी थीं । वह बरसात भर मांडू में रहने की अनुमति चाहता था । वह अपने हाकिमों के पदों में तरक्की चाहता था । वह पंजाब का सूबा अपनी सुबेदारी में लेना चाहता था । जैनुल आब्दीन से खत पाकर बादशाह जहाँगीर को बड़ा दुख हुआ । उसे उस वक्त शहजादा शाहजहाँ से ऐसी सौदेबाजी की आशा नहीं थी । उसने धैर्य से काम लेते हुए सैयद, बुखारा और शेख जादा को दक्कन जाकर शांति कायम करने के लिए कहा । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " शाहजहाँ समझता था कि बादशाह शायद ही उसकी बात मानें । नूरजहाँ अब बादशाह की गिरती सेहत के सबब हुकूमत पर अपनी गिरफ्त बढ़ाती जा रही है । उसका अंतिम लक्ष्य शहरयार को बादशाह बनाना है । बादशाह की तंदुरुस्ती का जो हाल है, उस बाबत कुछ कहा नहीं जा सकता कि वे कब जन्नत कूच फरमा जावें । बादशाह जहाँगीर की मूल योजना परवेज और शाहजहाँ दोनों को कंधार भेजने की थी । " [20] शहजादा शाहजहाँ ने बादशाह बनने की तैयारी शुरू कर दी । इसलिए उसने बादशाह जहाँगीर से धौलपुर परगना माँगा था । उसने दरिया खाँ अफगान को धौलपुर कब्जा करने के लिए भेजा । लेकिन उसके खत से पहले ही नूरजहाँ ने शरीफुल मुल्क को सरकार धौलपुर का फौजदार मुकर्रर करवा दिया । परिणामस्वरूप दरिया खाँ और शरीफुल मुल्क के बीच युद्ध हुआ और शरीफुल मुल्क की आँख में तीर लगने से वह घायल हो गया । इस घटना को नाफरमानी का उदाहरण बनाकर नूरजहाँ ने बादशाह के सामने पेश किया । बादशाह जहाँगीर बहुत नाराज हुआ । नूरजहाँ ने बादशाह के कान भरते हुए कंधार की मुहिम पर शहरयार को भेजने के लिए कहा । बादशाह जहाँगीर स्वीकार कर लिया । जब उस ऐलान की सूचना अब्दुस सलाम के द्वारा शाहजहाँ को मिली, तो वह चिंतित हुआ । शहजादा शाहजहाँ के सामने दो रास्ते थे - या तो वह बादशाह का हुक्म माने या फिर सुबेदारी प्राप्त करे । दूसरा रास्ता बगावत का था, जिसमें बादशाह का हुक्म न मानने पर सब कुछ जाने का डर था । लेकिन सफल होने पर मुल्क का तख्त-ओ-ताज भी उसका था । इसलिए शाहजहाँ ने बगावत करने का फैसला किया । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " शाहजहाँ ने बगावत का फैसला कर लिया । उसने राजा जगत सिंह को अपनी पंजाब स्थित जागीर की रक्षा हेतु भेज दिया । उसने खुद आगरा की तरफ बढ़ना शुरू किया । बादशाह जहाँगीर उन दिनों परेशान था । जिस बादशाह ने अपने पोते शाहशुजा के बीमारी दूर हो जाने पर बंदूक छोड़ने का अहद किया था, अब उसके महल में सभी रक्षकों के पास बंदूकें थीं । " [21] शाहजहाँ ने शाही फौज के विरुद्ध जंग छेड़ दिया था । आसफ खाँ दिल से शाहजहाँ के साथ था । वह शाही दरबार में था, इसलिए शाहजहाँ के पक्ष में दिखावा नहीं करता था । क्योंकि यह उसके लिए प्राणघातक हो सकता था । शाहजहाँ का एक शुभचिंतक मुंतमिद खाँ भी शाही खेमे में था । उसने मुहतरिम खाँ व खलील बेग को काम पर लगाया था, जो मारे जा चुके थे । 29 मार्च 1623 ई० को शाहजहाँ की फौज और शाही फौज के बीच में युद्ध शुरू हो गया । युद्ध में दराब खाँ और राजा विक्रमाजीत की मृत्यु हो गयी । उस युद्ध में शाहजहाँ की हार हुई । शाहजहाँ की हालत इतनी बुरी हो चुकी थी कि उसे सुलह करने के अलावा और कोई उपाय नहीं सूझा । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " शाहजहाँ को वर्तमान हालात में लगा कि बादशाह से सुलह की कोशिश उसके हित में होगी, इसलिए उसने सर बुलंद रे, जो बूँदी के हाँडा़ राजा भोज रे के पुत्र थे, को महावत खाँ के पास सुलह के प्रस्ताव के साथ भेजा । महावत खाँ ने प्रस्ताव पर शहजादा परवेज से विचार किया । दोनों की संयुक्त सहमति से उत्तर दिया गया कि शांति प्रस्ताव तभी संभव है, जब अब्दुल रहीम खानखाना स्वयं उपस्थित होकर शाहजहाँ का पक्ष रखें । शाहजहाँ के पास विकल्प न थे । " [22] उसने बूढ़े अब्दुल रहीम खानखाना को कैद से आजाद किया और अपने हरम में ले गया । आभी खानखाना ने महावत खाँ से पत्र-व्यवहार आरंभ किया ही था कि शाही फौजों ने नदी पार कर चारों ओर जंगल में बिखरकर शाहजहाँ की मुश्किलें बढ़ा दी । बरसात का मौसम था । ताप्ती नदी में उस समय बाढ़ आई हुई थी । शाहजहाँ ने जादोराय, उदयराम व आतश खाँ के साथ नदी पार की । जब यह सूचना नूरजहाँ को मिली, तो उसने शाहजहाँ परवेज और महावत ख़ाँ को शाहजहाँ का पीछा करने का हुक्म दिया । शाहजहाँ माहुर किले पर पहुँचा । वहाँ उसने अपने हाथी चौपाये, सामान उदयराम के अभिरक्षा में छोड़ा और अपनी पत्नी अर्जुमंद बानो पुत्र दारा, औरंगजेब और विश्वस्त राजा भीम के साथ गोलकुंडा से निकल पड़ा । शहजादा परवेज और महावत खाँ को सूचना मिली कि शाहजहाँ बंगाल की तरफ भाग रहा है, तो वे बरसात भर के लिए बुरहानपुर आ गये । बादशाह जहाँगीर को जब यह सूचना मिली, तो वह खुश हुुआ ।

नूरजहाँ ने पूरी तरह से बादशाह जहाँगीर को अपने वश में कर लिया था । उसने शहरयार को उत्तराधिकारी बनाने के लिए बादशाह को तैयार कर लिया था । जिस समय शहरयार की ताजपोशी हो रही थी, उस समय लाहौर के किले में कौन-कौन लोग उपस्थित थे ? इस संदर्भ में श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " लाहौर के किले में शहजादा शहरयार की ताजपोशी की तैयारियाँ चल रही थी । बादशाह जहाँगीर को दफन करने के बाद ताजपोशी की तैयारी शुरू हुई । एक कामचलाऊ तख्त बनवाया गया । आसफ खाँ के यहाँ से भागकर आये शहजादे दानियाल के बेटे मिर्जा वैसनगर ने सब काम संभाल लिया । किलेदार की अगुवाई में ताजपोशी का काम शुरू हुआ । पर्दे के पीछे बेगम नूरजहाँ, लाड़ली बेगम मौजूद थीं । बच्ची अरजीना बेगम सब कुतूहल से देख रहे थी । " [23] उधर युद्ध में पराजित शाहजहाँ की हालत क्या थी ? उसके बारे में राही जी ने लिखा है, " अपने दुर्भाग्य पर आँसू बहाता परेशान हाल शाहजहाँ का डेरा अमदाबाद के पास जुन्नार में लगा हुआ था । उसकी योजना बंगाल की तरफ जाने की थी । दोपहर का वक्त था, नवंबर का हल्का जाड़ा शुरू हो गया था । खेतों में फसलें उग आई थीं । हवा में ठंडक थी, पर दोपहर की धूप भली लग रही थी । शाहजहाँ अपने अमीरों के साथ एक हल्के सफेद शामियाने में बैठा धूप खाता हुआ अमीरों से सलाह मशवरा कर रहा था । महावत खाँ भी शाहजहाँ के पास ही था । " [24] अमीरों का कहना था कि अब तख्त आपका है । बनारसी ने बीस दिन के बड़े दिन-रात के सफर के बाद रविवार 18 नवंबर 1627 को शाहजहाँ को सूचना पहुँचाई । शाहजहाँ ने खबर पढ़ने के बाद उससे पूछा -
" लाहौर का क्या हाल है ? "
" बादशाह जहाँगीर को शाहदरा में दफन किया जा चुका है । जब मैं चला था, तब दोनों ओर से जंग की तैयारी हो रही थी । "
" वह शहरयार नपुंसक क्या खाक जंग करेगा । बनारसी हम तुमसे बहुत खुश हैं । "
यह कहकर शाहजहाँ ने अपने गले में पड़ी मोतियों की माला बनारसी को भेंट की, जिसे उसने इज्जत से प्राप्त किया । " [25] चार दिन बाद का वक्त नजूमियों ने कूँच के लिए सही ठहराया । महावत खाँ से सलाह मशविरा के बाद शाहजहाँ ने कूँच किया । शाहरयार को बंदी बना लिया गया और जल्लादों के हवाले कर दिया गया । जल्लादों ने शहरयार को अंधा करके किले में एक महफूज जगह पर कैद करके सख्त पहरा बिठा दिया । 

शाहजहाँ ने भले ही अभी ताज न पहना था, पर उसका हर काम यही जाहिर कर रहा था कि वह बादशाह है । आगरा को कूच करने के बाद जब वह गुजरात पहुँचा, तो एक दिन नाहर खाँ, जिसे शेरखाँ भी कहते थे, दरबार में हाजिर हुआ । जब वह अदब से खड़ा हो गया, तो शाहजहाँ ने पूछा -
" कहो, क्या कहना चाहते हो ? "
" जान की अमान पाऊँ, तो अर्ज करूँ । "
" कहो, इजाजत है । "
" सैफ खाँ..." आगे कुछ कहते-कहते नाहर खाँ रुक गया । 
" कहो, जो कहना है, साफ-साफ कहो । "
" सैफ खाँ की कारगुजारियाँ अच्छी नहीं हैं, वह गद्दारी कर रहा है । "
" अगर रिश्तेदारी का सिलसिला न होता, तो गर्दन कटवा देता । बक्शी ! हुक्म भेजकर सैफ को गिरफ्तार किया जाए और मेरे रूबरू पेश किया जाए । "
" जो हुक्म । " बख्श ने कहा । [26]
उसी रात जब यह खबर अर्जुमंद को मिली, तो वह परेशान हो गई, क्योंकि सैफ खाँ उसकी बहन साहिला बानो का सुहाग था । शाहजहाँ ने बेगम अर्जुमंद को आश्वासन दिया कि वह सैफ खाँ को सिर्फ सबक सिखाना चाहता था । उसको कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा । अगले ही दिन शाहजहाँ ने परिस्तार खाँ को अहमदाबाद जाने का हुक्म दे दिया । गुजरात से बढ़ता हुआ शाहजहाँ का काफिला नर्मदा तट पर पहुँचा । नर्मदा पार करके शाहजहाँ नवंबर 1628 ई० में सिनूर पहुँचा । 28 नवंबर 1627 ई० को वह चंद्रमा पर आधारित अपना जन्मदिन मनाया । वहीं शेरखाँ ने शाहजहाँ को सूचना दी कि आसिफ खाँ ने शहरयार को परास्त करके हिरासत में ले लिया है और उसे अंधा भी करवा दिया है । शाहजहाँ का काफिला 1 जनवरी 1628 ई० को मेवाड़ की राजधानी पहुँचा, जहाँ राजा करन सिंह ने उत्साहपूर्वक उसका स्वागत किया और कीमती उपहार प्रदान किया । 19 जनवरी 1628 ई० को लाहौर में शाहजहाँ की ताजपोशी हुई । शहजादा शाहजहाँ बादशाह शाहजहाँ बन गया । 

1 सितंबर सन् 1593 ई० को पैदा हुई मुमताज महल उर्फ अर्जुमंद बेगम 36 साल की हो चुकी थी । इतनी उम्र तक उसने बारह बच्चों को जन्म दिया था । फिर भी उसके सौंदर्य में कोई कमी नहीं आई थी । बादशाह शाहजहाँ उस पर न्यौछावर था । एक दिन बातचीत के दौरान मुमताज महल ने बादशाह शाहजहाँ से कहा, " मेरे बादशाह, मेरी एक ख्वाहिश है । अगर इजाजत हो, तो कहूँ ? "
" आप की ख्वाहिश मेरा मकसद है । बेगम, आप बयान कीजिए । "
" खुदा ना खास्ता अगर मैं आपके जीते जी मर जाती हूँ, तो मेरी कब्र उस जगह बनाना... । " शाहबुर्ज के दरीचे के बाहर से दिख रही मानसिंह की हवेली की ओर इशारा करके बेगम ने कहा ।
" ऐसी बातें मत कीजिए बेगम ! मेरा दिल टूटता है । पर बेगम उस राजा मानसिंह की हवेली को ही क्यों आपने अपनी कब्र के लिए चुना । "
" वहाँ अल्लाह की रहमत है । जमुना का वह किनारा मुझे जन्नत की तरह लगता है । कितना अच्छा हो, उस जन्नत के दरिया के एक किनारे पर मैं और दूसरे किनारे पर आप, बीच में दरिया के ऊपर हमारी मुहब्बत का पुल हमारे मरने के बाद भी एक साथ बाँधे रहे । "
" अच्छा ख्याल है बेगम ! पर अब ये बातें बंद कीजिए और हसीन जिंदगी का लुत्फ लीजिए । " कहकर बादशाह ने बेगम को बाँहपाश में बाँध लिया । [27] बादशाह शाहजहाँ जिन दिनों ग्वालियर के किले में डेरा डाले हुये था, उसे अपने बेटे औरंगजेब का एक निशान मिला, जिसमें शहजादा औरंगजेब ने बुंदेलखंड की खूबसूरती का वर्णन किया था । उसने बादशाह को एक खत लिखा था । बादशाह शाहजहाँ ने शहजादा औरंगजेब का खत पाकर बुंदेलखंड को देखने की तैयारियाँ शुरू कर दी । " बादशाह का काफिला बुंदेलखंड की सैर को चला । बादशाह की तमाम बेगमें, शहजादे, शहजादियाँ बड़े खुश थे । शहजादी जहाँनारा ज्यादातर अपनी अम्मी के पास ही रहती थी । वहीं, रोशनआरा अलग-थलग थी । सफवी बेगम, मोती बेगम, सरहंदी बेगम, जो बलूची थी, के साथ अकबराबादी बेगम, परहेज जहाँ बेगम सब खुश थीं । बेगम मुमताज उज जमानी को सेहत ज्यादा ठीक न थी । बादशाह ने भूमगढ़ के झरने के पास अपना डेरा लगवाया । झरना बहुत ही खूबसूरत था । उसका पानी एकदम साफ था । वहाँ दो दिन कयाम में बादशाह ने आसपास का इलाका देखा, शिकार की । पास-पड़ोस के मुकद्दम शिकदार नजरें लेकर हाजिर हुये । रैयत भी मिलने आई । " [28]

श्यामलाल राही जी ने शाहजहाँ के शासनकाल का विस्तार से वर्णन किया है । जनवरी 1631 ई० को बादशाह शाहजहाँ का दीवान-ए-खास सजा हुआ था । सभी हाकिम अपनी-अपनी जगह और शहजादे भी मौजूद थे । यमीनउद्दौला के चेहरे पर तनाव था । उसने गुजरात में पड़े अकाल के बारे में कुछ कहने के लिए बादशाह से अर्ज किया । बादशाह ने उसे खुलकर बयान करने के लिए कहा । यमीनउद्दौला ने बताया, " दक्कन और गुजरात में पिछले साल बिल्कुल बारिश नहीं हुई और मौजूदा साल भी सूखे का है । सूबेदार व फौजदारों ने खत लिखकर रैयत की बदहाली और भुखमरी के बारे में दरबार को लिखा है । हालात बहुत खराब है । अंदाजे के मुताबिक लाखों रैयत भूख से तड़प-तड़प कर मर चुकी है । हालात यहाँ तक हो गये हैं कि लोग औलादों को बेच रहे हैं, आटे में जानवरों की हड्डियाँ पीसकर मिलाकर बेचा जा रहा है । औरतें जो जवान हैं, जिस्मफरोशी कर किसी तरह गुजर बसर कर रही हैं । पीने तक का पानी नहीं है, मवेशी चारे की कमी से मर रहे हैं । किसान खेती छोड़ चुके हैं, कारीगर बेकार हो गये । भूख से लोग बीमार हो रहे हैं । बहुत खराब हालत है, जिल्ले-ए-सुबहानी । " [29] बादशाह ने पूछा, " रैयत के हालात सुधारने के लिए क्या किया जाना चाहिए ? " बादशाह के इस प्रश्न का उत्तर शहजादा दाराशिकोह ने दिया, " हुजूर बादशाह सलामत ! रैयत की जरूरतें तो बहुत हैं, पर अहम मसला इस वक्त पेट भरने का है । बड़े-बड़े शहरों, कस्बों में लंगर चलवाकर गरीब रैयत की दाल-रोटी मुहैया कराई जा सकती है । लंगर के अलावा और जगहों पर, जहाँ लंगर नहीं चलाई जा सकती, रुपए की इमदाद दी जा सकती है । बुरहानपुर, अमदाबाद, सूरत के इलाके ज्यादा खुश्की के शिकार हैं, वहाँ ज्यादा इमदाद की जरूरत है । रैयत का लगान माफ किया जा सकता है, फिर मुल्तवी किया जा सकता है । बाकी और मदद के बारे में फैसला बादशाह सलामत खुद ले सकते हैं । " [30] बालापुर से कूँच करने के बाद बादशाह शाहजहाँ का काफिला 17 जून 1631 ई० को हिबार खेर में रुका । वह जगह बुरहानपुर से ज्यादा दूर नहीं थी । जून का महीना होने के कारण बहुत तेज गर्मी पड़ रही थी । आधी रात को शाही शामियाने के जनाने में हलचल होने लगी, क्योंकि बेगम मुमताज महल प्रसव-वेदना से तड़प रही थी । यह उसकी चौदहवीं संतान के प्रसव का समय था । मुमताज महल की सेहत विगत छः महीने से खराब चल रही थी । बेगम मुमताज महल ने किसी तरह एक नन्हीं सी लड़की को जन्म दिया । जन्म देते ही वह बेहोश हो गई । मुमताज की तबीयत जब सुधरी, तो उसने जहाँआरा को इशारे से बुलाया और बादशाह शाहजहाँ को बुलाने के लिए कहा । बादशाह बेगम मुमताज के पास पहुँचा । मुमताज ने कहा, " मेरे सरताज ! मेरा आखिरी वक्त है । मेरे पास जो चंद साँसें बची हैं, उनमें मुझे अपना दीदार कर लेने दो । मैं अल्लाह की शुक्रगुजार हूँ कि आप जैसा शौहर उसने मुझे दिया । " यह कहते हुए बेगम मुमताज महल की साँस उखड़ने लगी । उसने आँसुओं से भरी अपनी आँखों से बादशाह को देखा और धीमी आवाज में कहा, " अब मैं रुखसत होती हूँ मेरे सरताज ! " यह कहकर उसने अपनी आँखें बंद कर ली । एक हिचकी के साथ उसके जीवन की डोर टूट गयी । श्यामलाल राही जी ने लिखा है, " मुमताज की मौत ने बादशाह को तोड़कर रख दिया था । इस गम में बादशाह के सिर के बाल अचानक सफेद हो गये । दाढ़ी भी सफेद हो गई । बादशाह निढाल मामूली तौर पर खा-पीकर कमरे में पड़े रहते । उस खास कमरे में कुछ लोगों को ही जाने की इजाजत थी । सती-उन-निशा व जहाँआरा लगातार बादशाह का खास ख्याल रख रही थी । उम्दा फ्रांसीसी शराब के एक-दो प्याले छोड़कर बादशाह ज्यादा कुछ नहीं खा पी रहे थे । उनका गम गलत करने के लिए जहाँआरा से जो बन रहा था, कर रही थी । " [31]

बेगम मुमताज महल की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ उसके लिए मकबरा बनवाने की तैयारी करने लगा । एक दिन दरबार में जब शहजादा दाराशिकोह ने बादशाह से पूछा कि मकबरे की बावत आपने क्या सोच रखा है, अब्बा हुजूर ! तो बादशाह शाहजहाँ ने कहा, " बरखुरदार, मैं तो पिछले एक महीने से मकबरे के बारे में ही सोच रहा हूँ । मेरी रूह को उसी सोच में चैन आता है । मैं जब भी मकबरे की तामीर की बावत सोचता हूँ, तो मुझे लगता है कि मेरी प्यारी मुमताज से गुफ्तगू कर रहा हूँ । मैं चाहता हूँ कि मकबरा बेमिसाल हो, बिल्कुल जन्नत की तरह । हमारे जेहन में जो जन्नत की तस्वीर हो, मैं चाहता हूँ कि मकबरा उसी तरह का तामीर किया जाए । " [32] चचा आसफ खाँ ने पूछा " माजरत की माफी चाहूँगा, जिल्ले सुबहानी ! क्या कोई नक्शा आपके जेहन में है ? बादशाह ने कहा, " नक्शे तो कई दिमाग में हैं, पर कुछ समझ में नहीं आ रहा है । मैं चाहता हूँ कि यह काम उस्तादों को सौंपा जाए । मैं अपनी तरफ से कुछ लोगों को यह जिम्मेदारी देना चाहता हूँ और उन लोगों की सदारत मेरी प्यारी दुख्तार शहजादी जहाँआरा करेगी । शहजादी के साथ शहजादा दाराशिकोह, चचा आसफ खाँ, दीवान फाजिल खाँ, मीर-ए-तामीरात, मिर्जा राजा जयसिंह होंगे । आप सब आपसी बहस मुवाहिसा कर मुझे मकबरे की तामीर के अलग-अलग पहलुओं पर अपनी राय का इजहार करेंगे । " [33] उसके बाद मकबरे की जगह, मुकाबले का नक्शा, नक्शा नवीसों के नाम, मकबरे में लगने वाला सामान, मकबरे में काम करने वाले कारीगर आदि सभी पर विचार-विमर्श होना शुरू हो गया । मकबरे के लिए राजा मानसिंह की हवेली का स्थान चुना गया । मकबरे का नक्शा बनाने के संदर्भ में आसफ खाँ ने कहा कि मकबरे का नक्शा कुछ भी हो, उसमें गुंबद, मीनारें, बाग और बाजार जरूर हों । शहजादा दाराशिकोह ने कहा कि मकबरा एक मुकद्दस जगह होता है, वहाँ रात में फरिश्ते आते हैं । उसने कहा कि मकबरे में मस्जिद की तरह अगर मीनारें तामीर की जाती हैं, तो मकबरा मकबरे के साथ मस्जिद जैसा भी होगा ।  नक्शा नवीसों की चर्चा करते हुए मीर-ए-तामीरात ने कहा कि उस्ताद अहमद लाहौरी का बड़ा नाम है, उन्होंने कई इमारतें तामीर की हैं । उसने यह भी कहा कि शीराज के रहने वाले ईसा खाँ को गुंबद तामीर करने का अच्छा तजुर्बा है । अंतिम समस्या थी कि मकबरा किससे बनाया जाए ? इस पर शहजादा दाराशिकोह ने कहा कि संगमरमर से मकबरा बनाया जाना चाहिए । इस प्रकार विचार-विमर्श करने के बाद बेगम मुमताज महल के लिए मकबरा बनाने का कार्य आरंभ हो गया ।

अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि बादशाह शाहजहाँ और उसकी अपनी सगी पुत्री जहाँआरा के बीच अवैध संबंध था । इस बात की ओर श्यामलाल राही जी ने भी संकेत किया है । बेगम मुमताज महल की मृत्यु के बाद बादशाह शाहजहाँ अक्सर उदास रहता था । उसकी उदासी को दूर करने के लिए जहाँआरा तरह-तरह के इंतजाम करती रहती थी । एक बार जहाँआरा शाहजहाँ के पास बैठी थी । बातचीत के दौरान शाहजहाँ ने कहा कि मेरा किसी काम में मन नहीं लग रहा है । तब जहाँआरा ने कहा, " अगर आप मेरी गुस्ताखी माफ करें, तो मैं आपकी दिलजोई का कुछ सामान करूँ ? " तुम्हें इस तरह की इजाजत माँगने की जरूरत नहीं । अब मेरी देखभाल करने वाला तुम्हारे सिवा है ही कौन ? मुझे तुममें तुम्हारी अम्मी जान का अक्स दिखाई देता है । तुम मेरी दिलजोई के लिए क्या करने वाली हो ? बादशाह ने पूछा । [34] जहाँआरा जब जाने लगी तो बादशाह ने पास बुलाया और बाहों में भरकर पेशानी चूमी और कहा, " अब शाहजहाँ की जिंदगी तुम्हारे ही हवाले है मेरी दुख्तर-ए-मिल्लत ! शाहजहाँ को खुश रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है । " [35] बादशाह शाहजहाँ और जहाँआरा के बीच बातचीत और क्रियाकलाप से स्पष्ट है कि निश्चित रूप से उनका आपसी संबंध वैध नहीं था । चूँकि जहाँआरा की सूरत बिल्कुल मुमताज के जैसी थी, इसलिए शाहजहाँ उसके लिए समर्पित था । जहाँआरा भी अपने अब्बा को प्रसन्न रखने के लिए सहर्ष हर हद को पार कर जाती थी । इधर शाहजहाँ और जहाँआरा एक-दूसरे की खुशी का बखूबी ख्याल रखते थे, उधर मुमताज महल के लिए मकबरा बनाने का काम तेजी पर था । श्यामलाल राही जी के शब्दों में, " 26 मई 1633 के दिन मकबरें बनने की जगह बड़ी गहमा-गहमी थी । बे-बादल खाँ व उसके सभी साथी कारीगरों ने एक बहुत ही खूबसूरत कब्र के लिए ढक्कन बना लिया था । कड़ी सुरक्षा में उसे मकबरे में कब्र के पास ही ले जाकर रखा गया था । सारा इलाका उर्स में आने वालों से भर गया था । मेले का मंजर था । " [36] बादशाह शाहजहाँ बेगम मुमताज महल के लिए मकबरा बनवा रहा था, तो इसका मतलब यह नहीं था कि उसकी एक ही बीवी थी । शाहजहाँ की कई बीवियाँ थीं, यह बात अलग थी उसकी सबसे प्रिय बीवी बेगम हजरत महल थी । शाहजहाँ न केवल कई बीवियों का शौहर था, बल्कि वह अपने दादा अकबर और अब्बा जहाँगीर की तरह ही विलासी भी था । अपने बीवियों के अलावा वह हरम में मौजूद अन्य युवतियों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करने में संकोच नहीं करता था । मौके मिलने पर वह अन्य बाहरी युवतियों से भी संबंध बना लेता है । उसने अपनी कामेच्छा पूर्ति के लिए अपनी रिश्तेदार युवतियों तक को भी नहीं छोड़ा था । एक दिन जब वह दरबार-ए-आम में विराजमान था, तो उसकी पुत्री जहाँआरा एक हसीन खातून के साथ वहाँ आयी । जब शाहजहाँ ने पूछा कि ये नाज़नीन कौन हैं ? तो जहाँआरा ने कहा, " ये हमारी मामी जान हैं, मामू शाइस्ता खाँ की शरीके हयात । "
" क्या बात है ! हमारे साले साहब की, ऐसा हुस्न का पैकर उनका हमसफर है ! हम अपनी सलहज साहिबा से एक हजार मोहरें नजर करते हैं । " [37] बादशाह शाहजहाँ ने जब अपनी सलहज के हुस्न को नजर भर देखा, तो वह उसका दीवाना हो गया । शाहजहाँ केवल व्यभिचारी ही नहीं था, बल्कि बलात्कारी भी था । उसने अपनी सलहज के साथ उसकी मर्जी के बिना यौन संबंध बनाया अर्थात् उसका बलात्कार किया । इस बात का स्पष्टीकरण करने के लिए श्यामलाल राही जी द्वारा लिखा गया उद्धरण प्रस्तुत है, " आपको यह जेब नहीं देता बादशाह सलामत ! मैं आपकी रिश्तेदार हूँ । अगर उन्हें आपकी हरकत का पता चल गया, तो आपकी सेहत के लिए ठीक न होगा । " बेगम बादशाह को आगाह करते बोली ।
" हिंदुस्तान में किसकी मजाल, जो मेरे साथ गुस्ताखी करे । फिर शायस्ता तो खुश होगा कि उसकी बीवी पर मेरा दिल आ गया । " बादशाह ने मुहब्बत से कहा । फिर वह झटका और बेगम को पकड़ लिया । बेगम चिल्लाने लगी, पर कुछ न हुआ । बादशाह ने बेगम के कपड़े फाड़ डाले और इज्जत लूट ली । " [38]

ताजमहल का निर्माण कार्य दिसंबर 1631 ई० में आरंभ हुआ था । 11 दिसंबर 1631 ई० को मुमताज महल की मैयत को आगरा रवाना किया गया था । सत्रह साल के बाद सन् 1648 ई० में मुमताज महल का मकबरा बनकर तैयार हो गया, जिसे 'ताजमहल' के नाम से जाना जाता है । शाही महल के साथ-साथ पूरे आगरा शहर में खुशी का माहौल था । बादशाह शाहजहाँ की हार्दिक इच्छा पूरी हो चुकी थी । दिन बीतता गया । अचानक बादशाह की सेहत बिगड़ने लगी । एक दिन सुबह के समय शाहजहाँ से मिलने बेगम अकबराबादी महल आ गयीं । उन्होंने पूछा -
" रात कैसी गुजरी आला-हजरत ? "
" रात तो काफी रंगीन गुजरी, पर अब मुझे तकलीफ हो रही है । "
" कैसी तकलीफ ? "
" मुझे पेशाब नहीं आ रही है । "
" ऐसा कब से है ? "
" आधी रात के बाद से । "
" क्या हकीम को बुलाया जाए ? "
" हाँ, यही बेहतर होगा । " [39]
बादशाह शाहजहाँ की खराब सेहत को देखते हुए जहाँआरा ने किलेदार को तलब किया । किलेदार के आते ही जहाँआरा ने कहा, " लगता है, अब्बा हुजूर का वक्त आ गया है । " बादशाह की बेचैनी बढ़ रही थी । हकीम समझ गये कि अब कोई दवा शाहजहाँ को नहीं बचा सकती । शाहजहाँ ने अपनी वसीयत करने की ख्वाहिश जाहिर की । कातिब ने वसीयत लिखी । बादशाह ने लिखवाया कि " मैं खुर्रम उर्फ शाहजहाँ अपने पूरे होशोहवास में अपनी वसीयत करता हूँ । मेरे पास मेरी आखिरी वक्त में जो कुछ हीरे जवाहरात बचे हैं उनमें से चौथाई चौथाई बेगम अकबराबादी महल व बेगम फतेहपुरी महल को दिए जाएँ । बाकी जो बचे, उन्हें मेरी बेटी जहाँआरा, मेरे खिदमतगारों, कनीजों व और बेगमात को जैसा चाहें बाँट दें । " [40] वसीयत लिख जाने के बाद बादशाह शाहजहाँ ने काँपते हाथ से वसीयत पर दस्तखत कर दिया । जब वसीयत हो चुकी, तो शहजादी जहाँआरा ने पूछा, " आपका मकबरा तो तामीर हो नहीं सका । वह तो सिर्फ ख्यालों में ही रह गया । काश आपका मकबरा-ए-सियाह बन गया होता । आपकी आखिरी मंजिल कहाँ होनी चाहिए ? " शाहजहाँ ने कहा, " मैं अपने लिए मकबरा-ए-सियाह तो नहीं बनवा सका और बादशाह औरंगजेब से ऐसी तबक्को भी नहीं की जा सकती । ऐसे में अपनी बेगम के पहलू में ही मेरी आखरी मंजिल होगी । वहाँ मुझे सुकून हासिल होगा । " बादशाह ने आगे कहा " अब सब जाओ और मुझे खुदा की अदालत में पेश होने दो । आखिरी वक्त में अपने गुनाहों की माफी अल्लाह से माँगना चाहता हूँ । " [41]

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि उपन्यासकार श्यामलाल राही जी ने अपने उपन्यास 'ताजमहल' में ताजमहल के निर्माण कार्य से संबंधित वर्णन तो किया ही है, साथ ही उन्होंने अकबर से लेकर शाहजहाँ के संपूर्ण जीवनकाल तक का आख्यान प्रस्तुत किया है । उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों के केवल सच्चरित्र का ही नहीं, बल्कि उनके दुश्चरित्र का भी पूरी ईमानदारी से चित्रण किया है । निःसंदेह लेखक श्यामलाल राही जी को ताजमहल की सुंदरता ने प्रभावित किया है, इसीलिए उन्होंने इस उपन्यास का लेखन किया । इस संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार एल०पी० शर्मा जी की टिप्पणी ध्यान देने योग्य है । उन्होंने लिखा है, " उसके समय में न केवल संख्या की दृष्टि से इमारतों की श्रेष्टता रही, बल्कि कलात्मक दृष्टि से भी प्रगति हुई । दिल्ली का लाल किला और जामा मस्जिद, आगरा के किले में मोती मस्जिद, दीवाने आम, दीवाने खास और संसार प्रसिद्ध ताजमहल, लाहौर के किले में दीवाने आम, मुसम्मम बुर्ज, शीशमहल, नौलक्खा और ख्वाबगाह तथा काबुल, कश्मीर, अजमेर, कंधार आदि विभिन्न स्थानों पर बनवायी गयी इमारतें, महल, मकबरे और बगीचे आदि शाहजहाँ के युग को वास्तुकला की दृष्टि से मुगल काल में श्रेष्ठ स्थान प्रदान करते हैं । ताजमहल को संसार की सुंदरतम इमारतों में स्थान दिया गया है । " [42] श्यामलाल राही जी ने इस उपन्यास को लिखने के लिए अनेक ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन किया है । इसीलिए वे अपने इस उपन्यास में तथ्यपूर्ण घटनाओं का उल्लेख करने में सफल हुये हैं । घटनाओं की तिथियों और घटनाओं की क्रमबद्धता को ध्यान में रखते हुए 'ताजमहल' उपन्यास को एक ऐतिहासिक उपन्यास की बजाय 'मुगल वंश का इतिहास' कहना अनुचित नहीं होगा ।

संदर्भ :
[1] ताजमहल : श्यामलाल राही, पृष्ठ 5, प्रकाशक - रवीना प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2019
[2] वही, पृष्ठ 7
[3] वही, पृष्ठ 9
[4] वही, पृष्ठ 11
[5] वही, पृष्ठ 14
[6] वही, पृष्ठ 14
[7] वही, पृष्ठ 39
[8] वही, पृष्ठ 39-40
[9] वही, पृष्ठ 73
[10] वही, पृष्ठ 95
[11] वही, पृष्ठ 116
[12] वही, पृष्ठ 154-155
[13] वही, पृष्ठ 166
[14] वही, पृष्ठ 214
[15] वही, पृष्ठ 219
[16] वही, पृष्ठ 221
[17] वही, पृष्ठ 244
[18] वही, पृष्ठ 248
[19] वही, पृष्ठ 248
[20] वही, पृष्ठ 258
[21] वही, पृष्ठ 261
[22] वही, पृष्ठ 268-269
[23] वही, पृष्ठ 289
[24] वही, पृष्ठ 292
[25] वही, पृष्ठ 292-293
[26] वही, पृष्ठ 294
[27] वही, पृष्ठ 313-314
[28] वही, पृष्ठ 322
[29] वही, पृष्ठ 323
[30] वही, पृष्ठ 323
[31] वही, पृष्ठ 334
[32] वही, पृष्ठ 335
[33] वही, पृष्ठ 335-336
[34] वही, पृष्ठ 349
[35] वही, पृष्ठ 349
[36] वही, पृष्ठ 375
[37] वही, पृष्ठ 396
[38] वही, पृष्ठ 411
[39] वही, पृष्ठ 516
[40] वही, पृष्ठ 518
[41] वही, पृष्ठ 518
[42] मध्यकालीन भारत : एल०पी० शर्मा, पृष्ठ 510, प्रकाशक - लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, आगरा (उत्तर प्रदेश), अट्ठाइसवाँ संस्करण 2011

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