समकालीन कहानियों में अवैध संबंधों का समर्थन


अवैध संबंध क्या है ? इसे समझने के लिए सर्वप्रथम 'अवैध' शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है । 'अवैध' का शाब्दिक अर्थ है - विधि-विरुद्ध, अनधिकृत, समाज या मानवता-विरोधी । इस प्रकार अवैध संबंध का तात्पर्य ऐसे संबंध से है, जो विधि (कानून) के विरुद्ध हो अथवा जिसे समाज मान्यता नहीं देता हो अथवा जो मानवता के पक्ष में नहीं हो । भारतीय समाज में विवाह से पूर्व किसी लड़की अथवा लड़के द्वारा किसी लड़के अथवा लड़की के साथ शारीरिक संबंध बनाने को अवैध-संबंध माना जाता है । इसी प्रकार विवाह के उपरांत किसी स्त्री अथवा पुरुष द्वारा अपने जीवनसाथी के अतिरिक्त किसी अन्य पुरुष अथवा स्त्री के साथ शारीरिक संबंध बनाने को अवैध माना जाता है । ऐसे संबंध मानवता के पक्ष में भी नहीं हैं, क्योंकि किसी भी चेतनायुक्त पुरुष अथवा स्त्री को यह पसंद नहीं हो सकता है कि उसका जीवनसाथी किसी अन्य स्त्री अथवा पुरुष के साथ शारीरिक संबंध बनाए । चोरी-छिपे संबंध बनाने की बात अलग है, लेकिन कहा जाता है कि जानकर कोई मक्खी नहीं निगलता है । जब किसी स्त्री अथवा पुरुष को अपने जीवनसाथी के विश्वासघात का पता चलता है, तो उनके बीच टकराव और तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है । ऐसी स्थिति में समाज तो प्रभावित होता ही है, साथ ही साथ मानवता भी प्रभावित होती है । कुछ तथाकथित चिंतक इस प्रकार के संबंध को स्वतंत्रता की सीमा में रखने के लिए प्रयासरत हैं, जबकि सामान्यतः इस प्रकार के संबंध बनाने की प्रवृत्ति को 'स्वच्छंदता' कहा जाता है । कुछ लोग विधि (कानून) का हवाला देते हुए कहते हैं कि आजकल प्रत्येक स्त्री-पुरुष अपनी सहमति से किसी भी पुरुष-स्त्री के साथ यौन-संबंध स्थापित करने के लिए स्वतंत्र है । यहाँ तक कि वह ऐसा संबंध अपने जीवनसाथी के सामने भी बना सकता है और उसके जीवनसाथी को बोलने तक का भी अधिकार नहीं है । क्योंकि वहाँ पर सहमति है । लेकिन एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या 'स्वतंत्रता' का अर्थ यही है कि मनुष्य सहमति को आधार बनाकर सैकड़ों-हजारों के साथ यौन-संबंध बनाता फिरे ? क्योंकि पशुओं के बीच इस प्रकार का संबंध चल सकता है, लेकिन एक मनुष्य तो दूसरे मनुष्य के साथ भावनात्मक रूप से भी जुड़ा होता है । विधि (कानून) का क्या है ? वह तो बनती-बिगड़ती रहती है । लेकिन 'भावना' का क्या किया जाए ? यदि एक परिवार में पति-पत्नी दोनों इतने स्वतंत्र हो जाएँ कि वे अपने बीच शारीरिक संबंध बनाने के अतिरिक्त अन्य दूसरों के साथ भी शारीरिक संबंध बनाते रहें, तो उनके पारिवारिक जीवन का क्या होगा ? पारिवारिक जीवन के अलावा भी तो एक जीवन होता है, जिसे सामाजिक जीवन कहते हैं । ऐसे संबंधों की खुली छूट के कारण किस प्रकार का समाज बन सकता है, इसकी कल्पना की जा सकती है । क्या ऐसा समाज 'मनुष्य-समाज' कहा जाएगा ? यदि ऐसे समाज को मनुष्य-समाज कहेंगे, तो फिर पशु-समाज और मनुष्य-समाज में अंतर ही क्या रह जाएगा और फिर आदिमानव और आधुनिक मानव के बीच भी तो बौद्धिक विकास और सभ्यता का ही अंतर है । यदि यह अंतर ही समाप्त हो जाएगा, तो फिर आदिमानव और आधुनिक मानव का तात्पर्य एक ही हो जाएगा । यह सब कुछ होगा, मात्र शारीरिक भूख को शांत करने के कारण यानी अवैध यौन-संबंध बनाने के कारण । क्या मनुष्य मानसिक रूप से पशुओं से भी दुर्बल है कि वह अपनी दुर्भावनाओं पर नियंत्रण न कर सके ? क्या मनुष्य मनमानी करता फिरे और परिवार, समाज, देश आदि सभी का अहित हो ? ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए । अन्य देशों में क्या होता है और क्या हो हो रहा है, उसके आधार पर भारत देश का मूल्यांकन करना उचित नहीं है । इस देश में तथागत गौतम बुद्ध, संत कबीर, संत रैदास, ज्योतिराव फुले और बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुष हो चुके हैं, जिनसे शिक्षा और प्रेरणा लेने की आवश्यकता है ।

अवैध-संबंध और महापुरुषों के विचार

बौद्ध धम्म के प्रवर्तक, विश्वगुरु के नाम से विख्यात, महाकारुणिक महामानव तथागत गौतम बुद्ध ने सांसारिक दुखों के निवारण हेतु पंचशील और अष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करने की शिक्षा दी थी । एक बार तथागत बुद्ध महान भिक्षु-संघ सहित चारिका कर रहे थे, तो वे शाला नाम के एक ब्राह्मण-ग्राम में पहुँचे । वह ग्राम कोशल जनपद में था । शाला ग्राम के ब्राह्मण-मुखियों ने जब तथागत बुद्ध के आने का समाचार सुना, तो वे उनके पास गये और कुशल-क्षेम पूछकर एक और बैठ गये । उन्होंने तथागत से प्रार्थना की कि वे बताएँ कि सदाचरण का क्या मतलब है ? ध्यान देकर सुनने के लिए उद्यत ब्राह्मणों से तथागत बुद्ध ने कहा कि शरीर के तीन सदाचरण, वाणी के चार सदाचरण और मन के तीन सदाचरण हैं । उन्होंने सभी प्रकार के सदाचरण का स्पष्टीकरण करते हुए तीसरे शारीरिक सदाचरण के बारे में कहा, " जहाँ तक शारीरिक सदाचरण की बात है, तो एक आदमी काम-भोग संबंधी मिथ्याचार से दूर रहता है । वह ऐसी लड़कियों से सहवास नहीं करता, जो माता-पिता, भाई-बहन अथवा अन्य संबंधियों की अधीनता में रहने वाली (अविवाहित) लड़कियाँ हों और ऐसी लड़कियों से भी, जिनकी मँगनी हो गयी है अथवा जिनके गले में मँगनी की माला पड़ गयी है । " [1] कुछ तथाकथित चिंतक कुँवारेपन में यौन-संबंध की स्वतंत्रता का पक्ष लेते हुए कुँवारे लड़के-लड़कियों को रेलगाड़ी की सामान्य बोगी (जनरल कंपार्टमेंट) जैसा समझते हैं, जिसके लिए आरक्षण (रिजर्वेशन) का बंधन नहीं होता है । ऐसे चिंतकों को तथागत बुद्ध की उक्त बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए । रही बात रेलगाड़ी के सामान्य बोगी (जनरल कंपार्टमेंट) की, तो वर्तमान में (कोरोना काल) रेलवे का निजीकरण होने के बाद तो रेलगाड़ी की सामान्य बोगी में भी आरक्षण (रिजर्वेशन) की व्यवस्था लागू हो गयी है ।

संतशिरोमणि गुरु रविदास जी मन की पवित्रता को सर्वाधिक महत्व देते थे । उन्होंने अपनी एक साखी में इस विचार को व्यक्त किया है । वे कहते हैं कि मनुष्य बाहर से तो शरीर को पानी से धोकर साफ कर लेता है, लेकिन मन के भीतर अनेक विकार होते हैं । भला इस प्रकार मनुष्य शुद्ध कैसे हो सकेगा ? यह व्यवहार तो हाथी के स्नान के समान है, क्योंकि हाथी नहाने के बाद अपने ऊपर मिट्टी डाल लेता है । यथा :

बाहरु उदकि पखारिऐ, भीतरि बिबिध बिकार । 
सुध कवन पर होइबो, कुंजर बिधि बिउहार ।। [2]

संत कबीर जी अनन्य प्रेम के उपदेशक थे । उनके संबंध में यह कथन चर्चित है कि वे गृहस्थ संत थे । इसलिए उन्होंने गृहस्थ-जीवन की सफलता के लिए दंपति का चरित्रवान होना अनिवार्य माना । कबीर जी ने पतिव्रता नारी की प्रशंसा करते हुए लिखा है :
 
पतिव्रता मैली भली, काली कुचित कुरूप ।
पतिव्रता के रूप पर, वारौं कोटि सरूप ।। [3] 

उक्त दोहा भले ही पतिव्रता स्त्री को आधार बनाकर रचा गया है, किंतु इसे पुरुषों को भी हृदयंगम करना चाहिए । ऐसा न हो कि स्त्री पतिव्रत धम्म का पालन करे और पुरुष स्वच्छंद विचरण करे । संत कबीर ने साथी के साथ विश्वासघात न करने की शिक्षा दी है । क्योंकि कोई भी मनुष्य किसी भी मनुष्य को केवल एक बार धोखा दे सकता है, बार-बार नहीं । एक बार के बाद तो धोखा खाया हुआ मनुष्य सचेत हो जाता है । संत कबीर ने अपने एक दोहे में इसी बात को लक्ष्य करके कहा है कि जब कोई व्यक्ति अपने किसी प्रिय के चित्त से उतर जाता है, तो फिर वह हाथ में खोवा भरा हुआ कटोरा और छाछ लेकर राह देखता है, लेकिन उसका प्रिय उसके पास नहीं जाता है । यथा :

हाथ कटोरा खोवा भरा, मग जोवत दिन जाय ।
कबीर उतरा चित्त से, छाँछ दियो नहिं जाय ।। [4]

महामना ज्योतिराव फुले जी का मानना था कि कम उम्र में लड़के-लड़कियों का विवाह कर देने से अनेक वैवाहिक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । यहाँ तक कि समाज में अवैध-संबंधों पर आधारित अपराधों में वृद्धि भी होती है । इसलिए वे युवावस्था में ही लड़के-लड़कियों का विवाह करने के पक्ष में थे । इस संदर्भ में उन्होंने अपनी पुस्तक 'किसान का कोड़ा' में लिखा है, " कम उम्र में ब्याहे जाने वाले लड़के और लड़कियों को उम्र आने पर एक-दूसरे के रंग-रूप, आचरण और स्वभाव अच्छे नहीं लगते और दोनों में अनबन हो जाती है । और कुछ नासमझ जवान लड़के अपनी जवान पत्नी को छोड़ देते हैं । ये परित्यक्त लड़कियाँ अपने पिता के घर ही उम्र बिता लेती हैं । शेष ऐसी लावारिस लड़कियाँ जीवन के थपेड़े खाते-खाते मर जाती हैं । किसानों के माता-पिता बच्चों की राय लिये बिना ही बचपन में उनकी शादी कर देते हैं । इसलिए पत्नी पसंद न आने पर ऐसे लड़के दूसरा विवाह कर लेते हैं या किसी दूसरी स्त्री को रख लेते हैं । वे अपराधी हैं, मैं यह कह पाने में मुश्किल में हूँ । किंतु चार-पाँच शादियाँ कर लेने को कोई क्या कहेगा ? मेरे विचार से उन्हें पाँचवीं शादी कर लेनी चाहिए, क्योंकि तब उनकी मौत पर उनके बच्चे उनके अंतिम-संस्कार से मुक्त हो जाएँगे । " [5] फुले जी का यह कथन लड़के-लड़कियों और उनके माता-पिता के लिए अत्यंत विचारणीय है । माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि वे कम उम्र में अपने लड़के-लड़कियों का विवाह न करें तथा लड़के-लड़कियों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि विवशतावश कम उम्र में उनका विवाह हो जाए, तो वे अपने जीवनसाथी के साथ सामंजस्य स्थापित करने का पूरा प्रयास करें । 

आधुनिक भारत के निर्माता बोधिसत्व बाबा साहेब डा० भीमराव आंबेडकर जी मनुष्य के चारित्रिक विकास को जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि समझते थे । वरिष्ठ आंबेडकरवादी साहित्यकार एवं चिंतक डॉ० बी०आर० बुद्धप्रिय जी ने लिखा है, " डॉ० आंबेडकर ने स्वयं अपने चरित्र तथा आचरण को उत्कृष्ट बनाने के लिए वैज्ञानिक तरीका व सोच का इस्तेमाल किया । उनका व्यवहार संतुलित एवं निश्चयवादी था । वैज्ञानिक विश्लेषण के माध्यम से बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर ने मानव प्राणियों की शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक आवश्यकताओं की तृप्ति के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिए बोध कराया है । " [6] बाबा साहेब डा० भीमराव आंबेडकर जी ने 3 जून 1953 को रावली कैंप महिला मंडल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में संभाषण देते हुए कहा था, " हमने धम्म के लिए सत्याग्रह किया । धम्मांतरण का प्रस्ताव किया । सब कुछ किया । अब हमें अपना मन पवित्र करना होगा । सद्गुणों की ओर हमारा झुकाव होना चाहिए । हमें इस प्रकार धाम्मिक बनना होगा । हम पढ़े-लिखे, तो हमने सब कुछ पाया, ऐसा नहीं है । शिक्षा का महत्व है, इसमें कोई शक नहीं । शिक्षा के साथ मनुष्य का चरित्र भी होना चाहिए । चरित्र के बगैर शिक्षा की कीमत केवल शून्य है । ज्ञान तलवार की तरह है । मान लीजिए, किसी के हाथ में तलवार है । उसका अच्छा या बुरा इस्तेमाल करना है । यह उस व्यक्ति के चरित्र पर निर्भर करेगा । उस तलवार के सहारे वह किसी की हत्या कर सकता है या किसी का बचाव भी कर सकता है । ज्ञान का भी यही हाल है । अच्छे चरित्र का कोई पढ़ा-लिखा आदमी अपने ज्ञान का उपयोग औरों की अच्छाई के लिए करेगा । लेकिन उसका चरित्र अच्छा न हो, तो वह अपने ज्ञान का उपयोग किसी का बुरा करने के लिए भी कर सकता है । चरित्र धम्म का बहुत महत्वपूर्ण अंग है । " [7] स्पष्ट है कि 'बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय' का उद्घोष करने वाले सभी महापुरुषों ने सच्चरित्र पर विशेष बल देते हुए अवैध संबंधों का विरोध किया है । अतः अवैध संबंधों का समर्थन करना न केवल समाज-हित और मानवता के विरुद्ध है, बल्कि इन सभी महापुरुषों का परोक्ष रूप से अपमान करने के समान है ।


डाॅ. अजय नावरिया की कहानियों में अवैध-संबंधों का समर्थन

समकालीन कहानीकार अजय नावरिया के बारे में तथाकथित दलित चिंतक और आलोचक कँवल भारती का कथन है, " दलित कहानी को शिखर पर ले जाने वाले अजय नावरिया को मैंने एक दशक पहले ही युग-प्रवर्तक के रूप में देख लिया था । " यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कँवल भारती द्वारा अजय नावरिया को आंबेडकरवादी कहानी (दलित साहित्य) का युग-प्रवर्तक क्यों कहा जा रहा है ? इस बात का स्पष्टीकरण तभी हो पाएगा, जब नावरिया की उन कहानियों का सूक्ष्म अवलोकन किया जाए, जिन कहानियों के स्वरूप को ध्यान में रखकर कँवल भारती ने यह टिप्पणी की है । वास्तव में, जिन कहानियों को ध्यान में रखकर कँवल भारती ने कहानीकार अजय नावरिया को युग-प्रवर्तक के रूप में घोषित किया है, उन कहानियों में मुक्त यौन-संबंध की वकालत की गई है, जिसे सामान्य भाषा में लोग अवैध-संबंध के नाम से पुकारते हैं । अवैध-संबंध का समर्थन करने वाली डाॅ. अजय नावरिया की कहानियों का विवेचन निम्नलिखित है :

'चीख' में अवैध-संबंध का समर्थन 

'मैं' शैली में कविता लिखी जा सकती है, कहानी नहीं । 'मैं' सर्वनाम का प्रयोग करके लेखक आपबीती सुना सकता है, आत्मकथा लिख सकता है, लेकिन उसके द्वारा 'मैं' शैली में किसी घटना का उल्लेख करने को 'कहानी' नहीं कहा जा सकता है । जबकि हिंदी साहित्य में अधिकांश लोग लगभग तीन दशकों से इसी प्रकार की अंधी दौड़ लगा रहे हैं । यह एक प्रकार की भेड़चाल है । अजय नावरिया की तथाकथित कहानी 'चीख' में सभी घटनाओं का उल्लेख 'मैं' शैली में किया गया है, इसलिए इसे 'कहानी' का नाम देना उचित नहीं है । चूँकि इसमें कोई नायक पात्र नहीं है और आरंभ से अंत तक 'मैं' सर्वनाम के रूप में स्वयं लेखक ही उपस्थित है, अतः यह मान लेना गलत नहीं होगा कि यह तथाकथित कहानी लेखक अजय नावरिया की अपनी कहानी यानी आपबीती है । अंतर केवल यही है कि अजय नावरिया का जन्म दिल्ली में हुआ था, जबकि इस तथाकथित कहानी के नायक का जन्म दक्षिणी भारत में । कथा-कहानियों में तो स्थानों का नाम-परिवर्तन किया ही जाता है । इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है । खैर, इस कहानी का नायक दक्षिणी भारत के एक गाँव का निवासी है । जब वह दसवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तो एक दिन स्कूल से लौटते समय उसके गाँव के पटेल का लड़का विनायक चार-पाँच लड़कों के साथ मिलकर उसे नंगा कर दिया था और उसके जननांग पर बारी-बारी से सभी ने लात मारा था । उस घटना का वर्णन करते हुए लेखक ने (जो स्वयं कहानी का नायक है) नायक के जननांग का अनावश्यक उल्लेख किया है । चूँकि इस कहानी का नायक स्वयं लेखक है, इसलिए यह माना जा सकता है कि वह इसी बहाने अपने बड़े जननांग का प्रचार किया है । उसने ऐसा क्यों किया है ? क्या ऐसे संवाद के बहाने लेखक यह तो नहीं चाहता कि उन्मत्त शोध-छात्राएँ एवं युवा प्राध्यापिकाएँ इसे पढ़कर लेखक के प्रति आकर्षित हों और यौन-संबंध स्थापित करने हेतु लालायित हों ? यदि नहीं, तो फिर ऐसे संवाद की ऐसी क्या आवश्यकता थी ? लेखक के शब्दों में, " वे पाँचों मुझ पर पिल पड़े थे और पैंट खींच-खींचकर जमीन पर गिरा दिया था । 'इतना बड़ा !... कटवा है यह साला तो' उनकी आँखों में अचरज था । वे सन्न खड़े रह गये थे । उनकी फटी आँखों में मेरे जननांग का भय था । " [8] उस घटना के बाद नायक को स्कूल (चर्च) के फादर ने एक चिट्ठी देकर नागपुर के एक मिशनरी स्कूल में भेज दिया । वह चिट्ठी उस स्कूल के प्रिंसिपल के नाम थी । वहाँ नायक को ग्यारहवीं में प्रवेश मिल गया, हॉस्टल में रहने की जगह मिल गयी, पहनने को कपड़े मिल गये और खाने की व्यवस्था मेस में हो गयी । वह बारहवीं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ और कॉलेज में समाजशास्त्र में प्रवेश ले लिया । खाली समय में ट्यूशन पढ़ाकर वह जेब खर्च की व्यवस्था कर लेता था । जब उसने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो उसके बाद वह मुंबई चला गया । वहाँ उसने मसाज पार्लर में काम करना शुरू कर दिया । जिसे लेखक ने मजबूरी का नाम दिया है ।

पहली बार उसने एक दक्षिण भारतीय मलयाली चालीस वर्षीय पुरुष के साथ समलैंगिक संबंध बनाया था । उसके बाद उसने मिसेज देशमुख के साथ यौन-संबंध बनाया । बाद में मिसेज देशमुख ने उसे अपने ही घर में रख लिया था । महीने की पगार भी बाँध दी थी । मिसेज देशमुख एक निर्लज्ज स्त्री थी, जो अपने पति के सामने ही पर-पुरुष के साथ कामक्रीड़ा करने में संकोच नहीं करती थी । वास्तव में, वह अपने पति से प्रतिशोध ले रही थी और नायक उसके प्रतिशोध में सहयोगी बना था । क्योंकि मिस्टर देशमुख, मिसेज देशमुख से पच्चीस साल बड़ा था । वह उसकी ब्याहता नहीं थी, बल्कि रखैल थी । लेकिन उसने चालाकी से मिस्टर देशमुख की सारी संपत्ति अपने नाम करा ली थी । उसका मानना था कि मिस्टर देशमुख ने उसका विश्वास तोड़ा था, इसलिए वह भी उसका विश्वास तोड़ रही थी । ऐसा करने में उसे आध्यात्मिक सुकून प्राप्त हो रहा था । मिसेज देशमुख के घर पर एक पार्टी में नायक को शुचिता नामक एक विवाहित महिला मिली, जिससे उसका लगाव हो गया । शुचिता का पति वरुण एक डी.सी.पी. था । वरुण जब पाँच दिन के लिए ऑस्ट्रेलिया चला गया, तो नायक ने शुचिता के साथ भी कामक्रीड़ा का आनंद लिया । सामान्यतः ऐसे कर्म को पाप-कर्म कहा जाता है । लेकिन लेखक अजय नावरिया ने लिखा है, " हम जिन्हें पाप कहते हैं, शायद पाप के वही रास्ते जिंदगी को हमें बेहतर और मुकम्मल तरीके से सिखाते हैं । " [9] वास्तव में, नावरिया ने अपनी कुत्सित मानसिकता को दार्शनिक शैली में, आध्यात्मिक रस के साथ प्रस्तुत किया है । इस तथाकथित कहानी के नायक की दृष्टि में कई स्त्रियों से संबंध बनाना पाप नहीं, क्योंकि कई स्त्रियों से संबंध बनाना नायक का व्यवसाय है अर्थात् वह 'जिगोलो' (पुरुष वेश्या) है तथा वह अपने इस व्यवसाय के माध्यम से अनेक अतृप्त स्त्री-पुरुष को तृप्त करके सुख प्रदान करता है । ध्यान देने की बात यह है कि लेखक इस काम को मजबूरी का नाम देता है, जबकि यह सांसारिक सत्य है कि मजबूरी में कोई भी व्यक्ति दो-चार महीने से अधिक कोई कार्य नहीं कर सकता है । यदि कोई वर्षों तक किसी कार्य को करता रहता है, तो निश्चित रूप से वह उसमें रुचि लेने लगता है । इस तथाकथित कहानी 'चीख' का नायक नावरिया भी दो वर्षों से अधिक समय तक 'जिगोलो' का कार्य करने में तल्लीन रहता है ।

डाॅ. नावरिया ने कहीं-कहीं पर बहुत ही अश्लील और घृणाव्यंजक वाक्य का प्रयोग किया है । एक स्थान पर लेखक नावरिया ने 'मुँह से शब्द बाहर आने' की समानता 'मल निकलने' से की है । यह वाक्य किसी भी शीलवान पुरुष अथवा स्त्री के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकता है । यथा, "  'वेट... वेट... मैं थक गई ।' ठोकर लगते ही उसके मुँह से ये शब्द ऐसे बाहर आ गये थे, जैसे दस्त लगने पर बिना दबाव के मल निकल जाता है । " [10] भूत-प्रेत में विश्वास करने वाला व्यक्ति आंबेडकरवादी चेतना से रहित होता है । उसे आंबेडकरवादी नहीं कहा जा सकता है । नायक अजय नावरिया का भूत-प्रेत में विश्वास है । लेखक के शब्दों में, " जीसस मुझे अच्छे लगते थे । फादर मुझे जीसस से भी सुंदर लगते थे । फादर की शांत आँखें मेरे मन की अशांति पी जाती थीं, जैसे दरिया बड़े दरिया में मिलकर खुद को खो देता । पर चर्च मुझे भुतहा लगता था । " [11] 'चर्च मुझे भुतहा लगता था' इस कथन से स्पष्ट है कि लेखक मानता है कि भूत-प्रेत होते हैं । यदि उसे भूत-प्रेत में विश्वास नहीं होता, तो चर्च उसे भुतहा भी नहीं लगता । अपने शत्रु विनायक की स्मृति को भी उसने प्रेत की उपमा दी है । लेखक के शब्दों में, " विनायक को किसी भी तरह मैं भुला देना चाहता था । पर उसकी याद प्रेत की तरह पीछे लगी रहती थी । " [12] हिंदू देवी-देवताओं के प्रति भी नावरिया की आस्था है । अन्यथा 'इंद्र' शब्द का प्रयोग करना आवश्यक नहीं था । एक कथन द्रष्टव्य है - " शुचिता मेरे पास आ गई थी । मैं हमेशा उसके आने को वापसी के रूप में देखता था, जैसे इंद्र के चंगुल से छूटकर आई हो । " [13] अजय नावरिया ने अपनी तथाकथित कहानी 'चीख' के द्वारा अवैध संबंधों का समर्थन किया है । यदि इसी प्रकार प्रत्येक पुरुष अनेक स्त्रियों से यौन-संबंध स्थापित करने लगे तथा प्रत्येक स्त्री अनेक पुरुषों से यौन-संबंध स्थापित करने लगे, तो फिर मनुष्य और पशुओं में अंतर ही क्या रह जाएगा ? ध्यातव्य है कि मनुष्य को पशु (बंदर) की प्रवृत्ति से मुक्त होने में हजारों वर्ष लग गये थे । जिस संस्कृति और सभ्यता को सीखने के लिए मनुष्य ने कठिन श्रम किया, क्या वह उन्हीं को नष्ट कर दे; वह भी मात्र क्षणिक सुख (यौनानंद) के लिए ? यह कैसा आध्यात्मिक ज्ञान है ? यह कैसा दर्शन है ? कहीं यह पाशविक दर्शन तो नहीं ? ऐसा प्रतीत होता है कि हरिशंकर परसाई की बात सत्य होने लगी है । परसाई जी ने लिखा है, " मैंने ऐसे आदमी देखे हैं, जिनमें किसी ने अपनी आत्मा कुत्ते में रख दी है, किसी ने सूअर में । अब तो जानवरों ने भी यह विद्या सीख ली है और कुछ कुत्ते और सूअर अपनी आत्मा किसी-किसी आदमी में रख देते हैं । " [14] आंबेडकरवादी चेतना 'आत्मा' के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है । इसलिए 'आत्मा' की जगह 'हृदय' शब्द रखकर इस उद्धरण का आशय समझा जा सकता है । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि लेखक अजय नावरिया इस 'पाशविक दर्शन' के समर्थन में है । इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि अजय नावरिया में आंबेडकरवादी चेतना का पूर्णतः अभाव है । क्योंकि कोई सच्चा आंबेडकरवादी व्यक्ति पशु-प्रवृत्ति का समर्थन नहीं करता है और न ही वह काल्पनिक देवी-देवताओं का नाम लेना पसंद करता है । जबकि डाॅ. अजय नावरिया ने अनेक स्थानों पर निःसंकोच हिंदूवादी शब्दावली सहित हिंदू देवी-देवताओं के नाम का उल्लेख किया है ।

'आवरण' में अवैध-संबंध का समर्थन 

अजय नावरिया की कहानी 'आवरण' मासिक पत्रिका 'कथादेश' के सितंबर 2019 अंक में प्रकाशित हुई थी । इस कहानी के संदर्भ में कँवल भारती का कथन है, " दलित कहानी में पहली बार अजय नावरिया ने ही ‘आवरण’ कहानी लिखकर सेक्स को स्थापित किया था, जो दलित कहानी में ही नहीं, दलित कविता तक में उपेक्षित है । " क्या साहित्य में सेक्स को स्थापित करना समय की माँग है ? क्या सेक्स भी स्थापित करने योग्य है ? क्या साहित्य के अंतर्गत कामक्रीड़ा का अश्लील चित्रण करना आंबेडकरवादी चेतना का परिचायक है ? क्या आंबेडकरवादी साहित्य का यही उद्देश्य है ? सच तो यह है कि कँवल भारती में आंबेडकरवादी चेतना का पूर्णतः अभाव है । वे कभी-कभी ऐसी बातें बोलने लगते हैं, जैसे कोई शराब के नशे में बोलता है । आंबेडकरवादी चेतना 'पंचशील' के पालन की प्रबल समर्थक है । पंचशील के अंतर्गत चौथा 'शील' है - " कामेसुमिच्छाचारा वेरमणि सिक्खापदं समादियामि । " अर्थात् " मैं व्यभिचार-कर्म से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करता हूँ । " जबकि अजय नावरिया की कहानियों के नायक पात्र व्यभिचार-कर्म में लिप्त हैं । आंबेडकरवादी साहित्य मात्र मनोरंजन के लिए नहीं लिखा जाता है, बल्कि आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य सामाजिक क्रांति के माध्यम से समतामूलक समाज का निर्माण करना है । इसलिए आंबेडकरवादी साहित्य में सेक्स की स्थापना की कोई आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार की बातें करने वाले लेखक और आलोचक स्वयं पथभ्रष्ट हैं । वे भला दूसरे का मार्गदर्शन क्या करेंगे ?

खैर, देखना यह है कि अजय नावरिया की कहानी 'आवरण' में क्या है ? दरअसल, इस कहानी में दो प्रमुख पात्र हैं - प्रोफेसर दीपंकर और डाॅ. रम्या भारद्वाज । दीपंकर विवाहित है और रम्या अविवाहित । उन दोनों की एक-दूसरे से जान-पहचान लगभग तीन महीने पुरानी थी । उन्हें एक-दूसरे से परिचित कराने वाली सुलेखा गुप्ता थी । सुलेखा ने एक ह्वाट्सएप समूह बनाया था, जिसका नाम था - साहित्यिक-सांस्कृतिक समूह । वह समूह एस.सी, एस.टी, ओबीसी वर्ग के विद्यार्थियों का समूह था, जिसमें विद्यार्थी और कुछ प्राध्यापक भी जुड़े थे । एक बार सुलेखा ने दीपंकर को अपने कॉलेज में व्याख्यान देने के लिए बुलाया । विषय था - डॉ. आंबेडकर और मध्यवर्ग । वहीं पर दीपंकर और रम्या की मुलाकात हुई थी । अजय नावरिया के शब्दों में, " व्याख्यान के बाद डॉ. रम्या भारद्वाज ने उनका फोन नंबर लिया था उनसे । साथ ही बताया कि अभी पिछले साल दो हजार चौदह में ही उसकी बतौर स्थायी प्राध्यापक नियुक्ति हुई है, अंग्रेजी विभाग में । व्याख्यान के दो दिन बाद ही उसका फोन आ गया । उसने पूछा कि क्या हम वीकेंड पर मिल सकते हैं ? दोनों ने तय किया कि शनिवार की शाम गैलेक्सी मॉल के सनसैट रेस्तराँ में मिलेंगे । सितंबर शुरू हो चुका था, पर उस दिन तेज बारिश हुई । मौसम की आखिरी बारिश थी यह । इस के बाद लगभग हर वीकेंड पर वे दोनों मिलने लगे । व्हाट्सअप पर चैटिंग भी शुरू हो गई। जल्द ही वे बहुत घुल-मिल गये । " [15] शीघ्र ही उन्होंने साथ में छुट्टी बिताने की योजना बना ली । दिसंबर का महीना था । वे दोनों एक होटल में ठहरे थे । रम्या और दीपंकर के बीच का एक संवाद द्रष्टव्य है । यथा :

 " आपके बच्चे ? " रम्या ने चाय का घूँट भरते हुए खामोशी तोड़ी ।
" कोई नहीं है । कोई समस्या थी मेरी पत्नी को । "
" और पत्नी ? " 
" हम साथ नहीं हैं अब । ग्यारह साल हम साथ रहे, फिर वनवास खत्म हो गया । वह एक अच्छी औरत है, पर हम अलग हैं, बिल्कुल अलग । उसने तो मुझे दूसरी शादी करने को भी कहा, पर मुझसे ये हो न सका । " [16]

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कहानीकार के अनुसार, वे दोनों लगभग तीन महीने से बातचीत कर रहे थे और समय निकालकर मिल भी रहे थे । लेकिन फिर भी रम्या ने दीपंकर से उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में नहीं पूछा और तीन महीने बाद जब वे दोनों एक-दूसरे के पास एक कमरे में उपस्थित हैं, तो वह ऐसा प्रश्न पूछ रही है । यह बात हजम नहीं होती है । भला ऐसा कैसे हो सकता है कि डाॅक्टरेट की उपाधि प्राप्त कोई लड़की किसी पुरुष के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जाने बिना ही उसके साथ एकांतवास करने के लिए तैयार हो जाए ? जबकि वह दीपंकर की वास्तविक उम्र तक जानती थी । यह बात उनके बीच हुये एक संवाद से स्पष्ट हो जाती है । क्योंकि जब दीपंकर ने कहा था, “ तुम मुझसे बीस साल छोटी हो रम्या ! ” तो प्रत्युत्तर में रम्या ने कहा था, “ नहीं, बीस नहीं, सत्रह साल, दो महीने, बारह दिन... मैंने फेसबुक पर आपकी डेट ऑफ बर्थ देखी है । ” [17]
दीपंकर की उम्र पैंतालीस साल से अधिक है । वह स्वयं रम्या से अपनी दाम्पत्य-कथा सुनाते हुए कहा था, “ एक दिन वह अलग हो गयी, तब मैं बयालीस का था । मैंने भी कोई आपत्ति नहीं की । पिछले तीन साल से हम नहीं मिले । ” [18] इससे स्पष्ट है कि रम्या भी लगभग अट्ठाईस साल की है । इतनी बड़ी उम्र की सुलझी हुई लड़की इतनी छोटी सी बात पर ध्यान न दे, ऐसा असंभव है । यहाँ कहानीकार ने यथार्थ से परे कल्पना का सहारा लिया है । साथ ही दीपंकर के वैवाहिक जीवन केे संंदर्भ में कहानीकार ने ग्यारह साल तक साथ रहकर अलग होने को 'वनवास खत्म होना' कहा है । यह बात बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं हैं । क्योंकि अलग रहकर एक साथ होने की स्थिति में 'वनवास खत्म' होना पद का प्रयोग किया जाता है, न कि साथ रहकर अलग होने की स्थिति में । जब रम्या ने पूछा, " आपकी अरेंज्ड मैरिज थी ? " तो दीपंकर ने उत्तर दिया, " हाँ, अरेंज्ड मैरिज । " यह सुनकर रम्या ने कहा, " हाँ, उसमें ऐसा ही होता है । " [19] क्या रम्या का कथन सत्य है ? क्या अरेंज्ड मैरिज सफल नहीं होता है ? क्या वे सभी लोग मूर्ख हैं, जो अरेंज्ड मैरिज किये हुये हैं ? क्या लव मैरिज सदैैैव सफल होता है ? अब तक कितने लव मैरिज सफल हुये हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनके उत्तर इस कहानी में अनुपस्थित हैं ।

जब रम्या ने दीपंकर से उसकी पत्नी के बारे में पूछा था, तो वह कुछ देर तक अपनी पत्नी के बारे में सोचने लगा था । अजय नावरिया के शब्दों में, "...पर कुछ था, जो वे अपनी पत्नी से नहीं पा सके । उनके बीच ज्यादातर कम बातें होतीं । उनकी पत्नी सुंदर थीं, पर उन्हें उनकी सुंदरता ने कभी आकर्षित नहीं किया । क्यों नहीं किया ? वे नहीं जानते । पर वे इतना जरूर जानते थे कि उन्हें अपनी पत्नी से बातें करने में कोई आनंद नहीं आता था । ये वह स्त्री नहीं थी, जिसकी चाहत उन्हें थी, जिसकी तलाश थी । " [20] ध्यातव्य है कि दीपंकर की पत्नी सुंदर थी । फिर भी वह उसे पसंद नहीं थी । वह उससे बहुत अधिक बातें नहीं करता था । क्योंकि उसे अपनी पत्नी से बातें करने में आनंद नहीं मिलता था । भला आनंद कैसे मिलेगा ? किसी से बातें करने में आनंद तो तब मिलता है, जब उसके प्रति प्रेम होता है । सच तो यह है कि दीपंकर अपनी पत्नी से प्रेम ही नहीं करता था । वह उससे प्रेम क्यों नहीं करता था ? क्योंकि जब उसने सुहागरात के समय अपनी पत्नी के साथ सहवास किया था, तो उसके बिस्तर पर बिछी सफेद चादर लाल नहीं हुई थी । तात्पर्य यह है कि उसकी पत्नी का शीलभंग पहले ही हो चुका था, वह कुंवारी (वर्जिन) नहीं थी । इसीलिए तो दीपंकर ने रम्या के साथ यौन-संबंध बनाने के बाद उससे कहा, “ ...इतनी संपूर्ण लड़की मैंने आज पहली बार ज़िंदगी में देखी । तुम संसार की सुंदरतम लड़की हो । ” [21] उसने ऐसा क्यों कहा ? क्योंकि उसके बिस्तर की मुचड़ी हुई सफेद चादर लाल हो गयी थी । इसीलिए दीपंकर ने रम्या को 'सुखद गर्म' कहकर संबोधित किया । दूसरी बात यह कि उसने पहली बार 'संपूर्ण लड़की' को देखा था । यानी कि उससे पहले भी वह कई लड़कियों से संबंध बना चुका था । रम्या को पाकर दीपंकर की वर्षों की तलाश पूरी हुई थी । यहाँ एक साथ अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । क्या एक लड़की तभी संपूर्ण मानी जाए, जब वह कुँवारी (वर्जिन) हो ? क्या किसी लड़की का कौमार्य तभी भंग होता है, जब वह किसी लड़के से यौन-संबंध बनाती है ? क्या जिस लड़की का शीलभंग हो चुका है, उसे विवाहोपरांत उसके पति को छोड़ देना चाहिए ? क्या एक पुरुष को अपनी पत्नी के कौमार्य से ही प्रेम करना चाहिए ? क्या पत्नी की अन्य योग्यताएँ निरर्थक होती हैं ? आखिर कहानीकार ने इस कहानी के नायक दीपंकर का इस प्रकार चरित्र-चित्रण करके क्या सिद्ध करना चाहा है ? नारी-विमर्श और नारी-आंदोलन करने वाली महिलाओं को भी इस बिंदु पर ध्यान देने की आवश्यकता है । कहा जाता है कि इस संसार में कोई भी मनुष्य पूरा नहीं है । सभी लोग आधे-अधूरे हैं । इस संदर्भ में प्रसिद्ध साहित्यकार मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक 'आधे-अधूरे' का अवलोकन किया जा सकता है - " महेंद्रनाथ की बेकारी की हालत में सावित्री बहुत कटु हो गई है । एक ओर घर को चलाने का असह्य बोझ है, तो दूसरी ओर जिंदगी में कुछ भी हासिल न कर पाने की तीखी कचोट । अपने बच्चों के बर्ताव से अत्यंत तिक्त हुई सावित्री बची-खुची जिंदगी को ही एक पूरे, संपूर्ण पुरुष के साथ बिताने की आकांक्षा रखती है । पर यह आकांक्षा पूरी नहीं हो पाती, क्योंकि संपूर्णता की तलाश ही शायद वाजिब नहीं । " [22] दूसरी बात यह है कि एक ओर, दीपंकर अपनी पत्नी से केवल इसलिए लगाव नहीं रखता था कि उसका कौमार्य भंग हो चुका था । दूसरी ओर, वह स्वयं एक लड़की का कौमार्य भंग किया, वह भी दोस्ती के नाम पर; जिसे अवैध-संबंध कहा जाता है । कुँवारी लड़कियों का कौमार्य भंग करने वाले लोग भला अपनी पत्नी से कौमार्ययुक्त होने की आशा क्यों रखते हैं ? क्या कौमार्ययुक्त लड़कियाँ आसमान से टपकेंगी ? वास्तव में इस कहानी का नायक दुश्चरित्र व्यक्ति है, जिसे कहानीकार का पूरा समर्थन प्राप्त है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि कहानीकार अजय नावरिया की कहानी 'आवरण' लड़की-लड़के की दोस्ती के रिश्ते में यौन-संबंध स्थापित करने को समर्थन प्रदान करती है । क्योंकि जब बुजुर्ग शर्मा जी की पत्नी ने उनके कान में धीरे से कुछ कहा, तो शर्मा जी ने हँसते हुए दीपंकर और रम्या से कहा, " ये शुरू की संकोची हैं । कह रही हैं कि जोड़ी बहुत अच्छी है । " रम्या और दीपंकर दोनों यह सुनकर हँस पड़े तथा प्रत्युत्तर में रम्या ने मिसेज शर्मा की ओर देखते हुए कहा, “ हम पति-पत्नी नहीं हैं, दोस्त हैं मिसेज शर्मा ! साथ आये हैं छुट्टियाँ मनाने । ” [23] जबकि दीपंकर और रम्या यौन-संबंध बना चुके थे । यदि दोस्ती के रिश्ते में यौन-संबंध बनाना वैध है, तो फिर लोग क्यों कहते हैं कि दोस्ती और प्रेम में अंतर है ? क्यों कहते हैं कि दोस्त अनेक हो सकते हैं, लेकिन प्रेमी केवल एक ही होता है । जबकि इस कहानी से तो यही सिद्ध होता है कि लोग झूठ बोलते हैं । विडंबना तो यह है कि 'आवरण' कहानी के समर्थन में कई महिला प्रोफेसर और शोध छात्राओं ने समीक्षा की है । इसका तात्पर्य तो यही है कि वे सभी महिलाएँ और लड़कियाँ दोस्ती के रिश्ते में यौन-संबंध बनाना वैध मानती हैं । यानी कि यदि उनके दस दोस्त हैं, तो यह समझना चाहिए कि उन्होंने दसों के साथ यौन-संबंध बनाया होगा । इस कहानी में लेखक ने आरक्षण के मुद्दे को भी सम्मिलित किया है । कुछ समीक्षक आरक्षण की समस्या पर हुए संवाद को देखकर इस कहानी में आंबेडकरवादी चेतना का अनुभव कर सकते हैं । लेकिन ऐसे समीक्षकों को यह पता होना चाहिए कि आरक्षण पर बातें करने से अथवा आरक्षण की समस्या पर अपना अभिमत देने से कोई आंबेडकरवादी नहीं हो जाता है । कुछ समीक्षक इस कहानी में बुद्धवाद का भी दर्शन कर सकते हैं, क्योंकि लेखक ने एक स्थान पर 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग किया है । रम्या का हृदय परिवर्तन हो जाने पर दीपंकर ने कहा, " तो आखिर तुम्हारा भी जीते जी निर्वाण हो गया । " [24] लेकिन ध्यातव्य है कि इसी कहानी में एक स्थान पर लेखक ने 'आत्मा' शब्द का भी प्रयोग किया है । रम्या के साथ यौन-संबंध बनाने के बाद दीपंकर ने कहा, " तुम संसार की सुंदरतम लड़की हो । अभागा है तुम्हारा वह दोस्त । " रम्या ने पूछा, " सच ? " तो वह बोला, " हाँ, आत्मा से कहता हूँ । " [25] आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला व्यक्ति यदि 'निर्वाण' की बात करे, तो उसे प्रथम श्रेेणी का मूर्ख कहा जाता है । क्योंकि निर्वाण की बात करने वाला व्यक्ति 'आत्मा' की बात नहीं करता है । 

'संक्रमण' में अवैध-संबंध का समर्थन 

अजय नावरिया की कहानी 'संक्रमण' मासिक पत्रिका 'हंस' के अंक जनवरी-2021 में प्रकाशित हुई थी । कुछ ही दिनों बाद 'संक्रमण' के संदर्भ में फेसबुक पर समीक्षात्मक टिप्पणियों की बौछार होने लगी । समीक्षकों में बड़े-छोटे कई नाम शामिल थे, जैसे - कॅवल भारती, डॉ. शरण कुमार लिंबाले, डॉ. विजय कुमार भारती, डॉ. कौशल पंवार, प्रोफेसर हिदेआकी इशिदा,  डॉ. सुमित्रा मेहरोल, अरविंद सुरवडे, हरिराम भारती, डॉ. शक्ति शक्तिराज, अजीत कुमार पंकज, भीमसेन आनंद, डॉ. राजकुमारी, विवेक मिश्र, डाॅ. प्रमोद कुमार बागड़े, आशा शर्मा, शिवनारायण सिंह अनिवेद,  जितेंद्र विसारिया, डाॅ. नामदेव, बिभाश कुमार आदि । समीक्षकों की टिप्पणियों का विवेचन करने से पूर्व कहानी के कथानक पर एक बार दृष्टि फेर लेना आवश्यक है । 'संक्रमण' कहानी का मुख्य पात्र प्रोफेसर मिलिंद है, जो व्याख्यान देने के लिए जापान गया है । जापान में उसके प्रशंसक प्रोफेसर हिदेआकी इशिदा ने उसका स्वागत किया और अभिवादन में बोला, " जय भीम मिलिंद जी ! " क्योंकि वह जानता था कि प्रोफेसर मिलिंद एक आंबेडकरवादी साहित्यकार है और उसे 'जय भीम' का अभिवादन प्रिय लगता है । " प्रत्युत्तर में मिलिंद ने आश्चर्यचकित होकर कहा, " जय भीम ! " क्योंकि मिलिंद प्रोफेसर इशिदा को न तो जानता था, न ही पहचानता था । दोनों एक-दूसरे का परिचय प्राप्त किये । प्रोफेसर इशिदा ने बताया कि वह हिंदी जानता था । वह मिलिंद की आत्मकथा और उसकी कुछ कहानियाँ पढ़ चुका था । वह जापान में हिंदी भाषा और साहित्य पढा़ता था । उसकी उम्र पैंसठ साल थी । वे दोनों बस द्वारा एयरपोर्ट से मेट्रो स्टेशन तक गये और वहाँ से दो बार मेट्रो बदलने के बाद वे होटल पहुँचे । होटल में प्रोफेसर मिलिंद की मुलाकात डॉ. माया सुजुकी से हुई । प्रोफेसर इशिदा और डॉ. सुजुकी जब चले गये, तो सुबह दस बजे दरवाजे की घंटी बजी । मिलिंद ने जब दरवाजा खोला, तो सामने एक दक्षिणी एशियाई युवती खड़ी थी । उसने पूछा, " हाउसकीपिंग सर ? " मिलिंद ने 'ना' में सिर हिलाया और वह चली गयी । अगले दिन सुबह वह फिर आयी । मिलिंद की अनुमति पाकर उसने पूरा कमरा साफ कर दिया । उसने कमरे से बाहर निकलते समय पूछा, " आप इंडियन हैं न सर ? " मिलिंद ने 'हाँ' में उत्तर दिया, तो उस युवती ने कहा, " ग्रेट, मैं उत्तराखंड से हूँ । " जब मिलिंद ने उसका नाम पूछा, तो उसने अपना नाम 'श्वेता' बताया और यह भी बताया कि वह पढ़ाई के साथ-साथ पार्ट टाइम सफाई का काम भी करती है । [26] श्वेता अगली सुबह फिर आयी । वह मिलिंद के बारे में जान चुकी थी कि वह एक प्रोफेसर था और लेखक भी । उसे लेखकों की जिंदगी में दिलचस्पी थी । इसलिए उसने मिलिंद से पूछा, " आप अपनी पत्नी को साथ नहीं लाये ? " जवाब में मिलिंद ने कहा, " नहीं, सोचता हूँ कि जापान की ही किसी लड़की से शादी कर लूँ । " [27] यह सुनकर श्वेता समझ गयी कि मिलिंद अभी कुँवारा है । यहाँ एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि मिलिंद अभी तक कुँवारा क्यों था ? जबकि उसकी उम्र सैंतीस साल थी । वह एक प्रोफेसर था और सुंदर भी था । क्या वंचित वर्ग में उसे कोई लड़की पसंद नहीं आयी ? या फिर किसी लड़की ने उसे पसंद ही नहीं किया ? अगर किसी लड़की ने अथवा उसके घरवाले ने उसे पसंद नहीं किया, तो आखिर उसमें क्या कमी थी ? क्योंकि वंचित वर्ग की यह सबसे बड़ी सच्चाई है कि इस समाज में जब भी कोई व्यक्ति सरकारी नौकरी पा जाता है (भले ही वह कोई सफाईकर्मी की ही नौकरी क्यों न हो), तो लड़की वालों की लंबी कतार लग जाती है । ऐसा प्रतीत होता है कि लोगों को उसकी चरित्रहीनता के बारे में जानकारी थी, इसलिए लोग उसके यहाँ रिश्ता लेकर नहीं आते थे । लेखक ने इस पहलू पर पर्दा डाल दिया है । खैर, रोगी जो चाहे, वैद्य वही बतावे । मिलिंद और श्वेता दोनों एक-दूसरे के प्रति आकर्षित थे । श्वेता ने जब साथ में घूमने की इच्छा प्रकट की, तो मिलिंद ने हामी भर दी । श्वेता ठीक एक बजे आ गयी । मिलिंद पहले से ही तैयार बैठा था । दोनों होटल से बाहर निकल गये । " उन्होंने मेट्रो ली और टोक्यो टावर पहुँच गये । दोनों बाजारों और फिर अलग-अलग मोहल्लों की गलियों में घूमते रहे । खाते-पीते, बातें करते, कब वक्त गुजर गया, पता ही नहीं चला । " [28] वे दोनों एक रेस्तरां में वहाँ की मशहूर वाइन 'साके' पीये । श्वेता ने तीन गिलास साके पीया । जब वे रेस्तरां से बाहर निकले, तो अच्छी तरह सुरूर में थे । वे दोनों ग्यारह बजे होटल के कमरे में लौट आये । मिलिंद अपने सूटकेस में भारत से लायी हुई व्हिस्की रखा था, जिसमें से दो पैग बनाकर श्वेता गटक गयी । श्वेता बहुत देर तक इधर-उधर की बातें करती रही । इस प्रकार रात के साढ़े ग्यारह बज गये । श्वेता पूरी तरह नशे में थी । वह अपने कमरे पर नहीं जाना चाहती थी । मिलिंद भी यही चाहता था । क्योंकि उसके मन में हवस कीड़े कुलबुलाने लगे थे । वह सोच रहा था, " किसी को कुछ नहीं पता चलेगा कभी । ... खुद राजी है वह तो । रुकना चाहती है रात भर । समझो मिलिंद, किसी की जरूरत पूरी करना बिल्कुल गलत नहीं है । यह तो नेक काम है, नेक काम । नेकी का काम है यह । " [29] ध्यातव्य है कि कहानीकार अजय नावरिया ने इस कहानी के नायक प्रोफेसर मिलिंद को एक आंबेडकरवादी साहित्यकार के रूप में प्रस्तुत किया है । लेकिन नावरिया ने मिलिंद के जिस चरित्र का चित्रण किया है, वह आंबेडकरवादी चेतना के बिल्कुल विपरीत है । कोई आंबेडकरवादी साहित्यकार इस प्रकार की मानसिकता नहीं रखता है । जबकि इस कहानी के नायक प्रोफेसर मिलिंद की केवल मानसिकता ही कुत्सित नहीं है, बल्कि वह दुष्कर्मी भी है । अजय नावरिया ने लिखा है, " ... मिलिन्द किसी समुद्री तूफ़ान की तरह बहके हुये थे और श्वेता की निष्क्रियता बहुत देर तक, इस प्रचंड वेग के सामने ठहर नहीं सकी और किसी छोटी नौका की तरह उलट-पलट गयी । ऐसा नहीं कि उसके मन में प्रतिरोध नहीं उठा, उठा था, कई बार उठा, पर मिलिन्द को दूर हटाने को उसका मन साथ नहीं हुआ । उफ़्फ़...किसी दुर्दमनीय सम्मोहन में थी जैसे वह । वे जैसा-जैसा कहते गये, श्वेता किसी मंत्रबिद्ध युवती सी सब करती चली गई । " [30] स्पष्ट है कि नशे की हालत में मिलिंद ने श्वेता के साथ यौन-संबंध बनाया । लेकिन कुछ समीक्षकों ने इस कहानी में 'दलित जो हूँ' पद को एक 'नये प्रयोग' के रूप में देखते हुए इसे आंबेडकरवादी चेतना की कहानी माना है । जबकि मिलिंद और श्वेता के सहवास के दौरान कहानीकार नावरिया ने 'दलित' और 'राक्षस' शब्द का अस्वाभाविक रूप से अनावश्यक प्रयोग किया है । क्योंकि कहा जाता है - भूख न जाने बासी भात, हवस न जाने जात-पात । श्वेता केवल कामोत्तेजित ही नहीं थी, बल्कि वह शराब के नशे में भी थी । सीधे शब्दों में कहा जाए, तो वह 'चेतनाशून्य' थी । ऐसी स्थिति में किसी के पीठ पर दो लाठी बजा देने पर भी वह कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है, भला एक शब्द मात्र 'दलित' से क्या प्रभाव पड़ सकता है ? वैसे भी, श्वेता एक शोधार्थी युवती थी । अर्थात् वह मानसिक रूप से परिपक्व थी तथा वह पहले से ही मिलिंद के बारे में बहुत कुछ जानती थी । वह जानती थी कि मिलिंद प्रोफेसर और लेखक था । साथ ही वह यह भी जानती थी कि मिलिंद भारत का रहने वाला था । इतना जानने के बाद भी वह यह नहीं जानती थी कि मिलिंद किस वर्ग, समुदाय अथवा जाति से है ? हिरोको ने बताया, “ श्वेता आपसे बात नही करेगी अब । उसने काफ़ी नफरत से कहा कि मैं उस व्यक्ति के बारे में कुछ जानती नहीं थी । आखिर उसके सामने, उसका टॉयलेट, उसका कमरा  कैसे साफ़ कर सकती हूँ ? वह अछूत है, हमारे घरों में काम करने वाले हमारे नौकर हैं ये लोग । ” [31] यह बात हजम नहीं होती है । वास्तव में, कहानीकार ने गोल-गोल घुमाकर पाठकों को उल्लू बनाने का प्रयास किया है । लेकिन शायद कहानीकार अजय नावरिया को यह पता नहीं कि इक्कीसवीं सदी के पाठक इतने नासमझ नहीं हैं । चूँकि श्वेता एक तथाकथित ब्राह्मणी थी और भारत के तथाकथित ब्राह्मणों को किसी व्यक्ति से घनिष्ठता करने से पहले उसकी जाति जानने की बीमारी है । यदि श्वेता के मस्तिष्क में जातिवाद का विषाणु (वायरस) होता, तो निश्चित रूप से वह मिलिंद के साथ शारीरिक संबंध बनाने से पहले ही पता लगा चुकी होती कि मिलिंद की जाति क्या है ? यदि वह मिलिंद के साथ शारीरिक संबंध बनाने से पहले उसकी जाति नहीं जानती थी, तो निश्चित रूप से वह जातिवादी नहीं थी । इसका मतलब कि कहानीकार ने जबरदस्ती उसे जातिवादी बनाने का प्रयास किया है । अफसोस, वह इसमें सफल नहीं हुआ है । क्योंकि कहानीकार का बनावटी लेखन पकड़ में आ जा रहा है ।

बिडंबना तो यह है कि इस 'संक्रमण' कहानी की समीक्षा में अनेक नामधनी प्रोफेसरों और साहित्यकारों ने मधुर राग अलापा है । कँवल भारती ने टिप्पणी की है, " ‘संक्रमण’ कहानी से अजय नावरिया ने एक और बड़ी ऊँचाई हासिल कर ली है । मैं अब कह सकता हूँ कि अजय नावरिया विदेशी पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखने वाले भी पहले दलित कहानीकार बन गये हैं । " कँवल भारती ने 'संक्रमण' को विदेशी पृष्ठभूमि पर लिखी जाने वाली पहली 'दलित कहानी' माना है, क्योंकि यह कहानी जापान में हुये घटनाक्रम पर आधारित है तथा इसका नायक तथाकथित दलित प्रोफेसर व लेखक है । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अगर विदेश घूमने वाला प्रोफेसर दलित है, तो फिर वे कौन हैं, जो मैला ढोते हैं और नालियाँ साफ करते हैं ? वास्तविक दलितों के पास इतना पैसा नहीं है कि वे गाँव से शहर की यात्रा कर सकें, जबकि विदेश की यात्रा करने वाले को दलित कहा जाता है ? 'दलित' की परिभाषा पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है । क्योंकि 'दलित' किसी जाति का नाम नहीं, बल्कि एक स्थिति का नाम है । स्थिति बदलने पर यह नाम भी बदलना चाहिए । प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार शरण कुमार लिंबाले ने भी इस कहानी पर समीक्षात्मक टिप्पणी की है । अजय नावरिया के शब्दो में, " 'अक्करमाशी, 'नर वानर' और 'हिन्दू' जैसी अभूतपूर्व रचनाओं के लेखक शरण कुमार लिंबाले जी ने सुबह-सुबह फोन किया और भाव-विभोर होकर बोले - आप दलित साहित्य के अब कैप्टन हो । मैं मराठी में इस कहानी पर बहुत ज़्यादा लिख सकता हूँ । सच कहूँ, तो अब आपकी कहानियाँ पढ़ने के लिए हिंदी सीखना चाहता हूँ । यह 'संक्रमण' कहानी, आवरण कहानी से भी बहुत आगे है । आप एकदम अलग दलित साहित्यकार हो, तथाकथित मुख्यधारा से आगे के । " डॉ. लिंबाले ने सही कहा है कि अजय नावरिया एकदम अलग दलित साहित्यकार हैं, अर्थात् सभी दलित साहित्यकारों से अलग हैं । इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि अजय नावरिया दलित साहित्यकारों की श्रेणी से बाहर हैं । डाॅ. विजय कुमार भारती का कथन है, " कहानी दलित और स्त्री प्रश्नों को जोड़ने की कोशिश करती है,आज भी प्रेम अपराध है, पुरुषसत्तात्मक, सामंतवादी और जातिवादी समाज में । महत्त्वपूर्ण है सवर्ण स्त्री के प्र्श्न को दलित प्रश्न का हिस्सा बनाना । कहानी में संक्रमण जातिवाद का है और दूसरा वैचारिक आदान-प्रदान का । जातिवाद का यह संक्रमण स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को कैसे नष्ट करता है ? यह रोग विश्व तक फैल रहा है, जिसके लिए डाॅ. आंबेडकर भी चिंतित रहते थे । कहानी निराशाजन्य स्थितियों से समाप्त नहीं होती । अतः सकारात्मक संक्रमण कहानी के शीर्षक को और सार्थक बनाता है । कहानी में दलित चरित्र को बड़ी ईमानदारी से देशकाल के अनुसार उभारने की कोशिश की गई है । कहानी में ग्रामीण और महानगरीय भाषा-शैली, परिवेशगत यथार्थ के आधार पर व्यक्त होती है, यह कहानी का कौशल है । " डॉ. भारती इस कहानी में भाषा-शिल्प देखकर प्रसन्नचित्त हैं । उन्हें यह ध्यान रखना चाहिए था कि आंबेडकरवादी साहित्य में सबसे पहले विचारधारा पर ध्यान दिया जाता है, उसके बाद सामाजिक यथार्थ पर । सबसे अंत में भाषा और शैली पर ध्यान दिया जाता है । यदि किसी साहित्यकार की भाषाशैली उत्कृष्ट हो, लेकिन उसकी रचना में  निहित विचार निकृष्ट हों, तो आंबेडकरवादी साहित्य के अंतर्गत उस रचना को बिल्कुल महत्त्व नहीं दिया जाता है । डॉ. नामदेव की टिप्पणी है, " सबसे अश्लील संस्कार है - जातिवाद । " जातिवाद की बात बाद में है, सबसे पहले प्रश्न यह खड़ा होता है कि तथाकथित दलित प्रोफेसर मिलिंद, ब्राह्मणी श्वेता के साथ शारीरिक संबंध बनाता ही क्यों है ? तथाकथित दलित क्यों स्वार्थपूर्ति हेतु तथाकथित ब्राह्मण और ब्राह्मणियों के पीछे दुम हिलाते फिरते हैं ? ऐसे निकृष्ट दलितों का पक्ष लेना भी निकृष्टता है । तथाकथित दलित लेखक ब्राह्मणों को हर समय दोष क्यों देते हैं ? क्या तथाकथित दलित जातिवादी नहीं हैं ? सच तो यह है कि दलित साहित्य 'जातिवाद' का ही दूसरा नाम है । क्योंकि केवल अनुसूचित जाति के  साहित्यकारों को ही दलित साहित्यकार माना जाता है । अन्य पिछड़ा वर्ग का कोई साहित्यकार चाहे जितना भी दलित वर्ग के लोगों से संबंधित साहित्य लिख दे, उसे दलित साहित्यकार नहीं माना जाता है । केवल अनुसूचित जाति में पैदा होने से किसी को दलित साहित्यकार मानना 'ब्राह्मणवाद' है तथा जातिवाद भी है । (यहाँ एक बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि दलित साहित्य और आंबेडकरवादी साहित्य में पर्याप्त अंतर है । इसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए पाठक 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका अवश्य पढ़ें ।) बिभाश कुमार ने समीक्षात्मक टिप्पणी करते हुए कहीं-कहीं पर कहानीकार के भटकाव को भी इंगित किया है । फिर भी, कहानी का नायक चूँकि बिहार प्रांत के आरा का निवासी है, इसलिए बिहारी बिभाश कुमार को इस कहानी से कुछ लगाव सा दिखाई दे रहा है । बिभाश कुमार का कथन है, " स्त्री के समर्पण को रोटी खाने वाला कोई भी इंसान नकार नहीं सकता है । " क्या समर्पण का मतलब है - वासना में अंधा होकर सेक्स के प्रति लोलुप होना ? यदि समर्पण का मतलब यही है, तब तो समर्पण की परिभाषा बदलनी पड़ेगी । दूसरी बात यह है कि यदि कोई पुरुष इसी तरह से स्त्रियों के आमंत्रण को स्वीकार करता रहे, तब तो वह पूरी तरह से पुरुष-वेश्या बन जाएगा । खैर, इस कहानी का उद्देश्य जातिवाद के वीभत्स रूप को रेखांकित करना है, लेकिन कहानीकार ने अपने उद्देश्यपूर्ति में एक दुश्चरित्र नायक का सहारा लिया है । यह कहानी एक उच्चशिक्षित तथाकथित दलित की कामकुंठा को उजागर करती है । इस कहानी से किसी दलित को गर्व की अनुभूति नहीं हो सकती है, बल्कि उसे इस कहानी के अधम नायक के चरित्र पर लज्जित होना चाहिए ।

जितेन्द्र विसारिया का कथन है, " यूँ ‘संक्रमण’ कहानी पर बहुत लिखा-पढ़ा जा रहा । बहुत चर्चे हैं अभी उसके । उस पर मेरे बहुत लिखे से बेहतर है, उस कहानी को ही पढ़ा जाए । अजय नावरिया ने उसे बड़े मनयोग से रचा है । रस लेकर पढ़िए या विरस, उसे पढ़िए अवश्य । बहुत सारे जाले साफ़ करती है - ‘संक्रमण' । " विसारिया ने इस कहानी को पढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित किया है । यह बड़ी विचित्र बात है कि एक बुद्धिजीवी कहा जाने वाला व्यक्ति प्रेरक कहानियाँ पढ़ने की बजाय 'सेक्स स्टोरी' पढ़ने की प्रेरणा दे रहा है । जब 'पॉर्न स्टोरी' ही पढ़ना हो, तो कोई सचित्र 'ब्लू फिल्म' ही क्यों न देख ले । वरिष्ठ आलोचक कैलाश दहिया जी का भी यही कहना है कि अजय नावरिया की कहानियाँ पढ़ने से अच्छा है कि वेब सीरिज 'मस्तराम' ही देख लिया जाए । दरअसल, इस फिल्म की कहानी एक महत्वाकांक्षी साहित्यकार की है, जो हिंदी उपन्यासों की दुनिया में अपने लिए एक विशेष स्थान बनाना चाहता है । जिसकी पुस्तकें और लेखन सेक्स कहानियों को प्रस्तुत करती हैं । अजय नावरिया भी उसी महत्वाकांक्षी साहित्यकार की तरह है । इस कहानी के संदर्भ में हरिराम भारती ने टिप्पणी की है, " प्रणय के अंतरंग बेसुध क्षणों में मिलिंद का यह रहस्योद्घाटन श्वेता के जातीय दर्प की चट्टान पर अपनी तरफ से एक फौलादी चोट मारता है । वह चोट श्वेता के जातीय अभिमान और घमंड को चकनाचूर कर देती है । उसकी शराब का नशा और काम का उन्माद इस शब्दबाण से तवे पर पड़े पानी की तरह उड़ जाता है । श्वेता राक्षसी जुनून तो चाहती है, पर दलित नहीं (इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि प्राचीन काल में अछूतों/ दलितों को ही राक्षस कहा जाता था) । श्वेता का कथन है - बुढ़ापे में हम दोनों बैठ कर इन्हीं यादों को याद कर मुस्कुराया करेंगे । पर मिलिंद का प्रणयोपहार उसे जहरीले काँटों सा बींधने वाला लगा । यह संवाद कहानी की जान है । वैसे ही जैसे चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' की कहानी 'उसने कहा था' का यह वाक्य - तेरी कुड़माई हो गई ? " हरिराम भारती को 'दलित जो हूँ' संवाद इस कहानी की जान समझ में आ रहा है । जबकि यह संवाद उन्माद की स्थिति में बोला गया है । ऐसा उन्मत्त संवाद तो उन्मादी लोगों को ही पसंद आ सकता है । कहानी का नायक यह वाक्य तब बोलता है, जब श्वेता उसे 'राक्षस' कहती है । कहानीकार अजय नावरिया और इस कहानी के समीक्षकों के अनुसार, राक्षस शब्द का अर्थ 'रक्षक' है । लेकिन ध्यातव्य है कि श्वेता 'राक्षस' शब्द को 'रक्षक' के अर्थ में प्रयोग नहीं करती है, बल्कि जब वह 'राक्षस' कहती है, तो उसके कहने का तात्पर्य होता है - 'दैत्य' । क्योंकि वह तथाकथित ब्राह्मणी है और ब्रह्मणवादी संस्कार से परिपूर्ण है । इसलिए कहानी का नायक मिलिंद का प्रत्युत्तर में 'दलित जो हूँ' कहना इस बात की ओर संकेत कर रहा है कि वह इस बात को स्वीकार कर रहा है कि 'हाँ मैं दैत्य हूँ', क्योंकि मैं दलित हूँ । स्पष्ट है कि इस संवाद के माध्यम से कहानीकार दलितों को दैत्य के रूप में घोषित कर रहा है । अरविंद सुरवडे की टिप्पणी है, " इस कहानी का समापन मुझे पूरी बुद्ध-आंबेडकरवादी दृष्टि का परिचय देता दिखाई पड़ता है । आखिर में, श्वेता को अपनी गलती का अहसास होता तो है; श्वेता में आया परिवर्तन ध्यान देने लायक है । सामाजिक परिवर्तन का जो पहिया अब तक अधूरा घूमा हुआ है, इस तरह की सकारात्मकता उस पहिया को पूरी तरह घूमने में मददगार होगी । मिलिंद का लिखा हुआ पढ़ने से श्वेता में जो अच्छा, ऊर्ध्वगामी, सकारात्मक परिवर्तन, संक्रमण हुआ, अज्ञान की जगह ज्ञान के संक्रमण द्वारा व्याप्त हो गयी, यही असली संक्रमण है, परिवर्तन है; जो बुराइयों पर अच्छाई की जीत है। बुद्ध का विचार भी तो यही है । जो अच्छे विचार का संक्रमण बुद्ध ने अंगुलिमाल मे लाया, जो संक्रमण बुद्ध ने नालगिरी हाथी में लाया, जो संक्रमण डॉ. आंबेडकर से टकराने के बाद गांधी मे आया वही संक्रमण श्वेता मे मिलिंद का लिखा पढ़कर आया इस पर ध्यानाकर्षित होता है । " अरविंद सुरवडे की टिप्पणी को पढ़कर केवल इतना ही कह देना पर्याप्त है कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है ।

'संक्रमण' जैसी 'पॉर्न स्टोरी' के समर्थन में महिलाएँ भी पीछे नहीं है । डॉ. सुमित्रा मेहरोल का कथन है, " 'संक्रमण' कहानी की भाषाशैली और शिल्प सुगठित हैं । कहानी की शुरुआत के बाद से ही पाठक कहानी के साथ बहा चला जाता है । स्त्री मुद्दों को भी कहानी में उठाया गया है । " डॉ. कौशल पँवार ने टिप्पणी की है, “ मेरी नज़र में 'संक्रमण' कहानी एक मनोवैज्ञानिक कहानी है । अगर जातिवाद और अछूतपन को समझना हो, तो अजय नावरिया सर की कहानी पढ़ना बहुत महत्वपूर्ण लाभदायक होगा । आपने दलित इतिहास में एक मील का पत्थर रख दिया है । " डॉ. राजकुमारी की टिप्पणी है, " वरिष्ठ कहानीकार अजय नावरिया जी अपने चिंतन, वैचारिक प्रतिबद्धता एवं उद्देश्य से कभी भटकते नहीं हैं । दलित सम्मानित चिंतक, लेखक के रूप में अपनी जाति से अवगत कराना आत्मविश्वास का परिचय देता है । समतामूलकता, समानता, सम्यक दृष्टिकोण, प्रबुद्ध भारत की परिकल्पना के चक्षुओं में पलते सुनहरे स्वप्न की कहानी है संक्रमण । बहुचर्चित ख्यातिप्राप्त कहानीकार नावरिया जी की एक खास बात यह है कि उन्होंने उदात्तचरित्र चित्रण, वर्ग विशेष के परिवर्तन के आशान्वित दृष्टिकोण, सकारात्मक सोच, सवर्ण स्त्रियों के जातीय संकीर्ण सोच से उभर उदात्त आचरण की महत्वाकांक्षा भी जाहिर की है । यही सोच उनके लेखन को अन्य कहानीकारों से भिन्न पहचान दिलाती हैं । " इन सभी महिला साहित्यकारों की टिप्पणियों से अनुमान लगाया जा सकता है कि इनके नारी विमर्श का स्वरूप कैसा है ? जो महिलाएँ मुक्त यौन-संबंध का समर्थन करती हैं, वे किस प्रकार का समाज स्थापित करने का सपना देख रही हैं ? यह पूरी तरह से स्पष्ट है । ये नारी-स्वतंत्रता का तात्पर्य यही समझती हैं कि स्त्रियाँ जिस पुरुष से चाहें, उस पुरुष से स्वतंत्र होकर यौन-संबंध स्थापित कर सकें, उन पर कोई रोक-टोक न हो । यानी कि मनुष्य भी पशुओं की भाँति स्वच्छंद हो जाए । ऐसी स्थिति में अजय नावरिया जैसे लेखकों और उनके समर्थकों से एक प्रश्न है कि यदि वे मुक्त यौन-संबंध के पक्षधर हैं, तो क्या उनकी बहन-बेटियों के साथ कोई इस प्रकार का संबंध बनाए, तो उन्हें आपत्ति नहीं होगी ? यदि उन्हें आपत्ति नहीं होगी, तब तो कोई बात नहीं । लेकिन यदि उन्हें आपत्ति होगी, तो फिर उन्हें इस प्रकार का लेखन अवश्य बंद कर देना चाहिए । आंबेडकरवादी साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इस साहित्य का सृजन सामाजिक बदलाव के उद्देश्य से किया जाता है । जबकि अजय नावरिया के लेखन में 'बदलाव' का भाव कम और 'बदला' का भाव अधिक दिखाई देता है । इस संदर्भ में 'दलित लेखक संघ' के अध्यक्ष रह चुके हीरालाल राजस्थानी जी का कथन द्रष्टव्य है । उनके अनुसार, " अभी हाल ही में एक वेब सीरीज आई है, जिसका शीर्षक 'तांडव' है । यह वर्तमान राजनीति से प्रेरित वेब सीरीज है । इसमें एक सवर्ण स्त्री द्वारा अपने दलित प्रेमी से परिस्थितिवश एक डायलॉग बुलवाया गया है - एक छोटी जात का आदमी, एक ऊँची जाति की औरत को जब डेट करता है, तो सिर्फ बदला लेने के लिए, सदियों के अत्याचारों का । यह डायलॉग ब्राह्मणवादी मानसिकता का एक नया हथकण्डा है । जो दलित वैचारिकी पर प्रहार है । जिसका उद्देश्य दलितों के धैर्य और विमर्श को ध्वस्त करना तथा पूरी स्त्रीजाति में उनके प्रति अविश्वास व घृणा पैदा करना है । हम इसे सिरे से नकारते हुए कहते हैं कि दलित समुदाय बदला नहीं बदलाव चाहता है । '' अजय नावरिया की कहानी 'संक्रमण' पर वेब सीरीज 'तांंडव' का स्पष्ट प्रभाव लक्षित होता है ।

बीसवीं सदी के छठे दशक के बाद हिंदी कहानी कई आंदोलनों से होकर गुजरी, जिसमें 'सहज कहानी', 'सक्रिय कहानी', 'सचेतन कहानी', 'समांतर कहानी' और 'अकहानी' आदि के नाम प्रमुख हैं । हिंदी कहानी को अश्लील स्वरूप प्रदान करने में नयी कहानी आंदोलन के नायकों मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेंद्र यादव की महती भूमिका रही है । इन तीनों कहानीकारों ने आधुनिकता के नाम पर अवैध संबंधों का समर्थन किया और हिंदी कहानी को 'पोर्न स्टोरी' का पर्याय बना दिया । राजेंद्र यादव ने मुक्त यौन-संबंध का प्रशिक्षण देने वाली जिस पाठशाला की स्थापना की थी, अजय नावरिया उसी पाठशाला के छात्र रहे हैं । इसलिए नावरिया की कहानियों में वात्स्यायन के कामसूत्र की भाँति शारीरिक आकर्षण और सेक्स का गंभीर वर्णन स्पष्ट दिखाई देता है । मुक्त यौन-संबंधों की वकालत करने वालों में अ-कहानी आंदोलन के सूत्रधार भी शामिल थे । डॉ. उर्मिला मिश्र के शब्दों में, " सत्तर के दशक में 'अ-कहानी' आंदोलन प्रारंभ हुआ । वस्तुतः अ-कहानी शब्द पश्चिम में चले 'एंटी स्टोरी' का अनुवाद था । यह आंदोलन आयातित था । ठीक उसी तरह जैसे नयी कहानी में कुंठा, संत्रास, अजनबियत और अस्तित्ववाद था । इन आंदोलन-प्रवर्तकों, संगठनाकारों और लेखकों को भारतीय परिवेश की आत्मा और जातीय-बोध से गुरेज था । उनकी दृष्टि में केवल मूल्यहीनता, विघटन, अश्लीलता, अराजकता, भ्रष्टाचार, विवशता, विरुपता और जुगुप्सा ही दिखाई पड़ती थी । मार्क्सवादी भी उसके दर्शन की नयी-नयी व्याख्या प्रस्तुत करने लगे थे । महानगरों के काॅफी-हाॅउस बुद्धिजीवियों के अड्डे थे, जहाँ गरमा-गरम बहसों के द्वारा मूल्यों का ईजाद हो रहा था । इस आंदोलन के शिविर में राजकमल चौधरी, दूधनाथ सिंह, सतीश जमाली, रविंद्र कालिया, और गंगा प्रसाद विमल प्रमुख थे । गंगा प्रसाद विमल इस आंदोलन के सूत्रधार और व्याख्याता थे । यह आंदोलन नयी कहानी की नकार का आंदोलन था । यह उसके रूमानी प्रेम-बोध के विपरीत शारीरिक आकर्षण का चित्रण करता था और मुक्त यौन संबंधों की वकालत । " [32] इस उद्धरण से स्पष्ट है कि मुक्त यौन संबंधों की वकालत करना अ-कहानी की विशेषता है । अजय नावरिया ने भी अपनी कहानियों में मुक्त यौन संबंधों की वकालत की है । अतः नावरिया को अकहानीकार कहा जाना चाहिए । चूँकि आंबेडकरवादी कहानी में मुक्त यौन संबंधों के अश्लील चित्रण को स्वीकार नहीं किया जाता है, इसलिए अजय नावरिया को आंबेडकरवादी कहानीकार नहीं कहा जा सकता है । 
 

रत्नकुमार सांभरिया की कहानी में अवैध संबंध का समर्थन 

सांभरिया जी की कहानी 'शर्त' का कथानक इतना ही है कि मुखिया जसवीर सिंह के पुत्र बिरजू ने मेहतर पानाराम की पुत्री का बलात्कार कर दिया था । इसलिए पानाराम न्याय की माँग करते हुए अपने परिवार के साथ जहर खाकर मरने का निश्चय कर लिया था । मुखिया के बारम्बार आग्रह करने पर वह अपने निर्णय को बदलने के लिए तैयार तो हो गया, लेकिन एक शर्त पर । वह शर्त क्या थी ? पानाराम के शब्दो में, " मुखिया साब! इज्जत का सवाल है यह । आपकी इज्जत सो मेरी इज्जत । आपकी लड़की मेरे लड़के के साथ एक रात रहेगी ।" [33] यहाँ विचार करने की बात है कि जिस शर्त को आधार बनाकर कहानीकार ने इस कहानी का सृजन किया है, क्या वह शर्त न्यायपरक है ? क्या एक बलत्कृत लड़की के भाई द्वारा बलात्कारी की बहन का बलात्कार करने से बलत्कृत की लुटी हुई इज्जत वापस आ जाएगी ? क्या एक बलात्कारी के अपराध का दंड उसकी बहन को दिया जाना न्याय है ? इस प्रकार का प्रावधान तो भारतीय संविधान में भी नहीं है । तो फिर, इस प्रकार की चेतना को आंबेडकरवादी चेतना कैसे माना जा सकता है ? सच तो यह है कि यह कहानी कहानीकार द्वारा भावावेश में लिखी गयी है, जो समाज को सही दिशा देने में समर्थ नहीं है । चूँकि कहानीकार सांभरिया जी की यह कहानी उनके आरंभिक लेखनकाल की कहानी है, इसलिए उनके ऊपर कुछ करुणा अवश्य की जा सकती है । लेकिन इसका तात्पर्य नहीं कि उनकी इस कहानी को आंबेडकरवादी चेतना की कहानी मान लिया जाए । युवा पीढ़ी के कहानीकारों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए ।


डॉ० जयप्रकाश कर्दम की कहानियों में अवैध संबंध का समर्थन 

डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी की कहानी 'चक्रव्यूह' मासिक पत्रिका 'हंस' के अंक नवंबर-2019 (दलित साहित्य विशेषांक) में प्रकाशित हुई थी । उसी वर्ष यह कहानी त्रैमासिक पत्रिका 'कथाक्रम' के अंक अक्टूबर-दिसंबर-2019 में 'वर्जिन' नाम से प्रकाशित हुई थी । इस कहानी की नायिका रूपा अपना कौमार्य बेचना चाहती थी । वह अपना कौमार्य क्यों बेचना चाहती थी ? इसका उत्तर रूपा के इस कथन में है - " यदि मैं इतनी सुंदर नहीं होती, पापा की असमय मौत नहीं हुई होती और मैं अकेली बेबस और बेसहारा नहीं होती, तो यह दिन नहीं देखना पड़ता । गली-मोहल्ले के आवारा लड़के रात-दिन जीना हराम नहीं करते । न सत्ते पहलवान जैसे गुंडों के आतंक का भय होता, न हर क्षण अपहरण और बलात्कार के डर से घर से बाहर कदम रखना दूभर होता । कोई पाँच सौ के और हजार रुपए के नोट दिखाता है, कोई जबरदस्ती उठाकर ले जाने की धमकी देता है । एक-एक क्षण भय और आतंक के साये में जीना पड़ रहा है । जी नहीं रही हूँ, एक-एक साँस के साथ मर रही हूँ । कोई पत्ता भी गिरता है, तो डर से काँप उठती हूँ । " [34] यानी कि वह अपने आपको असुरक्षित महसूस कर रही थी । उसकी असुरक्षा उसके प्राण से संबंधित नहीं थी, बल्कि उसकी अस्मत से संबंधित थी । कहानीकार ने इस कहानी में लंबे-लंबे संवादों के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि रूपा एक वंचित-वर्ग की लड़की थी । साथ ही, वह सेकेंडरी की छात्रा थी । सेकेंडरी के छात्र-छात्राओं की उम्र समान्यतः पंद्रह वर्ष के आसपास होती है । रूपा सुंदर थी और उसके पिता का असमय देहांत हो चुका था । कहानीकार ने उसके भाई-बहन का परिचय नहीं दिया है । अतः स्पष्ट है कि उसके घर में केवल वह और उसकी माँ थी । ऐसी स्थिति में निश्चित है कि रूपा की माँ बाहर काम करने जाती थी और अन्य दिनों न सही, लेकिन रविवार को तो वह पूरे दिन अकेले ही घर पर रहती थी । प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि रूपा इतनी ही असुरक्षित थी, तो फिर वह पंद्रह वर्ष की उम्र तक अपनी अस्मत को सुरक्षित कैसे रख सकी ? क्योंकि वंचित समाज का यह कड़वा सच है कि बिन बाप की और आर्थिक रूप से कमजोर लड़की पंद्रह वर्ष की उम्र से पहले ही या तो बलत्कृत हो जाती है या फिर कुसंगति में पड़कर स्वयं ही अपनी अस्मत किसी आवारा लड़के को सौंप देती है । ऐसी पारिवारिक स्थिति की लड़की सामान्यतः सेकेंडरी तक पढ़ाई भी नहीं कर पाती है । यहाँ एक और भी बात ध्यान देने योग्य है कि रूपा के पास एंड्रायड सेट था । यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि इतनी असुरक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर लड़की के पास एंड्रॉयड फोन आया, तो कहाँ से आया ? कहानीकार डॉ० कर्दम जी ने न तो कहानी की नायिका रूपा की पारिवारिक पृष्ठभूमि का ठीक से परिचय दिया है और न ही देशकाल, वातावरण का कहीं उल्लेख किया है । ऐसी स्थिति में सामाजिक यथार्थ से संबंधित ऐसे अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनका उत्तर देने में यह कहानी असमर्थ है । यही कारण है कि इस कहानी में काल्पनिकता की अधिकता दिखाई देती है, जिससे कहानी के कथानक और कहानीकार की दृष्टि पर संदेह होता है ।

कहानीकार डाॅ० कर्दम जी की काल्पनिक उड़ान इस कहानी में ऐसा मोड़ लाती है कि रूपा को बहुत सारे प्रस्ताव प्राप्त हुये । पहला प्रस्ताव कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के का था, जो रूपा से विवाह करके उसे अपने दिल की रानी बनाना चाहता था । दूसरा प्रस्ताव एक व्यवसायी का था, जो उसके कौमार्य की कीमत एक लाख लगाया था । तीसरा प्रस्ताव एक डाॅन का था, जो रूपा को खाली चेक भेजकर उसके कौमार्य की मनचाही कीमत देने के लिए तैयार था । जिस दलित समाज की लड़कियाँ/महिलाएँ गरीबी और लाचारी के कारण सौ, दो सौ रूपये में अपना कौमार्य बेच देती हैं, उस समाज की लड़की रूपा के कौमार्य को इतनी अधिक कीमत पर नीलाम करवाने के पीछे आखिर कहानीकार का क्या उद्देश्य हो सकता है ? क्या कहानीकार यह कहना चाहता है कि वंचित-वर्ग की लड़कियों का कौमार्य भी मूल्यवान है ? वास्तव में कहानीकार यही कहना चाहता है । इस बात के स्पष्टीकरण के लिए इस कहानी के एक संवाद पर ध्यान दिया जा सकता है । संवाद के दौरान इस कहानी के एक पात्र आमोद ने कहा, " दुनिया अपने आप में एक बाजार है । यहाँ हर चीज एक उत्पाद है और हर उत्पाद बिकने के लिए है । स्त्री का शरीर भी उत्पाद है और उसकी वर्जिनिटी भी । " [35] इस संवाद के माध्यम से कहानीकार डॉ० कर्दम जी ने अपनी ही मानसिकता को प्रकट किया है । क्योंकि हाल ही में उनका एक कविता-संग्रह 'दुनिया के बाजार में' प्रकाशित हुआ है । वे दुनिया को एक 'बाजार' समझते हैं और दुनिया में रहने वाले लोगों को बाजार में बिकने वाला 'उत्पाद' । वे चाहते तो कौमार्य को अनमोल भी कह सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा है । प्रत्यक्ष रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ० कर्दम जी की यह हार्दिक इच्छा है कि दलित लड़कियाँ अपना कौमार्य बेचती रहें । जबकि परोक्ष रूप से डॉ० कर्दम जी ने उन नारीवादी महिलाओं पर कटाक्ष किया है, जो अपनी देह और वर्जिनिटी (कौमार्य) को अपनी प्रॉपर्टी समझती और कहती हैं, क्योंकि प्रॉपर्टी भी खरीदी और बेची जाती है ।

कहानीकार की दृष्टि पर संदेह इसलिए होता है, क्योंकि इस कहानी की नायिका रूपा अन्य सभी प्रस्तावों को ठुकराकर एक फिल्म निर्माता/निर्देशक मनोज मानव के प्रस्ताव को स्वीकार की । ध्यातव्य है कि वह उस प्रस्ताव को स्वेच्छा से नहीं स्वीकार की, बल्कि उसके सहपाठी अशोक ने उसे उत्साहित किया था । रूपा में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता नहीं थी । वैसे भी, वह जिस उम्र में थी, उस उम्र में सामान्यतः सभी लड़कों/लड़कियों को किसी बड़े निर्णय के लिए अनुभवी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है । यहाँ इस कहानी में यह बात बिल्कुल भी विश्वसनीय नहीं है कि अशोक रूपा को निर्णय देने में समर्थ था । चूँकि अशोक रूपा का सहपाठी और समउम्र था, इसलिए उसके पास इतनी समझ, विवेक अथवा अनुभव होना यथार्थ से परे है । यदि उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि उच्च स्तर की होती, तो यह बात ग्रहणीय हो सकती थी । लेकिन कहानीकार ने अशोक की पारिवारिक पृष्ठभूमि का कहीं उल्लेख नहीं किया है । दूसरी बात यह है कि रूपा और अशोक मनोज मानव के प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लेते हैं, क्योंकि उसने अपने संदेश में लिखा था, " कौमार्य बेचने के पीछे तुम्हारी क्या मजबूरी रही है, मैं वह जानना नहीं चाहता । लेकिन मुझे यह आभास हो रहा है कि कौमार्य बेचने की तुम्हारी मजबूरियों में सुरक्षा और आर्थिक अभाव शायद सबसे प्रमुख हैं । मैं तुम्हें बहुत पैसा नहीं दे सकता । लेकिन तुमको एक सुखी, सुरक्षित और स्वावलंबी जिंदगी जीने का रास्ता दिखा सकता हूँ । मैं फिल्म निर्माता हूँ, तुमको फिल्मों में काम देख सकता हूँ । तुम मुंबई चली आओ । " [36] प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि क्या फिल्मों में काम करने वाली अभिनेत्रियाँ सुखी, सुरक्षित और स्वावलंबी होती हैं ? फिल्मी क्षेत्र में होने वाले शोषण और हत्याओं के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । स्वावलंबी बनने के लिए केवल फिल्मी क्षेत्र ही नहीं है, बल्कि हजारों ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें लड़कियों को स्वावलंबी बनने के लिए अनेक अवसर उपलब्ध हैं । सुखी, सुरक्षित और स्वावलंबी बनने के लिए एकमात्र विकल्प कौमार्य बेचना ही नहीं है । कहानीकार डॉ० कर्दम जी ने इस प्रकार का कथानक चुनकर अपने वैचारिक भटकाव का परिचय दिया है । कौमार्य बेचना एक प्रकार की वेश्यावृत्ति है । यह कहानी वंचित समाज की लड़कियों को वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख होने का संदेश देती है, जो आंबेडकरवादी चेतना के विरुद्ध है । कहानीकार ने वंचित समाज के एक लड़के को भी इस वेश्यावृत्ति में दलाल (भड़वा) के रूप में प्रयुक्त किया है, जो बेहद शर्मनाक है ।


संदर्भ :-

[1] बुद्ध और उनका धम्म : डॉ० भीमराव आंबेडकर, पृष्ठ 226, प्रकाशक - बुद्ध और उनका धम्म सोसाइटी ऑफ इंडिया नागपुर, संस्करण 2011
[2] आदि गुरुग्रंथ साहिब में गुरु रविदास वाणी : डॉ० चमन लाल, पृष्ठ 39, प्रकाशक - सिद्धार्थ बुक्स दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016
[3] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ० लाल साहब सिंह, पृष्ठ 59, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पाँचवाँ संस्करण 2011
[4] बीजक : कबीर, पृष्ठ 114, प्रकाशक - कबीर पारख संस्थान इलाहाबाद, सातवाँ संस्करण 2010
[5] किसान का कोड़ा : ज्योतिराव फुले, अनुवादक - डॉ० संजय गजभिए, पृष्ठ 80, प्रकाशक - सम्यक प्रकाशन नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 2018
[6] सांस्कृतिक क्रांति और बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर : डॉ० बी०आर० बुद्धप्रिय, पृष्ठ 6, प्रकाशक - आंबेडकर मिशन प्रकाशन पटना, प्रथम संस्करण 2014
[7] बाबा साहेब डॉ० आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड-चालीस, पृष्ठ 317, प्रकाशक - डॉ० आंबेडकर प्रतिष्ठान नई दिल्ली, पहला संस्करण 2019
[8] मैं और मेरी कहानियाँ : अजय नावरिया, पृष्ठ 117,  
[9] वही, पृष्ठ 126
[10] वही, पृष्ठ 115
[11] वही, पृष्ठ 120 
[12] वही, पृष्ठ 120-121
[13] वही, पृष्ठ 134
[14] निबंध नवनीत : डॉ. सर्वजीत राय, डॉ. श्रद्धानंद, पृष्ठ 45, प्रकाशक - अमृत प्रकाशन ईश्वरगंगी (वाराणसी), संस्करण 2018
[15] आवरण : अजय नावरिया, कथादेश - सितंबर 2019, पृष्ठ 74
[16] वही, पृष्ठ 73
[17] वही, पृष्ठ 75
[18] वही, पृष्ठ 73
[19] वही, पृष्ठ 73
[20] वही, पृष्ठ 73
[21] वही, पृष्ठ 80
[22] आधे-अधूरे : मोहन राकेश (निर्देशक ओम शिवपुरी का कथन) पृष्ठ 10, प्रकाशक - राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2017
[23] आवरण : अजय नावरिया, कथादेश - सितंबर 2019, पृष्ठ 81
[24] वही, पृष्ठ 82
[25] वही, पृष्ठ 80
[26] संक्रमण : अजय नावरिया, हंस - जनवरी 2021, पृष्ठ 33
[27] वही, पृष्ठ 34
[28] वही, पृष्ठ 34
[29] वही, पृष्ठ 35
[30] वही, पृष्ठ 36
[31] वही, पृष्ठ 37
[32] हिंदी कहानी : डॉ. उर्मिला मिश्र, पृष्ठ 9, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2017


✍️ आलोचक - देवचंद्र भारती 'प्रखर' 
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हरिनंदन स्नातकोत्तर महाविद्यालय मोहरगंज, चंदौली (उत्तर प्रदेश) 
मोबाइल : 9454199538
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