आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप एवं विशेषताएँ


आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप 

आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप सामान्य स्तर की हिंदी कहानियों के स्वरूप से सर्वथा भिन्न है । कहानी के छः तत्व माने गये हैं - कथानक, पात्र, संवाद, देशकाल, भाषा और शैली । इन सभी छः तत्वों का समावेश जिस कहानी में होता है, वह कहानी संपूर्ण कहानी मानी जाती है । आंबेडकरवादी कहानी अपनी संपूर्णता की माँग करती है, जिसे पूरा करना हर आंबेडकरवादी कहानीकार का दायित्व है । आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर निर्धारित किया जाता है :

(1) कथानक :- आंबेडकरवादी कहानी का कथानक (कथावस्तु) सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि किसी भी क्षेत्र पर आधारित हो सकता है । हर स्तर, हर अवस्था, हर वर्ग के मनुष्य की सांसारिक समस्याएँ आंबेडकरवादी कहानी का विषय बनने योग्य हैं । जातिगत भेदभाव, छुआछूत, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी, अंधविश्वास, दहेज-प्रथा, भ्रूण-हत्या, महँगाई, प्रदूषण, पारिवारिक कलह, अविवाहित प्रेम, शैक्षिक संघर्ष, वैज्ञानिक खोज, शारीरिक रोग, मानसिक विकार, सरकारी घोटाला, नक्सलवाद, आतंकवाद, आंबेडकरवादी आंदोलन, बौद्ध-दर्शन आदि सभी विषयों पर आंबेडकरवादी कहानी लिखी जा सकती है । ध्यान रहे कि कहानी का उद्देश्य समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व, प्रेम, मानवता, आत्मनिर्भरता, स्वाभिमान, वैज्ञानिक चेतना, पंचशील, अनीश्वरवाद और अनात्मवाद के पक्ष में हो । पारलौकिक कल्पना, अथवा पौराणिक प्रसंग को आंबेडकरवादी कहानी का कथानक नहीं बनाया जा सकता है । रत्न कुमार सांभरिया के अनुसार, " आंबेडकरवादी कहानियों के कथानक पौराणिक, जनश्रुत, ईश्वरी परंपरा, भाग्य-भगवान, भूत -प्रेत, मूर्ति-मंदिर, अज्ञानता-अंधविश्वास पर आधारित न होकर जमीनी सच से जुड़े, उत्साह और जीवट को द्योतक करने वाले तथा विकास और पुनर्वास की कल्पनाशीलता से प्रसूत होने चाहिए । " [1] आंबेडकरवादी कहानी को बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर के त्रिसूत्र 'शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो' की प्रेरणा से युक्त होना अनिवार्य है । शिक्षा के साथ सदाचार, संघर्ष के साथ मानवता और संगठन के साथ सामाजिकता का सामंजस्य होना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानी का कथानक ऐसा हो, जिससे संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का हनन न हो और तथागत बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की उपेक्षा भी न हो ।

(2) पात्र :- आंबेडकरवादी कहानी के पात्र किसी भी जाति, किसी भी धर्म, किसी भी वर्ग तथा किसी भी क्षेत्र से हो सकते हैं, लेकिन आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका के व्यक्तित्व का आंबेडकरवादी चेतना से सरोकार अवश्य हो । अर्थात् आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व, प्रेम, करुणा, सदाचार और वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण होने चाहिए । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संपादक के शब्दों में, " आंबेडकरवादी कहानी का नायक वही मनुष्य होना चाहिए, जो समतावादी, संघर्षशील, अंधविश्वास का विरोधी, वैज्ञानिक चेतना का समर्थक और पंचशील का अनुपालक हो । जिसमें आंबेडकरवादी चेतना नहीं हो, वह आंबेडकरवादी कहानी का नायक नहीं, खलनायक ही हो सकता है । यदि नायक में कोई दोष हो, लेकिन वह उसका उन्मूलन करके गुणवान बन जाए, तो उसके उत्तरोत्तर विकास एवं विकास के कारणों को कहानी में अवश्य प्रकट किया जाना चाहिए । ... आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका तभी आदर्श बन सकते हैं, जब वे डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गयी बाईस प्रतिज्ञाओं के विरुद्ध आचरण न करें । " [2] आंबेडकरवादी कहानी के पात्रों में नायक पात्र के लिए आंबेडकरवादी चेतना से परिपूर्ण होना नितांत आवश्यक है । यदि नायक आंबेडकरवादी चेतना से रहित हो, तो कहानी भी आंबेडकरवादी कहानी के प्रतिमान की सीमा से बाहर हो जाती है ।

(3) संवाद :- संवाद अथवा कथोपकथन अथवा वार्तालाप कहानी का एक महत्वपूर्ण और अनिवार्य तत्व है । संवाद जब पात्रों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर के अनुकूल हों, तो कहानी में यथार्थ का समावेश हो जाता है । 'संवाद' पात्रों के अनुकूल होने के साथ-साथ छोटे और स्पष्ट हों, तो कहानी सरस और रोचक हो जाती है । रत्न कुमार सांभरिया जी के अनुसार, " संवादों से न केवल पात्रों का चरित्र-चित्रण ही होता है, कहानी को ठीक से समझने में भी मदद मिलती है । पात्रों की कार्य-योजना, रहन-सहन, भाषा-बोली, आंचलिकता व पारिवेशिक गंध से पाठक रूबरू होता है । हाँ, संवादों की सीमा हो । अधिक लंबे संवाद ऊब पैदा करते हैं । पाठक को लगे कि वह कहानी पढ़ रहा है, न कि नाटक का रसास्वादन कर रहा है । संवाद जितने चुटीले और छोटे होंगे, कहानी में उतनी ही कसावट होगी । " [3] एक आंबेडकरवादी कहानीकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन बातों का ध्यान रखे, ताकि कहानी में यथार्थ लक्षित हो और कहानी पठनीय बन सके । चूँकि आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य सामान्य जन को आंबेडकरवादी मिशन और आंदोलन से अवगत कराना है, इसलिए कहानी के संवाद ऐसे हों कि सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी संवादों का आशय सरलता से समझ सके ।

(4) देशकाल :- देशकाल/वातावरण के वर्णन से कहानी में यथार्थ की पुष्टि होती है । वैसे तो कहानीकार द्वारा पात्रों की वेशभूषा और उनकी संस्कृति का वर्णन करने से उनके क्षेत्र-विशेष का बोध हो जाता है । साथ ही, पात्रों के संवाद से भी ज्ञात हो जाता है कि वे किस प्रकार की भाषा बोलते हैं और वे जिस प्रकार की भाषा बोलते हैं, वह भाषा किस क्षेत्र में बोली जाती है ? लेकिन ध्यातव्य है कि इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिसे संसार के हर क्षेत्र के व्यक्तियों, उनकी संस्कृतियों, उनकी भाषाओं और उनके रहन-सहन का ज्ञान है तथा वह केवल पात्रों की वेशभूषा, भाषा और संस्कृति से उनके देशकाल/वातावरण को समझ सके । इसलिए आंबेडकरवादी कहानीकार के लिए आवश्यक है कि वे अपनी कहानियों में पात्रों के देश (क्षेत्र), काल (घटना का समय) और वातावरण (परिवेश) का भी उल्लेख करें ।

(5) भाषा :- हर भाषा का अपना-अपना साहित्य है । हिंदी कहानीकार अपनी कहानियों में हिंदी भाषा का ही प्रयोग करता है और करना भी चाहिए । यदि हिंदी कहानी में अन्य भाषाओं के शब्दों की बहुलता हो, तो उसे हिंदी कहानी कैसे कहा जा सकता है ? लेकिन ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है कि कहानीकार जिस भाषा में कहानी लिखे, उस भाषा के अतिरिक्त किसी भाषा का तनिक भी प्रयोग न करे । क्योंकि कहानी में दो प्रकार के व्यक्तियों की भाषा का प्रयोग होता है - एक तो कहानी सुनाने वाले (कहानीकार) की अपनी भाषा और दूसरे, जिसकी कहानी सुनाई जाती है अर्थात् कहानी के पात्र की भाषा ।

(6) शैली :- हिंदी कहानी में जब नयी कहानी का दौर आया, तो कहानीकारों ने अनेक प्रकार की शैलियों का प्रयोग करना आरंभ कर दिया, जिसमें 'मैं' शैली अर्थात् 'आत्मकथात्मक शैली' का नाम भी शामिल है । इस शैली की तो जैसे भरमार लग गयी । अनेक कहानीकारों ने अपनी आत्मकथा को ही आत्मकथात्मक शैली के नाम पर कहानी बनाकर परोस दिया । पाठक भी नयेपन के उन्माद में आत्मकथा को कहानी के रूप में स्वीकार कर लिये और ऐसी तथाकथित कहानियों का गुणगान करने लगे । जबकि कहानी-विधा के साथ यह सरासर अन्याय है । वास्तव में, आत्मकथात्मक शैली में लिखी गयी तथाकथित कहानी को 'कहानी' नहीं माना जा सकता है । ऐसी तथाकथित कहानी को आत्मकथा की श्रेणी में रखा जाना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानीकार आत्मकथा शैली में कहानी न लिखें । जिन्हें इस शैली से बहुत लगाव हो, वे आत्मकथा, संस्मरण अथवा रेखाचित्र लिखें । कहानी की अन्य शैलियों में विश्लेषणात्मक शैली और वर्णनात्मक शैली भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं । विश्लेषणात्मक शैली और वर्णनात्मक शैली में क्या अंतर है ? इसके बारे में रत्न कुमार सांभरिया जी ने लिखा है, " विश्लेषणात्मक शैली और वर्णनात्मक शैली में अंतर यह हुआ कि विश्लेषण कहानी के पात्रों का होता है, जबकि वर्णन कहानी में आये स्थानों, घटनाओं और परिवेश का होता है । विशेष रूप से यही दो शैलियाँ हैं, जो लेखक का वजूद कायम करती हैं । बिना विश्लेषण, न तो कहानी में रोचकता आती है और न ही वह सहजता से अपने मुकाम तक पहुँच पाती है । विश्लेषणात्मक शैली में लिखी गयी कहानी को चरित्र-प्रधान कहानी भी कहते हैं । ... विश्लेषण इतना भी न हो कि कहानी संस्मरण सी लगने लगे । " [4] कहानी में कहानीपन की झलक अवश्य होनी चाहिए । कहानी सुनने/पढ़ने वाले को यह तनिक भी न प्रतीत हो कि कहानी स्वयं कहानीकार की है । कहानी दूसरे की होती है, न कि स्वयं की । स्वयं की कहानी आत्मकहानी अथवा आत्मकथा होती है । अतः आंबेडकरवादी कहानीकारों को कहानी में आत्मकथात्मक वर्णन से सदैव बचना चाहिए ।


आंबेडकरवादी कहानी की विशेषताएँ 

आंबेडकरवादी कहानी में डाॅ० आंबेडकर के प्रति श्रद्धाभाव, शिक्षा से लगाव, संघर्ष की भावना, जातिवाद का विरोध, समता का समर्थन, अंतर्जातीय विवाह की पक्षधरता, आदर्शोन्मुख यथार्थ की अभिव्यक्ति, वैज्ञानिक चेतना, अंधविश्वास का विरोध, कुरीतियों का उन्मूलन एवं बौद्ध धम्म का अनुपालन आदि विशेषताएँ लक्षित होती हैं ।

1. आंबेडकर के प्रति श्रद्धाभाव  

आंबेडकरवादी कहानीकार बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के प्रति श्रद्धा रखते हैं । आंबेडकर के प्रति श्रद्धा रखने का तात्पर्य यह नहीं है कि कहानीकार अपनी हर कहानी में आंबेडकर के नाम का उल्लेख करे अथवा कहानी के नायक को आंबेडकरवादी के रूप में दिखाकर उससे 'जय भीम' का अभिवादन कराए । आंबेडकर के प्रति श्रद्धा रखने का तात्पर्य है - आंबेडकरवादी चेतना से संपन्न होना । आंबेडकरवादी चेतना से युक्त कहानीकार समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम की भावना से परिपूर्ण होता है । आंबेडकरवादी कहानीकारों की श्रद्धा भावना उनकी कहानी के पात्रों में भी परिलक्षित होती है । डाॅ. जयप्रकाश कर्दम जी के द्वारा लिखित कहानी 'मूवमेंट' का एक संवाद द्रष्टव्य है । इस कहानी का नायक 'वह' (बेनाम) है । चूँकि वह सामाजिक आंदोलन की धुन में अपने परिवार का ध्यान नहीं रखता था । वह देर रात घर लौटता था । इसलिए उसकी पत्नी उससे नाराज थी । उसने (नायक) अपनी पत्नी सुनीता को समझाते हुए कहा, " देखो सुनीता, यदि बाबा साहेब आंबेडकर ने भी ऐसा ही सोचा होता, यदि उन्होंने भी समाज की परवाह न करके केवल अपना ही हित देखा होता, तो उनके लिए किस चीज की कमी थी ? वह चाहते तो ढेर सारा पैसा कमा सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । यदि उन्होंने ऐसा किया होता, तो जानती हो हमारे समाज का क्या होता, हम तुम आज कहाँ होते ? " कहते-कहते एक क्षण के लिए वह रुका और सुनीता की आँखों में झाँकते हुए बोला, " यदि उन्होंने अपने जीवन का समाज के लिए त्याग नहीं किया होता और माता रमाबाई ने उनको पूरा सहयोग नहीं किया होता, तो हमारा समाज आज भी उसी स्थिति में होता, जिस स्थिति में सौ साल पहले था । " [5] बाबा साहेब आंबेडकर के प्रति श्रद्धा-भाव होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनके प्रति श्रद्धा-भाव को कार्य रूप में परिणत करने की आवश्यकत होती है । आंबेडकरवादी कहानी में इस प्रकार के भावों का समावेश होता है ।

2. शिक्षा से लगाव 

शिक्षा से लगाव रखने वाला व्यक्ति औपचारिक शिक्षा सहित अनौपचारिक शिक्षा भी प्राप्त करने में रुचि लेता है । केवल नौकरी प्राप्त करने के लिए शिक्षा प्राप्त करना आंबेडकरवादी चेतना का लक्षण नहीं है । एक शिक्षित व्यक्ति में शालीनता, सामाजिकता, समता भावना, करुणा, मैत्री, प्रेम आदि गुण अवश्य होने चाहिए । डाॅ. जयप्रकाश कर्दम जी के द्वारा लिखित कहानी 'गँवार' में प्रभात एक सुशिक्षित और सुशील युवक था, जो क्लर्क के पद पर कार्यरत था । उसकी दोस्त आभा उससे विवाह करने के लिए इसलिए तैयार नहीं होती है, क्योंकि वह साधारण वेशभूषा में रहता था । इसी कारण से वह प्रभात को 'गँवार' कहती थी । लेकिन अपनी प्रोन्नति के लिए निरंतर प्रयासरत प्रभात एक दिन बड़ा अफसर बन गया और आभा विवाहोपरांत विधवा हो गयी तथा वह एक विवाहित पुरुष से अवैध-संबंध बनाने लगी, जबकि वह आभा को अपनी रखैल समझता था । इस प्रकार उसकी स्थिति दयनीय हो गयी थी । एक बार जब प्रभात आभा और उसकी एक अन्य दोस्त रचना एक जगह हुये, तो आभा ने पूछा, " आजकल कहाँ हो ? अब तो किसी बड़ी नौकरी पर लग गये होगे ? बहुत इम्तिहान देते रहते थे तुम । " रचना ने बीच में टोका, " अरे हाँ, सुना है गजेटेड ऑफिसर हो गये हो तुम ? " प्रभात ने सकुचाते हुए धीमे से कहा, " शायद ठीक ही सुना है । " [6] आंबेडकरवादी कहानी में शिक्षा के प्रति लगाव रखने वाला व्यक्ति ही कहानी का नायक होता है । आंबेडकरवादी कहानी का नायक शिक्षित होने के साथ-साथ सदाचारी भी होता है ।


3. संघर्ष की भावना 

संघर्ष के कई रूप हैं । चोर, डाकू, हत्यारे और बलात्कारी आदि लोग भी अपने-अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं । लेकिन उनका संघर्ष अनुकरणीय नहीं है । आंबेडकरवादी व्यक्ति सम्यक संघर्ष को महत्व देता है । रोटी, कपड़ा, मकान और नौकरी के लिए संघर्ष करना आर्थात् अपनी सुख-सुविधा के लिए संघर्षरत रहना सम्यक संघर्ष की श्रेणी में नहीं आता है, क्योंकि इस प्रकार का संघर्ष तो पशु-पक्षी भी करते हैं । सम्यक संघर्ष वही है, जो समाज के लिए किया जाता है । जो संघर्ष लोक-कल्याण के लिए हो, वही सम्यक संघर्ष है । मोहनदास नैमिशराय जी के द्वारा लिखित कहानी 'हमारा जवाब' में हिम्मत सिंह वंचित वर्ग का व्यक्ति था । उसे कथित सवर्णों ने इसलिए पीटा, क्योंकि वह उनके मना करने के बाद भी वर्जित स्थान पर अपनी दुकान लगाया । लहूलुहान होते हुये भी उसने संघर्ष से मुँह नहीं मोड़ा । मरने से पहले हिम्मत सिंह ने कहा था, " मैं तो जा रहा हूँ, पर मेरे बाद इस आंदोलन को रोकना मत । हर बस्ती से एक आदमी खौमचा लगाए और समता तथा सम्मान के आंदोलन को आगे बढ़ाए... जातिभेद को खत्म करें । " [7] संघर्ष सही दिशा में होना चाहिए, समाज के लिए होना चाहिए और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए होना चाहिए । दिशाहीन संघर्ष को आंबेडकरवादी कहानी का विषय नहीं बनाया जाता है । यदि आंबेडकरवादी कहानी में इस प्रकार के विषय का चयन कर भी लिया जाए, तो नायक में यह अवगुण नहीं होना चाहिए । 


4. जातिवाद का विरोध 

आंबेडकरवादी चेतना विषमतापूर्ण व्यवहार का प्रतिरोध करती है । यह विडंबना है कि भारत में मनुष्य को उसकी जाति से पहचाना जाता है और उच्च जाति को सम्मान योग्य तथा निम्न जाति को अपमान योग्य माना जाता है । डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी द्वारा लिखित कहानी 'तलाश' का नायक रामवीर सिंह बहुत तलाश करने के बाद अंत में गुप्ता के यहाँ किराए का मकान प्राप्त कर लिया था । गुप्ता ब्राह्मणवादी मानसिकता का एक जातिवादी व्यक्ति था । जब रामवीर सिंह ने सफाई करने वाली रामबती से अपने बर्तन मँजवाना और खाना बनवाना शुरू कर दिया, तो यह देखकर गुप्ता को आपत्ति हुई । गुप्ता ने रामवीर से कहा, " आप रामबती से ही खाना बनवाना चाहते हैं, तो आपको मकान खाली करना पड़ेगा । " गुप्ता के मुँह से यह बात सुनकर रामवीर सिंह सन्न रह गया । भेदभाव की दुर्गंध इन लोगों के मन में भरी हुई है । उसने सोचा, " कोई अन्य बात हो, तो मानी जा सकती है । जैसे - वह गंदी रहती हो, उसमें चोरी-चकारी की आदत हो या उसे खाना ठीक से बनाना नहीं आता हो । पर रामबती में ऐसी कोई बात नहीं है । वह खाना बनाने में कुशल एक निहायत सुशील और ईमानदार महिला है । इसलिए केवल इस आधार पर उससे खाना नहीं बनवाने का कोई औचित्य नहीं है कि वह जाति से चूहड़ी है । ऐसा करना तो जातिवाद को बढ़ावा देना है । गुप्ता की बात मानकर रामबती से खाना बनवाना बंद कर देना, तो छुआछूत और जातिवाद के सामने हथियार डाल देना होगा, जो समाज का सबसे बड़ा दुश्मन है और जिसका विरोध मैं आज तक करता आया हूँ । " [8] अंततः रामवीर सिंह अपने दृढ़संकल्प से विचलित नहीं हुआ, बल्कि वह गुप्ता के मकान को छोड़कर दूसरे मकान की तलाश में निकल पड़ा । इस उद्धरण से स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी कहानी का नायक जातिवाद के विरोध में प्रबलता से खड़ा होता है । वह किसी भी स्थिति में जातिवादी शक्तियों के आगे समर्पित नहीं होता है ।


5. समता का समर्थन 

समतामूलक समाज का निर्माण करना आंबेडकरवाद का प्रमुख उद्देश्य है । आंबेडकरवादी व्यक्ति जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र, पद अथवा रंग-रूप के आधार पर मानव-मानव में कभी विभेद नहीं करता है । अपनी कहानी 'आवाजें' में मोहनदास नैमिशराय जी ने कथित सवर्णों और वंचित वर्ग के लोगों के बीच होने वाले झगड़े और उसके परिणामस्वरूप वंचितों की बस्ती में आग लगा दिये जाने का मार्मिक चित्रण किया है । इस कहानी में स्टेशन हाउस ऑफिसर (एसएचओ) न्यायप्रिय और समतावादी था । नैमिशराय जी के शब्दों में, " एस.एच. ओ. ने खूब पेट भरकर डाँट पिलाई । उसने भरी सभा में ठाकुर का पानी उतार दिया था । एक दिन उसने डंडा घुमाते हुए कहा था - ठाकुर ! पुराने दिन लद गये । अब तुम्हारी ठकुराहट न चलेगी । जिनको तुम अब तक छोटा समझते रहे, वे अब छोटे नहीं । आजाद भारत में सब बराबर हैं । " [9] आंबेडकरवादी कहानी समतावाद का समर्थन करती है तथा आंबेडकरवादी कहानी का नायक समता की भावना से परिपूर्ण होता है ।


6. अंतर्जातीय विवाह की पक्षधरता  

आंबेडकरवादी कहानीकार अंतर्जातीय विवाह के पक्षधर हैं । साथ ही वे अंतर्-उपजातीय विवाह अर्थात् अनुसूचित जाति की उपजातियों के बीच वैवाहिक संबंध बनाने पर विशेष बल देते हैं । क्योंकि इसी प्रकार जातिभेद की भावना का उन्मूलन किया जा सकता है तथा समतामूलक समाज की स्थापना करना भी तभी संभव हो पाएगा । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी ने अपनी कहानी 'परिवर्तन' के माध्यम से अंतर्जातीय विवाह का समर्थन किया है । निहालचंद्र का भांजा हेमंत सिंह स्थानीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्रवक्ता था । पूनम और हेमंत के बीच प्रेम हो गया और दोनों एक-दूसरे के साथ विवाह करना चाहते थे । पूनम तथाकथित सवर्ण क्षत्रिय थी । चूँकि निहालचंद्र वंचित वर्ग से था, इसलिए जब उसको यह बात पता चली, तो उसने पूनम को समझाने का प्रयास किया । पूनम सुलझी हुई लड़की थी, इसलिए उसने कहा, " ताऊ ! आप किस जमाने में जी रहे हैं ? मैं तो आज अपने गाँव में देख रही हूँ । मैंने तय कर लिया कि किसी भी गाँव में ठाकुरों के लड़कों से शादी नहीं करूँगी । सब के सब नकारा, सामंती सोच, हकीकत को नकारने वाले हैं । हेमंत जी को मैं पसंद करती हूँ । यह परिवर्तन का युग है । हम यदि जाति-पांति के संकीर्ण दायरों में ही रहेंगे, तो बदलती दुनिया, विकसित होते समाज के साथ तालमेल कैसे बिठा पाएँगे ? हमारी एक ही जाति है, वह है 'मानव' । मानव-मानव के बीच भेद कभी भी उचित नहीं कहा जा सकता । आप हमें बस आशीर्वाद दीजिए । " [10] अंततः पूनम और हेमंत का विवाह हो गया । आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका दोनों अंतर्जातीय विवाह के पक्ष में होते हैं । वे जाति-पाँति, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी आदि के आधार पर किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं करते हैं । जाति और धर्म की दीवारों को तोड़कर रोटी-बेटी का संबंध स्थापित करना आंबेडकरवादी चेतना की पहचान है ।

7. आदर्शोन्मुख यथार्थ की अभिव्यक्ति  

काल्पनिक उड़ान भरकर मिथक रचना आंबेडकरवादी कहानीकारों का लक्षण नहीं है । आंबेडकरवादी कहानीकार अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ का चित्रण करने के पक्षधर हैं । उन्हें आदर्शोन्मुख यथार्थ से विशेष लगाव है, क्योंकि शुद्ध सामाजिक यथार्थ एक प्रकार का अतियथार्थ है, जिससे समाज सम्यक दिशा में जाने की बजाय मिथ्या दिशा की ओर जाता है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के संपादक ने लिखा है, " आंबेडकरवादी कहानी शुद्ध यथार्थ को आधार बनाकर नहीं लिखी जाती है । शुद्ध यथार्थ-चित्रण एक प्रकार का रिपोतार्ज होता है । रिपोतार्ज और कहानी में पर्याप्त अंतर है । अन्यथा घटनाएँ तो अखबारों में भी छापी जाती हैं, वह भी ज्यों की त्यों । लेकिन उसे कहानी नहीं कहा जाता है, बल्कि उसे 'खबर' का नाम दिया जाता है । संसार में अनेक प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं । हर घटना को कहानी का कथानक नहीं बनाया जा सकता है । कुछ गुप्त बातों का उल्लेख न करना ही बुद्धिमानी है । तात्पर्य यह है कि आंबेडकरवादी कहानी में निहित यथार्थ आदर्शोन्मुख होना चाहिए । " [11] विपिन बिहारी जी ने अपनी कहानी 'मुद्दा' में किसी वंचित वर्ग की लड़की का बलात्कार होने पर उसे अपनी लोकप्रियता का मुद्दा बनाने वाली सरला नाम की एक कथित सवर्ण महिला की गतिविधियों का यथार्थ चित्रण किया है । सरला जब बलात्कार-पीड़िता लाछो के घर गयी और उसके बलात्कार के संबंध में पूछताछ करने लगी, तो एक साफ-सुथरी औरत ने प्रश्न किया, " पूछकर क्या करेंगी आप ? " तो सरला ने उत्तर दिया, " मैं कई नारी संगठनों से जुड़ी हुई हूँ । यह मामला नारी-उत्पीड़न का है । मैं इस मामले को राष्ट्रीय मंच पर ले जाऊँगी । नारी के अधिकार की माँग करूँगी । सिर्फ लाछो का यह मामला नहीं रहा, संपूर्ण नारी का मामला है । पुरुष वर्चस्ववादी सोच का नतीजा है ये बलात्कार । हमारा संगठन पुरुष के वर्चस्व को चुनौती देने वाला है । हम आंदोलन करेंगे । दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाएँगे । " उस औरत ने फिर प्रश्न किया, " इससे लाछो को क्या मिल जाएगा ? बलात्कार से इसे जो शारीरिक और मानसिक पीड़ा हुई है, उसे कौन दूर करेगा... आप करेंगी, आपका नारी संगठन करेगा ?... बलात्कारी आप जैसे घर के मर्द हैं, क्योंकि आपसे आपके बाद संतुष्ट नहीं होते, इसलिए हम जैसे दलित-वंचितों को अपना शिकार बनाते फिरते हैं । वे बलात्कार हम लोगों के साथ ही कर सकते हैं, आपके साथ वे कर ही नहीं सकते, क्योंकि आप ताकतवर हैं, आपका वर्चस्व है । आपको क्या जरूरत पड़ी है, लाछो के बलात्कार पर आंदोलन करने करवाने की ? " [12] इस कहानी में चित्रित यथार्थ, आदर्श की भावना को समेटे हुये है । आंबेडकरवादी कहानीकार जब भी किसी कहानी में सामाजिक यथार्थ का वर्णन और चित्रण करता है, तो वह यह भी ध्यान रखता है कि उसे पढ़कर पाठक के मन पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? पाठक की सोचने की दिशा क्या होगी ? एक सजग आंबेडकरवादी कहानीकार वही है, जो पाठक की सोचने की दिशा बदल दे और उसे आंबेडकरवादी चिंतन की दिशा में लाने में सफल हो सके ।


8. वैज्ञानिक चेतना 

तर्क और वैज्ञानिक चेतना से परिपूर्ण विचार एवं संवाद आंबेडकरवाद के आधार हैं । तर्कहीन एवं पौराणिक बातें करने वाला व्यक्ति आंबेडकरवादी नहीं कहा जा सकता है । आंबेडकरवादी कहानीकार इन बातों का अनुसरण करते हुए अपनी कहानियों में भी तार्किक और वैज्ञानिक बातों का समावेश करते हैं । इस संदर्भ में डॉ० जयप्रकाश कर्दम जी द्वारा लिखित कहानी 'कामरेड का घर' अवलोकन करने योग्य है । इस कहानी में मार्क्सवादी कामरेड कहे जाने वाले एक कथित ब्राह्मण अभय तिवारी के भेदपूर्ण व्यवहार का यथार्थ प्रस्तुत किया गया है । कामरेड असलम के घर तो उसने चिकन खाया था, लेकिन उसने अपने घर पर असलम के द्वारा चिकन खाने पर आपत्ति प्रकट की । कारण पूछने पर अभय तिवारी ने कहा, " हम तुम तो इन चीजों को समझते हैं और मानते हैं, पर परिवार के लोग जो पुराने और रूढ़ विचारों के हैं, उनका क्या करें ? मेरी माँ कुछ ज्यादा ही रूढ़ विचारों की हैं, इसलिए वह...। " असलम ने प्रतिवाद करते हुए कहा, " मार्क्सवाद हमें शोषण और विसंगतियों का प्रतिकार करना सिखाता है । किंतु यदि हम अपने परिवार के लोगों को भी नहीं समझा सकते, उनकी सोच में परिवर्तन नहीं ला सकते, तो कौन सा साम्यवादी समाज बनाएँगे हम और कैसे बनाएँगे ? आज तुम खान-पान को लेकर इस तरह की बातें कर रहे हो । कल को सांप्रदायिकता के सवाल पर भी तुम यही कहोगे । यदि अवैज्ञानिक और गलत बातों का विरोध नहीं कर सकते, तो कैसे कामरेड हैं हम? क्या अर्थ है इस तरह बैठकर गर्म-गर्म बातें करने का ? यदि हमारा यही चरित्र है, तो कम से कम मुझे अपने ऊपर शर्म है कि मैं एक काॅमरेड हूँ । " [13] आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका अवैज्ञानिक बातों का खुलकर विरोध करते हैं तथा वैज्ञानिक बातों का खुलकर प्रचार करते हैं ।


9. अंधविश्वास का विरोध

अंधविश्वास में लिप्त रहने वाला व्यक्ति आंबेडकरवादी नहीं कहा जाता है । आजकल स्वयं को बौद्ध-आंबेडकरवादी कहने वाले लोग भी अंधविश्वास एवं आडंबरपूर्ण व्यवहार करते हुए दिखाई देते हैं । ऐसे लोगों को स्पष्ट शब्दों में 'नकली आंबेडकरवादी' घोषित किया जाता है । सच्चा आंबेडकरवादी व्यक्ति न केवल स्वयं अंधविश्वास से दूर रहता है, बल्कि वह दूसरे अंधविश्वासियों पर व्यंग्य भी करता है । श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी ने अपनी कहानी 'एकादशी' में अंधविश्वास पर कटाक्ष किया है । हर एकादशी को ठाकुर जब प्रातः चार बजे गंगा-स्नान करने चला जाता था, तो ठकुराइन और उसका नौकर बलधारी अपनी एकादशी पशुओं के बाड़े में मनाते थे यानी कि व्यभिचार करते थे । इस बात को पूरा गाँव जानता था, फिर भी ठाकुर को इन बातों की कोई परवाह नहीं थी । राही जी के शब्दों में, " एक अपना यह जन्म सुधार रहा है, दूसरा अपना अगला जन्म । " [14] आंबेडकरवादी व्यक्ति अंधविश्वास का विरोधी होता है । न तो वह स्वयं अंधविश्वास से युक्त कर्मकांड करता है और न ही अपने परिवार के अन्य सदस्यों को अंधविश्वास में लिप्त होने की अनुमति प्रदान करता है । आंबेडकरवादी कहानी के प्रमुख पात्रों में सम्यक तर्क और वैज्ञानिक दृष्टि अवश्य होती है ।

10. कुरीतियों का उन्मूलन 

आंबेडकरवादी चेतना का एक लक्षण कुरीतियों का उन्मूलन करना भी है । आंबेडकरवादी कहानियों के नायक सामाजिक कुरीतियों का खुला विरोध करते हुए दिखाई देते हैं । इस संदर्भ में श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी' जी की कहानी 'फैसला' अवलोकन करने योग्य है । इस कहानी का नायक रामवीर कुशाग्र-बुद्धि तथा मेधावी था । कठिन परिश्रम और पढ़़ाई करके रामवीर राजस्व सेवा में अधिकारी के पद पर नियुक्त हो गया था । एक बार अवकाश पाकर वह ससुराल गया । अगले दिन मौसम अचानक बदल गया और ठंड बढ़ गयी । शाम से कुछ समय पहले उसने देखा कि उसके बड़े साले कुएँ पर स्नान कर रहे थे । उसके साले लगभग बूढ़े हो चुके थे तथा सर्दी, बुखार से परेशान थे । फिर भी जाड़े में असमय स्नान कर रहे थे । रामवीर ने एक ग्रामीण से इसका कारण पूछा, तो उसने बताया कि पड़ोसी पंडित की गाय मर गई थी । उसी को खींचकर गाँव से बाहर ले गये थे । मुहल्ले के लोगों ने आपके डर से उसकी खाल तो नहीं उतारी, उसे गड्ढा खोदकर गाड़ दिया । इसी से नहा रहे हैं । रामवीर ने इस शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने का निश्चय किया । शाम को जब उसके बड़े साले भोजन के लिए बुलाने आयेे, तो वह भोजन करने से मना कर दिया । उसने रूठने का कारण बताते हुए अपने साले जी से कहा, " मैं रूठा इसलिए हूँ कि आप उस गंदगी तथा शोषण को अब तक स्वीकार किये हुये हैं । " उनकी बात पूरी समाप्त नहीं हुई थी कि मुहल्ले के चार नौजवान वहाँ उससे मिलने आ गयेे । उन्होंने रामवीर की अंतिम बात सुन ली । उन नौजवानों में से जंजाली नाम के एक नौजवान और रामवीर के बीच संवाद होने लगा । जंजाली ने कहा, " यह तो हमारे गाँव में सालों से चला आ रहा है । अब कोई न तो माँस खाता है, न चमड़ा उतारता है । हाँ, गाँव से खींचकर बाहर ले जाकर गाड़ अवश्य देते हैं । " रामवीर बोला, " यह सब भी क्यों करते हैं ? क्या वे लोग यह काम स्वयं नहीं कर सकते ? " जंजाली ने उत्तर दिया, " कर तो सकते हैं, पर लोगों के पास ज्यादा जमीन-जायदाद तो है नहीं । जीवन-निर्वाह के लिए उन पर आश्रित रहना पड़ता है । इसलिए यह मजबूरी है । " रामवीर ने कहा, " कोई मजबूरी नहीं, यह बुजदिली है । जब तक हम दबते रहेंगे, हमें दबाया जाता रहेगा । " [15] उसके बाद उस नौजवान ने गाँव के अन्य लोगों को भी इकट्ठा किया और सबके साथ उस घृणित काम को न करने का संकल्प लिया । अतः स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी कहानी के नायक/नायिका पात्र सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन हेतु उनका विरोध करते हैं ।

11. बौद्ध धम्म का अनुपालन
 
बौद्ध धम्म का अनुपालन करना एवं बौद्ध संस्कारों का क्रियान्वयन करना भी आंबेडकरवादी कहानी की एक विशेषता है । डॉ० कुसुम वियोगी जी ने अपनी कहानी 'संस्कारों का सफर' में हिंदू-संस्कार त्यागकर बौद्ध-संस्कार ग्रहण करने का चित्रण किया है । इस कहानी के नायक कबीर ने बुद्ध-पूर्णिमा के अवसर पर सिद्धार्थ बस्ती के बुद्ध-विहार में आयोजित विचार-गोष्ठी में वंचित वर्ग के समस्या-समाधान हेतु वक्तव्य देते हुए कहा, " रास्ता तो स्वयं हमारे शास्ता डॉ० आंबेडकर ने दिया है - बाईस प्रतिज्ञाएँ देकर । " उसी दिन आयोजक समिति के एक कार्यकर्ता की पिता का अकस्मात निधन हो गया । शवयात्रा के समय जब किसी व्यक्ति ने कहा, " बोलो राम नाम सत् है, सत् बोलो गत् है । " तो कबीर ने विरोध करते हुए कहा, " अरे क्या बकवास है ? सभी जोर से बोलो - बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि । " [16] आंबेडकरवादी कहानी के प्रमुख पात्र बौद्ध धम्म का अनुपालन करते हुए बौद्ध संस्कारों के क्रियान्वयन हेतु संघर्ष करते हैं ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी कहानी का स्वरूप एवं विशेषताएँ सम्यक समाज एवं मानव-कल्याण हेतु अनिवार्य तत्व के रूप में दृष्टिगत हैं । आंबेडकरवादी कहानियाँ बौद्ध धम्म एवं आंबेडकर-दर्शन का अनुसरण करती हैं । इन कहानियों में वैज्ञानिक चेतना का समावेश होने के कारण ये कहानियाँ युग-सापेक्ष हैं । आंबेडकरवादी कहानियाँ केवल 'समकालीन कहानी' की श्रेणी में ही नहीं आती हैं, बल्कि अपने विशिष्ट स्वरूप के कारण ये कहानियाँ सार्वकालिक हैं ।


संदर्भ :


[1] आंबेडकरवादी साहित्य : संपादक - देवचंद्र भारती 'प्रखर', पृष्ठ 5, दूसरा अंक - अप्रैल-जून 2021
[2] वही, पृष्ठ 3
[3] वही, पृष्ठ 7
[4] वही, पृष्ठ 9
[5] तलाश : जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 82, प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[6] वही, पृष्ठ 135
[7] हमारा जवाब : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ 54, प्रकाशक - नटराज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020
[8] तलाश : जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 27-28, प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[9] आवाजें : मोहनदास नैमिशराय, पृष्ठ 21, प्रकाशक - नटराज प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2020
[10] जनेऊ और मोची ठाकुर : श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', पृष्ठ 85, प्रकाशक - लता साहित्य सदन गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), संस्करण 2014
[11] आंबेडकरवादी साहित्य : संपादक - देवचंद्र भारती 'प्रखर', संपादकीय, पृष्ठ 3, दूसरा अंक - अप्रैल-जून 2021
[12] विपिन बिहारी की प्रतिनिधि कहानियाँ : कर्मानंद आर्य, पृष्ठ 116, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन जयपुर, संस्करण 2020
[13] तलाश : जयप्रकाश कर्दम, पृष्ठ 121, प्रकाशक - गुंजन प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 2019
[14] जनेऊ और मोची ठाकुर : श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', पृष्ठ 53 , प्रकाशक - लता साहित्य सदन गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), संस्करण 2014
[15] वही, पृष्ठ 29
[16] प्रेरक दलित कहानियाँ : डॉ० कुसुम वियोगी, पृष्ठ 68, प्रकाशक - अक्षर पब्लिशर्स एवं डिस्ट्रीब्यूटर्स दिल्ली, संस्करण 2021

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने