अधिकार (कहानी)


आंबेडकर पार्क में बेंच पर बैठा एक युवक बार-बार अपनी मोबाइल की स्क्रीन पर समय देख रहा था । बीच-बीच में वह पार्क के मुख्य द्वार की ओर भी देख लेता था । वह मुख्य द्वार के सामने पार्क की चारदिवारी के पास लगी बेंच पर उत्तर की ओर मुँह करके बैठा हुआ था । पार्क जी.टी. रोड के किनारे था, इसलिए जी.टी. रोड पर आने-जाने वाले लोग उसे साफ दिखाई दे रहे थे । पार्क की भूमि पर हरी-हरी, नर्म-नर्म, छोटी-छोटी घासें उगी थीं । किनारे-किनारे गेंदा, गुलाब, चंपा, चमेली आदि कई प्रकार के फूल खिले हुये थे । पार्क के ठीक बीचों-बीच बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की आदम-कद की प्रतिमा लगी हुई थी, जिनके दाहिने हाथ में संविधान की पुस्तक थी । उसने एक बार फिर मुख्य द्वार की ओर देखा और कुछ ही क्षण बाद मोबाइल की स्क्रीन पर देखते हुए गुस्से में बड़बड़ाने लगा, " साढ़े तीन बज गया । उसने ढाई बजे आने का वायदा किया था, लेकिन अभी तक नहीं आयी । ये लड़कियाँ आखिर अपने आपको समझती क्या हैं ? " कुछ ही क्षण बाद अचानक उसने अपने दाहिने कंधे पर किसी के हाथ रखने का अनुभव किया । वह चौंककर सिर उठाया और गर्दन दाहिनी ओर घुमाया, " अरे यार, सौरभ ! तुम हो ? मैं समझा ..."
" ... कि कोई लड़की है । है न ? " सौरभ बीच में ही बोल पड़ा ।
" नहीं ... हाँ । " वह झेंपते हुए बोला, जैसे कोई नया चोर अपनी चोरी पकड़े जाने के बाद बोलता है ।
" यार, तुम तो छुपा रुस्तम निकले । मैं तो समझता था कि मेरा दोस्त प्रदीप बहुत ही शरीफ लड़का है । " सौरभ ने कटाक्ष किया । फिर ठुड्डी पर हाथ रखकर सोचते हुए बोला, " लेकिन तुम्हारी तो शादी तय हो चुकी है । फिर यह लड़की वाला कौन-सा चक्कर है ? "
" चक्कर-वक्कर कुछ नहीं है यार । यह वही लड़की है, जिससे मेरी शादी होने वाली है । " प्रदीप ने स्पष्टीकरण किया । 
" ओह ! तो मान्यवर शादी से पहले ही सुहागरात मनाने की तैयारी में हैं ? " सौरभ ने आँखें मटकाते हुए कहा ।
" नहीं यार, तुमने इतनी बड़ी बात कैसे सोच ली ? मैं भले ही शहरी परिवेश में रहता हूँ, लेकिन मैं जिस परिवार का सदस्य हूँ, उस परिवार में इस तरह का संस्कार नहीं दिया जाता है । मैं तो केवल मिलने के लिए उसे बुलाया था । " प्रदीप ने गंभीरतापूर्वक कहा ।
" ठीक है, ठीक है । इतना सीरियस होने की जरूरत नहीं है । मैं यूँ ही मजे ले रहा था । अपनी भावी पत्नी का नाम तो बताओ ? " सौरभ ने गंभीर मुस्कराहट के साथ पूछा ।
" 'करुणा' । लेकिन उसका केवल नाम ही 'करुणा' है, वह है बहुत 'निर्दयी' । उसने कहा था कि कॉलेज की छुट्टी होते ही मुझसे मिलने के लिए आएगी, लेकिन पूरा एक घंटा हो गया, अभी तक उसका पता नहीं चला । सुना हूँ कि बी.एड. की पढ़ाई कर रही है - थर्ड सेमेस्टर में है । पढ़कर अध्यापिका बनेगी । मुझे तो लगता है कि उसकी पढ़ाई केवल नाम की है । ऐसी बहुत सी लड़कियाँ हैं, जो बी.एड. करती हैं, लेकिन शुद्ध हिंदी नहीं लिखने आती है । उसमें समझदारी नाम की चीज ही नहीं है । मेरी हालत क्या है, मैं ही जानता हूँ । " प्रदीप ने उदासी भरे लहजे में कहा ।
" तुम यह क्या कह रहे हो यार ? ऐसा क्यों सोचते हो ? हो सकता है कि कॉलेज में कोई जरूरी काम पड़ गया हो । आजकल बी.एड. थर्ड सेमेस्टर की टीचिंग भी तो चल रही है । रही बात, बी.एड. करने वालों के ज्ञान की, तो तुम यह क्यों भूल रहे हो कि वह जिस कॉलेज में पढ़ती है, वह कोई प्राइवेट कॉलेज नहीं है । उसमें उन्हीं लड़के/लड़कियों का एडमिशन होता है, जो प्रवेश-परीक्षा में अच्छा अंक लाते हैं । " इतना कहकर सौरभ प्रदीप के बाएँ कंधे पर अपना दाहिना हाथ रखकर बोला, " ऐसा करते हैं प्रदीप ! कि हम लोग काॅलेज की तरफ ही चलते हैं । " प्रदीप ने खड़ा होते हुए कहा, " ठीक है, चलो । " 
दोनों पार्क के मुख्य द्वार की ओर बढ़ने लगे; सौरभ आगे-आगे और प्रदीप पीछे-पीछे । कुछ ही क्षण बाद वे पार्क के मुख्य द्वार पर पहुँच गये । पार्क से निकलकर दोनों अपनी-अपनी बाइक में चाबी लगाने लगे । प्रदीप ने बाइक पर बैठते हुए कहा, " सौरभ तुमने नहीं बताया कि तुम पार्क में क्या करने आये थे ? "
" कुछ नहीं यार, मैं  यूनिवर्सिटी जा रहा था । ज्यों ही पार्क के मुख्य द्वार के पास आया, मेरा मोबाइल फोन बज उठा । मैं काल रिसीव करके फोन पर बातें करने लगा । बातें करते हुए मैंने पार्क के अंदर देखा, तो तुम दिखाई दिये । " सौरभ ने बताया ।
" तो क्या अब तुम यूनिवर्सिटी नहीं जाओगे ? "
" नहीं । क्योंकि वह फोन मेरे एक सहपाठी ने किया था । उसने बताया कि आज क्लास नहीं चलेगा । " इतना कहते ही सौरभ ने बाइक स्टार्ट कर दी और आगे बढ़ा दिया । प्रदीप भी अपनी बाइक उसके पीछे दौड़ा दिया ।

'करुणा' का पूरा नाम 'करुणा भारती' था । वह बी.एड. थर्ड सेमेस्टर की छात्रा थी । उसका पंजीकरण सत्र 2017-18 में लालबहादुर शास्त्री स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुगलसराय में हुआ था । वह अपनी पढ़ाई के प्रति बहुत ही सचेत थी और प्रतिदिन कॉलेज जाती थी । करुणा इकहरे बदन की लड़की थी, उसका रंग गेहुँआ था । उसकी चाल में तेजी होती थी, लेकिन वह हमेशा गंभीर मुद्रा में रहती थी । वह कॉलेज में अधिक सहेलियाँ बनाने के पक्ष में नहीं थी । करुणा बहुत कम बोलती थी, लेकिन जब भी बोलती थी, उसके होठों पर मुस्कान होती थी । वह अपने काम से काम रखती थी । कॉलेज की अन्य लड़कियों की तरह हफ्ते में पार्टी करना, रेस्टोरेंट जाना, उसे पसंद नहीं था । एक महीने पहले ही प्रदीप के साथ करुणा का विवाह तय हुआ था । वैसे तो, उसके पिता मेजर सुभाष भारती जी बी.एड. फाइनल होने के बाद ही उसका विवाह करना चाहते थे, लेकिन अच्छा रिश्ता मिल जाने के कारण वे राजी हो गये थे । प्रदीप गौतम बी.ए., बी.एड. था । वह शिक्षित होने के साथ ही सुशील भी था । उसकी सुंदरता में भी कोई कमी नहीं थी । वह भले ही साँवला था, लेकिन उसकी शारीरिक-संरचना आकर्षक थी । उसके पिता दिवाकर गौतम जी रेलवे विभाग में ट्रैकमैन पद से रिटायर हो चुके थे । वे आंबेडकरवादी विचारधारा के व्यक्ति थे और उन्होंने अपने परिवार के सभी सदस्यों को आंबेडकरवादी बना दिया था । वे स्वभाव से मिलनसार और स्पष्टवादी थे । इसलिए पूरी कॉलोनी में हर जाति, हर वर्ग के लोग उनका सम्मान करते थे । सुभाष जी को लड़का और लड़के के घरवाले सभी अच्छे लगे थे । साथ ही उन्हें इस बात की अतिरिक्त खुशी थी कि रिश्ता नजदीक ही हो रहा था । वे सहजौर गाँव के निवासी थे और दिवाकर जी रेलवे जंक्शन के दक्षिण तरफ स्थित तारनपुर के निवासी थे । दोनों स्थानों के बीच लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी थी । प्रदीप सारनाथ में एक प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक था । उसकी जॉइनिंग हाल ही में हुई थी । जॉइनिंग लेटर मिलने के हफ्ते भर बाद ही सुभाष जी उसके घर रिश्ता लेकर पहुँच गये थे । इस रिश्ते के अगुआ (मध्यस्थ) प्रदीप के मामा अनिकेत भारती थे । छेका (सगाई) होने के बाद दोनों परिवारों में फोन पर बातचीत होनी शुरू हो गयी थी । घरवालों से नंबर लेकर प्रदीप भी अपने सास-ससुर से फोन पर बातें करने लगा था । कभी-कभी उसकी बात करुणा से भी हो जाती थी । वह उससे मिलने के लिए पहले भी दो बार कह चुका था । लेकिन करुणा कोई न कोई काम बताकर इनकार कर देती थी । यह तीसरी बार था, जब वह करुणा से मिलने के लिए आग्रह किया था । वह मिलने के लिए राजी हो गयी थी । लेकिन निश्चित समय से एक घंटे बाद भी वह निश्चित स्थान पर नहीं पहुँची थी । इसीलिए प्रदीप बेचैन था ।

प्रदीप और सौरभ दोनों दस मिनट में ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर रेलवे जंक्शन के पास पहुँच गये । इस रेलवे जंक्शन का नाम पहले 'मुगलसराय जंक्शन' था । लेकिन 4 जून 2018, दिन - सोमवार को इस जंक्शन का नाम बदलकर 'पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर जंक्शन' कर दिया गया । चूँकि इसी जंक्शन पर खंबा नंबर 1276 के पास 10 फरवरी 1968 की रात्रि में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष पंडित दीनदयाल उपाध्याय की हत्या कर दी गयी थी, इसलिए उत्तर प्रदेश के भाजपा मुख्यमंत्री माननीय आदित्यनाथ योगी जी के आदेश पर जंक्शन को यह नया नाम दिया गया था । इस रेलवे जंक्शन के निकास द्वार के सामने उत्तर दिशा में लाल बहादुर शास्त्री कटरा है । उस कटरा के अंदर लगभग बीस मीटर की दूरी पर दाहिनी ओर लालबहादुर शास्त्री स्नातकोत्तर महाविद्यालय का मुख्य द्वार है । उन्होंने मुख्य द्वार के सामने अपनी-अपनी बाइक खड़ी की । वहाँ से सीधे कॉलेज का गलियारा दिखाई देता है । उन्हें छात्र-छात्राओं की कोई हलचल नहीं दिखाई दी । वे समझ गये कि कॉलेज की छुट्टी हो चुकी है । फिर भी उन्होंने बगल की एक दुकान पर प्रमाण-पत्रों की छायाप्रति करा रहे एक छात्र से पूछा, तो उसने बताया कि बी.एड. वालों की छुट्टी तो ढाई बजे ही हो गयी । उस छात्र की बात सुनकर प्रदीप समझ गया कि करुणा ने आज भी उसे धोखा दे दिया । उसे करुणा पर बहुत गुस्सा आ रहा था । सौरभ ने उसके चेहरे का भाव पढ़ लिया था । इसलिए उसने विषय बदलते हुए कहा, " लगता है करुणा घर चली गयी । कोई बात नहीं । चलो, हम लोग कुछ खाते हैं । "  प्रदीप अनमने ढंग से बोला, " चलो । " वे दोनों वहाँ से लगभग सौ मीटर दूर काली-महाल तिराहे पर एक चाय-पकौड़ी की दुकान पर गये । उस दुकान के बगल में ही देशी-शराब का ठेका था । सबसे अंतिम बेंच पर बैठते हुए सौरभ ने दो सौ ग्राम पकौड़ी का आर्डर दिया । पकौड़ी परोस दी गयी । सामने गरम-गरम पकौड़ी देखकर प्रदीप सक्रिय हो गया । उसने दो मिनट में ही सारी पकौड़ी खत्म कर दी और सौरभ से कहा, " सौ ग्राम पकौड़ी और... । " सौरभ बोला, " यार तुम तो टेंशन में हो, फिर भी पकौड़ी पर पकौड़ी खाए जा रहे हो । " प्रदीप ने जवाब दिया, " यार मैं जब टेंशन में होता हूँ, तो और भी अधिक खाता हूँ । " 
" तुम्हारी आदत भी बड़ी अजीब है । खैर, यह बताओ कि कुछ पीयोगे ? " सौरभ ने हाथ से पीने का संकेत करते हुए कहा ।
" यार, कैसी बात कर रहे हो ? मैं क्या, मेरे परिवार में कोई नहीं पीता है । " 
" मैं शराब नहीं, चाय पीने की बात कर रहा हूँ । "
" चाय तो शौक से चलेगी । लेकिन शराब बहुत ही खराब चीज है । इसीलिए तो इसे पंचशील में वर्जित किया गया है । "
" पूरी तरह से वर्जित नहीं किया गया है । विरत रहने की बात कही गयी है । यानी कभी-कभी जरूरत पड़े, तो पी लेनी चाहिए । और सच कहूँ, तो इस समय तुम्हें शराब की ही जरूरत है । वह गाना तो सुने ही होगे ? ... किसी की याद सताए, शराब पी लेना...। " सौरभ ने दार्शनिक की भाँति अपना विचार व्यक्त किया ।
" यह एकदम बकवास गाना है । शराब पीने से मनुष्य को नशा होता है, वह विवेकशून्य हो जाता है, उसका अपने मन पर नियंत्रण नहीं रह जाता है, वह अपराध की ओर उन्मुख होता है । मुझे तो लगता है कि यह गाना शराबियों को खुश करने के लिए लिखा गया है । इस गाने से शराब पीने वालों की संख्या बढ़ी है । " प्रदीप ने सौरभ के कथन को नकार दिया ।
" बात तो पते की है । लेकिन तुम अपना गम कैसे कम करोगे ? " यह कहते हुए सौरभ ने दुकानदार को चाय का आर्डर दिया ।
" मैं उससे शादी नहीं करूँगा । " प्रदीप ने कहा ।
" क्या ? तुम यह क्या कह रहे हो ? तुम्हारा उससे छेका हो चुका है । पूरा इलाका जान चुका है । तुम्हारे सभी रिश्तेदार क्या सोचेंगे ? " सौरभ ने प्रश्न किया ।
" लोग कुछ भी सोचें, मुझे कोई परवाह नहीं । मुझे ऐसी लड़की से शादी नहीं करनी, जो मुझे समय न दे सके, मुझसे मिल न सके । "
" लेकिन फोन पर बात तो करती है । "
" फोन पर बात करने से क्या होता है ? "
" तो मिलने से क्या होता है ? "
" साक्षात्कार । "
" तुम बहक रहे हो यार, खुद पर काबू रखो । इंसान का यह स्वभाव है कि वह सुंदर फूल का केवल दर्शन करके संतुष्ट नहीं होता है, बल्कि वह उसे छूना चाहता है । छूने के बाद वह उसे चूमना भी चाहता है । इस तरह उसकी इच्छा बढ़ती ही जाती है । सोच लो, तुम्हारी साक्षात्कार करने की इच्छा का क्या अंजाम होगा ? " सौरभ ने भविष्य में होने वाली दुर्घटना का अनुमान करके चिंता व्यक्त की । इसी बीच दुकानदार ने दो कुल्हड़ चाय लाकर टेबल पर रख दिया । सौरभ चाय की चुस्की लेने लगा । प्रदीप भी कुल्हड़ मुँह से लगा लिया । दोनों चुप थे ।

सौरभ को एक साल पहले की घटना याद आ रही थी । उसका एडमिशन पीएचडी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुआ था । प्री-पीएचडी के दौरान उसको सुमन बौद्ध से लगाव हो गया था । सुमन बीएचयू से एक किलोमीटर दूर नगवा में किराये के मकान में रहती थी । वह मूल रूप से गाजीपुर की रहने वाली थी । उसका गोरा रंग, औसत ऊँचाई और पुष्ट देह देखकर सौरभ उसकी ओर आकर्षित हुआ था । लेकिन सुमन से बातें करने की उसे हिम्मत नहीं हुई । एक दिन खुद सुमन ही उसके पास आकर उसका नाम पूछी थी । तभी से उन दोनों के बीच धीरे-धीरे करीबी बढ़ती गयी । एक दिन सुमन ने सौरभ को अपने कमरे पर बुलाया था । जब सौरभ उसके कमरे पर गया, तो उसने चाय और चिप्स से उसका स्वागत किया था । उसके बाद सुमन सौरभ के पास आकर बैठ गयी थी । सौरभ को अच्छी तरह याद है - उसने पढ़ाई-लिखाई की बात नहीं की थी, बल्कि इधर-उधर की बातें करती रही । ज्यों ही सौरभ चाय पीकर चिप्स खत्म किया था, त्यों ही सुमन शारीरिक थकावट की बात कहते हुए बिस्तर पर लेट गयी थी और कामुक अंगड़ाई लेने लगी थी । सुमन का वह रूप देखकर सौरभ का गला सूखने लगा था । उसकी साँसें तेज हो गयी थीं । वह सुमन की मानसिक स्थिति को भाँप रहा था । उसे ऐसा लग रहा था कि यदि वह कुछ देर वहाँ रहा, तो उससे एक दुष्कर्म हो जाएगा । इसलिए वह पुस्तकालय जाने का बहाना करके वहाँ से चला आया था । तंद्रा से मुक्त होते हुए सौरभ ने चुप्पी तोड़़ी, " दोस्त, जो लड़की शादी से पहले ही किसी लड़के से अकेले मिलने के लिए तैयार हो जाए, वह सच्चरित्र नहीं होती है । ऐसा मेरा अनुभव है । "
" लेकिन मेरी और करुणा की बात अलग है । वह तो मुझसे मिल सकती है ? "
" क्यों ? तुम उसके कौन हो ? "
" उसका होने वाला पति । "
" होने वाले पति हो, हुये नहीं हो । अभी तक उस पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है । और हाँ, ऐसी बहुत सी घटनाएँ हो चुकी हैं कि होने वाले पति ने अपनी होने वाली पत्नी के साथ संबंध बनाकर शादी करने से इनकार कर दिया है । "
" लेकिन मैं तो वैसा लड़का नहीं हूँ । "
" जब तुम वैसा लड़का नहीं हो, तो फिर वैसे लड़कों की तरह सोचते ही क्यों हो ? "
" कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी और से प्रेम करती हो, इसलिए मुझसे मिलने से कतराती है । " प्रदीप ने संदेह प्रकट किया ।
" तुम्हें ऐसा क्यों लगता है ? जरा सोचो, यदि वह किसी और से प्रेम करती, तो तुमसे फोन पर प्रेम से बात ही क्यों करती ? और हो सकता है कि उसके घर में कड़ा अनुशासन हो । " सौरभ ने प्रदीप के संदेह के विरूद्ध तर्कपूर्ण संभावना व्यक्त की ।
" हाँ यार, तुम ठीक कहते हो । उसके पिताजी मेजर हैं । सुना हूँ कि वे पक्के सिद्धांतवादी हैं । वे मुझे करुणा से ज्यादा देर तक बात भी नहीं करने देते हैं - ज्यादा से ज्यादा पाँच मिनट तक । " प्रदीप ने सोचते हुए कहा ।
" इसीलिए तो कह रहा हूँ कि नकारात्मक मत सोचो । वैसे भी, कहा जाता है कि पहली रात में पहली बार मिलने का अनुभव ही कुछ और होता है । " सौरभ ने खड़ा होते हुए कहा, " चलो अब घर चलते हैं । " प्रदीप भी खड़ा हो गया, " ठीक है, चलो । " दोनों एक-दूसरे को 'जय भीम' कहकर अपने-अपने रास्ते हो गये ।

प्रदीप शाम को अपने घर पहुँचा । वह करुणा से फोन पर बात करना चाहता था । उसने उसके घर का मोबाइल नंबर कांटेक्ट सूची में से निकालकर फोन करना चाहा, लेकिन फिर रुक गया । सोचते-संकोचते लगभग दस मिनट का समय बीत गया । अंत में वह मोबाइल रख दिया । वह सोच रहा था कि अगर करुणा को मिलने नहीं आना था, यदि उसे कोई काम पड़ गया था, तो वह मुझे फोन करके कह देती कि मैं नहीं आ पाऊँगी । लेकिन उसने ऐसा क्यों नहीं किया ? प्रदीप यही सोच रहा था, तभी उसकी मोबाइल का रिंगटोन बजा... बुद्धं शरणं गच्छामि...। उसने मोबाइल की स्क्रीन पर देखा, करुणा का फोन था । रिंगटोन बजता जा रहा था... धम्मं शरणं गच्छामि... 'संघं शरणं ग... तब तक उसने काॅल रिसीव कर लिया । उधर से आवाज आयी, " हेलो ! मैं करुणा बोल रही हूँ । "
" हाँ करुणा, बोलो । "
" जय भीम ! "
" जय भीम ! कैसी हो ? "
" मैं ठीक हूँ । लेकिन मैं जानती हूँ कि आप ठीक नहीं है । आप मुझसे नाराज हैं । मैं आज भी आपसे नहीं मिल सकी । आई एम सॉरी । दरअसल ..." प्रदीप बीच में ही बोल पड़ा, " 'सॉरी' तो मुझे बोलना चाहिए करुणा । "
" नहीं, ऐसा मत कहिए । आपने मेरे लिए अपना एक दिन का अबसेंट किया । लेकिन मैं भी क्या करती ? मैं ज्यों ही आपसे मिलने के लिए कॉलेज से बाहर निकली थी कि पिताजी मिल गये । उन्होंने बताया कि वे मेरे छोटे भाई दीपक के साथ मार्केट आये थे । दीपक बाइक लेकर अपने एक मित्र के यहाँ बर्थडे पार्टी अटेंड करने चला गया । इसलिए पिताजी मेरी स्कूटी पर मेरे साथ घर जाने के लिए मेरा इंतजार कर रहे थे । मैं अपनी स्कूटी पर बिठाकर उन्हें घर लायी । मुझे समय नहीं मिल पाया कि मैं आपको फोन करती । आई एम वेरी-वेरी सॉरी । "
" तुम्हें सफाई देने की कोई जरूरत नहीं है । तुम अपनी जगह बिल्कुल सही हो । मैं ही गलत था । शादी से पहले तुमसे मिलने का मुझे कोई अधिकार नहीं है । मैं तुमसे मिलने के लिए कभी नहीं कहूँगा । अब हम पहली बार शादी के बाद ही मिलेंगे । " प्रदीप गंभीरता से यह सब कह रहा था । उसने प्रसन्न भाव से कहा, " ठीक है, फोन रखता हूँ । जय भीम ! " उधर से भी आवाज आयी, " जय भीम ! "

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✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' 🏠 चंदौली (उत्तर प्रदेश) 

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