इस पोस्ट में 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के केवल उन्हीं चारों अंकों के संपादकीय लेखों का संग्रह है, जो पत्रिका के पहले वर्ष में प्रकाशित हुये हैं ।
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📝 संपादकीय/अंक 1... जनवरी-मार्च 2021📇
📄 आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा-पत्र
दलित साहित्य को 'आंबेडकरवादी साहित्य' के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि दलित साहित्य की प्रेरणा आंबेडकरवादी विचारधारा है । दलित साहित्य को अस्तित्व में लाने का श्रेय डॉ० आंबेडकर के अनुयायियों को ही है । इस बात के पक्ष में डॉ० विमल कीर्ति, डॉ० दामोदर मोरे, बुद्धशरण हंस, डॉ० जयश्री शिंदे, डॉ० शरण कुमार लिंबाले, डॉ जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, हरपाल सिंह 'अरुष', डॉ० प्रेमशंकर, डॉ० एन० सिंह, डॉ० धर्मपाल पीहल, डाॅ० बी०आर० बुद्धप्रिय, कांता बौद्ध, पुष्पा विवेक सहित महाराष्ट्र और हिंदी प्रदेश के लगभग पचास विद्वान साहित्यकार एकमत हैं । वर्तमान पीढ़ी के युवाओं को भी स्वयं को 'दलित साहित्यकार' कहना उचित नहीं लगता है । उनका तर्क है कि स्वयं को 'दलित' कहना संविधान की अवमानना करना है । युवा साहित्यकारों के तर्क पर विचार करने और आंबेडकरवादी साहित्य पर पुनः विमर्श करने की आवश्यकता है । इस कविता विशेषांक में कविताओं का संकलन करते हुए आंबेडकरवादी विचारधारा और आंबेडकरवादी दृष्टिकोण का पूर्णतः पालन किया गया है । बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर बुद्ध को अपना गुरु मानते थे । उनका जीवन दर्शन बुद्ध-दर्शन से पूरी तरह प्रभावित है । उन्होंने बुद्ध के अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्म सिद्धांत, हेतुवाद आदि को हृदयंगम किया था । उनकी बुद्धवादी विचारधारा उनकी पुस्तक 'बुद्ध और उनका धम्म' स्पष्ट परिलक्षित होती है । कुछ मार्क्सवादी दलित साहित्यकार एवं आजीवक धर्म के समर्थक साहित्यकार आजकल आंबेडकर को बुद्ध से अलग करने का असफल प्रयास कर रहे हैं । यही नहीं, वे तो आंबेडकर की विचारधारा सहित उनकी कई पुस्तकों को भी व्यर्थ सिद्ध करने में लगे हुए हैं । वास्तव में, वे बाल की खाल निकाल रहे हैं । कुछ लोगों को आंबेडकरवादी विचारधारा में क्रांति नहीं दिखाई देती है, क्योंकि उन्होंने अपनी आँखों पर मार्क्सवाद का चश्मा चढ़ा रखा है । ऐसे लोग आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद आदि दोनों विचारधाराओं की खिचड़ी बनाकर एक नये वैचारिक स्वाद का साहित्य निरंतर परोस रहे हैं । जो पाठक मानसिक रूप से रोगी हैं, उन्हें इस खिचड़ी का स्वाद बहुत ही पसंद आ रहा है । वे निरंतर इस प्रकार के साहित्य को पढ़कर और सुनकर वाह-वाह करते दिखाई दे रहे हैं । ऐसी स्थिति में कुछ लोग बहुजन साहित्य की अवधारणा प्रस्तुत करने में अपनी उर्जा खर्च कर रहे हैं, जबकि उनकी अवधारणा की परिधि दलित साहित्य की अवधारणा की तरह ही बहुजन और अभिजन की सीमा में गोल-गोल घूमकर रह जाती है । सच तो यह है कि उनका दृष्टिकोण पूरी तरह राजनैतिक है । वे साहित्य की दृष्टि से कम, लेकिन राजनीति की दृष्टि से अधिक सोचते हैं । यही कारण है कि वे अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को मूलनिवासी मानते हुए एकत्रित करने का प्रयास साहित्यिक रूप से करना चाहते हैं । उनके द्वारा प्रस्तावित अवधारणा निश्चित रूप से भ्रामक है । मजे की बात तो यह है कि बहुजन साहित्य की अवधारणा केवल मौखिक रूप से प्रस्तुत की जा रही है । अभी तक इस विषय में कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है । समकालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में आंबेडकरवादी कविताओं के नये प्रतिमान की जानकारी के लिए पाठक मेरी आलोचना की पुस्तक 'आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान' का अध्ययन अवश्य करें । मेरे द्वारा संपादित काव्य-संकलन की पुस्तक का नाम भले ही समकालीन हिंदी दलित कविता है, लेकिन उसमें कविताओं का संकलन आंबेडकरवादी दृष्टिकोण से ही किया गया है । भविष्य में उसके अगले संस्करण का नाम परिवर्तित करने की योजना है ।
'आंबेडकरवादी साहित्य' नामक इस पत्रिका का संपादन एवं प्रकाशन करने का उद्देश्य यही है कि आंबेडकरवादी वैचारिकी शुद्ध और स्पष्ट रुप में साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत हो । 'दलित साहित्य' के अंतर्गत हर उस व्यक्ति को दलित साहित्यकार माना जाता है, जो जन्म से दलित है; भले ही उसकी विचारधारा हिंदूवादी, मार्क्सवादी आदि किसी भी प्रकार की हो । लेकिन 'आंबेडकरवादी साहित्य' के अंतर्गत केवल उसी व्यक्ति को आंबेडकरवादी साहित्यकार माना जाता है, जो 14 अक्टूबर 1956 को बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर द्वारा बौद्ध धम्म ग्रहण करते समय ली गई 22 प्रतिज्ञाओं का अनुपालन करता है । उन बाईस प्रतिज्ञाओं के प्रतिकूल साहित्य-सृजन करने वाला व्यक्ति भले ही अनुसूचित जाति/जनजाति/ पिछड़ा वर्ग से हो, वह आंबेडकरवादी साहित्यकार नहीं कहा जा सकता है ।
आंबेडकरवादी साहित्य का घोषणा-पत्र :
1. आंबेडकरवादी साहित्य, दलित साहित्य का ही दूसरा नाम है । फिर भी दोनों की अवधारणा में अंतर यह है कि दलित साहित्य में जाति को पहले रखा जाता है, जबकि आंबेडकरवादी साहित्य में विचारधारा को पहले रखा जाता है । यदि कोई दलित होकर भी डाॅ० आंबेडकर की बाईस प्रतिज्ञाओं का अनुपालन नहीं करता है, तो वह आंबेडकरवादी साहित्यकार नहीं कहा जा सकता है ।
2. आंबेडकरवादी साहित्य की वैचारिकी अनीश्वरवाद, अनात्मवाद और पंचशील आदि पर आधारित है । आंबेडकरवादी साहित्य का उद्देश्य समतामूलक समाज की स्थापना करना है । आंबेडकरवादी साहित्य समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की भावना पर आधारित साहित्य है ।
3. आंबेडकरवादी साहित्य में यथार्थ चित्रण स्वीकार्य है, लेकिन अतियथार्थ चित्रण बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को काम-क्रीड़ा और बलात्कार का घिनौना चित्रण करना पसंद नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य में निहित यथार्थ आदर्शोन्मुख है । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को अपने महापुरुषों के जीवन-चरित्र पर भी प्रेरणादायक साहित्य-सृजन करना अपरिहार्य है ।
4. दलित साहित्य को 'आह' का साहित्य कहा जाता है, लेकिन आंबेडकरवादी साहित्य के लिए इस कथन का प्रयोग नहीं किया जा सकता है । आंबेडकरवादी साहित्य में रुदन-क्रंदन, निराशा, दीनता, हीनता और विवशता का भाव स्वीकृत नहीं है । आंबेडकरवादी साहित्य क्रांति का साहित्य, जिसमें करुणा, शील, व्यंग्य, उत्साह, प्रेम, अन्योक्ति, चेतावनी, प्रेरणा आदि भावों का समावेश करना अनिवार्य है । शिक्षा के प्रति नवयुवकों और युवकों को प्रेरित करना, संघर्ष करने के लिए उत्साहित करना, सदाचरण का संदेश देना, सम्मान और स्वाभिमान से जीने की सीख देना आदि कार्य आंबेडकरवादी साहित्य के माध्यम से होने चाहिए ।
5. आंबेडकरवादी साहित्यकारों की शब्दावली में विज्ञान और बौद्ध धम्म से प्रभावित शब्दों का सम्मिश्रण होता है । हिंदूवादी शब्दों आत्मा, परमात्मा, भाग्य आदि का प्रयोग विरोध और नकार के भाव में ही किया जाता है ।
6. आंबेडकरवादी साहित्यकार ब्राह्मणवाद और जातिवाद का विरोध करते हैं, लेकिन वैज्ञानिक तर्कों के साथ; पौराणिक पात्रों का उल्लेख किये बिना और पौराणिक कहानियों की चर्चा किये बिना । मिथकों को नकारने वाले आंबेडकरवादी साहित्यकार मिथक पात्रों का वर्णन करके मिथकों के अस्तित्व को बनाये रखना नहीं चाहते हैं ।
7. आंबेडकरवादी साहित्यकार वंचित समाज के समकालीन यथार्थ से परिचित होते हैं । वे समाज में हो रहे परिवर्तनों पर विचार करते हैं । सामाजिक परिवर्तन के साथ जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उन पर ध्यान देते हुए वे साहित्य-सृजन करते हैं ।
8. आंबेडकरवादी साहित्यकार किसी भी विषय पर साहित्य-सृजन करने के लिए स्वतंत्र हैं । शर्त यही है कि उनकी दृष्टि आंबेडकरवादी और वैज्ञानिक चिंतन पर आधारित होनी चाहिए । आंबेडकरवादी साहित्य का विषय पूरे बहुजन समाज पर आधारित होता है, केवल दलित वर्गों यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आदि आदिवासी समाज पर ही आधारित नहीं होता है ।
9. आंबेडकरवादी साहित्यकार प्रेम-विवाह और अंतर्जातीय-विवाह का समर्थन करते हैं । आंबेडकरवादी साहित्यकार जाति-धर्म से मुक्त उस वासना रहित सामाजिक प्रेम के पक्षधर हैं, जिसका उद्देश्य विवाह हो ।
10. आंबेडकरवादी साहित्यकार दहेज-प्रथा पर साहित्य-सृजन करते समय दहेज के झूठे केस लगाने वालों पर भी विचार करते हैं । दहेज-प्रथा को बढ़ाने में कन्या-पक्ष के लोगों का भी बहुत बड़ा योगदान होता है, इस बात पर भी वे ध्यान देते हैं ।
11. भ्रूणहत्या के कई पहलू हैं । जो लोग परिवार-नियोजन के उद्देश्य से भ्रूणहत्या करते हैं और जो लोग मजबूरी में भ्रूणहत्या करते हैं, उन समस्याओं के अंतर को भी आंबेडकरवादी साहित्यकार समझते हैं । इसी के साथ आजकल मित्रता और प्रेम के नाम पर भी अवैध संबंध स्थापित किये जाते हैं और गर्भपात कराये जाते हैं, इस पर भी आंबेडकरवादी साहित्यकार विचार करते हैं । इन समस्याओं का गहन अध्ययन और चिंतन करने के पश्चात ही वे भ्रूणहत्या के बारे में साहित्य-सृजन करते हैं ।
12. आंबेडकरवादी साहित्यकार नारी-स्वतंत्रता की बात करते हैं, नारी-स्वछंदता की नहीं । आंबेडकरवादी साहित्यकारों को नारीवाद का समर्थन बिल्कुल भी पसंद नहीं है, लेकिन वे नारी-विमर्श की चर्चा अवश्य करते हैं ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
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📝 संपादकीय/अंक 2... अप्रैल-जून 2021📇
📄 आंबेडकरवादी कहानी की सम्यक परंपरा
लीक-लीक गाड़ी चले, लीकहिं चले कपूत ।
लीक छाँड़ि तीनों चलें, शायर सिंह सपूत ।।
भारतेंदु हरिश्चंद्र जी का उक्त दोहा परंपरा का अंधानुकरण न करने की सीख देता है । ध्यातव्य है कि न तो हर पुरानी परंपरा गलत होती है और न ही हर नयी परंपरा सही होती है । क्योंकि नयी परंपरा ही पुरानी परंपरा का रूप धारण करती है । समय के साथ किसी भी परंपरा में दोष समाविष्ट हो सकते हैं । यह सांसारिक सत्य है । प्रबुद्ध जन पुरानी परंपरा में ही संशोधन करके नयी परंपरा को विकसित करते हैं । हिंदी के पथिकृत आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतीय रस-सिद्धांत के आधार पर ही 'रस मीमांसा' का सृजन किया था । उन्होंने केवल इतना ही नया किया था कि रस-सिद्धांत की पुरानी परंपरा को नये संदर्भ में आधुनिक मनोविज्ञान से जोड़कर प्रस्तुत किया था । भरत मुनि द्वारा प्रतिपादित 'रस-सिद्धांत' की भारतीय परंपरा को थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ डॉ० नगेंद्र, डाॅ० हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० रामविलास शर्मा और डॉ० नामवर सिंह आदि लगभग सभी मूर्धन्य आलोचकों ने स्वीकार किया है । 'आंबेडकरवादी साहित्य' नाम भले ही आधुनिक युग की देन है, लेकिन इस साहित्य में निहित विचारधारा एक लंबी परंपरा का परिवर्तित रूप है । यह परंपरा श्रमण परंपरा से आरंभ होकर सिद्ध परंपरा, नाथ परंपरा, संत परंपरा आदि से होते हुए फुले-आंबेडकर तक चली आयी, जिसका अनुपालन डाॅ० आंबेडकर के अनुयायी भी करते आ रहे हैं । आंबेडकरवादी साहित्य की वैचारिकी का आधार बुद्ध और आंबेडकर के दर्शन पर अवलंबित है । अनीश्वरवाद और अनात्मवाद को ध्यान में रखकर ही 'आंबेडकरवादी साहित्य' का सृजन किया जाता है ।
'आंबेडकरवादी साहित्य' को नकारने वाले तथाकथित दलित साहित्यकार यह मानते हैं कि साहित्य का कोई दर्शन नहीं होता है । वास्तव में, उन्हें भली प्रकार 'साहित्य' का अर्थ ही नहीं ज्ञात है । अन्यथा वे इस प्रकार का प्रलाप नहीं करते । 'साहित्य' शब्द के मूल में 'सहित' (स+हित) शब्द है, जिसका अर्थ है - हित से संबंधित । दर्शन से विहीन 'साहित्य' साहित्य नहीं, बल्कि 'आहित्य' होता है, जिससे मनुष्य का हित संभव नहीं है । साहित्य के सिद्धांत किसी न किसी दर्शन पर ही आधारित होते हैं, जिनका आश्रय लेकर आलोचक किसी कृति की समीक्षा अथवा आलोचना करते हैं । दर्शन से विहीन होने के कारण ही वंचित वर्ग के अधिकांश कहानीकारों ने ऐसी कहानियाँ लिखी हैं, जिनमें उन्होंने जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए निम्न स्तर का जीवन जीने वाले लोगों द्वारा अपने लिए अथवा अपने परिवार के लिए किये जाने वाले संघर्ष का चित्रण किया है । इस प्रकार उन्होंने अपनी कहानियों का उद्देश्य व्यक्तिगत सुख तक सीमित कर दिया है, जबकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । जिस मनुष्य का समाज से कोई सरोकार नहीं, वह पशुतुल्य है । ऐसे पशुमानव को कहानी का नायक अथवा नायिका बनाने का कोई औचित्य नहीं है । आंबेडकरवादी कहानियों के नायक और नायिका व्यक्तिगत जीवन के लिए संघर्ष नहीं करते हैं, बल्कि उनका जीवन-संघर्ष सामाज से सरोकार रखता है । दूसरों से समता के व्यवहार की चाह रखने वालों के लिए दूसरों के प्रति समता का व्यवहार करना भी आवश्यक है । इसलिए आंबेडकरवादी कहानी का नायक अंतर्जातीय विवाह के अंतर्गत गैर-जाति की कन्या के साथ विवाह तो करता ही है, साथ ही गैर-जाति को स्वयं की बहन-बेटी भी समर्पित करता है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के अधिकांश वंचित-निर्धन लोग अपनी कन्याओं का विवाह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाति-कुल जाने बिना ही कर देते हैं । ऐसी घटनाएँ केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं, बल्कि भारत के अन्य प्रांतों में भी घटित होती रहती हैं । ऐसी घटनाओं को भी आंबेडकरवादी कहानियों का विषय बनाया जाना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानी का नायक वही मनुष्य होना चाहिए, जो समतावादी, संघर्षशील, अंधविश्वास का विरोधी, वैज्ञानिक चेतना का समर्थक और पंचशील का अनुपालक हो । जिसमें आंबेडकरवादी चेतना नहीं हो, वह आंबेडकरवादी कहानी का नायक नहीं, खलनायक ही हो सकता है । यदि नायक में कोई दोष हो, लेकिन वह उसका उन्मूलन करके गुणवान बन जाए, तो उसके उत्तरोत्तर विकास एवं विकास के कारणों को कहानी में अवश्य प्रकट किया जाना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानी शुद्ध यथार्थ को आधार बनाकर नहीं लिखी जाती है । शुद्ध यथार्थ-चित्रण एक प्रकार का रिपोतार्ज होता है । रिपोतार्ज और कहानी में पर्याप्त अंतर है । अन्यथा घटनाएँ तो अखबारों में भी छापी जाती हैं, वह भी ज्यों की त्यों । लेकिन उसे कहानी नहीं कहा जाता है, बल्कि उसे 'खबर' का नाम दिया जाता है । संसार में अनेक प्रकार की घटनाएँ घटित होती हैं । हर घटना को कहानी का कथानक नहीं बनाया जा सकता है । कुछ गुप्त बातों का उल्लेख न करना ही बुद्धिमानी है । तात्पर्य यह है कि आंबेडकरवादी कहानी में निहित यथार्थ आदर्शोन्मुख होना चाहिए । आंबेडकरवादी कहानी के नायक और नायिका तभी आदर्श बन सकते हैं, जब वे डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गई बाईस प्रतिज्ञाओं के विरुद्ध आचरण न करें । आंबेडकरवादी कहानीकार को कहानी-लेखन करते समय इन बातों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
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📝 संपादकीय/अंक 3... जुलाई-सितम्बर 2021📇
📄 आंबेडकरवाद : दिशा एवं दृष्टि
आंबेडकरवाद के संदर्भ में भ्रमित लोगों के भ्रम-निवारण हेतु ही 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के इस तृतीय अंक का विषय 'आंबेडकरवाद : दिशा एवं दृष्टि' रखा गया है । आंबेडकरवाद को सम्यक रूप में समझने के लिए सर्वप्रथम 'वाद' का आशय समझना अनिवार्य है । शब्दकोश के अनुसार 'वाद' का अर्थ है, " वह दार्शनिक सिद्धांत, जिसके अनुसार संसार की सत्ता उसी रूप में मानी जाती है, जैसी वह सामान्य मनुष्य को दृष्टिगोचर है । " 'वाद' शब्द संस्कृत के 'वाक्' शब्द से बना है । 'वाक्' का अर्थ है - 'वाणी'; तथा 'वाद' का अर्थ है - कथन, सिद्धांत, विचारधारा । इस प्रकार 'आंबेडकरवाद का' अर्थ है - आंबेडकर का कथन, आंबेडकर का सिद्धांत, आंबेडकर की विचारधारा । प्रायः लोग डाॅ० आंबेडकर के दो-चार कथनों को आधार बनाकर आंबेडकरवाद को समझने का प्रयास करते हैं, जबकि यह तरीका बिल्कुल गलत है । आंबेडकरवाद को समझने के लिए डॉ० आंबेडकर के संपूर्ण साहित्य का अध्ययन करना आवश्यक है । डॉ० आंबेडकर के साहित्य और उनके द्वारा किये गये सामाजिक कार्यों के मूल्यांकन से स्पष्ट हो जाता है कि उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत कौन-कौन से हैं और उनकी विचारधारा के अंतर्गत कौन-कौन से महापुरुष सम्मिलित होते हैं ? डॉ० आंबेडकर की विचारधारा में प्रमुख रूप से अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम आदि तत्वों का समावेश है । डॉ० आंबेडकर की विचारधारा में तथागत बुद्ध, संत कबीर, गुरु रैदास, ज्योतिराव फुले, पेरियार रामास्वामी, नारायण गुरु, संत गाडगे आदि महापुरुषों की दृष्टि और विचार समाविष्ट हो जाते हैं । इस प्रकार 'आंबेडकरवाद' एक व्यापक दृष्टिकोण की सार्वकालिक विचारधारा लक्षित होती है, जिसमें समय के साथ हुये परिवर्तनों को शामिल करने की विशेषता है । इस आधार पर यह दावा किया जा सकता है कि आंबेडकरवाद भविष्य में आने वाले किसी भी समय में अप्रासंगिक नहीं हो सकता है । इसका एक कारण यह भी है कि आंबेडकरवाद का विश्व के अनेक वादों से घनिष्ठ संबंध है । आंबेडकरवाद का जिन वादों से संबंध है, उनमें मानवतावाद, बुद्धवाद, बहुजनवाद, यथार्थवाद, प्रकृतिवाद, प्रयोजनवाद, आदर्शवाद और सुधारवाद आदि के नाम शामिल हैं । विस्तृत जानकारी और स्पष्टीकरण के लिए 'आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान' पुस्तक का अध्ययन करें ।
आंबेडकरवादी व्यक्ति की क्या पहचान है अथवा किसे सही मायने में आंबेडकरवादी माना जा सकता है ? इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु कौन-कौन से हैं ? वर्तमान समय को ध्यान में रखते हुए तथा सामाजिक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए मैंने आंबेडकरवादी चेतना को दस बिंदुओं में सीमित किया है । व्यवस्थित और क्रमबद्ध रूप में आंबेडकरवादी चेतना के बिंदु हैं - (1) बुद्ध और उनके धम्म को डॉ० आंबेडकर के दृष्टिकोण से स्वीकार करना । (2) ईश्वर और आत्मा के अस्तित्व को नकारना । (3) वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाना । (4) हिंदू देवी-देवताओं को काल्पनिक मानना तथा उनकी चर्चा भी नहीं करना । (5) जातिवाद, लिंगवाद और वर्चस्ववाद का विरोध करना । (6) अंतर्जातीय विवाह का समर्थन करना । (7) अंधविश्वास, ढोंग और पाखंड की आलोचना करना । (8) समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय और प्रेम की भावना को धारण करना । (9) " शिक्षित हो, संगठित हो और संघर्ष करो " की प्रेरणा देना । (10) मैत्री, करुणा और शील का संदेश देना ।
आंबेडकरवाद में इतनी विशेषताएँ होने के उपरांत भी लोग आंबेडकरवादी बनने से क्यों परहेज करते हैं, इसके अनेक कारण हैं । लोग गांधीवादी, मार्क्सवादी, बहुजनवादी और समतावादी बन जाते हैं, लेकिन आंबेडकरवादी नहीं बन पाते हैं । क्योंकि गांधीवादी, मार्क्सवादी, बहुजनवादी और समतावादी बनना आसान है, जबकि आंबेडकरवादी बनना मुश्किल है । आंबेडकरवाद और आंबेडकरवादियों के संदर्भ में वर्तमान समस्या यह है कि आंबेडकरवाद को जाति के दायरे तक सीमित रखा जा रहा है ? जो लोग इस भ्रम में हैं और जो लोग यह भ्रम फैला रहे हैं, वे सभी सत्य और मानवता के शत्रु हैं । अन्य जाति/वर्ग के लोगों को भला क्या दोष दिया जाए, जब स्वयं को आंबेडकरवादी कहने वाले अनुसूचित जाति के लोग ही आंबेडकरवाद को एक संकुचित विचारधारा के रूप में ग्रहण किये हुये हैं । अधिकांश लोग बहुजन समाज पार्टी का डंडा-झंडा उठाकर अपने आपको आंबेडकरवादी कहते हैं । उन लोगों को इस भ्रम से निकलना होगा, क्योंकि बसपावादी होना और आंबेडकरवादी होना, ये दो भिन्न-भिन्न बातें हैं । इसी प्रकार बामसेफ, बहुजन मुक्ति पार्टी, भीम आर्मी आदि संगठनों से जुड़ जाने का मतलब आंबेडकरवादी होना नहीं है । इन सभी संगठनों के मुखिया ही जब पूरी तरह आंबेडकरवादी नहीं हैं, तो इन संगठनों से जुड़े सदस्यों को आंबेडकरवादी समझना और मानना सर्वथा गलत है । आंबेडकरवादी कहलाने के लिए सबसे पहली आवश्यक शर्त है - डॉ० आंबेडकर द्वारा ली गयी बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन करना । जो बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन नहीं करता है, वह भले ही मंच पर गला फाड़कर अपने आपको आंबेडकरवादी के रूप में घोषित करता रहे, लेकिन उसे आंबेडकरवादी नहीं माना जा सकता है ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर' [02/09/2021]
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📝 संपादकीय/अंक 4... अक्टूबर-दिसम्बर 2021📇
📄 आंबेडकर-मिशन के प्रचार-प्रसार हेतु सबसे सशक्त साहित्यिक विधा है - 'गीत'
" मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर,
लोग साथ आते गये और कारवाँ बनता गया । "
मजरूह सुल्तानपुरी ने किसे ध्यान में रखकर यह शेर लिखा है ? यह तो पता नहीं, लेकिन यह शेर तथागत बुद्ध, संत रैदास, संत कबीर, महामना ज्योतिराव फुले और बाबा साहेब डॉ० भीमराव आंबेडकर आदि महापुरुषों के व्यक्तित्व पर पूरी तरह लागू होता है । ये सभी महापुरुष अपने-अपने मार्ग पर अकेले ही चले थे और कालांतर में हजारों-लाखों लोग उनके अनुयायी हो गये । इन सभी महापुरुषों का जीवन-दर्शन और मिशन भले ही अलग-अलग शाखाओं के रूप में दिखाई दे रहे हों, लेकिन उनका आधार एक ही जड़ से जुड़ा हुआ है । इसलिए इनके मिशन को अलग-अलग नाम देने की बजाय केवल एक ही नाम देना पर्याप्त है, वह नाम है - 'आंबेडकर मिशन' । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के तीसरे अंक की संपादकीय 'आंबेडकरवाद : दिशा एवं दृष्टि' में मैंने इस तथ्य का स्पष्टीकरण कर दिया है कि आंबेडकर-मिशन अर्थात् आंबेडकरवादी विचारधारा के अंतर्गत बुद्ध, रैदास, कबीर, फुले आदि अनेक महापुरुषों की विचारधारा का समावेश है । यही कारण है कि आंबेडकरवादी लोग इन सभी महापुरुषों का और अलग-अलग राग अलापने वाले इनके सभी अनुयायियों का समान भाव से सम्मान करते हैं ।
आंबेडकर-मिशन को साहित्य के माध्यम से गति प्रदान करने वाले आंबेडकरवादी साहित्यकार अनेक साहित्यिक विधाओं के द्वारा आंबेडकरवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करते आये हैं, जिनमें गीत-विधा प्रमुख है । 'गीत' आंबेडकर-मिशन के प्रचार-प्रसार हेतु सबसे सशक्त साहित्यिक विधा है । कुछ दशकों से आंबेडकरवादी मिशनरी गीतों के लेखन और गायन की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है । समाज में आंबेडकरवादी गीतों के नाम से चर्चित मिशनरी गीतों का यदि वर्गीकरण किया जाए, तो वह इस प्रकार होगा :
(1) राजनैतिक आंबेडकरवादी गीत ।
(2) सामाजिक आंबेडकरवादी गीत ।
(3) धार्मिक आंबेडकरवादी गीत ।
(4) साहित्यिक आंबेडकरवादी गीत ।
राजनैतिक आंबेडकरवादी गीतों के अंतर्गत मान्यवर कांशीराम एवं बहन कुमारी मायावती के महिमागान सहित बहुजन समाज पार्टी के प्रचार-प्रसार संबंधी गीतों का लेखन और गायन प्रचलित है । सामाजिक आंबेडकरवादी गीतों के अंतर्गत डॉ० आंबेडकर की जीवनकथा व अन्य बहुजन समाज के महापुरुषों के जीवन-चरित्र तथा सामाजिक बुराइयों, कुरीतियों, अंधविश्वासों आदि को आधार बनाकर लिखी गयी गीतों के गायन और श्रवण का प्रचलन है । धार्मिक आंबेडकरवादी गीतों के अंतर्गत तथागत बुद्ध और डाॅ० आंबेडकर के महिमागान तथा बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार संबंधी गीतों का लेखन और गायन प्रचलित है । साहित्यिक आंबेडकरवादी गीतों के अंतर्गत उक्त तीनों प्रकारों में से सामाजिक और धार्मिक चिंतन का मिश्रण होता है । साहित्यिक आंबेडकरवादी गीतों का विषय बहुजन समाज पार्टी के प्रचार-प्रसार अथवा बहुजन नायक मान्यवर कांशीराम और बहन कुमारी मायावती के यशगान से संबंधित नहीं होता है । लेकिन इस तरह की साहित्यिक आंबेडकरवादी गीतों का अत्यंत अभाव है । इस अभाव की पूर्ति करने के लिए ही एक तुच्छ प्रयास के रूप में वर्तमान अंक को प्रकाशित करने की योजना बनाई गयी । आशा है, साहित्यिक आंबेडकरवादी गीतों की विषय-वस्तु, भाषा-शैली और चिंतन-दृष्टि का स्वरूप निर्धारित करने में इस पत्रिका का वर्तमान अंक सफल सिद्ध होगा ।
✍️ देवचंद्र भारती 'प्रखर'
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संपादकीय