'इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविता में आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप' की प्रस्तावना
आंबेडकरवादी चिंतन को सामान्यतः 'दलित चिंतन' के नाम से जाना जाता है । हिंदी साहित्य में दलित चिंतन का आरंभ बीसवीं सदी के आठवें दशक से माना जाता है । नवें दशक में दलित चिंतन से प्रभावित कविताओं के कई संग्रह प्रकाशित हुये, जिनमें मोहनदास नैमिशराय कृत 'सफदर एक बयान' (1989), ओमप्रकाश वाल्मीकि कृत 'सदियों का संताप' (1989) आदि प्रमुख हैं । बीसवीं सदी के अंतिम दशक में दलित चेतना से युक्त जो कविता-संग्रह प्रकाशित हुये, उनमें डॉ० एन० सिंह का कविता-संग्रह 'सतह से उठते हुए' (1991), सुशीला टाॅकभौरे के तीन कविता-संग्रह 'स्वांति बूँद और खारे मोती' (1993), 'यह तुम भी जानो' (1994) और 'तुमने उसे कब पहचाना' (1995), मलखान सिंह के दो कविता-संग्रह 'सुनो ब्राह्मण' (1996) और 'ज्वालामुखी के मुहाने' (1998) तथा ओमप्रकाश वाल्मीकि का कविता-संग्रह 'बस्स ! बहुत हो चुका' (1997) आदि अत्यधिक लोकप्रिय हैं । ये सारे कविता-संग्रह दलित चेतना से प्रभावित हैं, जिनमें ब्राह्मणवाद, जातिवाद और वर्ण व्यवस्था के प्रति आक्रोश, नकार, प्रतिरोध और विद्रोह की अभिव्यक्ति है । अधिकांश कविताओं में दीनता, हीनता, निराशा, करुण-क्रंदन, श्रम-पीड़ा आदि का वर्णन-चित्रण किया गया है । इस प्रकार, इन कविताओं के माध्यम से कथित सवर्ण लोगों से समता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और प्रेम की अपेक्षा की गयी है । ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने आलोचना-ग्रंथ 'दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र' में दलित चेतना के तेरह बिंदुओं का उल्लेख किया है, जिसके अंतर्गत उन्होंने बुद्ध का अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, वैज्ञानिक दृष्टि-बोध, पाखंड-कर्मवाद विरोध, आंबेडकर के दर्शन को स्वीकार करना, भाषावाद, लिंगवाद का विरोध आदि को दलित चेतना के रूप में प्रस्तुत किया है । इसी आधार पर कँवल भारती ने 'दलित साहित्य की अवधारणा' नामक आलोचना-ग्रंथ लिखा ।
दलित साहित्य की अवधारणा के अंतर्गत 'दलित साहित्यकार' केवल अनुसूचित जाति का व्यक्ति ही हो सकता है । दलित साहित्य को 'आह' का साहित्य कहा जाता है । इस प्रकार दलित चिंतन की सीमा संकीर्ण है ।
दलित चिंतन को 'आंबेडकरवादी चिंतन' के नाम से तब जाना जाने लगा, जब डॉ० तेज सिंह ने 'आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा' नामक आलोचना-ग्रंथ लिखा । डॉ. तेज सिंह के अनुसार, " दलित चेतना 'आंबेडकरवादी चेतना' का दूसरा नाम है, जो डॉ. आंबेडकर की समग्र वर्ग की चेतना में विस्तार पाकर सभी स्तरों पर उत्पीड़ित-शोषित वर्गों को मुक्ति का रास्ता दिखाती है । " [ मगहर - जुलाई 2018, पृष्ठ 125 ] 'दलित चेतना' को 'आंबेडकरवादी चेतना' तथा 'दलित चिंतन' को 'आंबेडकरवादी चिंतन' के नाम से भले ही जाना जाता है, लेकिन फिर भी दोनों में पर्याप्त अंतर है । क्योंकि प्रत्येक दलित आंबेडकरवादी नहीं है तथा जो लोग आंबेडकरवादी हैं, वे स्वयं को दलित नहीं कहते हैं । अधिकांश आंबेडकरवादी लोग बौद्ध बन चुके हैं और वे अपना उपनाम 'बौद्ध' ही लगाते हैं । यही कारण है कि वे 'दलित' कहलाना पसंद नहीं करते हैं । वर्तमान में दलित चेतना और आंबेडकरवादी चेतना में अंतर स्पष्ट किया जा चुका है । [ आंबेडकरवादी कविता के प्रतिमान, पृष्ठ 83-84 ] आंबेडकरवादी साहित्य की अवधारणा के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति 'आंबेडकरवादी साहित्यकार' हो सकता है, बशर्ते वह डाॅ. आंबेडकर द्वारा ली गयी बाईस प्रतिज्ञाओं का पालन करता हो । 'आंबेडकरवादी साहित्य' पत्रिका के प्रथम अंक में आंबेडकरवादी साहित्य को 'क्रांति' का साहित्य घोषित किया गया है ।
दलित चिंतन और आंबेडकरवादी चिंतन में नाम व गुण के अंतर का स्पष्टीकरण भले ही बाद में हुआ है, किंतु मिश्रित रूप से दोनों प्रकार के चिंतन हिंदी कविता में अपने प्रारंभिक समय से ही उपस्थित हैं । दरअसल, 'आंबेडकरवादी' भी अनेक प्रकार के हैं, यथा - बौद्ध आंबेडकरवादी, हिंदू आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी आंबेडकरवादी ।
हिंदू आंबेडकरवादी कवि ही 'दलित चेतना' की बात करते हैं, क्योंकि उनका साहित्यिक आंदोलन हिंदू धर्म में सुधार का आंदोलन है । वे सही मायने में अनात्मवादी नहीं हैं । उनके इसी प्रकार के चिंतन से प्रभावित उनका काव्य-सृजन भी है । बौद्ध-आंबेडकरवादी कवि शुद्ध रूप से अनीश्वरवाद, अनात्मवाद और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हृदयंगम किये हुये हैं । उनका हिंदू धर्म में सुधार से कोई संबंध नहीं है तथा वे अपनी कविताओं में वर्णव्यवस्था का उल्लेख भी कम ही करते हैं । अधिकांश कवि पहले हिंदू थे और बाद में बौद्ध बन गये अथवा पहले गांधीवादी/मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित थे और बाद में आंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित होकर काव्य-सृजन करने लगे । इस प्रकार स्पष्ट है कि आंबेडकरवादी चिंतन का स्वरूप इक्कीसवीं सदी में बहुत अधिक परिवर्तित हो चुका है ।
इक्कीसवीं सदी की हिंदी कविताओं में आंबेडकरवादी चिंतन, बीसवीं सदी की हिंदी कविताओं के आंबेडकरवादी चिंतन से भाव, विचार और शिल्प आदि सभी आधारों पर भिन्न है ।
इस संदर्भ में एल०एन० सुधाकर, रघुवीर सिंह 'नाहर', श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', डाॅ० राम मनोहर राव, मनोहर लाल 'प्रेमी', सुरेश कुमार 'राजा', डाॅ. बुद्धप्रिय सुरेश सौरभ 'गाजीपुरी' आदि प्रतिनिधि कवियों के कविता-संग्रहों यथा - तीसरी आजादी की जंग (2016), बुद्ध सागर (2019), भीम सागर (2019), पत्थर भी मुखड़ा खोलेंगे (2020), नाहर सतसई (2021), प्रकृति में जीवन (2021), आखिर कब तक ? (2022), प्रकाश द्वीप (2022), स्वतंत्र लेखनी की ललकार सुनो (2022), कलयुगी आदमी (2022), कहाँ गयी धूप ? (2023), जन चेतना के स्वर (2023), अब वैसा न हो (2023), जीवन के रंग (2023), सुलगती संवेदनाएँ (2023), आक्रोश की आहट (2023) आदि का आंबेडकरवादी दृष्टि से अवलोकन करना अनिवार्य है ।
प्रस्तावना लेखक : देवचंद भारती 'प्रखर'
शोधकर्ता-महात्मा ज्योतिबा फूले रुहेलखंड विश्वविद्यालय, बरेली
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