हिंदी कहानी : उद्भव, विकास एवं आंदोलन


कहानी का इतिहास मानव-सभ्यता संबंधी इतिहास के साथ आरंभ होता है, क्योंकि कहानी कहने और सुनने की प्रवृत्ति मानव में आदिकाल से चली आ रही है । भारत के प्राचीन वांग्मय वेद, ब्राह्मण-ग्रंथ, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि में अनेक कथाएँ संकलित हैं । बौद्ध जातक, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि प्राचीन ग्रंथों में भी अनेक प्रकार की कथाओं का संग्रह है । 
बैताल भट्टराव द्वारा प्राकृत भाषा में रचित 'बैतालपञ्चविंशतिका' भी पच्चीस कथाओं से युक्त एक कथा-ग्रन्थ था, जिसे कश्मीर के महाकवि सोमदेव भट्टराव ने फिर से संस्कृत में लिखा और 'कथासरित्सागर' (495 ई०पू०) नाम दिया । सूरति मिश्र ने 'वैतालपंचर्विशतिका' का पद्यमय अनुवाद किया तथा आगे चलकर लल्लू लाल ने हिंदी में 'बैताल पच्चीसी' लिखा, जो उसमें सम्मिलित लोकप्रिय कहानियों का ही परिणाम था । गोकुलनाथ द्वारा लिखित ब्रजभाषा गद्य में 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता' के रूप में संभवतः हिंदी की पहली गद्यमय कहानियाँ लिखी गयीं । सदल मिश्र द्वारा लिखित 'नासिकेतोपाख्यान' (1803) भी कहानियों का ही ग्रंथ है । 

हिंदी कहानी का उद्भव एवं विकास 

कहानी या कथा का शाब्दिक अर्थ है ‘कहना’ । इस सामान्य अर्थ के अनुसार जो कुछ भी कहा जाए, वह 'कहानी' है । किंतु विशिष्ट अर्थ में किसी विशेष घटना का रोचक ढंग से वर्णन को ‘कहानी’ माना जाता है । ‘कथा’ एवं ‘कहानी’ दोनों शब्द भले ही पर्यायवाची हों, किंतु समानार्थी नहीं हैं । दोनों शब्दों के अर्थों में सूक्ष्म अंतर है । 'कथा' शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया जाता है । इसमें कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी आदि सभी का समावेश हो जाता है । कथा-साहित्य के अंतर्गत मुख्य रूप से कहानी एवं उपन्यास को शामिल किया जाता है, जबकि 'कहानी' के अंतर्गत कहानी और लघुकथाएँ शामिल की जाती हैं । 

आधुनिक हिंदी कहानी का उद्भव उन्नीसवीं सदी में हुआ । उन्नीसवीं सदी में इंशा अल्लाह खाँ द्वारा 'रानी केतकी की कहानी' (1800 से 1808 के बीच), राजा शिवप्रसाद सितारे-हिंद द्वारा 'राजा भोज का सपना' (1856), राधाकृष्ण गोस्वामी द्वारा 'यमलोक की यात्रा' आदि कहानियाँ लिखी गयीं । डॉ० लाल साहब सिंह के शब्दों में, " यदि 'कहानी' शब्द मात्र से ही कहानी का अर्थ लिया जाए, तो इंशा की 'रानी केतकी की कहानी' हिंदी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी मानी जा सकती है । " [1] उन्नीसवीं सदी की कहानियों के संदर्भ में टिप्पणी करते हुए डॉ० सिंह ने लिखा है, " इन सभी कहानियों में एक विचित्र बात थी - उनकी सामाजिक तटस्थता तथा तत्कालीन परिस्थितियों से एक विचित्र विलगाव । क्योंकि ये कहानियाँ प्राचीन कथा-ग्रंथों का ही रूपांतर मात्र थीं और इनके लेखकों में वह सामाजिक चेतना नहीं थी, जो प्राचीन कथानकों को अपने समसामयिक संदर्भ रूपायित करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं । इनमें कथा को छोड़कर कहानी के अन्य तत्वों का पूर्ण अभाव था । ये कहानियाँ एक प्रकार से प्राचीन नीति-वाक्यों का कथात्मक रूपांतर मात्र थीं । इसलिए इनमें समसामयिक सामाजिक-चित्रण उपेक्षित रहा । " [2] स्पष्ट है कि उन्नीसवीं सदी की हिंदी कहानियों
में काल्पनिकता, भावुकता और मनोरंजन का समावेश अधिक था, जबकि समसामयिक सामाजिक चित्रण नगण्य था ।

द्विवेदी - युग 

यूरोप में विकसित कहानी का स्वरूप अंग्रेजी और बंगला भाषा-साहित्य के माध्यम से बीसवीं सदी के आरंभ में भारत में आयातित हुआ । बीसवीं सदी के आरंभ में अर्थात् द्विवेदी-युग (1900-1918) में अनेक महत्वपूर्ण हिंदी कहानियाँ प्रकाशित हुईं, जिन्हें प्रकाश में लाने का श्रेय 'सरस्वती' पत्रिका एवं उसके तत्कालीन संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी को है । इन कहानियों में किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' (1900), माधव राव सप्रे की 'एक टोकरी भर मिट्टी' (1901) भगवान दास की 'प्लेग की चुड़ैल' (1902) किशोरीलाल गोस्वामी की 'गुलबहार' (1902), पंडित गिरजादत्त वाजपेयी की 'पंडित और पंडिताइन' (1903), आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 'ग्यारह वर्ष का समय' (1903) लाला पार्वती नंदन की 'बिजली', 'चंपा' (1905) और राजेन्द्र बाला घोष उर्फ बंग महिला की 'दुलाईवाली' (1907), वृंदावन लाल वर्मा की 'राखी बंद भाई' (1909), विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' की 'रक्षाबंधन' (1913), चंद्रधर शर्मा गुलेरी की 'उसने कहा था' (1915) आदि हैं । रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, " इनमें से यदि मार्मिकता की दृष्टि से भावप्रधान कहानियों को चुनें, तो तीन मिलती हैं - 'इंदुमती', 'ग्यारह वर्ष का समय' और 'दुलाईवाली' । यदि 'इंदुमती' किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है, तो हिंदी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है । इसके उपरांत 'ग्यारह वर्ष का समय' फिर 'दुलाईवाली' का नंबर आता है । " [3] आचार्य शुक्ल के कथन पर विचार करने से स्पष्ट है कि द्विवेदी युग की कहानियों में भावों की प्रधानता रही है । मानव हृदय को झकझोर देने में समर्थ एवं भावप्रधान होने के कारण द्विवेदी युग की कहानियाँ मार्मिक सिद्ध होती हैं ।

प्रेमचंद - युग 

सन् 1916 ई० में प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'पंच परमेश्वर' प्रकाशित हुई । इसी समय से हिंदी कहानी में प्रेमचंद-युग का आरंभ हुआ । प्रेमचंद ने कहानी को जीवन का अंग माना और कहा, " सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो । " अपनी कहानियों से उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि मेरी 'सुजान भगत', 'मुक्ति मार्ग', 'पंच परमेश्वर', 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'महातीर्थ' नामक सभी कहानियों में एक न एक मनोवैज्ञानिक रहस्य खोलने की चेष्टा की गयी है । " [4] प्रेमचंद की कहानियों के बारे में डॉ० लाल साहब सिंह ने लिखा है, " प्रेमचंद ने पहली बार कहानी का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, जीवन के यथार्थ-चित्रण और स्वाभाविक वर्णन से जोड़ने और कल्पना की मात्रा को कम करने का आग्रह किया । उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक यथार्थ को केंद्र में रखकर मानवीय संवेदना और सहानुभूति उत्पन्न करने वाली कहानियों की रचना की और कथा-संसार से देवता, ईश्वर एवं राजा को अपदस्थ करके दीन, दलित, शोषित, प्रताड़ित सामान्य मनुष्य को नायक के पद पर प्रतिष्ठित किया । इस दृष्टि से उनकी 'सवा सेर गेहूँ, नमक का दरोगा, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, मुक्ति मार्ग, पूस की रात, कफन जैसी अनेक कहानियाँ उल्लेखनीय हैं । " [5] प्रेमचंद की कहानियों का विवेचन करते समय सामान्यतः जिन कहानियों की अधिक चर्चा की जाती है, उनमें 'बलिदान' (1918), 'आत्माराम' (1920), 'बूढ़ी काकी' (1921), 'विचित्र होली' (1921), 'गृहदाह' (1922), 'हार की जीत' (1922), 'परीक्षा' (1923), 'आपबीती' (1923), 'उद्धार' (1924), 'सवा सेर गेहूँ' (1924), 'शतरंज के खिलाड़ी' (1925), 'माता का हृदय' (1925), 'कजाकी' (1926), 'सुजान भगत' (1927), 'इस्तीफा' (1928), 'अलग्योझा' (1929), 'पूस की रात' (1930), 'तावान' (1931), 'होली का उपहार' (1931), 'ठाकुर का कुआँ' (1932), 'बेटों वाली विधवा' (1932), 'ईदगाह' (1933), 'नशा' (1934), 'बड़े भाई साहब' (1934), 'कफन' (1936) आदि के नाम शामिल हैं । प्रभावात्मक विकास की दृष्टि से प्रेमचंद के कथा-रचनाकाल की विभाजक रेखा के रूप में सन् 1930 को माना जा सकता है । " इसके पूर्व की कहानियाँ अपने संदर्भों से गहरे रूप में जुड़ी होने के बावजूद प्रभाव की दृष्टि से कमजोर हैं । प्रेमचंद का आदर्शवादी दृष्टिकोण, परंपरागत मूल्यों में उनकी आस्था और उनका इच्छित विश्वास, यहाँ तक कि उनका अंधविश्वास उनकी पूर्ववर्ती कहानियों पर हावी रहे हैं । पर प्रेमचंद अपनी कमजोरियों को आलोचकों द्वारा चेताये जाने के पूर्व ही समझ चुके थे और हर अगली कहानी में उन्हें दूर करने की कोशिश करते थे । इसका सबसे अच्छा उदाहरण 'बूढ़ी काकी', 'शतरंज के खिलाड़ी', 'कजाकी' और 'इस्तीफा' जैसी कहानियाँ मानी जा सकती हैं । इनमें आदर्शवादी समाधान, पुराने मूल्यों के प्रति आस्था की अभिव्यक्ति, समाज की आलोचना आदि कम हैं और कुछ मार्मिक स्थितियों को उनकी पूरी मनोवैज्ञानिकता और यथार्थ में उभारने की कोशिश अधिक । " [6] प्रेमचंद की परंपरा के कहानीकारों में सुदर्शन, विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक', भगवती प्रसाद वाजपेयी, ज्वालादत्त शर्मा आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।

इस काल के दूसरे प्रमुख कहानीकार जयशंकर प्रसाद हैं । उनकी पहली कहानी 'ग्राम' सन् 1911 में 'इंदु' में प्रकाशित हुई थी । प्रसाद जी की कहानियों में प्रेम की आदर्शवादी अभिव्यक्ति तथा त्याग और बलिदान की भावना का बाहुल्य है । इस संदर्भ में इनकी 'पुरस्कार', 'आकाशदीप' और 'गुंडा' आदि कहानियों को देखा जा सकता है । यही कारण है कि प्रसाद जी की कहानियाँ आधुनिकता और समकालीन सामाजिक जीवन-यथार्थ से कम सरोकार रखती हैं । डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल द्वारा संपादित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में लिखा है, " प्रसाद की कहानियाँ आधुनिक कहानी से सही रूप में नहीं जुड़ पातीं । उनकी जीवनदृष्टि ही नहीं, भाषा भी आधुनिक कहानी की प्रकृति के प्रतिकूल है । यही कारण है कि जहाँ प्रेमचंद को आधुनिक हिंदी कहानी का जनक माना जाता है, वहीं प्रसाद को यह श्रेय नहीं मिलता । " [7] प्रसाद जी के महत्वपूर्ण कहानी-संग्रह - 'प्रतिध्वनि' (1926), 'आकाशदीप' (1929), 'आँधी' (1931), 'इंद्रजाल' (1936) आदि हैं । प्रसाद जी की कहानी-परंपरा को जिन लेखकों ने समृद्ध किया, उनमें चंडीप्रसाद हृदयेश, राय कृष्णदास, वाचस्पति पाठक, चतुरसेन शास्त्री आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।


प्रेमचंदोत्तर - युग

प्रेमचंद के बाद प्रमुख कहानीकारों में इलाचंद्र जोशी, यशपाल, जैनेन्द्र, अज्ञेय, उपेंद्रनाथ 'अश्क' आदि हैं । इलाचंद्र जोशी (1902-1982) कथा साहित्य में मनोविश्लेषण की एक विशिष्ट धारा के प्रवर्तक के रूप में प्रसिद्ध हैं । डॉ० रामचंद्र तिवारी के अनुसार, " उन्होंने अपनी कहानियों में दमित कामवासना, तज्जनित मानसिक विकृति एवं अंततः दमित काम-ग्रंथि के आधार को स्पष्ट करते हुए व्यक्ति के मानसिक उन्नयन पर बल दिया है । इनकी कहानियाँ मुख्यतः मध्यवर्गीय शिक्षित पात्रों के सामाजिक एवं वैयक्तिक परिवेश को लेकर लिखी गयी हैं । " [8] राजेंद्र यादव के शब्दों में, " वह (इलाचंद्र जोशी) भीतर से भीतर की ओर उतरे हैं, चेतन-अवचेतन-उपचेतन के अनेक अप्रीतिकर स्तरों का उद्घाटन उन्होंने किया है और इस प्रक्रिया में उनके पात्र साधारण सामान्य की बजाय विलक्षण, विकलांग और हीन होते हुए दीखने लगे हैं । " [9] अपनी कहानियों में निहित मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के बारे में इलाचंद्र जोशी ने लिखा है, " मेरे मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पूर्णतः अपने हैं और किसी पाश्चात्य मनोविज्ञानवेत्ता से उधार लिये गये नहीं हैं । किसी पाश्चात्य कथाकार की मनोवैज्ञानिक शैली का अनुकरण भी सुधी और तटस्थ आलोचकों को मेरी कहानियों में नहीं मिलेगा । जो अनुभूत सत्य मुझे अपने चारों ओर के जीवन की यथार्थता के संपर्क में अपने से प्राप्त हुये हैं, केवल उन्हीं का प्रयोग मैंने किया है । " [10] इलाचंद्र जोशी की कहानियों के संदर्भ में आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल द्वारा संपादित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में लिखा है, " इलाचंद्र जोशी ने अपनी कहानियों में मनोवैज्ञानिक केस-हिस्ट्री पिरोयी है । इस दिशा में अग्रसर होने वाले वे अकेले कहानीकार हैं, पर उनकी कहानियों में अधिकतर किताबी सूरतें, किताबी स्थितियाँ और ग्रंथियाँ परिलक्षित होती हैं । इसीलिए उनकी कहानियाँ प्रायः नीरस, असंवेदनीय और अपठनीय हो गयी हैं । " [11] इलाचंंद्र जोशी के प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं - 'रूपरेखा' (1938), 'दीवाली और होली' (1942), 'रोमांटिक छाया' (1943), 'आहुति' (1945), 'खंडहर की आत्माएँ' (1948), 'डायरी के नीरस पृष्ठ' (1951), 'कँटीले फूल लजीले काँटे' (1957) आदि । 

यशपाल (1903-1976) की कहानियों के बारे में डॉ० रामचंद्र तिवारी का कहना है कि वे मुख्यतः सामाजिक यथार्थ को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने वाले कलाकार माने जाते हैं । इस दृष्टि से उनका अनुभूति-विस्तार एक सैद्धांतिक सीमा स्वीकार करके कला में प्रतिफलित हुआ है । उनकी श्रेष्ठ कहानियों में भी यह दुर्बलता लक्षित होती है, किंतु इसके बावजूद नारी के प्रति सहानुभूति, नयी नैतिक मान्यताओं की प्रतिष्ठा, शोषण वृति के प्रति आक्रोश, दूरियों के प्रति विद्रोह, यथार्थ की स्वीकृति, उपेक्षितों और असहायों के प्रति सहानुभूति, नये संदर्भों की प्रतिष्ठा और व्यंग्य-शैली के प्रयोग की दृष्टि से यशपाल अन्यतम माने जाएँगे । " [12] राजेंद्र यादव ने लिखा है, " यशपाल ने मार्क्सवादी दृष्टि से एक के बाद एक सशक्त कहानियाँ लिखीं । उन्होंने समाज के परंपरागत मूल्यों और रूढ़ियों के विरुद्ध व्यंग्य और युक्ति के हथियारों से तीखे प्रहार किये । जिस निर्भीकता से उन्होंने अंग्रेजी राज्य के खिलाफ 'साग' जैसी कहानियाँ लिखीं, उसी निर्भीकता से धर्म और पुरानी नैतिक मान्यताओं के विरुद्ध 'मनु की लगाम', 'धर्म-रक्षा', 'ज्ञानदान', 'प्रतिष्ठा का बोझ', 'दूसरी नाक' इत्यादि भी । आर्यसमाजी उत्साह के साथ उन्होंने व्यवस्था, जाति, पैसा, कुर्सी के आधार पर छोटे-बड़े का भेदभाव करने वाली नैतिकता की आलोचना की, शोषण और मुनाफाखोरी की संस्कृति का पर्दाफाश किया, मध्यवर्गीय सम्मान, मूल्यों और आडंबरों की शल्य-चिकित्सा की । " [13] पिंजरे की उड़ान (1939), ज्ञानदान (1943), अभिशप्त (1946), तक का तूफान (1944), भस्मावृत्त चिंगारी (1946), वो दुनिया (1948), फूलों का कुर्ता (1949), धर्मयुद्ध (1950), उत्तराधिकारी (1951), चित्र का शीर्षक (1951), तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूँ (1954), उत्तमी की माँ (1955), सच बोलने की भूल (1962), खच्चर और आदमी (1965), भूख के तीन दिन (1968) आदि यशपाल के प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं ।

जैनेन्द्र (1905-1988) की कहानियों के बारे में डॉ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " जैनेंद्र की कहानियों में चरित्र वैशिष्ट्य, मानसिक द्वंद्व, स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर सूक्ष्म एवं गहन स्तरों का स्पर्श, अवसाद और करुणा की अंतस्तल को स्पर्श करने वाली एक स्निग्ध धारा, राष्ट्रीयता और क्रांति-भावना, मानवेतर प्राणियों के प्रति सहानुभूति, नैतिक प्रश्नों के प्रति गंभीर शंकाएँ, दार्शनिक ऊहापोह, प्रतीक योजना, संकेत और रहस्य सभी कुछ मिल जाता है । " [14] उनकी कहानी 'खेल' (1928) 'विशाल भारत' में प्रकाशित हुई थी । फांसी (1929), वातायन (1930), नीलम देश की राजकन्या (1933), एक रात (1934), सीढ़ियाँ (1935), पाजेब (1942), जयसंधि (1949) आदि उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं ।

अज्ञेय (1911-1987) की कहानियों के बारे में डाॅ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " अज्ञेय की कहानियाँ जैनेंद्र की परंपरा को विकसित करने वाली हैं । अज्ञेय की दृष्टि भी व्यक्ति को ही महत्व देती है, किंतु दोनों में अंतर यह है कि जैनेंद्र जहाँ गांधी-दर्शन के आध्यात्मिक पक्ष को अधिक महत्व देने के कारण व्यक्ति के वैशिष्ट्य को परखने में एक सीमा बाँध लेते हैं, वहाँ अज्ञेय वैज्ञानिक यथार्थ में विश्वास करने के कारण विभिन्न स्तरों पर व्यक्ति को देखते-परखते हैं । अज्ञेय भी मुख्यतः मध्यवर्गीय चेतना के कलाकार हैं । उन्होंने बदलते हुए संदर्भों में नये नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रतिष्ठित करने की चेष्टा की है । उनमें कलात्मक संयम भी कम नहीं है । उन्होंने सामाजिक संघर्षों को भी अपनी कहानियों में संदर्भित किया है, किंतु इन संघर्षों को व्यक्ति के माध्यम से देखा है । " [15] विपथगा (1937), परंपरा (1940), कोठरी की बात (1945), अमर वल्लरी (1945), शरणार्थी 1948), जयदोल (1951), ये तेरे प्रतिरूप (1961) आदि उनके प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं ।

उपेंद्रनाथ अश्क (1910-1996) प्रेमचंद के व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रभावित थे । उनका कथन है, " अपने शुरु के जीवन में मैंने प्रेमचंद को पढ़ा । इनसे प्रभाव ग्रहण किया । प्रसाद को मैंने तब पढ़ा, जब प्रेमचंद का प्रभाव कहीं गहरे बैठ गया था । इसलिए जब  बाद में मैंने काल्पनिक कहानियाँ भी (1931 से 1936 तक ) लिखीं, तो उनमें भी कहीं न कहीं किसी न किसी पात्र अथवा स्थिति में जिंदगी का कोई न कोई स्पर्श अवश्य रहा । फिर जब जिंदगी के संघर्ष ने आदर्श और कल्पना का पर्दा उठा दिया, तो जिंदगी और उसकी यथार्थता रह गयी । आदर्श एकदम गायब हो गया हो, ऐसी बात नहीं, वह कहीं गहरे में चला गया । " [16] अश्क जी के कहानी-संग्रहों में पिंजड़ा (1944), अंकुर (1945), निशानियाँ (19472), दो धारा (1949), छींटें (1949), काले साहब (1950), जुदाई की शाम का गीत (1951), बैंगन का पौधा (1954), कहानी लेखिका एवं जेहलम के साथ पुल (1957), पलंग (1961), आकाशचारी (1966), उबाल और अन्य कहानियाँ (1968) आदि हैं ।


नयी कहानी - युग

नयी कहानी आंदोलन के प्रारंभिक काल में 'नयी कहानी' में 'नया' क्या है ? तथा नयी कहानी में जो नयापन है, क्या वह पुरानी कहानियों में नहीं है ? आदि प्रश्नों पर भी विचार किया गया । प्रेमचंद, जैनेंद्र और अज्ञेय की कहानियों में नयी कहानी जैसी विशेषता देखकर डाॅ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " प्रारंभिक कहानियों की तुलना में प्रेमचंद की अंतिम कुछ कहानियाँ नितांत नयी हैं । इसी प्रकार प्रेमचंद के बाद जैनेंद्र, अज्ञेय, अश्क, यशपाल आदि कहानीकारों की कहानियाँ अपनी सीमाओं के बावजूद प्रेमचंद से पृथक मनोभूमि का चित्रण करने वाली हैं । जैनेंद्र और अज्ञेय में तो नये ढंग की शिल्पगत बारीकी लक्षित की जा सकती है । " [17] नयी कहानी के तीन प्रवर्तक कहानीकार हैं - मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर । इन कहानीकारों ने नयी कहानी के संदर्भ में अपने-अपने विचार पत्रिकाओं एवं पुस्तकों में लेखों के माध्यम से व्यक्त किये हैं, जिनकी अनेक आलोचकों द्वारा आलोचना भी की गयी है ।

मोहन राकेश (1925-1972) 'नयी कहानी' के प्रवर्तकों में से एक हैं । मधुरेश के शब्दों में, " मोहन राकेश सीमित रचनात्मक सरोकारों वाले लेखक हैं । रचना-वस्तु के चुनाव की उनकी अपनी सीमाएँ हैं । भारतीय समाज की संघर्षशील और परिवर्तनकामी चेतना का अभाव उनकी कहानियों में सब कहीं दिखाई देता है । अपनी पीढ़ी के अनेक लेखकों की तरह देश-विभाजन की छायाएँ उनके रचना-संसार पर भी झूलती दीखती हैं । औरों की अपेक्षा उस त्रासदी से, पंजाबी होने के नाते, उनका सीधा और प्रत्यक्ष संबंध भी रहा । 'क्लेम', 'परमात्मा का कुत्ता' और 'मलबे का मालिक' जैसी कहानियाँ उनकी इसी अनुभवसंपन्नता का परिणाम हैं । स्थिति के विरोध में यदि कुछ नहीं किया जा सकता, तो भौंका तो जा सकता है । 'जानवर और जानवर' के निष्क्रिय समर्पण की अपेक्षा यह फिर भी एक बेहतर स्थिति है । लेकिन मोहन राकेश की परवर्ती कहानियाँ सामाजिक संदर्भों और मूल्यों की ओर से और भी उदासीन दिखाई देती हैं । इसीलिए नयी कहानी के समर्थन में दिये गये उनके वक्तव्यों और सर्जनशीलता में गहरी फाँक है । उनकी परवर्ती कहानियाँ खासतौर से मूल्य-निषेध, अमूर्त्तन और कलावादी भटकाव की शिकार हैं । " [18] मोहन राकेश की कहानियों के कुल पाँच संग्रह - 'इंसान के खंडहर' '1950), नये बादल (1957), जानवर और जानवर (1958), एक और जिंदगी (1961), फौलाद का आकाश (1966) प्रकाशित हुये हैं ।

राजेंद्र यादव (1929-2013) का नाम 'नयी कहानी' के उन्नायकों में गिना जाता है । राजेंद्र यादव ने लिखा है, " शास्त्र के द्वारा हम किसी भी रचना के रूप, उसकी कलात्मक सफलताओं-असफलताओं को भले ही जान लें, रचना की प्रेरणा और प्राण को पाने में कोई शास्त्री हमारी सहायता नहीं कर सकता । परिवेश को समय-बोध, काल-बोध कुछ भी कह लीजिए, बात उसी संपूर्ण परिप्रेक्ष्य की है, जो रचना को अपने साथ जोड़े रखता है या जिससे जुड़ी रहने को रचना मजबूर है । यही कारण है कि आज रचनात्मक समीक्षा अपने समय को ही किसी न किसी रूप में परिभाषित करने पर अधिक जोर देती है । आधुनिकता और सामयिकता को समझने के सारे प्रयत्न संकेत करते हैं कि हम कहीं सारी कलाओं के पीछे बहने वाली अंतर्धारा को पकड़ने को ही अधिक आकुल हैं । " [19] राजेन्द्र यादव के इस कथन को उद्धृत करके आलोचक मधुरेश ने लिखा है, " इस वक्तव्य के बाद यह जिज्ञासा स्वभाविक है कि राजेंद्र यादव की कहानियाँ अपने समय को कैसे और किस सीमा तक परिभाषित करती है ? या 'कलाओं के पीछे बहने वाली अंतर्धारा' को पकड़ने की उनकी आकुलता का स्वरूप क्या है ? राजेंद्र यादव की आरंभिक कहानियों में राजनीतिक विसंगतियों की जिस समझ के छिट-पुट संकेत मिलते हैं, उस दृष्टि का कोई सुसंबंध विकास उनकी परवर्ती कहानियों में उपलब्ध नहीं है । इस संदर्भ में उनके उपन्यास 'उजड़े हुए लोग' का स्मरण स्वाभाविक है, जो उनके संपूर्ण लेखन में एक अपवाद जैसा है । लेकिन फिर भी उनके यहाँ कुछ ऐसी कहानियाँ अवश्य हैं, जिन्हें आधार बनाकर इस मुद्दे पर बात की जा सकती है । इन कहानियों में 'लंचटाइम', 'बिरादरी बाहर', 'तलवार पंचहजारी', 'नये-नये आने वाले' और 'प्रश्नवाचक पेड़' आदि का उल्लेख किया जा सकता है । " [20] इस संदर्भ में डाॅ. नामवर सिंह की भी टिप्पणी ध्यान देने योग्य है । उन्होंने लिखा है, " अनुभूति और सौंदर्य के लिए बहुतों ने अपना दृष्टिकोण खोया है और जिनके पास कोई दृष्टिकोण ही नहीं था, उन्होंने अपनी कला भी खोयी है । 'अंधा शिल्पी और आँखों वाली राजकुमारी', 'अभिमन्यु की आत्महत्या', 'कुलटा' आदि इधर की तथाकथित कहानियों में स्वयं राजेंद्र यादव ने क्या-क्या खोया है ? इस प्रश्न का उत्तर वह अपने तईं स्वयं दे सकते हैं । 'रूप तरंग' में पड़कर एकाध बार रूप की रूपकबाजी की जाए, तो कोई बात नहीं; लेकिन कवियों की देखादेखी कभी अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में कूद पड़ना और कभी उकाब के पंजों में लटकते हुए अजदहों की घाटी में जाकर हीरे बटोरना तो सचमुच आत्महत्या करके जीवित रहने की जादूगरी है । सचमुच यह प्रतीक-संकेत-पद्धति बहुत-सी अस्वस्थ प्रवृत्तियों के लिए आवरण बन रही है । सेक्स-संकेत इन्हीं में से एक है । " [21] राजेंद्र यादव की कहानी संबंधी अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए मधुरेश और डॉ. नामवर सिंह की टिप्पणियाँ पर्याप्त हैं । फिर भी अत्यधिक स्पष्टीकरण के लिए डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल द्वारा संपादित 'हिंदी साहित्य का इतिहास' में लिखित यह कथन ध्यातव्य है कि, " राजेंद्र यादव की कहानियों में आधुनिक भावबोध को व्यापक सामाजिकता से संदर्भित करने की कोशिश मिलती है । उन्होंने निर्वैयक्तिकता पर विशेष बल दिया है और 'एक समानांतर दुनिया' बनाने की चेष्टा की है, किंतु इस समानांतरता ने कहानियों को व्यक्तित्व भले ही दिया है, पर इसी के कारण वे असंप्रेषित रह गयी हैं । यादव 'व्हील विदिन ह्वील' के कहानीकार हैं, फलस्वरुप उनकी कहानियों में उलझाव आ जाता है, जिसका एक कारण यह भी है कि वे मूलतः औपन्यासिक चेतना के कथाकार हैं । " [22] राजेंद्र यादव की कहानियों के नौ संग्रह - 'देवताओं की मूर्तियाँ' (1951), खेल खिलौने (1953), जहाँ लक्ष्मी कैद है (1997), अभिमन्यु की आत्महत्या (1959), छोटे-छोटे ताजमहल (1961), किनारे से किनारे तक (1962), टूटना (1966), अपने पार (1968), ढोल और अन्य कहानियाँ' (1972), हासिल तथा अन्य कहानियाँ' (2006) प्रकाशित हैं ।

कमलेश्वर (1932-2007) नयी कहानी के प्रवर्तकों में से एक हैं । कमलेश्वर ने कहानी के बारे में अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए लिखा है, " मेरे लिए कहानी निरंतर परिवर्तित होते रहने वाली एक निर्णय-केंद्रित प्रक्रिया है । और ये निर्णय ? ये निर्णय मात्र वैयक्तिक नहीं हैं । वैयक्तिक है असहमति की जलती आग । इसलिए मैं मनुष्य के लिए राजनीति में विश्वास करता हूँ, 'राजनीति के लिए मनुष्य' में नहीं । ये दोनों स्थितियाँ उतनी विरोधी नहीं है, जितनी कि आज के समय-संदर्भ में बन गयी हैं । और जो स्थिति आज है, वही यथार्थ है - आदर्शों की सीमांत पर तो अंततः सब ठीक साबित हो सकता है । पर आदर्शों तक पहुँचते ही राह में मनुष्य को कितना छला गया है, और कितना छला जाता है, इसे नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है ? यातनाओं के जंगल से गुजरते मनुष्य की इस महायात्रा का जो सहयोगी है, वही आज का लेखक है । सह और समांतर जीने वाला, सामान्य आदमी के साथ । " [23] नयी कहानी में आधुनिक नारी की उपस्थिति के संदर्भ में कमलेश्वर ने लिखा है, " आधुनिक नारी अब पूरी गरिमा, देह-संपदा और वास्तविक सम्मान के साथ आयी है । " इसी संदर्भ में थोड़ा आगे उन्होंने लिखा है, " औरतें अब औरतें हैं, वे झूठी सती या वेश्याएँ नहीं हैं । इसलिए नयी कहानी खलनायिकाओं से शून्य है । ... संशयग्रस्त संबंधों के बिजबिजाते दलदल अब नहीं हैं । नारी की देह अब उसके अपने निर्णय की वस्तु है । " [24] इस पर मधुरेश ने टिप्पणी की है, " कमलेश्वर की कहानियाँ 'एक अश्लील कहानी', 'एक थी विमला', 'प्रेमिका', 'रातें' और 'माँस का दरिया' आदि प्रचलित अर्थ में शायद स्त्री-पुरुष संबंधों की कहानियाँ नहीं हैं । इन कहानियों में स्त्री या तो सामाजिक विसंगतियों की शिकार है या फिर एक ढोंग भरा जीवन जीने को विवश है । " [25] अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मधुरेश ने लिखा है, " नयी कहानी में 'विचार' की क्षीर्णता को कमलेश्वर जब तब अपने ढंग से व्याख्यायित करते हैं । लेकिन उनकी ये व्याख्याएँ अस्पष्टता और अंतर्विरोधों से भरी हैं । अपने अन्य सहयोगियों की तरह कमलेश्वर भी यशपाल पर प्रवृत्तिमूलकता का आरोप लगाकर उन्हें लगभग खारिज कर देते हैं । आदर्श स्थिति यह होती कि यशपाल की तथाकथित प्रवृत्तिमूलकता के कलात्मक विकास की संभावनाएँ खोजी जातीं । और भी मजे की बात यह है कि वे कहानी में 'अच्छी' और 'बुरी' की बहस को असंगत एवं निराधार मानकर 'सार्थकता' को ही कहानी की सफलता की कसौटी मानते हैं । लेकिन इस सार्थकता अर्थात् सामाजिक प्रयोजनशीलता को वे कहीं भी ठीक से स्पष्ट नहीं करते । " [26] कमलेश्वर ने सन् 1972 में 'समांतर कहानी' आंदोलन का सूत्रपात किया था । इनके कई कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं; यथा - 'राजा निरबंसिया' (1957), 'कस्बे का आदमी' (1958), 'खोई हुई दिशाएँ' (1963), 'मांस का दरिया' (1966), 'बयान' (1973), 'आजादी मुबारक' (2002) आदि ।


नयी कहानी की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

नयी कहानी की प्रमुख प्रवृतियाँ हैं - जटिल जीवन यथार्थ की व्यापक स्वीकृति, व्यक्ति की प्रतिष्ठा, छिछली भावुकता का ह्रास, मध्यवर्गीय जीवन चेतना, आधुनिकता बोध, सांकेतिकता और शिल्प प्रयोग । इनका क्रमिक विवरण निम्न है :

1. जटिल जीवन यथार्थ की व्यापक स्वीकृति : नयी कहानी में जीवन के जटिल यथार्थ को व्यापक रूप में स्वीकार किया गया है । शिव प्रसाद सिंह ने 'कर्मनाशा की हार' में अपनी कहानियों के संबंध में लिखा है, " मनुष्य और उसकी जिंदगी के प्रति मुझे मोह है, जो अपने अस्तित्व को उबारने के लिए विविध प्रकार के क्षेत्र में विरोधी शक्तियों से जूझ रहा है; अंधविश्वास, उपेक्षा, विवशता, प्रताड़ना, अतृप्ति, शोषण, राजनीतिक भ्रष्टाचार और क्षुद्र स्वार्थान्धता के नीचे पिसता हुआ भी, जो अपने सामाजिक और वैयक्तिक हक के लिए लड़ता है, हँसता है, रोता है, बार-बार गिरकर भी जो अपने लक्ष्य से मुँह नहीं मोड़ता, वह मनुष्य तमाम शारीरिक कमजोरियों और मानसिक दुर्बलताओं के बावजूद महान है । इसी मनुष्यता के कतिपय अंशों का चित्रण इन कहानियों का उद्देश्य रहा है । " [27]

2. व्यक्ति की प्रतिष्ठा : नये कहानीकारों ने संपूर्ण समाज की बजाय एक व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने पर विशेष बल दिया है । उन्होंने व्यक्ति-चेतना को महत्व दिया है । व्यक्ति-चेतना के महत्व का तात्पर्य है - व्यक्ति के संदर्भ में समाज को देखना । इस प्रकार नये कहानीकारों की दृष्टि पूर्णतः व्यक्तिवादी है । उनकी कहानियों का व्यक्ति (पात्र) खोया-खोया सा, अपने आपको अपरिचित अनुभव करता हुआ दिखाई देता है । नये कहानीकारों की दृष्टि में व्यक्ति की इस मानसिक स्थिति का मुख्य कारण सामाजिक विघटन है । इसलिए वे अपने चिंतन को व्यक्ति पर केंद्रित करते हुए समाज की ओर बढ़ते हैं ।

3. छिछली भावुकता का ह्रास : डाॅ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " आज का कहानीकार स्त्री-पुरुष के प्रणय-संबंधों को लेकर उनके परस्पर आकर्षण, खिंचाव, संबंध-स्थापन, प्रतीक्षा, मिलन, विरक्ति, कड़वाहट, विच्छेद, पुनः आकर्षण, नये संबंध का जुटना, पुराने का टूटना, नये-पुराने के बीच आकर्षण-विकर्षण आदि का चित्रण मनोवैज्ञानिक तटस्थता के साथ कर रहा है । प्रेम से इतर सामाजिक संबंधों को भी आज भावावेग के स्तर पर स्वीकार नहीं किया जा रहा है । " [28] नयी कहानी में भावुकता के छिछलेपन को व्यक्त नहीं किया गया है, बल्कि सामाजिक संबंधों का गंभीरता से वर्णन-चित्रण किया गया है । इस प्रकार के यथार्थ-चित्रण में मनोवैज्ञानिकता का भी समावेश है ।

4. मध्यवर्गीय जीवन चेतना : नयी कहानियों में विशेष रूप से मध्य-वर्गीय जीवन की समस्याओं को ही रेखांकित किया गया है । नये कहानीकारों ने सुविधाभोगी उच्च-वर्ग के प्रति अपना गंभीर आक्रोश व्यक्त किया है । चूँकि समाज का यह वर्ग एक तो होने के कारण संवेदनशील होता है, दूसरे आर्थिक दबाव भी इसी वर्ग को अधिक विघटित करता है; इसलिए नये कहानीकारों ने इसी वर्ग की पीड़ा, दुःख, विवशता, निराशा, हीनता, दीनता और मानसिक द्वंद्व को विशेष रूप से अभिव्यक्त किया है ।

5. आधुनिकता बोध : नयी कहानी में 'नयेपन' के बोध को आधुनिकता-बोध से भी जोड़ा गया है । डॉ० रामचंद्र तिवारी के शब्दों में, " आलोचकों ने मोहन राकेश की कहानी 'मिस पाल' और 'मलबे का मालिक', राजेंद्र यादव की कहानी 'अभिमन्यु की आत्महत्या', निर्मल वर्मा की कहानी 'परिंदे' और 'लंदन की एक रात', उषा प्रियंवदा की कहानी 'वापसी', कमलेश्वर की कहानी 'जोखिम', ज्ञानरंजन की कहानी 'फेस के इधर और उधर', धर्मवीर भारती की कहानी 'बंद गली का आखिरी मकान', कृष्ण बलदेव वैद की कहानी 'बीच के दरवाजे', रघुवीर सहाय की कहानी 'मेरे और नंगी औरत के बीच', कृष्णा सोबती की कहानी 'यारों के यार', रामकुमार की कहानी 'सेलर' और श्रीकांत वर्मा की कहानी 'झाड़ी' में आधुनिकता बोध के किसी न किसी रूप को लक्षित किया है । " [29] आधुनिकता-बोध को संकुचित अर्थ में ग्रहण करने की बजाय व्यापक अर्थ में ग्रहण करने की आवश्यकता है । आधुनिकता का तात्पर्य पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करके भारतीयता की उपेक्षा करना बिल्कुल भी नहीं है ।

6. सांकेतिकता : 'एक और जिंदगी' (1961) शीर्षक कहानी-संग्रह की भूमिका में मोहन राकेश ने लिखा है, " जहाँ तक कहानी की आंतरिक उपलब्धियों का संबंध है, उनमें सांकेतिकता को कहानी की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है । पुरानी कहानी से नयी कहानी इस अर्थ में अलग होती है कि उसमें सांकेतिकता का विस्तार पहले से भिन्न स्तरों पर होता है । "  [30] नये कहानीकारों ने सांकेतिकता को कहानी की एक प्रमुख विशेषता के रूप में स्वीकार किया । 

7. शिल्प प्रयोग : डाॅ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " हिंदी कहानी का शिल्प उसकी आंतरिक या तात्विक मर्यादा के विकास के साथ बराबर विकसित होता आया है । प्रेमचंद पूर्व-युग की कहानी, प्रेमचंद युगीन कहानी और आज की कहानी तीनों को एक साथ देखा जाए, तो विकास-क्रम को स्पष्ट लक्षित किया जा सकता है । प्रेमचंद-युग का कथाकार सब कुछ स्वयं कह देना चाहता था । आज कहानी स्वयं बोलने लगी है । बीच-बीच में कथाकार की व्याख्या या टीका-टिप्पणी आज नहीं मिलेगी । समर्थ कलाकार 'आनुभूतिक इकाई' को व्यक्त करते हैं; वह इकाई जिस रूप में ढल जाती है, वही उसका शिल्प बन जाता है । " [31] नयी कहानी के लेखकों में यह सामर्थ्य स्पष्ट दिखाई देता है कि उन्होंने अपनी अनुभूति को व्यक्त करने में सफलता प्राप्त की है, जिससे कि कहानी के बीच में उन्हें अपनी ओर से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी । उनकी कहानी स्वयं सब कुछ कह देती है ।


विविध कहानी आंदोलन 

अ-कहानी :- सन् 1960-62 के आसपास 'नयी कहानी' के स्थान पर 'अ-कहानी' को प्रतिष्ठित किया गया । " साठोत्तरी कहानी को डॉ० गंगा प्रसाद विमल ने पहले तो 'समकालीन कहानी' के नाम से पुकारा, किंतु शीघ्र ही उन्होंने समकालीन कहानी के स्थान पर 'अ-कहानी' की व्याख्या प्रारंभ कर दी और सन् 1960 के बाद हिंदी कहानी के क्षितिज पर 'अ-कहानी' एक आंदोलन के रूप में उग आयी, जिसके पक्षधरों में डॉ० गंगा प्रसाद विमल, जगदीश चतुर्वेदी, रविंद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, प्रयाग शुक्ल, सुधा अरोड़ा, ज्ञानरंजन, रमेश बक्षी, श्रीकांत वर्मा, विजय मोहन सिंह, विश्वेश्वर आदि थे । " [32] गंगा प्रसाद विमल (1939-2019) 'अ-कहानी' आंदोलन के नेता माने जाते हैं । उन्होंने अपने नये लेखन के बारे में स्पष्टीकरण किया है, " कुल मिलाकर प्राचीन और आधुनिकता के द्वंद्व से बचने का एक ही तरीका सूझा कि मैं एकदम नये लेखन की ओर मुड़ गया । " [33] मधुरेश ने लिखा है, " गंगा प्रसाद विमल की कहानियों में अंकित स्थितियाँ अधिकांश में बनावटी हैं और इसीलिए इन स्थितियों के चौखटे में फिट किये गये पात्र भी जीते-जागते, हँसते-बोलते इंसान न होकर एकदम ठंडे और किताबी पात्र हैं, जो बड़े दार्शनिक अंदाज में प्रतीक्षा, त्रास, आतंक, अनिश्चय और निर्णयहीनता के तनाव की जिंदगी जीते हैं । दरअसल, ये कहानियाँ जैनेंद्र और अज्ञेय की कृत्रिम, अमूर्त छद्म दार्शनिकता के तहत लिखी गयी कहानियों का ही विस्तार हैं - जिनमें अस्तित्ववाद और पश्चिम के कुछ अन्य कला-आंदोलनों की छौंक लगायी गयी है । 'कोई शुरुआत', 'नाटक अधूरा', 'शीर्षकहीन', 'झूठ', 'विध्वंस', 'अभिशाप' और बीच की दरार आदि ऐसी ही झूठी और बनावटी स्थितियों की नकली कहानियाँ हैं, जो औसत आदमी के सुख-दुख, अनुभव और सोच को नकारकर या तो स्थितियों और जीवन का अमूर्तन करती है या फिर दर्शन का छद्म ओढ़कर अकारण दुर्बोधता का शिकार हैं । इन कहानियों से शिकायत यह नहीं है कि ये अस्तित्ववाद के प्रभाव में लिखी गयी हैं, इनसे शिकायत यह है कि अपने परिवेश और उसकी स्थितियों के प्रति उदासीन रहकर ये अस्तित्ववाद का सतही और प्रामाणिक भाष्य बनने से आगे नहीं जातीं । " [34] गंगा प्रसाद विमल के अनेक कहानी-संग्रह - 'विध्वंस' (1965), शहर में (1966), 'बीच की दरार' (1968), 'अतीत के कुछ' (1972), 'कोई शुरुआत' (1973), 'खोई हुई थाती' (1995) आदि प्रकाशित हुये हैं ।

सचेतन कहानी :- नयी कहानी के विरोध में दूसरा आंदोलन 'सचेतन कहानी' के रूप में सामने आया । इसके प्रवर्तक डॉ० महीप सिंह (1930-2015) थे । सन् 1964 ई० में 'आधार' पत्रिका की 'सचेतन कहानी विशेषांक' के प्रकाशन से इसका आरंभ माना जाता है । सचेतन कहानी के आधार को स्पष्ट करते हुए डाॅ० महीप सिंह ने कहा, " नई कहानी के अंदर जो अंतर्विरोध थे, उन्हें स्पष्ट करने के लिए और जीवन के प्रति जो सचेतन दृष्टि हम चाहते थे, जिसमें हम यह अनुभव करते थे कि जीवन को मात्र प्रदत्त वस्तु के स्तर पर नहीं जीना चाहिए, बल्कि सक्रियता से भोगना और जीना - आज के मनुष्य की नियति है, उसे अपनी रचनाओं के माध्यम से हम रेखांकित करना चाहते थे । हमारे इस आग्रह को सचेतन कहानी का आधार माना गया और लोगों ने इसे उसी रूप में अपनाया । " [35] इनके कई कहानी-संग्रह - 'सुबह के फूल' (1959), 'उजाले के उल्लू' (1964), 'घिराव' (1968), 'कुछ और कितना' (1973), 'कितने संबंध' (1979), 'दिल्ली कहाँ है' (1985), 'दूध की उंगलियों के निशान' (1992), 'सहमे हुए' (1998), 'ऐसा ही है' (2002) आदि प्रकाशित हैं ।

सक्रिय कहानी :- 'सक्रिय कहानी' आंदोलन के पुरस्कर्ता राकेश वत्स (1941-2007) हैं । इस संदर्भ में डॉ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " सन् 1979 ई० में राकेश वत्स ने 'मंच' पत्रिका के माध्यम से 'सक्रिय कहानी' आंदोलन का सूत्रपात किया । सक्रिय कहानी की मूल प्रतिज्ञा को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा - सक्रिय कहानी का सीधा और स्पष्ट मतलब है कि चेतनात्मक ऊर्जा और जीवंतता की कहानी । उस समझ और अहसास की कहानी, जो आदमी को बेबसी, निहत्थेपन और नपुंसकता से निजात दिलाकर स्वयं अपने अंदर की कमजोरियों के खिलाफ खड़ा होने के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी अपने सिर लेती है । रमेश बत्रा, चित्रा मुद्गल, सच्चिदानंद धूमकेतु, सुरेंद्र सुकुमार, धीरेंद्र अस्थाना आदि लेखकों ने इस आंदोलन को सहयोग और समर्थन दिया । सक्रिय कहानी की अवधारणा में 'समांतर कहानी' और 'जनवादी कहानी' की अवधारणाओं को मिला दिया गया है । " [36] राकेश वत्स के कहानी-संग्रह - 'अतिरिक्त तथा अन्य कहानियाँ' (1970), 'अंतिम प्रजापति' (1975), 'अभियुक्त' (1979), 'शुरुआत' (1980), 'एक बुद्ध और' (1986) आदि प्रकाशित हैं ।


समकालीन कहानी युग 

मधुरेश के शब्दों में , " समकालीन होने का अर्थ है समय के वैचारिक और रचनात्मक दबावों को झेलते हुए उनसे उत्पन्न तनावों और टकराहटों के बीच अपनी सृजनशीलता द्वारा अपने होने को प्रमाणित करना । समकालीन लेखक की पहचान यही हो सकती है कि अपने समय के सवालों के प्रति वह किस तरह प्रतिक्रिया करता है और अपने लेखन में उन सवालों के लिए जो जगह निर्धारित करता है, उन सवालों के प्रति वह कितना गंभीर है ? कहीं न कहीं इन सबसे ही उसकी समकालीनता सुनिश्चित होती है । " [37] समकालीन कहानीकारों का परिचय देते हुए डॉ० रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, " संप्रति कहानी साहित्य के क्षेत्र में तीन पीढ़ियों के रचनाकार एक साथ सक्रिय हैं । पहली पीढ़ी में वे रचनाकार हैं, जो नयी कहानी के दौर के पहले से लिख रहे थे और अभी कुछ दिनों पूर्व तक लिख रहे थे । इनमें उपेंद्रनाथ अश्क, विष्णु प्रभाकर, द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण, रामेश्वर शुक्ल अंचल आदि प्रमुख हैं । यशपाल, भगवती चरण वर्मा, अमृतलाल नागर आदि रचनाकार भी इसी पीढ़ी के थे । ... दूसरी पीढ़ी में वे रचनाकार आते हैं, जिन्होंने नयी कहानी आंदोलन को गति और दिशा दी थी । इनमें भीष्म साहनी, मुक्तिबोध, भैरव प्रसाद गुप्त, हरिशंकर परसाई, अमरकांत, राजेंद्र यादव, मोहन राकेश, धर्मवीर भारती, लक्ष्मी नारायण लाल, कमलेश्वर, निर्मल वर्मा, फणीश्वरनाथ रेणु, शिवप्रसाद सिंह, मारकंडेय, रघुवीर सहाय, कृष्ण बलदेव वैद, गंगा प्रसाद विमल, रमेश बक्षी, रविंद्र कालिया, शैलेश मटियानी, रामदरश मिश्र, शेखर जोशी आदि प्रमुख हैं । " [38] आगे उन्होंने लिखा है, " तीसरी पीढ़ी उन रचनाकारों की है, जिन्होंने नयी कहानी और अ-कहानी दोनों की जड़ता के विरुद्ध आंदोलन किया और नये कथ्य और नये शिल्प के साथ जटिल यथार्थ का सीधा साक्षात्कार करते हुए सामने आये । " [39] डॉ० रामचंद्र तिवारी ने तीसरी पीढ़ी के समकालीन कहानीकारों की लंबी सूची दी है, जिनमें से प्रमुख कहानीकारों के नाम हैं - ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, जगदीश चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर, महीप सिंह, विवेकी राय, मुद्राराक्षस, राकेश वत्स, उदय प्रकाश आदि । ध्यातव्य है कि डॉ. तिवारी ने समकालीन कहानीकारों के अंतर्गत वंचित-वर्ग के कहानीकारों का उल्लेख नहीं किया है । यह उनकी अपनी जातीय कुंठा हो सकती है, लेकिन सच तो यह है कि हिंदी के समकालीन कहानीकारों में उक्त कहानीकारों के अतिरिक्त बुद्ध शरण हंस, मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, डाॅ० सुशीला टाॅकभौरे, श्यामलाल राही 'प्रियदर्शी', कुसुम वियोगी, रत्नकुमार सांभरिया, डॉ० जयप्रकाश कर्दम, डॉ० श्योराज सिंह बेचैन, विपिन बिहारी, डॉ० अजय नावरिया आदि कहानीकारों के नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । डॉ. रामचंद्र तिवारी द्वारा उल्लिखित प्रमुख समकालीन कहानीकारों का कहानी संबंधी संक्षिप्त विवेचन यहाँ प्रस्तुत है ।

भीष्म साहनी (1915-2003) की कहानी 'चीफ की दावत' नयी कहानी के समय में बहुत अधिक प्रसिद्ध हुई थी । डॉ० रामचंद्र तिवारी ने उन्हें सच्चे अर्थों में प्रेमचंद की परंपरा का कहानीकार माना है । भीष्म साहनी ने लिखा है, " कहानी लेखन इस दृष्टि से सचेत प्रक्रिया नहीं है कि लेखक सचेत रूप से अपने कालबोध को पाठक तक पहुँचाने के लिए कहानी को माध्यम  के रूप में इस्तेमाल करे । कहानी इस तरह सोच समझकर नहीं लिखी जाती । कहानीकार का संवेदन ही मूलतः उसका दिशा निर्देश करता है, उसका तर्क अथवा उसकी नपी-तुली मान्यताएँ नहीं ।  कहानी का रूप-सौष्ठव भी, मेरी नजर में, कोई अलग चीज नहीं होता, जिसे ओढ़ा या अपनाया जा सके, या जिसमें मात्र प्रयोग के लिए प्रयोग किया जा सके । लेखक के अंदर उठने वाले उद्वेग अपने साथ ही अभिव्यक्ति का रूप भी लेकर आते हैं । इस तरह रूप और कथ्य एकाकार होते हैं । यह नहीं होता कि पहले उद्वेग आए और फिर उस उद्वेग को व्यक्त कर पाने के लिए, लेखक ठंडे दिमाग से कहानी का कोई चौखटा चुने, जिसमें वह अपने कथ्य को फिट बैठा सके । जैसे कविता कहने वाले को पंक्ति सूझती है, और पंक्ति में सब कुछ मौजूद होता है - भाव, व्यंजना, शब्द, लय; इसी भाँति कहानी भी पहले वाक्य से ही अभिव्यक्ति के अपने रूप में ढलने लगती है,  अभिव्यक्ति का रास्ता टटोलती हुई, अपना गठन करते हुए चलती है । पर इसमें लेखक के विवेक, तर्क, उसकी मान्यताओं अथवा कहानी के रूप-सौष्ठव का महत्व कम नहीं हो जाता । उन सबका महत्व है, केवल वे लेखक के संवेदन में खपकर, उसके अभिन्न अंग बनकर ही व्यक्त होते हैं । लेखक का संवेदन संस्कार रूप में अपने परिवेश को ग्रहण करता है, वह उसी में जीता और साँस लेता है । इसलिए किसी कालखंड में लिखी गई रचना पर उस काल और परिवेश का रंग तो रहता ही है । " [40] भीष्म साहनी के नौ कहानी-संग्रह - 'भाग्य रेखा' (1953), 'पहला पाठ' (1957), 'भटकती राख' (1966), 'पटरियाँ' (1973), 'वाड़्चू' (1978), 'शोभायात्रा' (1981), 'निशाचर' (1983), 'पाली' (1989), 'डायन' (1998) हैं । 

अमरकांत (1925 2013) की प्रसिद्धि 'नयी कहानी' की प्रतिष्ठा के साथ ही हुई थी । उनकी तीन कहानियाँ 'जिंदगी और जोंक', 'दोपहर का भोजन' और 'डिप्टी कलक्टरी' विशेष चर्चा में रहीं । अमरकांत के बारे में मधुरेश ने लिखा है, " एक कहानीकार के रूप में सन 1956 में प्रकाशित 'कहानी' के वार्षिकांक में प्रकाशित अपनी पुरस्कृत कहानी 'डिप्टी कलक्टरी' से अमरकांत ने अपनी पहचान बनाई । वैसे, वे उससे दो-तीन वर्ष पहले से कहानियाँ लिख रहे थे और उनकी 'दोपहर का भोजन' भी छठे दशक के पूर्वार्ध में 'कहानी' में ही प्रकाशित हुई थी । एक तरह से वे नयी कहानी आंदोलन के बीच ही विकसित हुये लेखक हैं, लेकिन उसमें ठीक से खप न पाने के कारण ही वे एक लंबे समय तक उपेक्षा के शिकार होकर हाशिए के लेखक बने रहे - एक ऐसे लेखक, जिन्हें तब नामवर सिंह ने भी अपने स्तंभ 'हाशिए पर' में शामिल करना जरूरी नहीं समझा । लेकिन एक तरह से अमरकांत का इस तरह समय से पीछे छूट जाना ही उनका समय से आगे बढ़ जाना था । " [41] नामवर सिंह के शब्दों में, " कहानी का कथ्य पूरी ताकत के साथ मन पर सीधा असर डालता है । क्या नये कहानीकार भाषा को ऐसी शक्ति प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील हैं ? प्रसन्नता की बात है कि अमरकांत ने इस दिशा में एक आदर्श प्रस्तुत किया है । अमरकांत की भाषा प्रेमचंद की परंपरा का अद्यतन विकास है : वही सादगी और वही सफाई है । पढ़ने पर गद्य की शक्ति में विश्वास जमता है । परंतु इस भाषा को और भी संवेदनशील बनना है । " [42] अमरकांत के सात कहानी-संग्रह - 'जिंदगी और जोंक' (1958), 'देश के लोग' (1969), 'मौत का नगर' (1973), 'मित्र मिलन तथा अन्य कहानियाँ' (1979), 'कुहासा' (1983), 'एक धनी व्यक्ति का बयान' (1997) तथा 'सुख और दुख का साथ' (2002) आदि प्रकाशित हैं ।

धर्मवीर भारती (1926-1997) नयी कहानी के समय के कहानीकार हैं । धर्मवीर भारती के कहानी संग्रह 'मुर्दों का गाँव' में संग्रहीत कहानियाँ भूख और गरीबी से जूझते और दम तोड़ते मनुष्य के जीवन-यथार्थ की अभिव्यक्ति हैं । 'मुर्दों का गाँव' कहानी के माध्यम से भारती जी ने आदर्श प्रेम को रेखांकित किया है । सन् 1969 ई० में प्रकाशित कहानी 'बंद गली का आखिरी मकान' पर जो अनेक पत्र धर्मवीर भारती को मिले, उनमें से एक पत्र में लिखा था, " यह भी बहुत दिलचस्प ढंग है । वर्षों तक साहित्य में कहानी, नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी, अकहानी आदि-आदि को लेकर बहस चलती रहे । लिखने वाला चुप रहे । वर्षों तक चुप रहे और फिर चुपके से कहानी लिखकर प्रकाशित करा दे, और वही उसका घोषणा पत्र हो; गोया उसने सारे वाद-विवाद के बीच एक रचनात्मक कीर्तिमान स्थापित कर दिया हो कि देखो यह है कहानी । " [43] वास्तव में, यह कहानी इतनी लंबी (55 पृष्ठ की) है कि इसे कहानी की बजाय 'लघु उपन्यास' कहना उचित होगा । यह कहानी एक भावप्रधान कहानी है । धर्मवीर भारती की कहानियों के चार संग्रह - 'मुर्दों का गाँव' (1946), स्वर्ग और पृथ्वी (1949), चाँद और टूटे हुए लोग (1955), बंद गली का आखिरी मकान (1969) प्रकाशित हैं । 

शिवप्रसाद सिंह (1929-1998) ने सर्वप्रथम अक्टूबर 1951 की 'प्रतीक' में प्रकाशित 'दादी माँ' कहानी के साथ हिंदी कथा-क्षेत्र में प्रवेश किया । वे मूलतः ग्राम-चेतना के कहानीकार हैं । उन्होंने लिखा है, " संक्रमण काल के साहित्य में जहाँ पुराना ध्वस्त हो और नया अजन्मा, परिपाटी पंगु हो और प्रयोग अपरिचित, वहाँ साहित्यकारों को विवश होकर आत्मविज्ञापक का बाना धारण करना ही पड़ता है । पर एक ओर जब यह विज्ञापन फैशन बनने लगे और दूसरी ओर स्वयंभू आलोचकगण परेशान नजर आएँ,  तब एक विकल्प की स्थिति पैदा हो जाती है । कुछ आलोचक हैरान हैं कि कहानीकारों को भी 'नयी कविता' की हवा लग रही है । वे भी प्रयोगों की बात करने लगे हैं । पता नहीं, इस बाड़ेबंदी का क्या मतलब है ? केवल गूंगी जाति का मुखर होना ही अखर रहा है या कहीं यह खतरा तो नहीं है कि इससे वे पोली दीवालें ढह जाएँगी,  जो साहित्य को नाना खित्तों में बाँटकर मिथ्या गुरुडम को शरण देती हैं । ग्रामकथा और नगरकथा का विवाद भी इसी स्वार्थनीति का सूचक है । यह नया 'बाड़ेबंदीवाद' साहित्य के समग्र रूप के आँकलन में बाधक हो रहा है । परिवर्तन सब जगह एक से हुये हैं, नये भावों के लिए उपयुक्त अभिव्यक्ति-माध्यम की समस्या सर्वत्र एक जैसी ही है । साहित्य की जाँच खित्तेवार कल्पित मानदंडों से नहीं, बल्कि रचना के प्रति लेखक की ईमानदारी, उसके सौंदर्यबोध और मानवीय संवेदना को अभिव्यक्त करने की उसकी क्षमता के आधार पर होनी चाहिए । " [44] डॉ० सत्यदेव त्रिपाठी ने लिखा है, " शिवप्रसाद सिंह के कथा-सृजन का मूल क्षेत्र ग्रामीण जीवन है । असल में प्रेमचंद के बाद हिंदी साहित्य में ग्राम-जीवन प्रायः लुप्त हो गया था । आजादी के साथ उभरी जिस नयी पीढ़ी ने इस 'गैप' (रिक्तता) को भरने की सार्थक कोशिश की, डॉ० शिव प्रसाद सिंह का नाम उसमें अग्रगण्य है । साहित्य में विस्तृत जीवन-वास्तव के कारण तत्कालीन संदर्भों में, प्रेमचंद गाँव के जिस उपेक्षित अंश को अपना संवेदनात्मक संस्पर्श नहीं दे सके थे और तमाम नारों-आंदोलनों के प्रवाह में यह पीढ़ी भी जिन तक नहीं पहुँच पा रही थी, उस दलित मानव-समाज - नटों, मुसहरों, कुजड़ों, डोमों, चमारों आदि के दुःख-दर्द को शिवप्रसाद सिंह की लेखनी ने पूरी सजगता और संजीदगी के साथ व्यक्त किया । दूसरे, प्रेमचंद के जमाने में शोषण की प्रक्रिया बड़ी साफ और सीधी थी, लेकिन आजाद भारत में जमींदारी व्यवस्था खत्म हो जाने के बाद उसमें बड़ी पेंचें आ गयीं, सामाजिक व्यवस्था और स्तर बदल जाने से उसकी प्रक्रिया भी काफी जटिल हो गयी । इस संपूर्ण स्थिति को पकड़ पाने के लिए एक नयी दृष्टि तो चाहिए ही, उसे व्यक्त करने के लिए नये सिरे से प्रस्तुतीकरण की जमीन भी खोदनी थी । शिव प्रसाद सिंह ने इन तमाम ऐतिहासिक जरूरतों को समझते हुए बड़ी सूझ-बूझ के साथ इन्हें तदनुरूप अंजाम दिया । इसमें वे आशातीत रूप से सफल भी रहे, क्योंकि विवेच्य (ग्रामीण) जीवन को इन्होंने मात्र देखा-सुना ही नहीं, संपूर्णता में जीया और भोगा भी है । स्वानुभूति की इसी सच्चाई के यथार्थ से इनका संपूर्ण कथा-साहित्य संवलित और ऊर्जस्वित है । " [45] शिवप्रसाद सिंह के छः कहानी संग्रह - 'आर पार की माला' (1955), 'कर्मनाशा की हार' (1958), 'इन्हें भी इंतजार है' (1961), 'मुर्दा सराय' (1966), 'अंधेरा हँसता है' (1975), भेड़िये (1977) आदि प्रकाशित हैं ।

निर्मल वर्मा (1929-2005) इकलौते कहानीकार हैं, जिनके पहले कहानी-संग्रह 'परिंदे' (1960) को डॉ० नामवर सिंह ने 'नयी कहानी' की पहली रचना माना है । 
डाॅ. नामवर सिंह ने लिखा है, " फ़कत सात कहानियों का संग्रह 'परिंदे' निर्मल वर्मा की ही पहली कृति नहीं है, बल्कि जिसे हम 'नयी कहानी' कहना चाहते हैं, उसकी भी पहली कृति है । पढ़ने पर सहसा विश्वास नहीं होता कि ये कहानियाँ उसी भाषा की हैं, जिसमें अभी तक शहर, गाँव, कस्बा और तिकोने प्रेम को ही लेकर कहानीकार जूझ रहे हैं । 'परिंदे' से शिकायत दूर हो जाती है कि हिंदी कथा-साहित्य अभी पुराने सामाजिक संघर्ष के स्थूल धरातल पर ही 'मार्कटाइम' कर रहा है । समकालीनों में निर्मल पहले कहानीकार हैं, जिन्होंने इस दायरे को तोड़ा है - बल्कि छोड़ा है; और आज के मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या को उठाया है । " [46] निर्मल वर्मा और डॉ. नामवर सिंह की दृष्टि में मनुष्य की गहन आंतरिक समस्या क्या है ? इसका उत्तर वर्मा जी की कहानियाँ पढ़कर और डाॅ. सिंह जी की समालोचना पढ़कर मिल जाता है । दरअसल, दोनों की दृष्टि में खाते-पीते घर के सुविधाभोगी लोगों की मानसिक समस्याएँ ही महत्वपूर्ण हैं । दमित, शोषित, पीड़ित और आर्थिक रूप से उन्नति करने के लिए निरंतर संघर्षरत व्यक्तियों की आंतरिक समस्याओं पर न तो निर्मल वर्मा की दृष्टि गयी है और न ही डॉ. सिंह को ऐसे कहानीकारों से कोई लगाव नजर आता है । डाॅ. नामवर सिंह अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ निर्मल वर्मा को सर्वश्रेष्ठ कहानीकार सिद्ध करने हेतु तमाम जोखिम उठाते हुए नजर आते हैं । उन्होंने लिखा है, " चरित्र वहीं याद आते हैं, जहाँ भाव कमजोर होता है और शिल्प प्रबल; दूसरे शब्दों में, जहाँ कहानी के ढाँचे में दरार होती है । और साफ है कि ऐसी दरारों वाली कहानी अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकती । अचंभा तो इस बात का है कि जीवन-विविधता की इस दौड़-धूप में कहानीकारों के हाथ से यह परंपरागत बुनियादी सिद्धांत भी छूटता जा रहा है कि कहानी का लक्ष्य 'प्रभावान्विति' है, चरित्र, कथानक आदि तो उसके साधन हैं । " [47] डाॅ. नामवर सिंह शब्दों का जाल बुनने में माहिर समालोचक रहे हैं । वे कहानी का लक्ष्य प्रभावान्विति मानते हैं । लेकिन किस प्रकार के प्रभाव की अन्विति हो ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । उन्होंने आगे लिखा है, " निर्मल की कहानियों में प्रभाव की गहराई इसीलिए है कि उनके यहाँ चरित्र, वातावरण, कथानक आदि का कलात्मक रचाव है । कलात्मक रचाव स्वयं रूप के विभिन्न तत्वों के अंतर्गत, फिर वस्तु और रूप के बीच तथा स्वयं वस्तु के अंतर्गत । पात्र अलग इसलिए याद नहीं आते कि वे परिस्थितियों के अंग है । निर्मल के मानव-चरित्र प्राकृतिक वातावरण में किसी पौधे, फूल या बादल की तरह अंकित होते हैं गोया वे प्रकृति के ही अंग हैं । 'परिंदे' कहानी की छोटी-छोटी स्कूली लड़कियाँ तथा मीडोज, झरने, झाड़ियों, फूलों, चिड़ियों में कोई अंतर नहीं है । " [48] डॉ. नामवर सिंह की आलोचना दृष्टि का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर वे कहानी को कविता के समान समझने की व्याधि से ग्रस्त दिखाई देते हैं । वास्तव में, निर्मल वर्मा की कहानियों में वैसी कोई विशेषता नहीं है, जिससे बहुसंख्यक दमित मनुष्यों का कल्याण संभव हो सके । 'परिंदे' के अतिरिक्त निर्मल वर्मा के अन्य पाँच कहानी-संग्रह - 'जलती झाड़ी' (1965), 'पिछले गर्मियों में' (1968), 'बीच बहस में' (1973), 'कव्वे और काला पानी' (1983), 'सूखा तथा अन्य कहानियाँ' (1995) आदि प्रकाशित हुये हैं ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आधुनिक हिंदी कहानी का उद्भव होने के उपरांत निरंतर उसका विकास होता रहा है । अनेक आंदोलनों से गुजरकर कहानी का स्वरूप और भी सुगठित हो गया है । कहानी के स्वरूप और संरचना को लेकर भिन्न-भिन्न कहानीकारों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं, किंतु कहानी में कहानीपन की अनिवार्यता को कोई भी कहानीकार अथवा समालोचक इनकार करने की धृष्टता नहीं कर सकता है । यदि कोई इस प्रकार की धृष्टता करता है, तो उसकी कहानी की समझ पर प्रश्नचिन्ह लगाना अपरिहार्य है । नयी कहानी आंदोलन हो या अन्य कहानी आंदोलन, उनके द्वारा प्रस्तावित कहानी का स्वरूप कहानी की मात्र विशेषताएँ हैं । ये विशेषताएँ युग विशेष के संदर्भ में हैं । इनके द्वारा कहानी के सार्वकालिक स्वरूप का निर्धारण संभव नहीं है । नयी कहानी के प्रवर्तकों ने अपनी-अपनी कुंठाओं को अपनी-अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है । अतः उनकी कुंठाग्रस्त अभिव्यक्ति कहानी की प्रवृत्तियाँ नहीं बन सकती हैं । युग परिवर्तन के साथ सामाजिक संरचना में परिवर्तन होता रहा है । किंतु मानवीय मूल्यों की आवश्यकता पर इस परिवर्तन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है । कहानियों में वर्तमान समय का यथार्थ वर्णित होना चाहिए । किंतु यह यथार्थ इस प्रकार वर्णित न हो, कि कहानी 'कहानी' न रहकर, रिपोतार्ज बन जाए । मात्र यथार्थ घटनाओं के संकलन को कहानी नहीं माना जा सकता है । कहानी का उद्देश्य मानव मूल्यों की सुरक्षा एवं मानव का कल्याण होना चाहिए । कहानी में निहित मानव कल्याण की भावना किसी एक क्षेत्र, किसी एक जाति अथवा किसी एक समुदाय के मनुष्यों तक सीमित न होकर जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र आदि के प्रतिबंध से रहित बहुसंख्यक मनुष्यों के लिए होनी चाहिए । अन्यथा कहानी में सुंदर संवाद और सुंदर भाषाशैली का कोई औचित्य नहीं है । हिंदी की सामान्य कहानियों से भिन्न आंबेडकरवादी चेतना की कहानियों की अपनी कुछ अलग विशेषताएँ हैं । आंबेडकरवादी कहानियों के संदर्भ में हिंदी कहानी आंदोलन से संबंधित अवधारणाएँ एवं समालोचनाएँ कोई महत्व नहीं रखती हैं । आंबेडकरवादी कहानी के अपने अलग प्रतिमान हैं, जो सामान्य हिंदी कहानियों से प्रत्येक स्थिति में उत्कृष्ट एवं महत्वपूर्ण हैं ।


संदर्भ :
[1] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ० लाल साहब सिंह, पृष्ठ 177, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पाँचवाँ संस्करण 2011
[2] वही, पृष्ठ 177
[3] हिंदी साहित्य का इतिहास : रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ 275, प्रकाशक - नागरी प्रचारिणी सभा, पाँचवाँ संस्करण 2010
[4] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 382, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[5] हिंदी साहित्य का नवीन इतिहास : डॉ० लाल साहब सिंह, पृष्ठ 180, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, पाँचवाँ संस्करण 2011
[6] हिंदी साहित्य का इतिहास : डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल, पृष्ठ 565, प्रकाशक - मयूर बुक्स नई दिल्ली, संस्करण 2021
[7] वही, पृष्ठ 566
[8] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 385, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[9] कहानी - स्वरूप और संवेदना : राजेंद्र यादव, पृष्ठ 36, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नयी दिल्ली, संस्करण 2020
[10] मेरी प्रिय कहानियाँ : इलाचंद्र जोशी, पृष्ठ 7, प्रकाशक - राजपाल एंड संस दिल्ली, संस्करण 1970
[11] हिंदी साहित्य का इतिहास : डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल, पृष्ठ 729, प्रकाशक - मयूर बुक्स नई दिल्ली, संस्करण 2021
[12] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 384-385, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[13] कहानी - स्वरूप और संवेदना : राजेंद्र यादव, पृष्ठ 37, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2020
[14] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 384, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[15] वही, पृष्ठ 385-386
[16] वही, पृष्ठ 386
[17] वही, पृष्ठ 388
[18] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 77, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[19] कहानी - स्वरूप और संवेदना : राजेंद्र यादव, पृष्ठ 53-54, प्रकाशक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली, संस्करण 2020
[20] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 78-79, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[21] कहानी नयी कहानी : नामवर सिंह, पृष्ठ 35, प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन प्रयागराज, संस्करण 2019
[22] हिंदी साहित्य का इतिहास : डॉ० नगेंद्र एवं डॉ० हरदयाल, पृष्ठ 731-732, प्रकाशक - मयूर बुक्स नई दिल्ली, संस्करण 2021
[23] मेरी प्रिय कहानियाँ : कमलेश्वर, भूमिका, पृष्ठ 5-6, प्रकाशक - राजपाल एंड संस दिल्ली, संस्करण 2018
[24] नयी कहानी की भूमिका : कमलेश्वर, पृष्ठ 18,19, प्रकाशक - अक्षर प्रकाशन दिल्ली, संस्करण 1969
[25] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 84, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[26] वही, पृष्ठ 83
[27] कर्मनाशा की हार : शिवप्रसाद सिंह, भूमिका, पृष्ठ 6, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी, प्रथम संस्करण 1958
[28] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 390-391, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020, 
[29] वही, पृष्ठ 392
[30] एक और जिंदगी : मोहन राकेश, भूमिका, पृष्ठ 8, प्रकाशक - राजपाल एंड संस दिल्ली, प्रथम संस्करण 1961
[31] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 393, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[32] वही, पृष्ठ 394
[33] गंगा प्रसाद विमल की लोकप्रिय कहानियाँ : गंगा प्रसाद विमल, भूमिका, पृष्ठ 8, प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन दिल्ली, प्रथम संस्करण 2017
[34] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 126, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[35] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 394, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[36] वही, पृष्ठ 396
[37] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 176, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[38] हिंदी का गद्य साहित्य : डॉ० रामचंद्र तिवारी, पृष्ठ 397, प्रकाशक - विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, संस्करण 2020
[39] वही, पृष्ठ 397-398
[40] हिंदी कहानी संग्रह : संपादक - भीष्म साहनी, पृष्ठ 9-10, प्रकाशक - साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण 2014
[41] हिंदी कहानी का विकास : मधुरेश, पृष्ठ 156, प्रकाशक - सुमित प्रकाशन, नौवाँ संस्करण 2018
[42] कहानी नयी कहानी : नामवर सिंह, पृष्ठ 37, प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन प्रयागराज, संस्करण 2019
[43] बंद गली का आखिरी मकान तथा अन्य कहानियाँ : धर्मवीर भारती, पृष्ठ 1, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, पाँचवाँ संस्करण 1983
[44] कर्मनाशा की हार : शिवप्रसाद सिंह, भूमिका, पृष्ठ 5-6, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी, प्रथम संस्करण 1958
[45] शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य : डॉ० सत्यदेव त्रिपाठी, भूमिका, पृष्ठ 3, प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1988
[46] कहानी नयी कहानी : नामवर सिंह, पृष्ठ 52, प्रकाशक - लोकभारती प्रकाशन प्रयागराज, संस्करण 2019
[47] वही, पृष्ठ 55
[48] वही, पृष्ठ 56

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